Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 346973 times)

maheshchandra.nautiyal

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kavityan pedker aacha laga ...sabhi kaviyon ko mere or se hardik bdhai

maheshchandra.nautiyal

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jagmohan ji aapki KAVITAYON KU MERU PARNAM....KAFHI AACHI LIKHIN CHEN..

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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                  मेरा पहाड़

हर कोई पढने सकने वाला पहाड़, पढ सकता है।
हर कोई लिख सकने वाला पहाड़, लिख सकता है।

मगर समझने के लिए इन दोनो की जरूरत नही।
इसे समझने के लिए, आपका गुण ज्ञान ही काफी है।

यहा बीमारी दुर करने के लिए, दवा की जरूरत नही।
उसके लिए पहाड़ की स्वच्छ, हवा, पानी ही काफी है।

पहाड़ पर सोने के लिए, विस्तर की जरुरत नही।
वो साफ पत्थर खिलती हरी, भरी घास ही काफी है।

हिमालय दशॅन को, पवॅत पर जाने की जरूरत नही।
पहाड़ की चोटी से ही देखो लो, हिमालय मन मोहता है।

बफॅ देखने के लिए, कही और जाने की जरूरत नही।
मेरे पहाड़ पर बफॅ, सफेद चाँदर की तरहै स्वयं बिछती है।

सुन्दर सिंह नेगी 04 09 09

jagmohan singh jayara

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 "गैरसैण..गैरसैण"
   
बैरा नि छौं सुण्यालि,
दीक्षित साबन देखा,
कनु बुरु करयालि,
आँख्यौं मा.. ऊंका भी,
लोण मर्च धोळ्यालि,
गैरसैण कतै ना,
यनु भी देखा..बोल्यालि.

चर्चा होंणि धार खाळ,
मन मा औणा छन ऊमाळ,
उत्तराखंड की राजधानी,
गैरसैण..गैरसैण...
छबीला गढ़वाल अर्,
रंगीला कुमाऊँ मा,
यनु बोन्ना छन लोग,
उत्तराखंड की राजधानी,
गैरसैण..गैरसैण...

Copyright@Jagmohan Singh Jayara"Zigyansu"......4.9.09
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Dinesh Bijalwan

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सुणा दग्ड्यो  मग्तू की शैल-
बाबा जी जैका फौत ह्वैगी था, भाइ-भौज बि जुद्दा ह्वै गी था ,
कब तक वैकी मुन्ड्ली मसाल्दी , छाकला कै बै वै पाल्दी,
करी वैन शुरो सान्स , भला  दिनो की छै वै आस ,
बोल्न बैठे -
मा , जाण दे दिल्ली , फिर जाणेन दिन ,
रूप्या हि रूप्या कमोणैन मिन,
ठाटदार कोठी , सिमेन्ट को गुठ्यार,
खडी ह्वोली , अप्णी मारूति कार
भाग तै  वीन दिनै अप्णा गाली- बोल्न बैठी सुणी बेटा की रन्ग्वाली,
रूप्या न राप्या , न  चैन्द गाडी ,
दुयौ  तै भौत  कन्डाली और बाडी ,
बुड्या च सरील मेरो, जाणे  कब होन्दी जाणी,
को धोल्ळो , मुख द्वी बुन्द  पाणी,
घर रा बेटा , कमैलो चाए , नि कमैलो,
मुर्दी दा मेरी आन्ख्यो का सामणी त रैल्यो

माया मम्ता क्ब देख्दो चुचो  ज्वान जोश,
अधक्च्रा स्वीणा ख्वै देदान होश
 
बोल्न बैठे- कुछ  रवै की, कुछ गिर्जे की-
 बीस  बरस कु छौ नि अब अजाक,
इन्टर पास छौ नि क्वी मजाक,
कब तै रैण ताल को गड्याल बणी,
तु जाण दे दिल्ली मै सणी
तु त सुद्दी सुद्दी करदी फिकर,
दिल्ली मा नि च क्वी डर
मिली जालो  वख क्वी न क्वी काम,
यख रै तै त बस बेवाल्न  घाम
नौना  बि त छ्न वख काका बडौ का,
हौर बि  छ्न कत्गा हि गौ मुल्क का,
ह्च नि देला क्वी मै सारू
ल्ग हि जालो   क्वी न क्वी रोज्गारो

जिद क अग्वाडी ब्वै की मम्ता हारी,
दिल्ली भेज्ण की करे तयारी

नथुली  गिर्वी धरी , किराया काई,
उचाणो सिराइ अर दिन बार गडायी

Dinesh Bijalwan

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मन्ग्तु की शैल जारी

आखिर ऐ हि ग्या वा घडी,
मा छाई बेटा की, अर बेटा दिल्ली की चिन्ता पडी
बोली विन सकारिक-
पैली दा छै जाणु घर से भैर,
परदेसी मुलक , लोग बि गैर,
भैर जैक बेटा खाण पड्देन खरी
परदेसी मुल्क को ढुन्गु भी बैरी,
जमानु च खराब बेटा सुण ले दी बात
सुद्दी सुद्दी नि फिर्णु   कखी रात बे रात

पैली च  शरील अपणो फिर  ऒर  धाणी
बग्त पर कै खै लेणो रोटी पाणी

दारु दरवाला  अफीम गान्जा,
भूली क बि नि पडणु  नशेड्यो का पान्जा

बोल्न बैठे सतेसुर  बडा, मेरी बि सुण ले बुबा,
दिल्ली को छ मै चालीस बर्स को तजुरबा
झगडा हो कैकु  अफु  नि पड्णु  अग्वाडी,
भाज्णु नि भुलीक बि बस अर छोरयो का पिछ्वाडी
आबोहवा गरम च वखा कि पर  सर्द  छ लोखु को ल्वै
बिराणौ कि बात क्या अप्णा बि लुट्ला त्वै

jagmohan singh jayara

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नौटियाल जी आपका स्नेह मिलता रहे और मैं प्यारे पहाड़ पर कवितायेँ लिखता रहूँ.  उत्साहवर्धन के लिए आपका आभारी हूँ.  देवभूमि उत्तराखंड से दूर "दर्द भरी दिल्ली" में मन में कसक पैदा होती है. कल्पना में पहाड़ घूमता हूँ...डूबता हूँ....और फूटती हैं कवितायेँ....क्यौंकि पहाड़ पर बचपन बीता और आज सब कुछ छूटता जा रहा है...हाथ से मछली की तरह.....संस्कृति,परंपरा,रहन सहन......सब कुछ   

jagmohan ji aapki KAVITAYON KU MERU PARNAM....KAFHI AACHI LIKHIN CHEN..

jagmohan singh jayara

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   "गितांग का गीतुन"

गितांग दिदा का, गीतु सुणिक,
लगि मैकु कुत्ग्याळि,
याद आई मैकु, मेरा मुल्क की,
जाण छ मैं सोच्यालि.......

बिराणा मुल्क, सदानी रन्दिन,
सब्बि धाणी की स्याणी,
बांज बुरांश की, डाळी नि छन,
छोया ढ़ुंग्यौं की पाणी......

घौर बिटि चिठ्ठी, अयिं छ ब्वै की,
कैन हौळ लगाण,
ऐजा बेटा तू, घौर बोड़िक,
मेरु खुदयुं छ पराण.......

ब्यो करि त्वैकु, ब्वारि भि ल्हयौं,
भागिगी बौग मारिक
अब सोचणु छौं, क्या पाई मैन,
त्वै नौना पाळिक......

गितांग दिदा का, गीतु मा छन,
बानी बानी की गाणी,
कुत्ग्याळि सी, लगणी छ मन मा,
आज कू सच बताणी....

गितांग दिदा का गीतु सुणिक,
लगि मैकु कुत्ग्याळि,
मन मा ऊमाळ, ऐगि मेरा,
जाण  छ मैन सोच्यालि....


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पंकज सिंह महर

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आज सर्च के दौरान एक नये उत्तराखण्डी ब्लाग नईसोच से परिचित हुआ, एक कविता को यहां उदधृत करने से अपने आप को नहीं रोक पाया-


नैनो’ को लेकर काफी अच्छी बहस चल रही है। आगे भी बढ़नी चाहिए । नैनो को लेकर देश भर में मीडिया द्वारा ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे नैनो के आने से भारत के आम लोगों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा ।आखिर यह क्यों? क्या टाटा ने इस कविता में वर्णित लोगों के लिए कभी कुछ नया बनाने के लिए सोचा ?  - महेश चंद्र पुनेठा

डोली

उस दिन
जब सजायी जा रही थी डोली
दुल्हे की आगवानी के लिए
रंग-विरंगे पताकाओं से
चनरका की यादों की परतें
खुलने लगी
चूख के फाॅकों की मानिंद-
सबसे पुरानी डोली है यह
इलाके भर में
बहुत कुछ बदल गया है तब से
नहीं बदली तो यह डोली ।
न जाने कितने बेटियों की
विदाई में छलक आए
आॅसुओं से भीगी है यह डोली ।
न जाने कितने रोगियों की
अस्पताल ले जाते
कराहों से पड़पड़ायी है यह डोेली ।
न जाने कितनी प्रसवाओं को
सेंटर ले जाते
अधबिच रस्ते में ही फूटी
नवजातों की
किलकारियों से गॅूजी है यह डोली ।
सर्पीली - रपटीली पगडंडियों में
धार चढ़ते
युवा कंधों की खड़न
और चूते पसीने की सुगंध बसी है इसमें
उनके कंधों में पड़े छाले
देखे हैं इसने ।
गाॅव के हर छोटे -बड़े के
सुख-दुःख में साथ रही है यह डोली
हर किसी के
साथ रोयी-हॅसी है यह डोली ।
आज भले जल्दी ही
चिकनी- चिकनी सड़कों में
दौड़ने वाली हो लखटकिया नैनो
हमारे इन उबड़-खाबड़
चढ़ती -उतरती पगडंडियों की
नैनो तो है ,बस यह डोली ।


साभार- http://naisoch.blogspot.com

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Please go through this Poem by Famous Poet Heera Singh Rana
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हम छी पहाडी हयू की डयी तुमल डंगार कौयू
हक़ मे धरी तुतुल तई, तबजै हम खंगार हौयू

सिदा सादा ठारु हम ठगीबै, तुमुल मारू हम
कभाणि नदि तुमुल ध्वक कबले सहु हम
च्यापि दी तुमुल हमरी गयी, तबजै हम अंलार हौयू !

काक छी भरत जाण छा  ? क्या उकै चिनाण छा
भारत वर्ष कैले दे नौ क्या उकै पन्यार छा !
तुमुल उकै हुदी गाई तबजै हम खूखार हौयु

उत्तराखंडक राणी हम सीमाओ मई ठंडी हम
जब ले लड़े लागी पैली गोंई खाणी हम
हम छौ देशक ठाडि मुनई तब जौ उन्द्कार हौयू

माड कए तुमुल अलग राज तुमुल करू नग नाच
मुज़फ़ नगर मे लुठी मा - बैणियो की शाम लाज
भिजे तुमुल मटै डय तबजै हम क्च्यार हौयू !

 

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