एक मूक की भाषा इशारा होती है, जबकि बोलने वाला भाषा के माध्यम से अपने हृदयस्थ भावों को अभिव्यक्त करता है। भाषा लिपि द्वारा सुरक्षित रखी जा सकती है। जहां तक कुमाउनी भाषा और उसकी लिपि का सवाल है, वह देवनागरी लिपि के माध्यम से ही फल-फूल रही है और उसी में उसका उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगोचर होता है। आज वैश्र्वीकरण के दौर में जबकि संसार की अनेक लिपिबद्ध एवं व्याकरण सम्मत प्राचीन भाषाएं भी हाशिये पर सिमटती चली जा रही हैं, वहीं सर्वग्राह्यता-सर्व स्वीकार्यता बनाने के नूतन प्रयोगों तथा नये सिरे से नई लिपि निर्माण के उपक्रम से तो शनै: शनै उत्तरोत्तर अपना साहित्यिक स्वरूप प्राप्त कर रही है। कुमाउनी लोकभाषा के उन्नयन का पथ बाधित हो सकता है। लोकभाषा कुमाउनी हिन्दी की उप भाषा है। इसका साहित्य लोकगीत, लोककथा-गाथा, रमैल, मालूशाही, झोड़ा, चाचरी, पौ- पर्व आदि के रूप में मौखिक परम्परा का साहित्य रहा है। कुमाऊं में चन्द राजाओं के शासनकाल में यह राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित रही। बाद में आदि कवि लोकरत्न पन्त गुमानी (1790-1846) ने इस भाषा को कविता के माध्यम से लोक साहित्य बना दिया। अल्मोड़ा से प्रकाशित अचल (1938-39) में गद्य लिखकर चन्द्रलाल चौधरी और जीवन चन्द्र जोशी आदि साहित्य स्रष्टाओं ने कुमाउनी का कायाकल्प कर डाला। उस समय का गद्य आज भी समसामयिक और विविधतापूर्ण है। प्यास, ऑखर, ब्याणतार, दुदबोलि आदि पत्रिकाओं ने कुमाउनी को नये सोपानों की ओर उन्मुख किया तो हिलॉस, पुरवासी, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, उत्तरायण, जन जागर, उत्तराखंड उद्घोष, बुरुंश, दैनिक जागरण आदि पत्र पत्रिकाओं ने स्तम्भ प्रदान कर कुमाउनी की श्रीवृद्धि में बहुमूल्य योदान प्रदान किया। बुरुंश और पछ्याण से लेकर अनेकों काव्य संकलनों के प्रकाशन से कुमाउनी लोकप्रियता के शिखर पर है। फलत: कुमाऊं विश्र्वविद्यालय ने कुमाउनी को अपने पाठ्यक्रम का अंग बना लिया है। श्री हयात सिंह रावत, डा. शेर सिंह बिष्ट, बहादुर बोरा, डा. प्रभा पंत ने कहानियां व कुमाउनी गद्य में कृतियां प्रस्तुत की हैं, तो श्याम सिंह कुटौला ने कुमाउनी उपन्यास लिख डाला है। इधर स्वयं मैंने तीन कविता संग्रहों का प्रकाशन किया है और गद्यांजलि (कुमाउनी गद्य संग्रह) का सम्पादन निजी व्यय पर किया। इन संकलनों में कुमाउनी भाषा के लगभग सभी समकालीन स्थापित साहित्यकारों की रचनाएं संग्रहीत हैं। उक्त कृतियों का उद्देश्य कुमाउनी की मानक भाषा खसपरजिया के माध्यम से कुमाउनी भाषा को साहित्यिक धरातल देने का प्रयास तथा व्यक्तिगत गद्य लेखन को प्रोत्साहित करना है। मेरा मानना है कि अंग्रेजी पढ़ने वाले बीयूटी बट और पीयूटी पुट स्वाभाविक रूप से कह सकते हैं तो क्यों नहीं एक कुमाउनी का जिज्ञासु बाकर क् पाठ् और सत्य नारायणक् पाठ् का शुद्ध उच्चारण कर सकता है। उसी प्रकार ब्याल-ब्यल कान-कन, आम-आम् में अंतर बोलने में कर सकता है। शब्द शक्ति में हिन्दी को भी समृद्ध कर सकने की शक्ति रखने वाली कुमाउनी भाषा में अनेकों ऐसे दीर्घ वर्णो को एक हलन्त चिह्न के प्रयोग मात्र से लघु उच्चारित किया जा सकता है। कुमाउनी के सर्वग्राह्य स्वरूप निर्धारण के लिए दैनिक जागरण का यह साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रयास स्तुत्य एवं सराहनीय है। विचारों के द्वंद्व से नवनीत की प्राप्ति होगी। यह चर्चा इस ओर भी मोड़ी जानी अपेक्षित है कि खसपरजिया मानक रूप में गद्य रचनाएं अधिक रची जाएं। जड़-जमीन, गांव से खिसकती कुमाउनी को बोलचाल में प्रयोग द्वारा जीवन्तता प्रदान की जाए। जितना अधिक कुमाउनी में गद्य लिखा जायेगा और व्यवहार में प्रयोग की जायेगी, हमारी कुमाउनी भाषा अपने सर्वग्राह्य मानक स्वरूप को स्वत: नैसर्गिक रूप में प्राप्त कर लेगी और व्याकरण सम्मत बन जायेगी। दामोदर जोशी देवाशुं