Author Topic: Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये  (Read 29154 times)

Risky Pathak

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 2,502
  • Karma: +51/-0
Brijendra jee, atyotamm....

:oमै निशब्द हूँ :o


व्यक्ति की अभिव्यक्ति में
नित उपजते आक्रोश  से
                   स्तब्ध हूँ .
               मै निशब्द हूँ .

व्यंग की अभिव्यक्ति में
नित   पनपते विद्वेष  से
                  स्तब्ध हूँ .
             मै निशब्द हूँ. 
                  ...



Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
स्वयं तिमिर में रहता है

जिसने सारे महल बनाए,
जिसने ऊंची मीनारें।
जिसने पथ-सेतु बनाए,
जिसने सारे कल-कारखाने। 
जिसके श्रम से सूत बने,
तन ढकने को सारे। 
जिसने श्रम से खोद निकाले,
रत्न  धरा-सिंधु  से न्यारे। 
जिसके श्रम की रचना देख, 
मन प्रफुल्लित  होता है। 
जग को जग-मग करके वो,
स्वयं तिमिर में रहता है। 
जलता रहता है 'चिराग'  सा, 
तले अंधेरा  रहता है।
   ...

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
(उत्तराखंड में देवी-देवताओं से पहले पूज्यनीय रमदेवी पर कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है कृपया इस कृति पर अपनी टिप्पणी या सुधार करने का कष्ट करें)       

    रमदेवी

या रमदेवी सर्वकार्येषु शक्तिरूपेण संस्थिता:।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या रमदेवी सर्वकार्येषु शांतिरूपेण संस्थिता:।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या रमदेवी सर्वअतिथि क्षुधारूपेण संस्थिता:। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ॥

या रमदेवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता:। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या रमदेवी सर्वभूतेषु अतुष्टिरूपेण संस्थिता:। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

या रमदेवी सर्वकार्येषु कामनापूर्ति शब्दिता:। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

             .....

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
मै निशब्द हूँ

                  (2)

व्यक्ति की  उत्कर्ष  में
नित  उभरते   दंभ से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

दंभ  के  उत्कर्ष   में
नित  पनपते  दंश से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।
          ...

           क्रमश:

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
    मै निशब्द हूँ        

          (3)
व्यक्ति की  अपकर्ष  में
नित उपजते प्रतिशोध से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

अपकर्ष के प्रतिशोध  में
नित  पनपते संघात से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।
   
       (4)
व्यक्ति की  कर्तव्य  में
नित उपजते स्वार्थ  से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

स्वार्थ  के  कर्तव्य  में
नित पनपते लोभ  से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।


           क्रमश:....

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
मै निशब्द हूँ         

           (5)
व्यक्ति के    आहार  में
नित  मिलते  गरल से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

गरल   के   आहार  में
नित पनपती व्याधियों से
             स्तब्ध हूँ
         मै निशब्द हूँ।
         
       (6)
व्यक्ति  के व्यवहार  में
नित उपजती कटुता  से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

कटुता  के व्यवहार में
नित  टूटते  संबंधों से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

         क्रमश:....

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
हिमखंडो की रानी

शैल-विपिन-हिमखंडो की रानी
नैसर्गिक सौन्दर्य महरानी
तेरी छवि-छटा अपार है।

उषा काल की स्वर्ण किरण
जब तिमिर चीरते तुझको देती   
स्वर्ण पुंज का उपहार।

धवल तुंग और वन-उपवन में
लता-पुष्प-पल्लव-किसलय के   
सजते मनोरम बंदनवार।

मखमल जैसी हरी घास पर
बूंद-बूंद पड़ी ओस भी
पिरोती मंजुल मुक्ता हार। 

सरी, सुरसरि, निर्झर झरनों का 
रजत प्रभा बिखेरता पय
अमिय लुटाता छलका कर।

खग-मृग-भृंग बृंद 
सुरम्य वन उपवन में
मधुर सुनाते मंगलाचार।

पनघट पर मनुहार करती
सखियाँ खनकाती
चूड़ियों की विरह खनकार।

बैलों की मृदु घंटियों की ध्वनि
हलधर के स्वर मिश्रित
गुंजने लगते आर-पार।

छात्र-दल पद पाठशाला को
धूल उड़ाते होते अग्रसर
करने अपने सपने साकार।



मध्य काल की तप्त किरण
जब  तीक्ष्ण  बेग  से
अग्नि पुंज से करती प्रहार।

खग-मृग-जन-मन अकुलाकर
द्रुम-दलों की सघन छाँव में
आश्रय लेते विभिन्न प्रकार।



सांध्य काल की पीताम्बरी किरण
जब शांत बेग से
समेटती अपना आकार।

गौ धूलि की बेला आती
दिनचर्या कर समाप्त चर
लौटते अपने आगार।



निशा काल के तीर विकराल
सन्नाटे के पाँव फैलाते
तानते जब तम की चादर। 

रजनीचर नींद से जागते   
जुगनू जग-मग करते उड़ते
गूँजती झींगुर की झंकार।



गहराती जाती रजनी के
पसरते हुए सन्नाटे में
मृगेंद्र का अब एकाधिकार।
      ...

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
मोबाइल  


मोबाइल से खत्म हुआ, ‘ट्रंक-कॉल’ का ‘वेट’
परंतु साथ आरम्भ हुआ, ‘मिस-कॉल’ का ‘वेट’
‘मिस-कॉल’ का ‘वेट’, हुआ कुछ ऐसा टाइम ‘सेट’
माँ-बाप पहले पहुंचे थे,   जब   वी    मेट। (1)

मोबाइल के क्रेज़ का,  कुछ ऐसा चढ़ा बुखार
अस्सी साल की माताजी, मोबाइल मांगे उधार
मोबाइल मांगे उधार, कान पर है चिपकाती
बातें करने मोबाइल पर, घर से बाहर जाती। (2)

कभी ‘अनवांटेड’ एस॰एम॰एस॰ से, ब्रेन हो गया ‘ब्वायल’
कभी प्रेयसी की विवश ‘कॉल’से, दिल की फुक गई ‘क्वायल’।
दिल की फुक गई ‘क्वायल’, ऊपर से पत्नी की रिपीट ‘कॉल’ से,
अरमानो की वाट लग गई, लाइफ हो गई ‘स्वायल’। (3)

त्रस्त हुआ मोबाइल से मै,  असमय बजता है
लैट्रिन-बाथरूम साथ ले जाओ, अफसर कहता है
साथ लेजाऊँ कैसे, काल से होता उनकी घायल
परंतु हाथ में मोबाइल से, पर्सनलिटी होती ‘रॉयल’ (4)

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
वक्त

वक्त-वक्त की बात है
वक्त ही महान है
वक्त से ही पहचान है
वक्त ही राजा बनाता
वक्त ही बनाता रंक है
राजा के पास तख्त है
रंक के पास रक्त है
तख्त को रक्त चाहिये
रक्त हर वक्त चाहिये
चुनाव के वक्त चाहिये
भ्रष्ट्राचार के वक्त चाहिये
आंदोलन के वक्त चाहिये
जातिवाद के वक्त चाहिये
छेत्रवाद के वक्त चाहिये
धर्मान्धता के वक्त चाहिये
अलगाववाद के वक्त चाहिये
तख्त को सिर्फ रक्त चाहिये
रक्त हर वक्त चाहिये।

Brijendra Negi

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 215
  • Karma: +4/-0
तेरी कृति

प्रकृति तेरी कृति की,
नित नई आकृति है
हर आकृति की सुंदरता,
इसी धरा से है।
कभी बरसती अमिय लुटाती, सबकी प्यास बुझाती हो,
थलचर, जलचर, नभचर के, जीवन में रस भरती हो,
कभी बरसती तांडव करती, भयाक्रांत कर देती हो,
अपने अविरल तेज प्रवाह से, काल कोख फैलाती हो,
कभी धूप के नर्म तपिस से, जीवन मधुमय करती हो,
कभी उगलती अगन भयंकर, त्राहि-त्राहि कर देती हो,
नित-नित धर कर रूप नया, शस्त्र भिन्न चलाती हो,
कभी श्री सौभाग्य असीमित, कभी विछिन्न कर देती हो,
बार-बार प्रहार करती हो, मानव की रचना पर,
अनिकेत अपराजित हूँ, भान  कराती  हो हर प्रहर।
हे अज्ञेय, अजेय
हे क्रूर निर्मोही
निर्ममता तेरी कृति पर ही।

(2)

प्रकृति तेरी आकृति की,
नित नई रीत है,
कभी होता पुलकित जग   
कभी करूण रुदन है।
कभी उफनती क्षीर सागर से, विकट सुनामी बनकर,
भीषण विनाश करती हो, लहरों से उठ-उठ कर,
कभी समुद्र से उठती हो, चक्रवाती तूफान बनकर,
सब कुछ नष्ट कर देती हो, पल  भर में आकर,
कभी धरा के अंक से, फड़कती हो भूचाल बनकर,
घर-आलय खंडित हो मिलते, क्षण भर में अवनी पर,
कभी गगन में चमकती हो, चपल चपला बनकर,
जल-थल सम कर देती हो, अचला पर गिरकर,
बार-बार प्रहार करती हो, मानव की रचना पर,
आदि-अनादि-अकथ हूँ, भान कराती हो हर प्रहर।
हे अजित, अपराजिता
हे कालजयी
पराजित खुद से ही।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22