ब्रज भाषा से मेरा अभिप्राय प्राचीन साहित्यिक हिन्दी से है, जिसमें ‘अवधी’ भी शामिल है।
सिंचित राग-रागिनियाँ जिन्हें कहीं शेषनाग सुन ले तो उसके सिर पर रक्खे हुए धरा मेरू डावाडोल हो जायें इस भय से विधाता ने उसे कान नहीं दिये-अभी तक हमारे वसन्तोत्सव में कोकिलाओं के कण्ठों से मधुस्रवण करती हैं। शिल्प तथा चित्रकलाओं की पावस हरीतिमा ने सर्वत्र भीतर बाहर राजप्रसादों को लपेट लिया। चतुर चित्रकारों ने अपने चित्रों में भावों की सूक्ष्मता और सुकुमारता, सुरों की सजधज तथा सम्पूर्णता, जान पड़ता है अपनी अनिमेष चितवन की अचंचल बरुनियों, अपने भाव मुग्ध हृदय के तन्मय रोओं से चित्रित की। शाहजादा दारा का ‘अलबम’ चित्रकारी के चमत्कार की चकाचौंध है। शिल्पकला के अनेक शतदल दिल्ली, लखनऊ, आगरा आदि शहरों में अपनी सम्पूर्णता तथा उत्कर्ष में अमर और अम्लान खडे़ हैं, ताजमहल में मानो शिल्पकला ही गलाकर ढाल दी गयी।
देव, विहारी, केशव आदि कवियों के अनिन्द्य पुष्पोद्यान अभी तक अपनी अमन्द सौरभ तथा अनन्त मधु से राशि-राशि भौरों को मुग्ध कर रहे हैं-यहाँ कूल केलि कछार, कुजों में सर्वत्र असुप्त वसन्त शोभित है बीचोबीच बहती हुई नीली यमुना में, उसकी फेनोज्ज्वल चंचल तरंगों सी असंख्य सुकुमारियाँ श्याम के अनुराग में डूब रही हैं। वहां बिजली छिपे अभिसार करती, भौरें सन्देश पहुंचाते चाँद चिनगारियाँ बरसाता है। वहाँ छहों ऋतुएँ कल्पना के बहुरंगी पंखों में उड़कर स्वर्ग की अप्सराओं की तरह उस नन्दन वन के चारों ओर अनवरत परिक्रमा कर रही हैं। उस ‘‘चन्द्रिकाधौतहर्म्या बसतिरलका’’ के आस-पास ‘‘आनन ओप उजास’’ से नित प्रति पूनो ही रहती है। चपला की चंचल डोरियों में पैग भरते हुए नये बादलों के हिडोरे पर झूलती हुई इन्द्रधनुष सुकुमारियाँ झरी की झमक और घटा की धमक में हिंडोरें की रमक मिला रही हैं। वहाँ सौंदर्य अपनी ही सुकुमारता में अन्तर्धान हो रहा, समस्त नक्षत्र मण्डल उसके श्रीचरणों पर निछावर हो नखावलि बन गया, अलंकारों की झनक ने देव वीणा से फूटकर रूप को स्वर दे दिया है।
वहाँ फूलों में काँटे नहीं फूल की विरह से सूखकर काँटों में बदल गये हैं-यह कल्पना का अनिर्वचनीय इन्द्रजाल है प्रेम की पलकों पर सौंदर्य का स्वप्न है, मर्त्य के हृदय में स्वर्ग का बिम्ब है मनोवेगों की अराजकता है। सच है, ‘‘पल-पल पर पल-टन लगे जाके अंग अनूप’’ ऐसी उस ब्रज बाला के स्वरूप को कौन वर्णन कर सकता है ? उस माधुर्य की मेनका की कल्पना का अंचल छोर उसके उपासकों के श्वासोच्छ्वासों के चार वायु में उड़ता हुआ, नीलाकाश की तरह फैलकर, कभी आध्यात्मिक के नीरव पुलिनों को भी स्पर्श कर आता है पर कामना के झोंके शीघ्र ही सौ सौ हाथों से उसे खींच लेते हैं। वह ब्रज के दूध दही और माखन से पूर्ण प्रस्फुटित यौवना अपनी बाह्म रूप राशि पर इतनी मुग्ध रहती है कि उसे अपने अन्तर्जगत के सौंदर्य के उपभोग करने, उसकी ओर दृष्टिपात करने का अवकाश ही नहीं मिलता, नि:सन्देह उसका सौंदर्य अपूर्व है, भाषातीत है, यह उस युग का नन्दन कानन है ! जहाँ सौंदर्य की अप्सरा अपनी ही छवि की प्रभा में स्वच्छन्दता पूर्वक विहार करती है। अब हम उस युग का कैलास देखेंगे जहाँ सुन्दरता मूर्तिमती तपस्या बनी हुई, कामना की अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हो, प्रेम की लोकोज्ज्वल कारिणी स्निग्ध चन्द्रिका में, संयम की स्थिर दीपशिखा सी शुद्ध एवं निष्कलुष सुशोभित है। वह उस युग का शत-शत ध्वनिपूर्ण कल्लोलों में विलोड़ित बाह्म स्वरूप है, यह उसका गम्भीर निर्वाक् अन्तस्तल !
जिस प्रकार उस युग के स्वर्ण गर्भ से भौतिक सुख शान्ति के स्थापक प्रसूत हुए उसी प्रकार मानसिक सुख शान्ति के शासक भी, जो प्रात: स्मरणीय पुरुष इतिहास के पृष्ठों पर रामानुज रामानन्द, कबीर, महाप्रभु बल्लभाचार्य, नानक इत्यादि नामों से स्वर्णांकित है इतिहास के ही नहीं, देश के हृत्पृष्ठ पर उनकी अक्षय अष्टछाप उसकी सभ्यता के वक्ष पर उनका श्रीवत्स चिह्न अमिट और अमर है। इन्हीं युग प्रवर्तकों के गम्भीर अन्तस्तल से ईश्वरी अनुराग के अन्नत-उद्गार उमड़कर देश के आकाश में घनाकार छा गये। ब्राह्मणों के शुष्क दर्शन तत्त्वों की ऊष्मा से नीरस, निष्क्रिय वायुमण्डल भक्ति के विशाल श्याम घन से सरस तथा सजल हो गया राम-कृष्ण के प्रेम की अखण्ड रसधाराओं ने, सौ-सौ बौछारों में बरस, भारत का हृदय प्लावित तथा उर्वर कर दिया। एक ओर सूरसागर भर गया, दूसरी ओर तुलसी मानस !
सीही के उस अन्तर्यनन सूर का सूरसागर ? वह अतल, अकूत अनन्त प्रेमाम्बुधि ? उसमें अमूल्य रत्न है ! उसकी प्रत्येक तरंग श्याम की वंशी की भुवन मोहिनी तान पर नाचती, थिरकती भक्तों के भूरि हृत्स्पन्दन से ताल मिलाती, मँझधार में पड़ी सौ-सौ पुरानी नावों को पार लगाती, असीम की ओर चली गयी है ! वह भगवद्भक्ति के आनन्दाधिक्य का जल प्रलय है, जिसमें समस्त संसार निमग्न हो जाता है। वह ईश्वरीय प्रेम की पवित्र भूल-भूलैया है जिसमें एक बार पैठकर बाहर निकलना कठिन हो जाता है। कुएँ में गिरे हुए को जदुपति भले ही बाँह पकड़कर निकाल सकें पर जो एक बार सागर में डूब जाता है उसे सूर के श्याम भी बाहर नहीं खींच सकते ! सूर सूर की वाणी ! भारत के ‘‘हिरदै सों जब जाइ हौ मरद बदौगो तोहि !’’ और रामचरित मानस ? उस ‘जायो कुल मंगन’’ का ‘‘रत्नावली’’ से ज्योतित मानस ? उस-
‘‘जन्म सिन्धु, पुनि बन्धु विष, दिन मलीन, सकलंक,
उन सन समता पाय किमि, चन्द्र वापुरो रंक
’’-‘‘तुलसी शशी’’ की उज्ज्वल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण मानस ? वह हमारी सनातन धर्म-प्राण जातीयता का अविनश्वर सूक्ष्म शरीर है। भारतीय सभ्यता का विशाल आदर्श है जिसमें उसका सूर्योज्ज्वलमुख स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। वह तुलसीदास के निर्मल मानस में अनन्त का अक्षय प्रतिबिम्ब है। उसकी सौ-सौ तारक चुम्बित सरल तरल बीचियों के ऊपर जो भक्ति का अमर सहस्रदल विकसित है, वह मर्यादापुरुषोत्तम की पवित्र पद रेणु से परिपूर्ण है ! मानस इतिहास में महाकाव्य, महाकाव्य में इतिहास है। उस युग के ईश्वरीय अनुराग का नक्षत्रोंज्ज्वल ताजमहल है, जिसमें श्री सीताराम की पुण्यस्मृति चिरन्तन सुप्ति में जाग्रत है। ये दोनों काव्य रत्न भारती के अक्षय भण्डार के दो सिंह द्वार है, जो उस युग के भगवत्प्रेम की पवित्र धातु से ढाल दिये गये हैं।
जिन अन्य कवियों की पावन वाणी से ईस्वरनुराग का अवशिष्ट रस अनेक सरिता और निर्झरों के रूप में फूटकर ब्रज भाषा के साहित्य-समुद्र में भर गया, उनमें हम उस सखियों के सम्राट उस फूलों की देह के भगत कबीर साहब, उस लहरतारा के तालाब के गोत्र कुल हीन स्वर्ण पंकज उस स्वर्गीय संगीत के जुलाहे के साथ-जिसने अपने सूक्ष्म ताने-बाने में गगन का ‘‘शबद अनाहद’’ बुन दिया-एकान्त में अपने गोपाल की मूर्ति से बातें करने वाली उस मीरा को भी नहीं भूल सकते। वह भक्ति के तपोवन की शकुन्तला है, राजपूताने के मरुस्थल की मन्दाकिनी है ! उसने वासना के विष को पीकर प्रेमामृत बना दिया है, उसने शब्दों में नहीं गाया, अपने प्रेमाधिक्य से भावना को ही वाणी के रूप में घनीभूत कर दिया, अरूप को स्वरूप दे दिया ! –ऐसा था अपार उस युग के मधु का भण्डार, जिसने ब्रज भाषा के छत्ते को लबालब भर दिया, उस अमृत ने उस भाषा को अमर कर दिया, उस भाषा ने उस अमृत को सुलभ !