Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 527424 times)

jagmohan singh jayara

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"संस्कार"

माँ बाप सी मिल्दा छन,
जू ऊन्कू फर्ज होन्दु,
औलाद तैं देण कू,
औलाद ऊँ  फर अमल करदि,
भला अर  बुरा कू ख्याल रखिक,
जीवन रुपी पथ मा अग्नै बढदि.

अपणी बोली भाषा कू प्रसार,
औलाद तक जरूर कर्युं चैन्दु,
यू भी "संस्कार" कू अंग छ,
फिर संस्कृति भि कायम रलि,
हमारा प्यारा उत्तराखंड की.

ख्याल रख्यन, कखि यनु नि हो,
हमारा बाल बच्चा बोल्दा नि छन,
पर थोड़ा-थोड़ा बींगते जरूर हैं,
अगर यनु छ दिदा, भुलौं,सोचा!
ये बल किसका कड़वा कसूर है?

आज का जमाना मा,
अपणी बोली भाषा सी ज्यादा,
अंग्रेजी सब्यौं कू मन लुभौन्दि,
सोचा! भाषा कू तिरस्कार छ,
जू गढ़वाळि, कुमाऊनी नि औन्दि.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित-"संस्कार" १८.५.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.
(मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड,हिमालय गौरव उत्तराखण्ड पर प्रकाशित)

jagmohan singh jayara

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"भौंकुछ"

ह्वैगि  बल आज,
उल्टी गंगा बगणि छ,
सच्ची बात बुरी,
बुरी बात भलि लगणि छ,
दाना बुढ्या त आज,
यनु बोन्ना छन,
नया जमाना की चाल देखि.

चौक मा गोरू निछन,
धारौं फर निछ पाणी,
तिबारी डिंडाळी टूटणी छन,
आज दम तोड़दु जाणी.

बल्द अर हळ्या हर्चणा,
पुंगड़ी पाटळी बंजेणी,
संस्कृति  कू त्रिस्कार होणु,
नयी  संस्कृति जन्म लेणी.

भै बन्धु मा मेल नी,
आपस मा कटेणी मरेणी,
अपणौ सी नफरत,
बिराणौ दगड़ी खाणी पेणी.

सूर्यास्त होन्दु धार पिछनै,
मनखी दारू मासू मा मस्त,
दानव संस्कृति राज कनि,
मनख्वात मरिक होणी अस्त.
 
देवतौं कू मुल्क हमारू,
कथगा निर्दयी ह्वैगी,
बाग बिल्कणा छन,
सच मा "भौंकुछ" ह्वैगी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित १३.६.२०१०)
दिल्ली प्रवास से..(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल)

jagmohan singh jayara

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"वे दिन बिटि"

लूथी दा बोन्नु छ,
बिराळु बण्युं छौं,
बोझ बोकणु छौं,
कपाळ पकड़ी सोचणु छौं,
लटुला अपणा नोचणु छौं,
तितरा की तरौं,
ज्यू जिबाळ मा फंसिक,
जिन्दु रौं या मरौं?

दिन रात,
घंघतोळ मा पड़्युं छौं,
मनखी ह्वैक  पिचास  बण्युं छौं,
यीं दुनिया का जाळ मा,
देवभूमि गढ़वाल मा,
जै दिन जुड़ी थै जन्मपत्री,
पंडित जी का हाथन,
फोड़ी थै गुड़ की  भेल्ली,
बल ह्वैगी मांगण.

भग्यानी यनि छ,
दिन रात करदी झगड़ा,
धैं बिल्क करदी मेरा दगड़ा,
"वे दिन बिटि",
जबरी बिटि बणि,
ज्वानि मा जीवन साथी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, हिमालय गौरव उत्तराखंड, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित १५.६.२०१०)
दिल्ली प्रवास से..(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल)

jagmohan singh jayara

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"आंसू की झील"

बोल्दा छन,
झील जनि आँखी,
पर आंख्यौं सी निकल्दा छन,
दुःख का आँसू,
जौन त्यागि घर बार अपणु,
तरबर च्वीन ऊँका  आँसू,
साक्यौं पुराणी जैजाद छोड़ी, 
ह्वे  होलु पराण भारी  क्वांसू.

पुराणी टीरी अर,
डूब्यां गौं   का लोखु का,
जाँदी बग्त टूटि होला मन,
हेरि होलु घर बार अपणु,
भ्वीं मा च्वीं   होला,
दण-मण  दुःख का आँसू,
जख आज बणि छ,
बड़ी पाणी की झील,
फैलीं छ कै मील,
जू विस्थापित ह्वेन,
उंकी नजर मा आज,
वछ  ऊँका अर भागीरथी का,
"आंसू की झील".

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड और मेरा पहाड़, हिमालय गौरव उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १६.६.२०१०
दूरभास: ०९८६८७९५१८७ 

खीमसिंह रावत

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मैं जब पहाड़ से शहर आया, पहाड़ का दर्द साथ लाया  |
पथरीले
रास्तों पर घुमना, रिमझिम बरखा में भीगना |
बेडु के पेड़ पर चढ़ जाना, पके पके बेडु को टीपना |
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

फुलदेई
से साल्दे तक, प्युलीबुरासमिहोव बसींग |
पेड़ों पर पऊ का आना, दुधभाती का हंसना खिलाना
हाथ
से हाथ थामना ,   पैरों से पैर मिलाकर चलना |
झोडों धौस्यला  गाना, भाग्नोलों पर रह रहकर थिरकना |
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

आमों
पर बौर का आना, खुशबू से मदहोश होजाना |
हरे
पेड़ों में छुप छुपकर, कूहूँ -कोयल का गाना
माँका बुलाना मनानागेहूं के खेतों में उमी पकाना |
पुतेइयों  का उड़ना इठलानाऔर भौरों का  गुनगुनाना |
जाड़ें का परदा गिर जाना, धीरे धीरे वसंत का जाना |
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

ठन्डे
पानी के लिए जाना, लकड़ी से तौली गागर बजाना |
प्याज
नूँण साथ ले जाना, आधे रास्ते में बैठकर खाना |
हाहा कर गघेरोंको गजानायही है बचपन का खजाना|
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

jagmohan singh jayara

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"टक्क"

सब्यौं  की लगिं रन्दि,
अपणा पाड़ मा,
कुजाणि के के फर,
जनु दादा दादी की,
नाती नतणौ फर,
ब्वे बाब की,
बाल बच्चौं फर,
अंत समय मा लंगि संगि,
अर अपणौ फर.

यनि भि होन्दि छ "टक्क",
उंकी, जू छन परदेश,
जन, लैन्दा फर,
आरू,  तिम्ला, बेडु फर,
पक्याँ  काफळ, हिंसर, किनगोड़,
अर  काखड़ी, मुंगरी फर,
पहाड़ का ठण्डा पाणी,
बण मा बगदा  ठण्डा बथौं फर,
रौंत्याळी डांडी काँठ्यौं फर,
पहाड़ की हरेक,
नखरी-भलि चीज फर,
अपणा प्यारा गौं अर,
भै  बन्धु फर.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़, उत्तराखंड गौरव पर प्रकाशित)
दिनांक: १७.६.२०१०, दिल्ली प्रवास से....
(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल,उत्तराखण्ड
उपाध्याय जी "टक्क" का हिंदी में अर्थ है.....जैसे किसी चीज पर मन का  जाना .....जैसे आजकल पहाड़ में काफल पके हैं और प्रवास में हमारा मन काफल पर लगा  हुआ  है.....पहाड़ जाते और पेड़ पर चढ़कर खूब खाते.......माता पिता का  मन हम पर लगा रहता है.....और हमारा भी. 


Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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बहुत ही भावपूर्ण कविता है यह खिम दा. आपने बहुत ही अछे शब्दों मैं प्रवासी की पीड़ा व्यक्त करी है.

मैं जब पहाड़ से शहर आया, पहाड़ का दर्द साथ लाया  |
पथरीले
रास्तों पर घुमना, रिमझिम बरखा में भीगना |
बेडु के पेड़ पर चढ़ जाना, पके पके बेडु को टीपना |
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

फुलदेई
से साल्दे तक, प्युलीबुरासमिहोव बसींग |
पेड़ों पर पऊ का आना, दुधभाती का हंसना खिलाना
हाथ
से हाथ थामना ,   पैरों से पैर मिलाकर चलना |
झोडों धौस्यला  गाना, भाग्नोलों पर रह रहकर थिरकना |
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

आमों
पर बौर का आना, खुशबू से मदहोश होजाना |
हरे
पेड़ों में छुप छुपकर, कूहूँ -कोयल का गाना
माँका बुलाना मनानागेहूं के खेतों में उमी पकाना |
पुतेइयों  का उड़ना इठलानाऔर भौरों का  गुनगुनाना |
जाड़ें का परदा गिर जाना, धीरे धीरे वसंत का जाना |
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

ठन्डे
पानी के लिए जाना, लकड़ी से तौली गागर बजाना |
प्याज
नूँण साथ ले जाना, आधे रास्ते में बैठकर खाना |
हाहा कर गघेरोंको गजानायही है बचपन का खजाना|
यों ही सब छोड़ आना, तब कितना बुरा लगा था |

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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जगमोहन जी जरा कविता का भाव भी समझा दीजिये. हमारे जैसे प्रवासिओं के ठीक से समझ मैं आ जाए :)

"टक्क"

सब्यौं  की लगिं रन्दि,
अपणा पाड़ मा,
कुजाणि के के फर,
जनु दादा दादी की,
नाती नतणौ फर,
ब्वे बाब की,
बाल बच्चौं फर,
अंत समय मा लंगि संगि,
अर अपणौ फर.

यनि भि होन्दि छ "टक्क",
उंकी, जू छन परदेश,
जन, लैन्दा फर,
आरू,  तिम्ला, बेडु फर,
पक्याँ  काफळ, हिंसर, किनगोड़,
अर  काखड़ी, मुंगरी फर,
पहाड़ का ठण्डा पाणी,
बण मा बगदा  ठण्डा बथौं फर,
रौंत्याळी डांडी काँठ्यौं फर,
पहाड़ की हरेक,
नखरी-भलि चीज फर,
अपणा प्यारा गौं अर,
भै  बन्धु फर.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़, उत्तराखंड गौरव पर प्रकाशित)
दिनांक: १७.६.२०१०, दिल्ली प्रवास से....
(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल,उत्तराखण्ड)


dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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खिम्दा २०, २५ साल पाहिले की याद दिला दी आपने, बिलकुल जैसा लिखा वैसा ही करते थे यार
बहुत सुंदर

jagmohan singh jayara

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"पहाड़ मा"

प्रकृति कू सृंगार,
प्रकृति कू प्यार,
गुस्सा ऐगि  त,
प्रकृति कू प्रहार,
प्यारी डांडी, काँठी,
गैरी-गैरी सुन्दर घाटी.

घणा बणु का बीच बग्दि,
गदन्यौं की दूध जनि धार,
डाळ्यौं मा बैठ्याँ,
पोथ्लौं कू चुंच्याट,
देवदार, कुळैं का बणु मा,
बग्दा बथौं कू सुंस्याट.

फल फूलू की बयार,
बणु मा हैंस्दा बुरांश,
डाळ्यौं मा बास्दि घुघती,
घोल्ड, काखड़ अर हिल्वांस.

चौखम्बा, केदारकाँठा, त्रिशूली,
बन्दरपूंछ, नंदाघूंटी, पंचाचूली, 
चारधाम, देवभूमि, देवतौं कू देश,
जख रन्दन ब्रह्मा, विष्णु, महेश.

हमारा उत्तराखंड  "पहाड़ मा",
मिल्दु छ  प्रकृति कू प्यार,
जन्मभूमि प्यारी हमारी,
करा वींकू मन सी सृंगार .

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिल्ली प्रवास से..(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल)
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: २१.६.२०१०   

 

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