Author Topic: SUMITRA NANDAN PANT POET - सुमित्रानंदन पंत - प्रसिद्ध कवि - कौसानी उत्तराखंड  (Read 158553 times)

पंकज सिंह महर

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कहाँ नश्वर जगत में शांति , सृष्टि ही का तात्पर्य अशांति |
जगत अविरत जीवन संग्राम, स्वप्न है यहाँ विराम |
यही तो है असार संसार, सृजन सिंचन संहार |
- सुमित्रा नन्दन पंत


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सारांश:
इसमें पंत जी की चुनी हुई कवितायें का संकलन है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन !
ग्राम्या में मेरी युगवाणी के बाद की रचनाएँ संग्रहीत हैं। इनमें पाठकों को ग्रामीणों के प्रति केवल बौद्धिक सहानुभूति ही मिल सकती है। ग्राम जीवन में मिलकर, उसके भीतर से, ये अवश्य नहीं लिखी गई हैं। ग्रामों की वर्तमान दशा में वैसा करना केवल प्रति-क्रियात्मक साहित्यको जन्म देना होता। ‘युग’, ‘संस्कृति’ आदि शब्द इन रचनाओं में वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जिसे समझने में पाठकों को कठिनाई नहीं होगी; ग्राम्या की पहिली कविता ‘स्वप्न पट’ से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ‘बापू’ और ‘महात्मा जी के प्रति’, ‘चरखा गीत’ और ‘सूत्रधर’ जैसी कुछ कविताओं में बाहरी दृष्टि से एक विचार-वैषम्य जान पड़ता है, पर यदि हम ‘आज’ और ‘कल’ दोनों को देखेंगे तो वह विरोध नहीं रहेगा।
अंत में मेरा निवेदन है कि ग्राम्या में ग्राम्य दोषों का होना अत्यन्त स्वाभाविक है, सहृदय पाठक उसमें विचलित न हों।

नक्षत्र
कालाकाँकर (अवध)
1 मार्च, 1940 ई.    
              
-सुमित्रानंदन पंत
स्वप्न पट !
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत सार्थक, सुंदर !

देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर आस समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन !

आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन !

डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण;
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण !

जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर !

नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन !

फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल !

ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से !
ग्राम कवि
यहाँ न पल्लव वन में मर्मर,
यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
जीवन का संगीत बन रहा
यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन !

यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
आदर्शों की प्रतिमा जीवित,
यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
सुंदरता को करना संचित !

यहाँ धरा का मुख कुरूप है,
कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन ?-

जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
पशु-जघन्य क्षण करते यापन,
कीड़ों-से रेंगते मनुज शिशु,
जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन !

सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
कँप कँप उठते उसके उर की
व्यथा विमूर्छित वीणा के स्वर !
ग्राम
बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित,
ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित !
युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित,
संस्कृतियों को ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित !

हिस्र विजेताओं, भूपों के आक्रमणों की निर्दय,
जीर्ण हस्तलिपि यह नृशंस गृह संघर्षों की निश्चय !
धर्मों का उत्पात, जातियों वर्गों, का उत्पीड़न,
इसमें चिर संकलित रूढ़ि, विश्वास विचार सनातन !
चर घर के बिखरे पन्नों में नग्न, क्षुधार्त कहानी,
जन मन के दयनीय भाव कर सकती प्रकट न वाणी !
मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मांतक
सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक !

मनुष्यत्व के मूलतत्त्व ग्रामों ही में अंतर्हित,
उपादान भावी संस्कृति के भरे यहाँ हैं अविकृत !
शिक्षा के सत्याभासों से ग्राम नहीं हैं पीड़ित,
जीवन के संस्कार अविद्या-तम में जन के रक्षित !
ग्राम दृष्टि
देख रहा हूँ आज विश्व को ग्रामीण नयन से
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से !

ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
जन हैं जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन !

रूप जगत् है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,
माता पिता बंधु, बांधव, परिजन पुरजन भू गो धन।

रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँचि के बंधन,
नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल-जीवन चक्र सनातन !

जन्म मरण के सुख दुख के ताने बानों का जीवन,
निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन !

देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से !

रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
जन जन में है जीव, जीव-जीवन में सब जन हैं सम !

ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन !

मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
वृथा धर्म, गणतंत्र-उन्हें यदि प्रिय न जाव जन जीवन !
ग्राम चित्र
यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की !
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी !

यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित !
यहाँ खर्व नर (वानर ?) रहते युग युग से अभिशापित,
अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित !

यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित,
यह भारत का ग्राम,-सभ्यता संस्कृति से निर्वासित !

झाड़ फूँस के विवर,-यही क्या जीवन शिल्पी के घर ?
कीड़ों-से रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर ?

अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जन में,
गृह-गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में ?
यह रवि शशि का लोक,-जहाँ हँसते समूह में उडुगण,
जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन !
यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली,
यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली !

ये रहते हैं यहाँ, और नीला नभ, बोई धरती,
सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती !

प्रकृति धाम यह: तृण तृण कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित,
यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवन-मृत !!
ग्राम युवती
उन्मद यौवन से उभर
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर
अति श्याम वरण,
श्लथ, मंद चरण,
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति
सर्प डगर पर !
सरकती पट,
खिसकाती लट, -
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट !
हँसती खलखल
अबला चंचल
ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
भर फेनोज्ज्वल दशनों से अधरों के तट !
वह मग में रुक,
मानो कुछ झुक,
आँचल सँभालती, फेर नयन मुख,
पा प्रिय पद की आहट;
आ ग्राम युवक,
प्रेमी याचक
जब उसे ताकता है इकटक,
उल्लसित,
चकित,
वह लेती मूँद पलक पट !

पनघट पर
मोहित नारी नर !-
जब जल से भर
भारी गागर
खींचती उबहनी वह, बरबस
चोली से उभर उभर कसमस
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;-
जल छलकाती,
रस बरसाती,
बल खाती वह घर को जाती,
सिर पर घट
उर पर धर पट !

कानों में गुड़हल
खोंस, -धवल
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
वह हरसिंगार से कच सँवार,
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
गउओं सँग करती वन विहार,
पिक चातक के सँग दे पुकार,-
वह कुंद, काँस से,
अमलतास से,
 
आम्र मौर, सहजन पलाश से,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार !
तन पर यौवन सुषमाशाली
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
वह मेड़ों पर आती जाती,
उरु मटकाती,
कटि लचकाती
चिर वर्षातप हिम की पाली
धनि श्याम वरण,
अति क्षिप्र चरण,
अधरों से धरे पकी बाली !

रे दो दिन का
उसका यौवन !
सपना छिन का
रहता न स्मरण !
दुःखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन !
ढह जाता असमय यौवन धन !
बह जाता तट का तिनका
जो लहरों से हँस खेला कुछ क्षण !!
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सारांश:



‘‘चिदंबरा मेरी काव्यचेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायिका है, उसमें युगवाणी से लेकर अतिमा तक की रचनाओं का संचयन है-सन् ’37 से 57 तक प्रायः बीस वर्षों की विकास-श्रेणी का विस्तार।
‘‘चिदंबरा की पृथु-आकृति में मेरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायता मिल सकेगी।

 इसमें मैंने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है। मेरी दृष्टि में युगवाणी से लेकर वाणी तक मेरी काव्य-चेतना का एक ही संचरण है, जिसके भीतर भौतिक और आध्यात्मिक चरणों की सार्थकता, द्विपद मानव की प्रकृति के लिए सदैव ही अनिवार्य रुप से रहेगी।
‘‘पाठक देखेंगे कि (इन रचनाओं में)  मैंने भौतिक-आध्यात्मिक, दोनों दर्शनों से जीवनोपयोगी तत्वों को लेकर, जड़-चेतन सम्बन्धी एकांगी दृष्टिकोण का परित्याग कर, व्यापक सक्रिय सामंजस्य के धरातल पर, नवीन लोक जीवन के रूप में, भरे-पूरे मनुष्यत्व अथवा मानवता का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जो इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता है ?
चरण चिह्न
‘चिदंबरा’ को पाठकों के सम्मुख रखने से पहले उस पर एक विहंगम दृष्टि डाल लेने की इच्छा होती है। इस परिदर्शन में, अपने विगत कृतित्व को, आलोचक की दृष्टि से देखने की अनाधिकार चेष्टा नहीं करना चाहता ; युग की मुख्य प्रवृत्तियों से मेरा काव्य किस प्रकार संबद्ध रहा, उस ओर, संक्षेप में, ध्यान भर प्राकृष्ट कर देना पर्याप्त समझता हूँ।
‘पल्लविनी’ मेरी प्रथम उत्थान की रचनाओं की चयनिका थी, जिसमें ‘वीणा’, ग्रंथि’, ‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘ज्योत्स्ना’ तथा ‘युगांत’ की विशिष्ट कविताएँ संकलित हैं। इस संचरण के कृतित्व ने छायावाद के बहिरंग को सँवारने तथा उसे कोमल कांत कलेवर की शोभा प्रदान करने के प्रयत्न में हाथ बँटाया है।

छायावाद की सार्थकता, मेरी दृष्टि में, उस युग के विशिष्ट भावनात्मक दृष्टिकोण तक ही सीमित है, जो भारतीय जागरण की चेतना का सर्वात्मवादमूलक कैशोर समारंभ भर था ; उस युग की कविता में और भी अनेक प्रकार के अभिव्यंजना के तत्व, तथा रूप-शिल्प की विशेषताओं के व्यापक उपकरण हैं, जो खड़ी बोली के गद्य-पद्य के लिए स्थायी देन के रूप में रहेंगे। मेरी रचनाओं में वह भावनात्मक दृष्टिकोण, अधिकतर, ‘वीणा’ में तथा ‘पल्लव’ की कुछ रचनाओं में मिलता है ; मेरा तब का काव्य मुख्यतः प्रकृति काव्य है। ‘ग्रंथि’, ‘गुंजन’ और ‘ज्योत्स्ना’ में छायावादी दृष्टिकोण प्रायः उनके रूपविधान तक ही सीमित है ; ‘युगांत’ में विधान-शिल्प में भी मौलिक रूपांतर के चिह्न प्रकट होते हैं। कुछ आलोचकों का कहना है कि ‘युगवाणी-ग्राम्या’ के बाद, ‘स्वर्ण-किरण’, ‘उत्तरा’ की रचनाओं में, मैं फिर छायावादी शैली में लौट आया हूँ, जिससे मैं सहमत नहीं। छायावादी शैली में भाव और रूप अन्योन्याश्रित होकर शब्द की चित्रात्मकता में प्रस्फुटित होते हैं। मेरे उत्तर काव्य में स्वतः चेतना या प्रेरणा अपनी अतिशयता में रूपविधान को अतिक्रम करती रही है, जो मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। ‘स्वर्ण-किरण’, ‘उत्तरा’ तथा ‘अतिमा’ के शब्द योजना में प्रस्फुटन से अधिक परिणति है।

‘चिदंबरा’ मेरी काव्य-चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायिका है, उसमें ‘युगवाणी’ से लेकर ‘अतिमा’ तक की रचनाओं का संचयन है, जिसमें ‘युगवाणी, ‘ग्राम्या’ तथा ‘स्वर्ण-किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘युग पथ’ के अन्तर्गत ‘युगांतर’, ‘उत्तरा’, ‘रजत शिखर’, ‘शिल्पी’, ‘सौवर्ण अथच ‘अतिमा’ की चुनी हुई कृतियों के साथ ‘वाणी’ की अंतिम रचना ‘आत्मिका’ भी सम्मिलित है। ‘पल्लविनी’ में, सन् 18 से लेकर’ 36 तक, मेरे उन्नीस वर्षों को कृतित्व के पदचिह्न हैं, और ‘चिदंबरा’ में, सन्’ 37 से’ 57 तक, प्रायः बीस वर्षों की विकास श्रेणी का विस्तार। मेरी द्वितीय उत्थान की रचनाएँ, जिनमें युग की, भौतिक आध्यात्मिक दोनों चरणों की, प्रगति की चापें ध्वनित हैं, समय-समय पर विशेष रूप से, कटु आलोचनाओं एवं आक्षेपों की लक्ष्य रही हैं। ये आलोचनाएँ, प्रकारांतर से, उस युग के साहित्यिक मूल्यों तथा रूप-शिल्प संबंधी संघर्षों तथा द्वन्द्वों की निदर्शन हैं, और स्वयं अपने आपमें एक मनोरंजक अध्ययन भी। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चयपूर्वक देख सकेंगी कि उस युग का साहित्य, विशेषकर, आलोचना क्षेत्र, किस प्रकार संकीर्ण, एकांगी, पक्षधर तथा वादग्रस्त रहा है और उसमें तब की राजनीतिक दलबंदियों के प्रतिफल स्वरूप किस प्रकार मान्यताओं तथा कला-रुचि संबंधी साहित्यिक गुटबंदियाँ रही हैं। भविष्य, निश्चय ही, इस युग के कृतित्व पर अधिक निष्पक्ष निर्णय दे सकेगा, काल ही वह राज-मराल है जो नीर-क्षीर विवेक की क्षमता रखता है।

मुझे स्मरण है, ‘पल्लव’ की प्रमुख रचना ‘‘परिवर्तन’’ लिखने के बाद मेरा काव्य-बोध का क्षितिज बदलने लगा था, जिसका आभास ‘‘छायाकाल’’ शीर्षक ‘पल्लव’ की अंतिम रचना में मिलता है, जिसमें मैंने अपने किशोर मन से प्रकट रूप से बिदा ली है।

स्वस्ति, जीवन के छाया काल,
मूक मानस के मुखर मराल,
स्वस्ति,  मेरे  कवि  बाल !
.....    .....   .....  ......
दिव्य  हो  भोला  बालापन
नव्य जीवन, पर, परिवर्तन !
स्वस्ति,  मेरे  अनंग  नूतन,
पुरातन   मदन   दहन !

इसके अतिरिक्त कि ‘‘बालापन’’, ‘‘ परिवर्तन’’ तथा ‘‘अनंग’’ ‘पल्लव’ की रचनाओं के शीर्षक हैं, इस प्रगीत में अन्य बातों की ओर भी संकेत है। मैंने अपने मानस को मूक कहा है : ; मेरे विचार से मन तब जाग्रत नहीं था, केवल भावों का मराल मुखर था। मैंने अनंग नूतन के रूप में अनागत अरूप नूतन का स्वागत किया है साथ ही पुरातन-रूढ़ि-रीतियों में बद्ध जीवन का मदन-दहन करने की इच्छा प्रकट की है, जो युगांत में मुखरित हो सकी है। यह सम्पूर्ण कविता मेरी उस काल की मनोवृत्ति की सच्ची दर्पण है ; उसे मैंने ‘पल्लव’ के अंत में विशेष रूप से स्थान दिया है।

‘‘परिवर्तन’’ में अंकित मानव-जीवन के दुःख-दैन्य के कारण-बीज अधिकतर हमारी पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा मध्ययुगीन सामाजिक व्यवस्था में हैं, इसका बोध मुझे तब होने लगा था। ‘पल्लव’ सन्’ 26 में प्रकाशित हुआ है, तब से सन्’ 32 तक—जब ‘गुंजन’ प्रकाशित हुआ—मेरे मानस मंथन का युग रहा है, जिसमें मुझे एक सूक्ष्म दृष्टि भी प्राप्त हुई है, जिसके प्रारम्भिक स्फुरण ‘जग के उर्वर आँगन मे’’ तथा ‘‘लाई हूँ फूलों का हास’’ आदि सन्’ 30 की रचनाओं में, और व्यापक स्वरूप के दर्शन ‘ज्योत्स्ना’ के नवीन युग प्रभात में मिलते हैं, जो सन्’ 34 में प्रकाशित हुई है। ‘गुंजन’ मेरी नवीन साधना के प्रगीत हैं। अवश्य ही ‘पल्लव’ कालीन किशोर मानस तब अपना सहज संतुलन खो चुका था, जो प्रकृतिगत जीवन-सिद्ध संस्कारों तथा संसार के प्रति जन्मजात विश्वासों का बना होता है। ‘गुंजन’ काल में मुझे अपने प्रति पुनः नवीन आत्म-विश्वास जाग्रत करने की आवश्यकता थी।

पारिवारिक अवलंब छूट जाने के कारण, जिसकी चर्चा ‘आत्मिक’ में है, व्यक्तिगत सुख-दुःखों एवं मानसिक ऊहापोहों को नवीन बोध के धरातल पर उठाने के साथ ही जग जीवन से भी नवीन रूप से सम्बन्ध स्थापित करने की जीवनाकांक्षा मुझे प्रेरित करने लगी थी। ‘‘जग जीवन में है सुख दुख’’ अथवा ‘स्थापित कर जग में अपनापन’’ आदि, अनेक रचनाएँ इस इच्छा की द्योतक हैं। ‘‘तप रे मधुर मधुर मन’’ में—जो ‘गुंजन’ की प्रथम रचना है—मैं अनुभवों की आँच में तपकर अपने मन को नवीन रूप से नवीन विश्वासों में ढालना चाहता हूँ। ‘‘सुन्दर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय जीवन’’ भी इसी मानस-रचना के प्रयत्न का परिचायक है। वह जिज्ञासाओं के संघर्ष का युग था ; ‘गुंजन’ की ‘अप्सरा’’ जब पीछे ‘ज्योत्स्ना’ के रूप में प्रस्फुटित होकर मेरे मन में अवतीर्ण हुई तब तक मुझे अनेक नवीन विश्वासों, आदर्शों तथा विचारों की उपलब्धियाँ हो चुकी थीं।

मानव समाज के रूपान्तर की भावना का उदय मेरे मन में ‘ज्योत्स्ना’ काल ही में हो गया था। ‘ज्योत्स्ना’ में मनः स्वर्ग अनेक नवीन सृजन शक्तियाँ भू-मानस पर अवतरित होती हैं। उनका गीत इस प्रकार है :

हम मनःस्वर्ग के अधिवासी,
     जग जीवन के शुभ अभिलाषी,
    नित विकसित, नित वर्धित अर्चित,
    युग युग के सुरगण अविनाशी !
    हम नामहीन, अस्फुट नवीन,
    नव युग अधिनायक, उद्भासी !

इस गीत में नित विकसित, नित वर्धित तथा हम नामहीन, अस्फुट नवीन, नवयुग अधिनायक—विशेषण विशेष ध्यान देने योग्य हैं। स्वप्न और कल्पना ज्योत्स्ना से कहते हैं : ‘‘इन मानवीय भावनाओं के वस्त्र पहनाकर एवं मानवीय रूप रंग आकार ग्रहण कराकर हमें आपने उन्मुक्त निःसीम से किस दिव्य प्रयोजन के लिए अवतीर्ण करवाया, सम्राज्ञि।’’ उसी दृश्य में वेदव्रत कहता है : ‘‘जिस प्रकार की पूर्व प्राचीन सभ्यता अपने एकांगी तत्वावलोचन के दुष्परिणामस्वरूप काल्पनिक मुक्ति के फेर में पड़कर...जन समाज की ऐहिक उन्नति के लिए बाधक हुई उसी प्रकार पश्चिमी सभ्यता एकांगी जड़वाद के दुष्परिणामस्वरूप...विनाश के दलदल में डूब गई।’’

और भी, ‘‘पाश्चात्य जड़वाद के मांसल प्रतिभा में पूर्व के अध्यात्म प्रकाश की आत्मा भर एवं अध्यात्मवाद के अस्थि-पंजर में जड़विज्ञान के रूप रंग भरकर हमने नवयुग की सापेक्षतः परिपूर्ण मूर्ति का निर्माण किया है। उसी पूर्ण मूर्ति के विविध अंग स्वरूप पिछले युगों के अनेक वादविवाद यथोचित रूप ग्रहण कर सके हैं।’’ भौतिक आध्यात्मिक समन्वय तथा रूपांत रित-भू-जीवन के मूल्यों की नींव—जिन्हें मेरी आगे की रचनाओं में अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति मिल सकी है—मेरे मन में इसी काल में पड़ गई थी। ‘ज्योत्स्ना’ की सूक्ष्म दृष्टि मेरी आँखों के सामने एक गहरी वर्णमैत्री के विराट् इन्द्रधनुष की तरह खुली थी। मेरे मन को एक सूक्ष्म आनन्द—जो आस्था भी था—स्पर्श कर चुका था। ‘ज्योत्स्ना’ का ज्योति अंधकार का युद्ध मेरे ही मन का युद्ध था, जिसकी चर्चा मैंने ‘आत्मिका’ में की है :

    मानस तल में ऊपर नीचे चलता तब संघर्षण अविरत.
तम पर्वत, सागर प्रकाश का मंथित रहते शिखरों में शत !’
....                    ....                ....
करवट लेता भावी नव युग, गत भू मन को कर क्षत विक्षत,
....                    ....                ....
मुँह तक तम से भर जाता मन उपचेतन आवेशों से पोषित,
....                    ....                ....
अविदित भय से काँपता अंतर स्वर्गिक संक्तों से पोषित,
....                    ....                .,..
तम प्रकाश की युग संध्या में होता मन में मौन अवतरित,
‘ज्योत्स्ना’ का जीवन प्रभात नव, भू पर श्री सुख शोभा कल्पित !

‘युगांत तक मेरी भावना में नवीन के प्रति एक आग्रह उत्पन्न हो चुका था, जिसे ‘‘द्रुत भरो जगत के जीर्ण पत्र’’ अथवा ‘‘गा, कोकिल, बरसा पावक कण’’-‘‘रच मानव के हित नूतन मन’’—आदि रचनाओं में मैंने वाणी दी है। इस नवीन भाव-बोध के सम्मुख मेरा ‘पल्लव’ युग का कलात्मक रूप मोह (पल्लव’ की भूमिका जिसका निदर्शन है) पीछे हटने लगा। मेरा मन युग के आन्दोलनों, विचारों, भावों तथा मूल्यों के नवीन प्रकाश से ऐसा आंदोलित रहा कि ‘पल्लव’ ‘गुंजन’ की सूक्ष्म कला-रुचिकों में अपनी रचनाओं में बहुत बाद को, परिवर्तित एवं परिणत रूप में, संभवतः ‘अतिमा-वाणी’ के छंदों में, पुनः प्रतिष्ठित कर सका हूँ, जिनमें उसका विकास तथा परिष्कार भी हुआ है और उसमें कला वैभव के साथ भाव वैभव भी उसी अनुपात में अनुस्यूत हो सका है, जो ‘पल्लव-गुजंन’ काल का रचनाओं में संभव न था।

कुछ आलोचकों को ‘युगवाणी’ से ‘उत्तरा’ तक की मेरी रचनाओं में कला-ह्रस के चिन्ह दृष्टिगोचर होते हैं, जिसे मैं दृष्टि-भेद की विडंबना कहूँगा। ‘उत्तरा’ को सौंदर्यबोध तथा भाव ऐश्वर्य की दृष्टि से, मैं अब तक की अपनी सर्वोत्कृष्ट कृति मानता हूँ। उसके अनेक गीत, जो ‘चिदंबरा’ में सम्मिलित हैं, अपने काव्यतत्व तथा भाव चैतन्य की ओर, समय आने पर, पाठकों का ध्यान आकर्षित कर सकेंगे। ‘उत्तरा’ के पद नव मानवता के मानसिक आरोहण की सक्रिय चेतना आकांक्षा से झंकृत हैं। चेतना की ऐसी क्रियाशीलता मेरी अन्य रचनाओं में नहीं मिलती है।

स्वप्नज्वाल धरणी का अंचल,
अंधकार उर आज रहा जल !
....        ....        ....
तुम रजत वाष्प के अम्बर से,
बरसाती शुभ्र सुनहली झर से !
....        ....        ....
स्वप्नों की शोभा बरस रही,
रिम झिम झिम अंबर से गोपन !
....        ....        ....
लो, आज झरोखों से उड़ कर
फिर देवदूत आते भीतर !
....        ....        ....
कैसी दी स्वर्ग विभा उडेल
तुमने भू मानस में मोहन !
इत्यादि।
ऐसे अनेक उदाहरण ‘उत्तरा’ से दिए जा सकते हैं जो युग मानव के भीतर नवीन जीवन आकांक्षा के उदय की सूचना देते हैं, जिस नवीन भावबोध की पृष्ठ-भूमि (मनोभूमि) के कारण ही आज बहिर्जीवन का दैन्य मनुष्य को इतना कुत्सित तथा कुरूप प्रतीत होने लगा है। ‘उत्तरा’ में मैंने पृथ्वी पर स्वर्गिक शिखरों का वैभव लुटाने का दावा किया है :
मैं स्वर्गिक शिखरों का वेभव,
हूँ लुटा रहा जन धरणी पर !
....        ....        ....
देवों को पहना रहा पुनः
मैं स्वप्न-मांस के मर्त्य वसन !
‘ग्राम्या’ में भी, मेरी दृष्टि में, ग्राम जीवन के भाव क्षेत्र के अनुरूप कला शिल्प वर्तमान है। ‘ग्राम्या’ की भाषा गाँवों के वातावरण की उपज है :   
गंजी को मार गया पाला
अरहर को फूलों को झुलसा,
हाँका करती दिन भर बंदर
अब मालिन की लड़की तुलसा !
....        ....        ....     
बैठी छाती की हड्डी अब
    झुकी पीठ कमठ सी टेढ़ी,
    पिचका पेट, गढ़े कंधों पर,
    फटी बिवाई से हैं एड़ी !
    ....        ....        ....
खैर, पैर की जूती, जोरू
एक न सही, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लोटते, फटती छाती।
इत्यादि।
‘ग्राम्या’ के भाव पक्ष में—जिसे मैंने कोरी भावुकता से बचा कर, सहानुभूति-पूर्वक, मान्यताओं के प्रकाश में सँवारा है—लोक जीवन के कलुष पंक को धोने के लिए, नये मानव की अंतर-पुकार है।’’ युगवाणी’ और ‘स्वर्ण धूलि’ में भाव ऐश्वर्य की तुलना में, कलापक्ष, संभवतः ‘युगवाणी’ और ‘स्वर्ण धूलि’ में भाव ऐश्वर्य की तुलना में, कलापक्ष, संभवतः गौण हो गया है, जो मेरी दृष्टि में स्वाभाविक है। इनमें मेरी कल्पना ने अनुद्घाटित नवीन भूमियों तथा क्षितिजों में प्रवेश किया है। वह केवल मेरे भाव प्रवण हृदय का आवेग ज्वार था, जो विगत युगों की भौतिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक मान्यताओं से ऊब-खीझकर अपनी अबाध जिज्ञासा के प्रवाह में, अंध-रूढ़ियों के बंधनों तथा निषेध-वर्जनों के अवरोधों को लाँघता हुआ, पार्थिव-अपार्थिव नवीन चैतन्य के धरातलों तथा शिखरों की ओर बढ़ता एवं आरोहण करता गया। वास्तव में वह आरोहण मेरे लिए स्वयं एक कलात्मक अनुभव एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान रहा है। कविता और कला-शिल्प मेरी दृष्टि में फूल और उसके रूप मार्दन की तरह अभिन्न हैं। रूप-मार्दव ?—हाँ, किन्तु रंग गंध मधु फल ही फूल का वास्तविक दान है। अन्न भरी सुनहली बाल, नाल पर खड़ी रहने के बदले, यदि अपने ऐश्वर्य भार से झुक जाती है तो, इसे विधाता की कला की परिणति ही समझना चाहिए। कुछ ऐसा ही कलात्मक संबंध मेरे मन का, ‘युगवाणी’, ‘स्वर्णकिरण’ तथा ‘स्वर्णधूलि’ की रचनाओं से रहा है। ‘स्वर्णधूलि’ में आर्षवाणी के अन्तर्गत वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्रभावित जो मेरी रचनाएँ हैं, वे अक्षरश: वैदिक छन्दों के अनुवाद नहीं हैं। मेरे भाव-बोध ने उस मंत्रों को जिस प्रकार ग्रहण किया है वह उनकी मुख्य तत्व और स्वर है। कहीं-कहीं तो मैंने तो उन मंत्रों की वाख्या कर दी है।

‘पल्लव’ के सौंदर्यबोध के क्षितिज से बाहर निकलते-निकलते जब मैं अपने तथा बाहर के जगत् के प्रति प्रबुद्ध हुआ तो मुझे जीवन की भीतरी बाहरी परिस्थितियों का बोध पीड़ित करना पड़ेगा। ‘पल्लव’ काल में मैं परमहंस देव के वचनामृत तथा स्वामी विवेकानन्द और रामतीर्थ के विचारों के संपर्क में आ गया था। अपने देश में स्वतन्त्रता-युद्ध के स्वरूप तथा गांधीजी के व्यक्तित्व ने मेरा ध्यान भारत के मानस-महत्व तथा जीवन-दैन्य की ओर आकृष्ट किया। सन्’ 21 के असहयोग में अपने छात्र-जीवन से बिदा ले चुका था। गांधीजी का तपःपूठ, कर्मठ व्यक्तित्व, जो धीरे-धीरे गंधीवाद का रूप ग्रहण करने लगा था, मन को अधिकाधिक आकर्षित करता था। ‘गुंजन’ के आत्म संस्कार के स्वर में, अप्रत्यक्ष रूप से गांधी जी का भी प्रभाव हो सकता है। उनके सांस्कृतिक चैतन्य को, मैंने, उस युग की अनेकानेक छोटी बड़ी रचनाओं में, श्रद्धांजलि अर्पित की है।
देश के जीवन-दर्शन से बाहर मेरा ध्यान सर्वाधिक तब जिन वस्तुओं की ओर आकृष्ट हुआ था वे थे मार्क्सवाद तथा रूसी क्रांति। गांधीवाद के साथ तब प्रायः समाजवाद-साम्यवाद के विचारों, आदर्शों तथा कार्यप्रणायों की प्रतिध्वनियाँ कानों में पड़ती थीं।

 मेरे किशोर सखा पूरन (जो पी.सी. जोशी के नाम से प्रसिद्ध हैं) तब प्रयाग विश्वविद्यालय के इतिहास के छात्र थे। उनसे प्रायः ही नये राजनीतिक आर्थिक सिद्धान्तों की चर्चा और उन पर वाद-विवाद होता था। उनका व्यक्तित्व एवं मानस, उन तीन-चार वर्षों के भीतर, मेरी आँखों के सामने ही,. धीरे-धीरे डल्हिया के भरे-पूरे फूल की तरह, पूर्ण साम्यवादी के रूप में प्रस्फुटित हुआ था। ऐतिहासिकत चेतना से प्रभावित होने के कारण उनको जीवन के समस्त क्रिया-कलापों, अभावों तथा दैन्यों का निदान और समाधान बाह्य जगत् में ही दिखाई देता था। उनकी मानसिक परिणति ने मार्क्सवाद तथा साम्यवाद के अनेक दुर्बल-सशक्त पक्षों को मेरी आँखों के सामने अपने-आप खोल दिया और उनकी निष्कपट मैत्री के स्पर्ष ने उन उग्र सिद्धान्तों को ममता तथा सहानुभूति की दृष्टि से देखना सिखला दिया। मार्क्सवाद का जटिल आर्थिक पक्ष मुझे मेरे भाई स्व. देवीदत्त पंत ने समझाया था। वह तब प्रयाग विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. कर चुके थे और कुशाग्र बुद्धि होने के कारण अपने विषय के मर्मज्ञ थे।

 अपने मित्र तथा भाई के सम्पर्क में आकर मार्क्सवाद के गहन कांतार को, अपने ढीठ कल्पना पंखों से, साहसपूर्वक, अत्यन्त उत्साह तथा हर्षानुभूति के साथ पार कर सका, ‘‘तब, जब हिन्दी में, संभवतः, इस प्रकार की कविता का जन्म भी नहीं हुआ था, जो पीछे प्रगतिशील कविता कहलाई) और कालाकाँकर के गाँवों का वातावरण पाकर ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की में अपनी उस नवीन जीवन-दृष्टि की प्रक्रियाओं को उन्मुक्त रूप से वाणी दे सका। ‘‘युगवाणी’ की रचनाएँ सन्’ 37-’38 में लिखी गई थीं। उनमें से अधिकांश सन्’ 38 में ‘रूपाभ’ के अंकों में प्रकाशित हो चुकी थीं। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में (‘ग्राम्या’ में सन्’ 39-40 की रचनाएँ हैं) अनेक नवीन-सामाजिक, सास्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण मेरे मन में उदय हुए हैं। आज भी, जब नव मानवतावाद की दृष्टि से, मैं विश्व जीवन के बाह्य पक्ष की समस्याओं पर विचार करता हूँ तो मार्क्सवाद की उपयोगिता मुझे स्वयं-सिद्ध प्रतीत होती है। 

आज की राजनीतिक दलबंदी में खोये हुए, पूर्वग्रह पीड़ित आलोचकों को जब छायावाद त्रयी या चतुष्टय में, केवल मैं ही अप्रगतिशील लगता हूँ और वे सब प्रगतिशील लगते हैं, जो संभवतः, तब युग-दायित्व के प्रति पूर्णतः प्रबुद्ध भी न थे, तो मैं उनका प्रतिवाद नहीं करता। मानव-जीवन के व्यापक सत्यों को, चाहे वे आर्थिक हों या आध्यात्मिक, पूर्वग्रह और विद्वेष की टेढी-मेढ़ी सँकरी गलियों में भटकाकर झुठलाया नहीं जा सकता ; समय पर वे लोक मानस में अपना अधिकार अवश्य स्थापित करेंगे। संभवतः जिस संकीर्ण अर्थ में अब प्रगतिवाद का प्रयोग किया जाता है, उस अर्थ में मैं प्रगतिवादी हूँ भी नहीं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तारापथ



पृष्ठ :  192

प्रकाशक :  लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशित :  मार्च ०५, २००२
Book Id : 3259

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
जन्म-अल्मोड़ा की जगत् प्रसिद्ध सौन्दर्य-स्थली-कौसानी में 20 मई सन् 1900 ई. को हुआ।
 अल्मोड़ा के एक अत्यन्त कुलीन एवं संपन्न परिवार में पन्त जी ने जन्म लिया। पंत जी के पिता पं. गंगादत्त पंत अलमोड़ा के अग्रगण्य नागरिक थे। आपकी प्राथमिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। आपने बनारस में इन्ट्रेन्स की परीक्षा पास की और प्रयाग के म्योर कालेज में एफ. ए. के छात्र रहे।

असहयोग आन्दोलन के समय महात्मा गांधी के सम्मुख शिक्षा-संस्थान छोड़ने की प्रतिज्ञा करने के कारण फिर आपने विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की। किन्तु अपनी लगन के कारण आपने अनेक विषयों का और विशेषकर साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आधुनिक युग की सम्पूर्ण प्रगतियों के संबंध में भी आपका ज्ञान विशेष रूप से प्रौढ़ है।

कविता की ओर पंत जी की रुचि जन्मजात रही। बाल्य-काल से ही आप कविता लिखने लगे थे। किसी-किसी कवि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह एक ही रात में अथवा एक ही रचना में प्रसिद्ध हो गया। पंतजी के सम्बन्ध में भी यह अक्षरशः सत्य है। आप अपनी पहली ही छपी रचना से हिन्दी के साहित्याकाश में पूर्ण प्रभा से उदित हो गये। आपकी कविता के छन्द, भाषी, भाव, और कल्पना ने सबको विमोहित कर लिया।
‘ग्राम्या’ और ‘गुंजन’ पंत जी की सर्वश्रेष्ठ काव्य कृतियाँ हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सम्पूर्णता का कवि

(1)
प्रत्येक युग में रचना सक्षम, संघर्षशील और स्वतन्त्रचेता कवि के बारे में अकसर एक विशेष प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। उसके बारे में उसके जीवन-काल में ही उसकी काव्य रचना को लेकर अनेक प्रकार की परस्पर विरोधी, प्रशंसात्मक आशंसात्मक, चमत्कारपूर्ण और चौंकानेवाली विचार पद्धतियाँ सामने आती हैं। उसके आलोचक और प्रशंसक जब तक उसके बारे में एक विशेष विचार कसौटी का निर्धारण करते हैं, तब तक अपनी रचनाशीलता और सत्योपलब्धि में कवि किसी दूसरे बिन्दु पर खिसक जाता है। अकसर कवि के अन्दर ही यह सतत रचनात्मक गतिशीलता उसके आलोचकों, प्रशंसकों और विरोधियों-सभी को एक साथ चौंकाती है, उन्हें हतप्रभ, करती है, उनकी विचार कसौटियों या आग्रहों, दुराग्रहों, सदाग्रहों को काटती चलती है। अकसर प्रशंसक घोर विरोधियों में बदल जाते हैं, तटस्थ, उदासीन हो जाते हैं। चाहे उनके आग्रह और उनकी आशंसाएँ कवि की विचार-सरणि के निकट ही क्यों न हों, कवि की गतिशीलता के साथ ही वे अपने को गतिशील नहीं बना पाते और इस तरह जो सदाग्रह होता है, उसी से एक-घोर विरोधी अथवा कुतर्कपूर्ण पूर्वाग्रह का निर्माण होता है। विरोधियों और निन्दकों या नासमझों के लिए तो कवि की यह सतत गतिशीलता उनको पूर्वाग्रहों के लिए और अधिक सामग्री जुटाती चलती है।

अन्ततः इन सारी बातों से एक विचित्र सी भ्रान्त और छद्म धारणा का निर्माण होता है। इसी भ्रान्त धारणा से या आलोचना के ऐसे ही सर्वप्रचलित ‘मिथ’ से समाचोलना और युग की कसौटियाँ तक कभी-कभी निर्धारित होने लगती हैं और साहित्य के विद्यार्थी के लिए कवि के काव्य- वैभव तक सीधे पहुँचना और उसका पुनर्मूल्यांकन या सही मूल्यांकन करना असम्भव नहीं तो कुछ कठिन अवश्य हो जाता है। अकसर आलोचकों की इसी भ्रांत विचार-प्रणाली को देखकर कोई भी कवि अपने ऊपर वह नैतिक दबाव महसूस करता है, जिसके वशीभूत होकर वह पाठक और काव्य मर्मज्ञ को सीधे अपने काव्य वैभव तक पहुँचाने के लिए इन धारणाओं को काटता है और कविता की व्याख्या का बुनियादी उत्तरदायित्व भी स्वयं ही वहन करता है।

यह सवाल अपने मूल में आलोचना की कसौटी और मूल्यांकन दृष्टि से जुड़ा हुआ है, लेकिन इस सवाल का सम्बन्ध किसी सर्वस्वीकृत कवि से नहीं है। यह सवाल किसी भी ऐसे रचनाकार से जुड़ा हुआ नहीं है, जिसकी एक काव्य-रूढ़ि निर्मित हो चुकी हो, या जो अपनी कला सचेतना और अनूभूति निर्माण में सतत गतिशील न हो, या जो आलोचनापेक्षी प्रशंसापेक्षी हो, या जो अपने अन्दर के सतत उद्वेलनों या भाव संघर्षों से प्रताड़ित और पीड़ित न होकर, सन्तुष्ट निर्विकार और निश्चिन्त हो, अथवा काव्य सचेतना के मूल उपादानों से दूर हट गया हो। आलोचना की कसौटी और मूल्यांकन दृष्टि का सवाल भी, जैसा कि कहा गया है, एक रचना सक्षम संघर्षशील और स्वतंत्रचेता कवि के साथ जुड़ा ही हुआ है। इसे हम कवि व्यक्तित्व की विवादास्पदता भी कह सकते हैं। कवि के व्यक्तित्व का इस रूप में विवादास्पद होना उसकी जीवंतता और शक्तिमत्ता का प्रमाण है। इस तरह आलोचना की कसौटी और मूल्यांकन दृष्टि मुख्यतः कवि की जीवंतता और गतिशील शक्तिमत्ता के स्वीकार से जुडी हुई है कि आलोचना और मूल्यांकन सम्पूर्णतः एक स्वतन्त्र आलोचक अथवा मूल्यांकनकर्ता की अपनी विचार पद्धतियों को निर्मित करने की कार्य पद्धति है या उसे कवि के जीवंत और शक्तिमन्त काव्य वैभव के अन्दर से होकर आना चाहिए। इस प्रकार बड़ी लम्बी चौड़ी बहस उठायी जा सकती है, जिसके लिए यहाँ जगह नहीं है। फिर भी सत्य का पक्ष ही यही है कि आलोचना मूल्यांकनकर्ता के विचारों का कवि रचनाकार के ऊपर आरोपण नहीं है, बल्कि कविता के अन्दर से होकर आनेवाली उसकी (कविता की) जीवंतता और शक्तिमत्ता को खोलने वाली एक उत्तरदायित्वपूर्ण संरचना है।

महाकवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त के समस्त काव्य- वैभव का एक तटस्थ और सम्पूर्ण विवेचन प्रस्तुत करने के लिए इस भूमिका के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। आज सन् 1968 ई. में, जब पन्त जी 69 वें वर्ष में प्रवेश (जन्म, 20 मई 1900 ई.) कर चुके हैं और उनके अदम्य साहसी, जीवन्त और शक्तिशाली रचनात्मक व्यक्तित्व के लगभग 50 वर्ष हमारे सामने हैं, अर्थात् 50 वर्षों का रचित काव्य वैभव जो अपने स्वतंत्रचेता निर्णयों और अपनी सतत गतिशीलता के कारण लगातार तथाकथित ‘अलोचनामिथों’ का निर्माण अपने इर्द-गिर्द करता रहा है जब कि उनके प्रशंसक उनके घोर विरोधी हो गये हैं, अथवा तटस्थ और उदासीन, जब कि उनकी रचनाओं और भावबोध की नयी-नयी दिशाओं के सतत अन्वेषण ने उनके विरोधियों के लिए पूर्वाग्रहों और गलत व्याख्याओं और तरह-तरह के विवादों को जन्म देने के लिए और अधिक उत्तेजित किया है, प्रस्तुत उपर्युक्त भूमिका का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि प्रस्तुत मूल्यांकन की दृष्टि पन्तजी की उस सतत संघर्षशील, गतिमय और अनेक स्तरीय काव्य-सम्पदा के अन्दर से होकर आने वाली दृष्टि होगी। कम-से-कम प्रस्तुत मूल्यांकन का प्रयास इसी दिशा में होगा।

अकसर पन्तजी के काव्य संचरण की विभिन्न दिशाएँ अनेक प्रकार के गलत विवादों और आलोचना मानों को जन्म देती रही हैं और इन बचकाने किन्तु तथाकथित गम्भीर, प्रयासों में कहीं भी कवि-व्यक्तित्व की गतिशील अन्त संगति को नहीं ढूँढ़ा गया है। यह बात निस्सन्देह रूप से स्वीकार की जा सकती है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान काव्य में गतिशीलता और उसके अन्वेषण की नयी दिशाओं को लेकर जितना विवादास्पद व्यक्तित्व कवि पन्त का रहा है और आज भी बना हुआ है, इतना किसी दूसरे समकालीन या उत्तरकालीन कवि का नहीं रहा। यह विवादास्पदता भ्रमवश उत्पन्न न होकर कवि का अन्त संरचना के क्षणों और निर्णयों से लगातार एक तादात्म्य स्थापित न कर सकने की, काव्य मर्मज्ञों की क्षमता के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं। मूल्यांकन-दृष्टि की इसी पृष्ठभूमि में हम पन्तजी के काव्य की विशिष्टताओं उपलब्धियों और उसकी अन्त संगति का सम्यक् और एक सम्पूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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2)

श्री सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य वैभव एवं विकास का एक सम्पूर्ण मूल्यांकन प्रस्तुत करने के पहले यहाँ छायावादी काव्य की देशीय और अन्तर्देशीय पृष्ठभूमि और परिस्थितियों और सन्दर्भों पर संक्षेप में विचार कर लेना उचित होगा। यहाँ निश्चित है कि इस शताब्दी के पूर्णाद्ध के तीन दशक, जिनमें छायावादी कवि की मानसिक और कला-चेतना संबंधी धारणाएँ निर्मित और परिपुष्ट हुईं, एक व्यापक जन-जागरण का समय रहा है। इस जन-जागरण की मूल प्रेरणा के रूप में महात्मा गाँधी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द तथा महाकवि टैगोर रहे हैं। गाँधी जहाँ इस व्यापक जागरण के राजनैतिक और आध्यात्मिक गुरु रहे हैं, वहीं स्वामी रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द या महर्षि अरविन्द ने इसको भारतीय सांस्कारिक और सांस्कृतिक अध्यात्म और सार्वभौमिक अन्तश्चेतना और राष्ट्र-प्रेम से जोड़ने में अधिक योग दिया है।

 (गांधी का अध्यात्म निश्चय ही इन लोगों से अलग तरह का अध्यात्म है।) टैगोर ने इस जागरण को एक कलात्मकता, भारतीय पावनता और व्यक्ति के नैतिक निजत्व से जोड़ा। हमारी परतन्त्रता ने महर्षि अरविन्द या स्वामी विवेकानन्द जैसे योगियों और धर्म नेताओं की सारी चेतना को भी इस तरह प्रभावित किया कि एक ओर यदि वे अपनी सारी साधना और सारे ज्ञान को व्यक्ति के निजत्व परिष्कार की ओर लगाते दिखाते हैं, तो दूसरी ओर उन्हें अपने दलित देश और जाति और जन समूह के उत्थान और उसकी मुक्ति की कल्पना और कार्यशीलता भी अभिभूत किये हुए हैं। हमारी परतन्त्रता वह प्रमुख कारण है, जिसने उस काल में उत्पन्न इन मनीषियों के अपने ज्ञान और दर्शन का विकास किसी एक ही दिशा में नहीं होने दिया ! यदि भारतवर्ष स्वतन्त्र होता तो सम्भव था कि स्वामी विवेकानन्द यौगिक क्रियाओं का अध्ययन, अनुशीलन और प्रचार में ही लगे रहते और उनकी यह विराट शक्तिमत्ता और राष्ट्र-प्रेम और समस्त दर्शन की पुनर्व्याख्या और पश्चिम और पूर्व के विशाल, ज्ञान चिंतन, धर्म और संस्कार की तुलनात्मक विवेचना और उपलब्धि से हम वंचित रह जाते।

 देश की अधः पतित मनोदशा को ध्यान में रखकर ही विवेकानन्द ने कहा था कि ‘‘हम एक ऐसे देश में पैदा हुए हैं, जहाँ हर दो आदमी इकट्ठे होने पर एक-दूसरे से लड़ बैठते हैं।’’ साथ ही भारतीय मनुष्य की छिपी हुई शक्ति की ओर इशारा करते हुए उन्होंने यह भी कहा था, ‘‘एक दिन हम सारी दुनिया में आग (आदर्श, प्रेम और पवित्रता की आग से यहाँ मतलब है।) लगा देंगे।’’ हमारी परतन्त्रता ही वह प्रमुख कारण है, जिससे उस काल का प्रत्येक मनीषी एक अर्द्धचिन्तक और अर्द्धदार्शनिक बनकर रह गया है और उसे अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रमुख अंश इस व्यापक जागरण को और अधिक समृद्ध बनाने में लगाना पड़ा है। वह एक प्रकार से हमारी विडम्बना या विवशता और तात्कालिक नैतिक दायित्व की माँग दोनों ही थी। बहरहाल, कहने का तात्पर्य यह है कि इसी विवशता और नैतिक दायित्व की माँग के अन्दर से तत्कालीन भारतीय साहित्य और कविता उद्भूत हुई है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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छायावाद-पूर्व के युग की कविता में एक सीमित राष्ट्र-प्रेम और अन्ध-पुरातन श्रद्धा और विश्वास अधिक था। वह अन्दर की एक दुहरी चेतना से पीड़ित और उद्भ्रान्त नहीं था। द्विवेदी युग के कवि के निर्णय बड़े ही सरल और सन्देहरहित होते थे। उसके सामने उस तरह से कुछ भी अस्पष्ट और उहापोह ग्रस्त नहीं था, जिसमें हर निर्णय एक खतरे को जन्म देता चलता है और हर निर्णय की इयत्ता का प्रभाव-दुष्प्रभाव कवि, कलाकार और चिन्तक के अगले निर्णयों पर पड़ता ही है। छायावादी कवि की समस्त चेतना और कलात्मक उपलब्धि की बुनियाद में उसकी वह दुहरी चेतना रही है। एक ओर मनुष्य के निजत्व की चिन्ता और मानव-मात्र की चैतन्य शक्तिमत्ता की खोज और उसका विकास, तो दूसरी ओर भारत की पददलित जनता और उसकी दुर्दशा के प्रति एक निश्छल और निर्मम आक्रोश। इसीलिए गाँधी और विवेकानन्द ने किसी एक भारतीय भाषा के लेखक-कवि को ही प्रभावित नहीं किया, उनका प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय बौद्धिक चेतना पर समान रूप से लक्षित किया जा सकता है।

 चाहे वह रवीन्द्रनाथ हों या शंकर कुरुप्प या सुन्दरम् या सुब्रह्मण्यम भारती या काजी नजरुल इस्लाम या जीवनानन्द दास अथवा निराला या सुमित्रानन्दन पन्त। सम्पूर्ण भारतीय बौद्धिक चेतना पर जो एक विषण्ण अवसाद की छाया झलकती है और उसके साथ ही मनुष्य उच्चतर चेतना और नव अभ्युत्थान का जो एक विराट सन्देश मिलता है, वह इसी व्यापक भारतीय जन-जागरण और उसके पीड़ाजनक निर्णयों का प्रतिफल है। इस व्यापक जन- जागरण और अभ्युत्थान चेतना की पृष्ठभूमि में ही छायावाद कवि का मानसिक निर्माण हुआ है। यदि इसे ध्यान में रखा जाये तो ऊपर से अत्यन्त विचित्र लगने वाली और लगातार दुहरे-तिहरे स्तर पर क्रियाशील रहने वाली छायावादी कवि की रचना- प्रक्रिया को समझना आसान होगा और उसमें एक गुणात्मक अन्तःसंगति आसानी से खोजकर निकाली जा सकती है। साथ ही छायावादी कविता के सम्पूर्ण भाव-पट का निर्माण, उसकी अन्तःप्रेरणा और उसकी विशिष्ट निर्मितियों तथा विशिष्ट उपलब्धियों को भी रेखांकित किया जा सकेगा।

अपने ऐतिहासिक बोध और मूल्य-स्थापन में अनेक वाद-विवादों के बावजूद आज छायावादी कविता के आविर्भाव का एक स्पष्ट रूप हमारे सामने है। स्थूल परिभाषाओं के विवादों से परे छायावादी कविता की सम्पूर्ण स्थिति-उसकी पृष्ठभूमि, उसका आविर्भाव, उद्देश्य और उपलब्धि-के बारे में अत्यधिक स्पष्टता से विवेचन और मूल्यांकन का प्रश्न आज उठाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में हम एक नकारात्मक वाक्य से अपनी बात शुरू करेंगे। यह कि छायावादी कविता का आविर्भाव मात्र एक भाषागत विद्रोह ही नहीं था। जैसा कि अनेक बार यह बात आलोचकों और छायावाद पर शोध-ग्रन्थ लिखने वालों ने कही है कि वह द्विवेदी-युगीन भाषा की इतिवृत्तात्मकता और स्थूल वर्णानात्मकता के विरुद्ध भाषागत अभिव्यंजना का अन्तर्मुखी प्रयत्न था। वास्तव में कवि की भाषा में अन्तर तभी होता है, जब उसकी सम्पूर्ण काव्यानुभूति की बनावट में अन्तर आ जाये।

काव्यानुभूति की बनावट का एक नया रूप स्वयं ही अपने लिए एक नयी भाषा का आविष्कार कर लेता है। कहने का मतलब यह है कि भाषा की यह चेतना अनुभूति की चेतना से अलग और स्वतन्त्र रूप में नहीं आती। अतः छायावादी काव्य के आविर्भाव को केवल भाषा के नवीन आर्विभाव या प्रयत्न से जोड़ना भ्रामक है। दरअसल भाषा का प्रश्न छायावादी कवि के सामने अपनी पृथक् अनुभव-दिशा के साथ-साथ ही जुड़ा हुआ आया है। जिस गोपालशरण सिंह या गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, मैथिलीशरण गुप्त या रामचरित उपाध्याय के लिए भाषा का प्रश्न अलग था, उस तरह का प्रश्न छायावादी कवि के सामने नहीं था। या यों कहें कि कविता और भाषा के इस अति- प्रारम्भिक सवाल और उसकी समस्या से अलग छायावादी कवि के लिए विद्रोही होने के कारण कहीं अधिक गहरे और महत्वपूर्ण थे और कविता की सम्पूर्ण जीवंतता से सम्बद्ध थे। गोपालशरण सिंह के लिए मुख्य समस्या यह थी कि वे सवैया या घनाक्षरी छन्द को खड़ी बोली में लिख सकते हैं या नहीं। दूसरे, बहुत से बाह्म और अति साधारण विषयों के लिए अगर ब्रजभाषा का लालित्य प्रतिकूल पड़ता है तो उसके लिए वे या दूसरे उपर्युक्त कवि खड़ी बोली का उपयोग करेंगे।

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उदाहरणार्थ-‘काशीफल कूष्माण्ड कहीं हैं। कहीं लौकियाँ लटक रही हैं।’ अथवा ‘ऐसी सुविधा और कहाँ है। थोड़े में निर्वाह यहाँ है’ जैसी उक्तियों को कविता का रूप देने की बात एक ब्रजभाषा का कवि सोच भी नहीं सकता था। उसे ‘लौकियों के लटकने’ या ‘कूष्माण्ड’ शब्द के ही काव्यत्व-सम्पन्न होने में सन्देह था। न ही उसने ‘थोड़े में निर्वाह’ जैसी बात पर कविता में विचार कहने की हो सोची थी। इसी तरह गुजर जायेंगे दिन गुजरते-गुजरते, कि उतरेगा यह मैल उतरते-उतरते’ (नारायण प्रसाद ‘बेताब’) जैसी उपदेशात्मक भाषा के प्रयोग की समस्या, इधर छायावादी कवि के सामने भी नहीं थी। भाषागत विद्रोह की जितनी गहरी चेतना और आवश्यकता पूर्व छायावादी कवि को थी, वैसी हिन्दी कविता के इतिहासक में और कहीं नहीं मिलेगी। उसके पीछे एक कारण था-एक सर्व-स्वीकृत काव्य-भाषा (ब्रजभाषा) का परित्याग करके नव-विकसित बोली का कविता के रूप में प्रयोग।

 निश्चय ही इस विवशता और चुनौती के पीछे ब्रजभाषा का भयावह काव्य-रूढ़ियों के जाल में फँस जाना और दूसरी ओर बदली हुई राजनैतिक ऐतिहासिक, सामाजिक और व्यक्ति-चेतना की परिस्थितियाँ थीं। इन दोनों परिस्थितियों के कारण द्विवेदी युग की कविता का मूल स्वर राष्ट्रवादी तो है, लेकिन एक संकीर्ण अर्थ में ही राष्ट्रवादी। इस कविता- युग को लेकर राष्ट्रीयता और राष्ट्र-प्रेम या उसके स्वदेशी होने की इतनी प्रशस्ति आलोचकों ने की है, आज उस तरह के राष्ट्र-प्रेम को ‘संकीर्ण राष्ट्रवाद’ कहना, सहसा चौंकाने वाला लगेगा। लेकिन ऐसा करने के पीछे कोई दुराग्रह या द्विवेदी-युग की कविता की अवमानना नहीं है, बल्कि उसके पीछे एक निश्चित दृष्टिकोण है, जो उसके बाद आने वाली छायावादी काव्य प्रवृत्ति को समझने में मदद करता है, ‘संकीर्ण राष्ट्रवाद की कविता’ कहकर द्विवेदी-युग की कविता का अवमूल्यन करने की जगह हम उसे उसके सही संदर्भों में रखने की एक निष्पक्ष कोशिश कर रहे हैं। विशेषकर तब, जबकि छायावादी कवि का मानसिक विकास भी लगभग उन्हीं परिस्थितियों में होते हुए वह भारतीयता के एक निश्चित दायरे के ऊपर उठकर एक समग्र मानवता की खोज और एक सार्वभौमिक मूल्यवत्ता को उपलब्ध करने में सचेष्ट दिखाई देता है। इस तरह यह बात आज निस्संदेह रूप से कही जा सकती है कि छायावादी कविता के मूल उद्भव के पीछे भाषा की सचेतना की जगह काव्य मूल्य की चेतना अधिक प्रखर है।

छायावादी कविता के उद्भव की इस प्रमुख उद्भावना को नज़र-अन्दाज करते रहने या उसे गौण रूप में देखते रहने के कारण ही छायावाद पर अनेक लांछन और गलत आरोप लगाये गये, जो काफ़ी दिनों तक आलोचना अथवा विद्यार्थियों के पाठ्य-क्रम में प्रचलित रहे। उदाहरणार्थ, यह एक सर्व स्वीकृत धारणा सी बन गयी कि छायावाद कविता का अर्थ रोमैण्टिक, मांसल और भावना-प्रधान व्यक्तिमूलक काव्य से है। इस धारणा को छायावादी कवियों की प्रारम्भिक कविताओं ने बहुत हद तक पुष्ट भी किया। उसकी वजह निश्चित रूप से इस काव्य विद्रोह को एक व्यक्ति-सापेक्ष्य नैतिक स्वीकृति देना था और कविता के उपादानों को प्रकृति, प्रेम, रंग और संबोधनों के बीच से उठाना था। शुरू में कविता के संपूर्ण भावावेश से उद्भूत अंतिम परिणाम या प्रयुक्त इन उपादानों पर ही अटककर रह गयी। लेकिन धीरे-धीरे जब आज वे सारे के सारे नव- निर्मित काव्य उपादान स्थिर हो गये हैं और बहुत कुछ उनके अर्थ और उनकी बिम्ब परिणति से हम परिचित हो गये हैं, हमें उनके अन्दर जाकर उस कविता की मूल अवधारणा को टटोलने पर यही सत्य मिलता है कि छायावादी कविता के उद्भव के पीछे उसके पूर्व की सारी हिन्दी कविता के समानान्तर एक मूल्यगत विद्रोह की भावना ही प्रमुख थी। यह मूल्यगत विद्रोह अपने तत्कालिक पूर्ववर्तियों या रीतिवादियों से न होकर, भक्तिकालीन कविता की गहरी प्रपत्ति भावना और उसकी महाकाव्यमूलक प्रवृत्ति से भी था।

 ज़ाहिर है, यह चुनौती कोई मामूली चुनौती नहीं थी। हिन्दी कविता की सम्पूर्ण मूल्यगत उपलब्धियों पर एक प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर उसके समक्ष नैतिक मानवीय मूल्य को एक नयी सार्वभौमिकता से प्रतिष्ठित करने का यह आग्रह एक बहुत बड़ा आग्रह था। इसी अर्थ के समानान्तर हमने द्विवेदी-युगीन हिन्दी कविता को एक संकीर्ण राष्ट्रवाद की कविता कहा है; क्योंकि उस युग के सारे कवियों की मूल चेतना भाषा, विषय, वस्तु, परिणाम और मूल्य-इन सभी दृष्टियों से भारतीय और मध्य देश की सीमाओं में बँधी है। उसके आदर्शों और लक्ष्यों का तेवर अपनी सारी वर्णानात्मकता के बावजूद भावुकता-प्रधान है। यह भावुकता उस चुनौती के कारण आयी है, जो इस काल के कवि को ब्रजभाषा और ब्रजभाषा के रीतिवादी कवियों और स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा अन्य धर्म सुधारकों और समाज व्याख्याताओं ने उसके समक्ष प्रस्तुत कर दी थी। निश्चय ही इस तरह की चुनौती की परिणति एक आदर्शवादी, अभिधा-प्रधान, भावुकतापूर्ण काव्य में ही हो सकती थी, जिसमें मुखरता (लाउड थिंकिंग) अधिक हो, जबकि छायावादी कवि इन समस्त राष्ट्रीय उद्बबोधनों को आत्मसात् करते हुए भी कविता को इस तरह की समसामयिकता और एकदेशिकता के ऊपर एक सार्वभौमिक क्षण तक ले जाने के लिए प्रयत्नशील दिखाई पड़ता है। इस सार्वभौमिक क्षण तक ले जाने में उस पुरातनता और रुढ़िबद्ध मूल्यों से मुक्ति भी चाहता है, जहाँ हिन्दी के भक्तकवि अपनी सम्पूर्ण और सार्वभौमिक प्रपत्ति-भावना (शरणागति) से एक बार पहुँच चुके हैं। उस तरह ही भाव-तन्मयता और तथाकथित समग्रता से छुटकारा पाने में ही छायावादी कविता का ‘आधुनिक होना’ निहित है। मुक्ति की यह कामना अपने को अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भों और वर्तमान वैज्ञानिक विकास और मनुष्य की एक विचित्र-सी असहाय नियति से अपने को जोड़ने के लिए है।

 इसलिए छायावादी कविता का सम्पूर्ण भावपट आधुनिक है और उसकी समस्त चेतना एक नये प्रकार की विशाल नैतिक मानववादी भूमि पर प्रतिष्ठित है। इस संदर्भ में पन्तजी की वह शक्ति द्रष्टव्य है, जहाँ पर उन्होंने छायावाद की ऐतिहासिक दृष्टि से अनुपयोगी विगत वास्तविकता को अपनी बोध-दृष्टि से अतिक्रम कर नवीन ‘यथार्थोन्मुख आदर्शों की खोज’ (छायावाद : पुनर्मूल्यांकन) कहा है। छायावादी कवि की यह ‘इतिहास दृष्टि’ केवल अपनी पूर्ववर्ती कविता-धारा के विरोध या चुनौती से न उपजकर, सम्पूर्ण हिन्दी कविता की मूल्यगत उपलब्धि को सर्वथा नयी साहसिक चुनौती देने के कारण उत्पन्न हुई है। यथार्थ (वास्तविकता) को ‘अनुपयोगी’ और ‘विगत’ मानना अपने आपमें छायावादी कविता को एक विशेष और लम्बा ऐतिहासिक दायित्व सौंपना है। इसी ऐतिहासिक दायित्व को ध्यान में रखते हुए और छायावादी कविता की शक्तिमत्ता, जीवंतता और मूल्यवत्ता और उसके ‘व्यक्तित्व’ को प्रतिष्ठापित करते हुए पन्तजी ने लिखा है-‘‘यद्यपि एक दृष्टि से उसमें छायावाद भक्तिकाल की भावतन्मयता तथा समग्रता का अभाव हो, पर दूसरी दृष्टि से वह भक्तिकाल की साम्प्रदायिकता, एकांगिता आदि से मुक्त व्यापक विश्व चैतन्य के स्पर्श से युक्त, निखिल मानव समाज के लिए अधिक भावात्मक बोध लिये हुए होने के कारण, काव्यमूल की कसौटी में अधिक लोकप्रिय नहीं तो अधिक श्रेष्ठ अवश्य है, क्योंकि वह अपनी अंचल छाया में भावी मानव-मूल्य एवं भावी जीवन-ज्योति, अपनी कलात्मक शोभा में सँजोये हुए हैं। मध्ययुगीन सन्तों की तरह छायावादी कवि आत्मब्रह्म और आत्म- परिष्कार की खोज में न जाकर विश्वात्मा और विश्वजीवन की खोज में अग्रसर हुए। अतः उनकी प्रेरणा का स्रोत मध्ययुगीन भारतीय अन्तश्चेतना (साइकी) न रहकर विश्व चेतना (यूनिवर्सल साइकी) रही।’’

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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छायावाद : पुनर्मूल्यांकन)। 
इसी तरह हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण हिन्दी कविता की पृष्ठभूमि में छायावादी कविता एक नये ऐतिहासिक बोध से संयुक्त, एक सार्वभौमिक मानववाद को नैतिक मूल्य के रूप में स्वीकृत कर कविता को उसकी कलात्मक और नैतिक चेतना में सार्वभौमिक क्षण तक ले जाने का सर्वथा एक नया प्रयत्न है। परिभाषा देने का यह प्रयत्न सिर्फ छायावादी कविता को पुरानी आलोचना और पूर्वाग्रह के जाल से मुक्त करने और उसको सही संदर्भों में रखने के लिए है। छायावादी कविता को ‘रोमांसलता’ के जिस प्रच्छन्न सीमित काव्य-मूल्य से जोड़ा गया है, वह इस कविता-धारा की अनेकानेक उपलब्धियों को झुठलाता और नकारता है और इस तरह उसका एक सम्पूर्ण अध्ययन और मूल्यांकन सम्भव नहीं हो पाता। ये प्रच्छन्न प्रशंसात्मक और गुण रूप पूर्वाग्रह अनेकानेक कठिनाइयों और कविता-धारा का मज़ाक उड़ाने और न समझ सकने तथा गलत व्याख्याओं के कारण उत्पन्न हुए हैं। इन व्याख्याओं से छायावाद के कई मूर्धन्य कवि आक्रान्त भी रहे हैं और उन्होंने अपनी कविता की विश्वजनीन संवेदनाओं पर सीधे दृष्टि न डालते हुए, आलोचना के इन मानदंड़ों की स्वयं व्याख्या करने या उन्हें परिभाषित करने की भी कोशिशें की हैं। ‘छायावाद’ नाम को लेकर ही, जो इस कविता-धारा को एक व्यंग्योक्ति के रूप में दिया गया था-स्वयं प्रसादजी और महादेवी वर्मा ने अपने-अपने ढंग से अपनाने और परिभाषित करने की कोशिश की। निश्चय ही उन्होंने परिभाषा के उपादन अपनी कविताओं से ही लिये, लेकिन एक व्यंग्य के रूप में प्राप्त उस नाम को उन्होंने गम्भीरतापूर्वक तो लिया ही। प्रसादजी का इस कविता को ‘पारदर्शी वेदना’ से जोड़ना और महादेवी का उसे ‘रहस्-चैतन्य’ की परिकल्पना से परिपूर्ण करना उनकी अपनी कविताओं की संगति में अधिक उचित तो मालूम पड़ता है, लेकिन सम्पूर्ण कविता धारा के मूल्यांकन के लिए ये परिभाषाएँ आज अकसर छोटी लगती हैं।

 इस सम्बन्ध में श्री सुमित्रानन्दन पन्त का दृष्टिकोण हमेशा विश्लेषणात्मक और मूल्यपरक रहा है। उन्होंने कविता के कला-मूल्यों और वस्तु की ऐतिहासिक और निजात्मक व्याख्या अधिक की है और इस तरह कविता को किन्ही निश्चित और संकीर्ण परिभाषाओं में न बाँधकर उसके अध्ययन के क्षेत्र और सम्भावनाओं को अधिक महत्व दिया है। ‘पल्लव’ की भूमिका से लेकर, ‘आधुनिक कवि’, ‘रश्मिबंध’, ‘चिदम्बरा’ आदि सारे कविता-संग्रहों संकलनों की भूमिकाओं में उनका दृष्टिकोण हमेशा व्याख्यात्मक, मूल्यपरक,  अध्ययनपरक और कविता और युग और इतिहास और कवि की अन्त संगति की एक खोज रहा है। यह यह द्रष्टव्य है कि पल्लव की भूमिका की मूल दृष्टि परिभाषात्मक न होकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अपनी कविता (और इस तरह सम्पूर्ण छायावादी कविता) की कलात्मक और वस्तुगत उपलब्धियों की अंत संगति की खोज है। इस सम्बन्ध में आगे कवि की विभिन्न काव्य दिशाओं पर विचार करते हुए हम विस्तार में जायेंगे। यहाँ केवल इतना ही कि छायावादी कविता के विश्लेषण में पन्तजी की दृष्टि कवितागत उपलब्धियों को परिभाषाओं की संकुचित सीमा में बाँधने और उसके बाहर पड़ने वाले प्रसंगों को नकारना नहीं रहा है।

‘निराला’ इस सम्बन्ध में बिलकुल तटस्थ या आत्मस्थ रहे हैं। ‘प्रबन्ध प्रतिमा’, ‘चाबुक’ या ‘चिन्तन’ के अधिकाश निबंध कविता की आंतरिक खोज और दूसरे कवियों के प्रसगों विवरणों से अधिक सम्बद्ध हैं उनकी व्याख्याएँ एक विशुद्ध कलावादी आलोचना या प्रभाववादी और विवरणात्मक विश्लेषण के अधिक निकट पड़ती हैं। वास्तविकता यह है कि पन्त और निराला दोनों ही छायावाद की तथा कथित भ्रांति-मूलक अवधारणाओं से अपने-अपने ढंग से प्रभावित या आतंकित नहीं हुए हैं। जहाँ पन्त कविता की गतिशील उपलब्धियों के प्रति सचेत हैं और उसकी प्रयोग धर्मिताओं की व्याख्या से कविता की भाव परिधि को बढ़ाते चलते हैं, वहाँ निराला अपने अन्दर और बाहर के अनेक कारणों और वैषम्यों से इस तरह के प्रयत्नों से अलग-थलग और तटस्थ है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पल्लव

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक :  राजकमल प्रकाशन
प्रकाशित :  जनवरी ०२, २००६
Book Id : 3161

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
‘‘पल्लव बिलकुल नये काव्य-गुणों को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में आया...पन्त में कल्पना शब्दों के चुनाव से ही शुरू होती है। छन्दों के निर्वाचन और परिवर्तन में भी वह व्यक्त होती है। उसका प्रवाह अत्यन्त शक्तिशाली है। इसके साथ जब प्रकृति और मानव-सौन्दर्य के प्रति कवि के बालकोचित औत्सुक्य और कुतूहल के भावों का सम्मिलन होता है तो ऐसे सौन्दर्य की सृष्टि होती है जो पुराने काव्य के रसिकों के निकट परिचित नहीं होता। कम सम्वेदनशील पुराने सहृदय इस नई कविता से बिदक उठे थे और अधिक सम्वेदनशील सहृदय प्रसन्न हुए थे।

 पल्लव के भावों की अभिव्यक्ति में अद्भुत सरलता और ईमानदारी थी। कवि बँधी रूढ़ियों के प्रति कठोर नहीं है उसने उनके प्रति व्यंग्य और उपहास का प्रहार नहीं किया, पर वह उनकी बाहरी बातों की उपेक्षा करके अन्तराल में स्थित सहज सौंदर्य की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करता है। मनुष्य के कोमल स्वभाव, बालिका के अकृत्रिम, प्रीति-स्निग्ध हृदय और प्रकृति के विराट और विपुल रूपों में अन्तर्निहित शोभा का ऐसा हृदयहारी चित्रण उन दिनों अन्यत्र नहीं देखा गया।’’
-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

 

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