Author Topic: Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख  (Read 19398 times)

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
फसक-फराल
« Reply #20 on: March 08, 2013, 10:20:52 AM »
फसक-फराल !

by : Shri Uday Tamta Ji

मित्रो, अब पहाड़ों में फसक-फराल कम ही होती है, अगर कहीं होती भी है तो उसकी विषय-वस्तु आम तौर पर राजनीति से संवंधित विषय ही होती हैं। यदि राजनीति से हटकर कोई फसक चलती है तो वह भी इस बात पर ही सर्वाधिक होती है कि फलां योजना के लिए ऊपर कितना धन आया था और कितना सही मायने में 'लगा' और कितना जेबों की तरफ 'सरक' गया। यह बात भले ही कभी बाहर नहीं आती, पर खुसर-फुसरों पर जायें तो इसका पैंसे-पैंसे का हिसाब फसकियों की जुबान पर होता है। यहाँ पर आपके मनोरंजन के लिए नमूने के तौर पर एक काल्पनिक फसक का रेखाचित्र गंगोली की ठेठ भाषा में प्रस्तुत करूँगा। चूँकि पहाड़ी भाषा के लिए उच्चारण के हिसाब से सटीक लिपि का विकास नहीं हुआ है, इसलिए लिखने में थोडा अंतर आ जाता है--

पहला फसकिया --'हला दा, ऐग्योछै तु काम छाड़ी भेर ?
दूसरा फसकिया --होइ ला, आइ गेई पें। कि कर्छि वाँ ? पैंस-वेंसनक त पत्त नि चलन। कतुक आइ और कतुक खाइ, वाँ पत्त नि चलनेर भ्यो ला। सबै खै जानि हो रनकार।
पहला--मलि भटे क्वे नि ऊन्योर भ्यो काम धेक्नें तें ?
दूसरा-- नैं हो भुलि, क्वे नि उन्योर भ्यो। तल्लि गाड़ी सड़क तक ऊनेर भ्या रनकार, थैलि भरि भेर हिटि दिनेर भ्या उत्ति भटे। विहै ठुल सैप त वेंइं भटे नि ऊन।
पहला--पें जब बिन कामक डबल खैग्यात त काम कस्ये धिकुन न्हयाल पें ?
दूसरा--रपोट बनै लिन्ही कागजन में कि चौमास में सब बगि ग्यो। और मलि तक सबै मानि जनेर भ्या।

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
[justify]अच्छाई व बुराई--दोनों का ही संयुक्त पर्व है होली !

by Uday Tamta

मित्रो, होली का पर्व पौराणिक वांग्मय व अनुश्रुतियों से उपजा हुआ एक पर्व है। यह प्रसंग वास्तव में सतयुग का है, जो त्रेता व द्वापर से  कालक्रमानुसार करोड़ों वर्ष पहिले का है। कालक्रम के अनुसार ही भगवान नृसिंह भी विष्णु के वह अवतार हैं, जो भगवान राम से करोड़ों वर्ष पूर्व हुए थे। यह अलग बात है कि कुछ मानवशास्त्री व वैज्ञानिक सोच वाले लोग इन चारों युगों की परिकल्पना को भी काल्पनिक ही मानकर चलते हैं। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे संसार की पौराणिक कथाओं व अनुश्रुतियों में हमेशा ही यह गुंजाइश रही है कि उस में कुछ ऐसा भी परिकल्पित कर दिया जाय, जो वास्ताविक जीवन में सम्वव ही न हो। होली, ज़ो आज रंगों के महापर्व के रूप में मुख्य रूप से भारत व नेपाल में मनाया जाता है, का सम्वन्ध मुख्य रूप से भक्त प्रहलाद, उनके पिता ह्रिन्यकश्यपु व उसकी बहन होलिका से जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि होलिका को वरदान स्वरुप एक दोशाला मिला था, जिसके किसी के द्वारा ओढे जाने पर आग की भयंकर लपटें भी उसे जला नहीं सकतीं थीं। जब हृन्यकश्यपु को भक्त प्रहलाद को मारने में सफलता नहीं मिली, तो उसके द्वारा अपनी बहन होलिका को वाध्य किया गया की वह इस दोशाले कॊ ओढ़ कर धधकती चिता पर बैठ जाय ताकि वह बालक जलकर राख होजाय। इस पर दो सामानांतर अनुश्रुतियाँ हैं--पहली--होलिका जानबूझ कर प्रह्लाद् को मारने के लिए आग पर बैठी, परन्तु ऐन मौके पर भगवन विष्णु ने आकर हवा के झोंके से दोशाला हटाकर प्रह्लाद के ऊपर डाल दिया, जिससे स्वयं होलिका तो जल गई परन्तु प्रह्लाद सकुशल बच गए। दूसरी कथा यह है कि होलिका प्रह्लाद से बहुत प्यार करती थी। बचपन में उसने ही उनका पालन पोषण किया था। इसी वात्सल्यवश उसने अपना दोशाला प्रह्लाद के ऊपर डाल दिया था। यह उसका बलिदान माना जाता है। पर इस सम्वन्ध में यह प्रश्न कुछ हद तक अनुत्तरित ही है कि इस पर्व का प्रारंभ बृज क्षेत्र में कैसे हुआ ? सम्भव है कि प्रह्लाद मथुरा में ही पैदा हुए हों। इस प्रसंग के सम्वन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि इस घटना पर जहाँ ह्रिन्यकश्यपु पक्ष के लोगों ने शोक मनाया होगा, वहीँ प्रहलाद के समर्थकों ने उत्सव। यह प्रश्न भी आजतक लगभग अनुत्तरित ही है कि इसमें एक ओर रंग और आगये, वहीँ कच्यार (कीचड़) भी। इसी प्रकार सैद्धांतिक रूप से हम इसे आपसी सद्भाव व प्रेम का पर्व मानते हैं, वहीँ इस अवसर पर आपसी दुराव व बदला लेने की दुर्भावना भी कम नहीं रहती। बहुत से मामलों में न्यायालयों में चल रहे मुकदमों की कडुवाहट भी इस अवसर पर बाहर निकलती हुई देखी जासकती है। इस अवसर पर रंगों की बौछार के बीच कीचड़ व पानी की बौछार भी चलती ही है। इस अवसर पर देश भर में उच्छरंखलता का साम्राज्य छा जाता है। जो रंग नहीं खेलना चाहता, उसे भी रंग व कीचड़ से तरबतर कर देने से अक्सर भीषण संघर्ष होते देखे गए हैं। कुल मिलाकर होली का यह पर्व अपने अन्दर प्रकारांतर से अच्छाई व बुराई दोनों को ही समेटे हुए है। अच्छों के लिए अच्छा, और बुरों के लिए बुरा।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
[justify]लोक गाथा--निरैवैलि जैंता की ह्रदय विदारक कथा

by Sir Uday Tamta Ji 

मित्रो, लोक गाथा श्रुति के रूप में संचारित एक अलिखित दस्तावेज होता है, जो काल्पनिक भी होसकता है अथवा ऐतिहासिक या अर्ध-ऐतिहासिक भी। कुमायूं तथा गढ़वाल में भी कई लोक गाथाएं अज्ञात काल से चली आ रहीं हैं। इस प्रकार की गाथाओं में कभी कभी अतिशयोक्तिपूर्ण आख्यान भी होते हैं, जो तर्क की कसौटी में खरे नहीं उतरते, या ऐतिहासिक घटनाक्रम से मेल नहीं खाते, परन्तु फिर भी इनकी नीव लोक जीवन के सहज विशवास पर खड़ी होती है, इसलिए यह अपने अन्दर सदियों तक जीवित रहने की क्षमता और संकल्प समेटे रखती हैं। चूँकि लोक गाथाएं केवल मौखिक संचरण के माध्यम से आगे चलती हैं, समय बीतने के साथ ही इनके स्वरुप व कथानक में पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ परिवर्तन भी होते ही रहते है, जैसा कि राम कथा के साथ हुआ। यूँ तो महिलाओं का जीवन--विशेष रूप से पर्वत प्रांतर में हमेशा से ही कष्टपूर्ण रहा है, परन्तु लोकगाथाओं में इसे और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाने की परंपरा सी ही रही है। आज इसी क्रम में मैं आपके सामने निरैवैलि जैंता की मध्यकालीन कुमाऊनी/गढ़वाली लोक गाथा प्रस्तुत करूँगा, जोकि इस प्रकार है--                                                                                                                                                                                                                       उलांसारि नाम का एक गरीब किसान था। वह खेती बाड़ी से अपनी रोजी चलाता था। उसके घर एक पुत्री पैदा हुई, जिसका नाम निरैवैलि जैंता रखा गया। वह बचपन से ही बहुत मेहनतकश थी तथा घर के सारे कामों में पूरी तन्मयता से अपने माँ-बाप का हाथ बटाती थी। बड़ी होने पर उसका विवाह पडौस के ही एक गांव मिलौली के युवक भेल्सियूँ से कर दिया गया। परन्तु उसके साथ धोखा हो गया। भेल्सियूँ बहुत ही अधिक मंद बुद्धि का निकला, जिसे दीन-दुनियां की कोई खबर ही नहीं थी। इतना ही नहीं, उसकी सास भी बहुत ही निर्दय स्वभाव की महिला थी, जो निरंतर ही उस पर नाना प्रकार के अत्याचार ढाती थी। वह उसे खाना भी भरपेट नहीं देती थी, पर काम के मामले में उसे हमेशा ही कोल्हू के बैल की तरह हर समय ही जोते रखती थी। वह जब घास-लकड़ी के लिए जंगल जाती तो साथ की सभी महिलाएं अच्छा चवेना लेजातीं थी, पर जैंता को केवल भांगिरे का प्युन (भंगीरे की सूखी खली) ही मिलती। इतना भर ही होता, तो चल भी जाता, पर उसका दुर्भाग्य तो कहीं दूर तक ही उसके साथ-साथ ही चल रहा था। वह उसे कई सूपे धान के कूटने के लिए देती, पर मूसल छुपा देती। वह किसी तरह लकड़ी के खूंटे से ही धान की कुटाई कर लेती। घास काटना तो आवश्यक था, पर इसके लिए दराती व रस्सी लेजाने की अनुमति उसे नहीं थी। वह किसी तरह हाथ से ही घास की पत्तियां बीन लेती और बिरलुवा की बेल (यह एक मीठा व रसीला जंगली कंद होता है) की रस्सी बनाकर उसके गट्ठर बना लेती। जब उसे लकड़ी के लिए जंगल भेजा जाता तो उसे लकड़ी काटने के लिए दतुलिया (बड़ी दराती) ले जाने की अनुमति भी नहीं थी। वह लकड़ी काटने के लिए केवल पत्थर का ही इस्तेमाल कर सकती थी। एक दिन वह एक पत्थर के टुकड़े से लकड़ी काटने का भरसक प्रयास कर रही थी तो उससे किसी भी तरह से लकड़ी कट ही नहीं पा रही थी। उस समय संयोग से वन देवता के रूप में सैम देवता उस वन प्रांतर में विचरण कर रहे थे। इस पर सैम देवता को उस पर बहुत दया आगई। वह उस पत्थर के टुकड़े पर ही अवतरित हो गए। इसकी बजह से न केवल लकड़ी ही कट गई, बल्कि स्वतः ही उसका गट्ठर भी बन गया। उसके बाद तो सैमदेव जी उसके हर काम में उसकी मदद करने लगे। उन्होंने उसके मंद बुद्धि के पति को भी तीव्र बुद्धि प्रदान कर दी। उनकी ही असीम अनुकम्पा व चमत्कारिक शक्ति के कारण उसकी निर्दया सास का जैंता के प्रति व्यवहार भी बदल कर एक दम से आत्मीय होगया। उसके लिए इसके बाद का जीवन पूर्ण रूप से न केवल सुखमय ही होगया, बल्कि सदियों तक निरैवैलि जैंता की गाथा के रूप में वह अमर भी हो गई।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
घनश्याम व बैरागी बैरिये
« Reply #23 on: April 25, 2013, 11:31:10 AM »
घनश्याम व बैरागी बैरिये

by Shri Uday Tamta Ji

[justify]मित्रो, वास्तव में शिक्षित केवल वही नहीं होता, जिसे अक्षर ज्ञान प्राप्त होता है, बल्कि वह भी होता है जिसके अन्दर जन्मजात बुद्धिकौशल होता है। मेरे विचार से बुद्धि का स्तर ऊंचा हो तो लोग ऐसे ऐसे काम भी कर डालते हैं, जो कभी कभी बहुत अधिक उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी नहीं कर सकता। जन्मजात बुद्धि के साथ ही प्रकृति से किसी को विलक्षण शक्ति का उच्च स्तर व आशु कविता करने का गुण भी मिला हो तो फिर क्या कहने ! आज मैं ऐसे ही दो महान बैरियों, जिन्हें भगनौले गायक भी कहते हैं, से आपका परिचय कराऊँगा। यह दोनों आज हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु लोगों की स्मृतियों में यह आज भी जीवित ही नहीं, बल्कि जीवंत भी हैं। पहिले घनश्याम बैरिये के बारे में कुछ जानकारी। यह पचास के दशक के गंगोली क्षेत्र के सबसे बड़े बैरिया थे। इनके गांव का नाम जाखनी था, जो गंगोली की बेल पट्टी के भामा गांव के पास है। बिलकुल ही निरक्षर, पर बला की स्मरण शक्ति के मालिक, प्रवीण आशु कवि, हाज़िर जवाब व बुद्धिचातुर्य में बहुत ही आगे। भगनौले गाना तथा इससे लोगों का मनोरंजन करना इनका शौक भी था और इसी से सामान्यतः इनकी रोजी भी चलती थी। ये दो भगनौले कलाकरों के बीच चल रहे मुकाबले में आये किसी सवाल का इतनी अधिक तत्परता से बहुत ही सटीक उत्तर दे देते थे कि ऐसा लागता था कि जैसे कि उत्तर पहिले आगया और सवाल बाद में पूछा गया हो ! इनकी टीम में बेल पट्टी के ही नाली गांव के उमियाँ रस्यूनी उर्फ़ उम्मेद सिंह भी थे, जो भी इस कला में बड़े ही माहिर थे। घनश्याम बैरिये के समान ही स्तर के दूसरे जो महत्वपूर्ण बैरिया उस ज़माने में थे, उनका नाम था बैरागी राम। वह पूर्वी रामगंगा नदी के उस पार के रहने वाले थे। वह याददास्त, बुद्धिचातुर्य, आशु कविता व हाज़िर ज़बाबी में घनश्याम बैरिये से इक्कीस ही बैठते थे, उन्नीस नहीं । पूर्वी रामगंगा व सरयू के संगम पर वर्ष में चार मेले लगते हैं--बैसाख पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, उत्तरायणीशिवरात्रि को। इनमें से शिवरात्रि का मेला केवल दिन में लगता है, बाकी के तीनों मेले एक दिन व एक रात चलते हैं। यह स्थान केवल दो नदियों का संगम व तीर्थ स्थल ही नहीं है बल्कि सोर, गंगोली, काली कुमाऊंचौगरखा परगनों का भौगोलिक मिलन स्थल भी है। चारों परगनों की बोलियों व संस्कृतियों में भी काफी अंतर है। जहाँ गंगोली की बोली को रूखी खड़ी बोली कह सकते हैं, वहीँ सोर्याली बोली में बृजभाषा की तरह का रस माधुर्य व सम्बोधनों में भी शालीनता है। रात के मेले में साठ के दशक तक जब तक घनश्याम व बैरागी बैरिये जीवित रहे, यहाँ भगनौले पूरी रात चलते थे। सवाल जवाब, नोक झोंक, गंगोली व सोर परगनों से संबंधित किस्से, एक दूसरे के परगने की संस्कृति को कमतर बताने वाले किस्से व हसी ठट्ठे के प्रसंग पूरी रात चलते थे। यह दोनों कलाकार आशु कविता में इतने माहिर थे कि एकदम नए प्रसंग में भी पलक झपकते ही लम्बी कविता रच डालते थे। इन बैरों में कड़वाहट के लिए कोई स्थान ही नहीं होता था। धूनी के चारों ओर हजारो की संख्या में श्रोता रहते थे तथा हंसी के ठहाकों से नदी घाटी गुंजायमान हो उठती थी। सुबह होने पर दोनों बैरियों में से कोई भी हारता या जीतता नहीं था, बल्कि एक समन्वयवादी विचार के साथ और इन दोनों के सम्मिलित आशीर्वचनो के साथ ही इस रंगारंग समरोह का सामापन होता था। इन दोनों महान कलाकारों की मृत्यु के बाद फिर रामेश्वर के उत्तरायणी के मेले की रौनक कुछ उठ सी ही गई।   [/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
उत्तराखंड की सैन्य संस्कृति
« Reply #24 on: April 27, 2013, 10:35:08 AM »
उत्तराखंड की सैन्य संस्कृति

by Uday Tamta

[justify]मित्रो, सुप्रभात। यह दिन, यह रात आपको मंगलमय हो। आज चर्चा का विषय उत्तराखंड की सैन्य संस्कृति है, अतः स्वाभाविक रूप से इस ओर भी तनिक ध्यान जाना कि इस संस्कृति के विकास के दौर में हमने क्या खोया और क्या पाया, आवश्यक सा ही है। यह बात सभी मित्रों को भली भांति ज्ञात ही है कि उत्तराखंड देवभूमि होने के साथ ही हमेशा से ही एक युद्धभूमि भी रहा है। यह क्षेत्र आज से नहीं, महाभारत काल, जो लगभग पांच हज़ार साल पहिले का माना जाता है, के समय भी एक पूर्ण रूप से विकसित युद्ध क्षेत्र था, जैसा कि महाभारत के द्रोण पर्व में उल्लिखित है--अयोहस्ता, शूलहस्ता दरास्तास्तंगणा खशा:, लम्वकाश्च, कुलिन्दाश्च, चिक्सिपुस्ताच सात्यकी। (इस युद्ध में सात्यकी के विरुद्ध यह लोग दुर्योधन की तरफ से लड़े--दरद, खस, तंगण, लाम्पाक इत्यादि)। कालिदास ने भी रघुवंश में हूणों पर रघु की विजय का जो उल्लेख किया है, उसका सम्वन्ध भी कुछ न कुछ इसी भूभाग से है। यह वर्णन तो महाभारत काल से भी पहिले की अवधि का है। यह क्षेत्र हमेशा से ही अनगिनत युद्धों का गवाह रहा है। यह धरती प्रागैतिहासिक काल में शक व हूणों का आक्रमण तो झेल ही चुकी थी, निकटवर्ती ज्ञात इतिहास में भी इसने रोहिल्लो का वर्वर आक्रमण ही नहीं झेला, बल्कि इसे गोरखा आक्रमण का भी शिकार होना पड़ा। अंग्रेजों के बाद भी यहाँ के लोगों का सैन्य सेवा की ओर रुझान बरक़रार रहा, भले ही यह कुछ हद तक रोजगार की विवशता भी कही जासकती है। यहाँ के वीर सैनिक प्रथम विश्वयद्ध में इराक में बसरा व बगदाद के रेगिस्तानों में खूब लड़े। द्वितीय विश्वयुद्ध में भी यहाँ के वीरों को बर्मा, सिंगापुर इत्यादि कई स्थानों में अपना युद्ध कौशल दिखाने का अवसर मिला। देश की आज़ादी के बाद सेना की ओर युवाओं के अधिकाधिक जुड़ाव में अपनी माटी की रक्षा करने करने का जज्बा भी प्रमुख रूप से सम्मिलित होगया। आज भी कुमायूनी लोकगीतों में सिल्गड़ी (सिलीगुड़ी), रंगून इत्यादि स्थानों का जो उल्लेख बारबार आता है, वह इसी बजह से आता है कि यहाँ के वीर सैनिकों को इन स्थानों में भी लड़ाई में भाग लेना पड़ा। कुछ समय पूर्व तक सैनिक सेवा में यहाँ के युवाओं की भागीदारी का औसत इस प्रकार का था कि यहाँ के लागभग हर परिवार का कम से कम  एक सदस्य सेना में था। यहाँ के वीरों की वीरता को मान्यता देते हुए अंग्रेजों ने भी गढ़वाल रायफल्सकुमांऊँ रेजिमेंट की स्थापना ही कर डाली। इन दोनों रेजीमेंटों के वीर सैनिकों ने भारत व पाकिस्तान के बीच 1948 के कश्मीर युद्ध व इसके पश्चातवर्ती समस्त युद्धों में अपना बलिदान दिया है। परन्तु, मित्रो, हाल के कुछ वर्षों में यहाँ के युवाओं का सेना में भर्ती होने का प्रतिशत कुछ कम भी हुआ है। इसके कई प्रमुख कारणों में मीडिया के द्वारा एक कारण यह भी बताया जाता है कि इन क्षेत्रों में नशे के व्यापक प्रसार के कारण युवाओं में निरंतर शारीरिक क्षमताओं में गिरावट आगई है। इसका आधार कितना पुख्ता है, बिना व्यापक सर्वेक्षण के कह पाना कठिन ही है, पर यह चिंता का विषय तो हे ही, क्योंकि कहीं न कहीं तो चिंगारी है, इसीलिए तो धुआं है।   [/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
[justify]उत्तराखंड में ज़ेरदस्ताँ (दवे कुचले लोगों) के वोट की कीमत = 0.0000

by Shri Uday Tamta Ji

मित्रो, इतिहास भी कितना चमत्कारी होता है, इसके कार्यकलापों को देखकर कभी कभी अंगुली स्वतः ही दातों के नीचे आ जाती है। ऐसा ही चमत्कार हुआ है उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में दबे कुचले लोगों के वोट का। इसे सिफर के आगोश में कैसे और और किसने धकेला, इस पर अभी तक कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है, फिर भी इसकी पूरी इबारत दीवार पर अंकित है, जहाँ पर जाकर ही इसे साफ पढ़ा जा सकता है। यह आवादी कुल मिलाकर 19% के आसपास है, जो कि वोट के हिसाब से इतनी अधिक है कि किसी भी दल अथवा व्यक्ति को ऊपर उठाने या पटकनी देकर धरती पर गिरा देने की भरपूर क्षमता रखती है, पर यह आज अपनी बदहाली पर आंसू छलका रही है। हर किसी को मालूम है कि जिस जनसमूह के मत का मूल्य शून्य हो, उसके पास भला दुआ सलाम के लिए भी कौन पहुंचेगा ? इसका ही नतीजा है कि आज उसकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति रसातल की ओर अग्रसर है। इसी कारण से राज्य के बजट में ऊपरी तौर पर दिखावे व रश्म अदायगी भर के लिए उसका हिस्सा रखा तो जाता है, पर इसमें कब नहर काटकर इसे अन्यत्र को प्रवाहित कर दिया जाता है, इसकी कानों कान खबर भी नहीं होती। इसका जीता जागता उदाहरण करोड़ों रुपये के कंपोनेंट प्लान की पूरी धारा ही मोड़ देने का है, और आश्चर्यजनक तथ्य यह भी कि इसके विरोध में न तो कोई चूं करने वाला था और न ही किसी को कोई सफाई देने की कभी कोई जरुरत ही पड़ी। बजह वही--जब किसी के वोट से न कोई जीत सकता है और न ही हार सकता है, तब किसी को उसका डर कैसा ?

मित्रो, उत्तराखंड में यह विकृति इस जनसमूह के कथित पक्षधर एक दल के बजूद के कारण ही आई। इसके लिए किसी बाहरी समूह को जिम्मेदार नहीं माना जासकता, क्योंकि इसकी पटकथा स्वयं इस जेरदस्ताँ के ही कुछ अग्रणी लोगों के द्वारा ही लिखी गयी। उस दल का उत्तर प्रदेश में तो अच्छा बजूद था, पर उत्तराखंड के इस खित्ते में उसका कोई नामलेवा भी नहीं था। पर इस सीधी-साधी व निरीह जनता को 'अपने ही वर्ग' को वोट देने की घुट्टी ऐसी पिलायी गई कि भले ही किसी के जीतने की संभावना दूर तक भी न हो, फिर भी इस अवस्था में 'वर्गांध' हो चुके लोग उसे ही अपना वोट देते हैं। इस कारण से उनका वोट न्यूट्रल हो जाता है और वास्तविक लड़ाई केवल दो मदमस्त हाथियों के बीच ही सिमट कर रह जाती है। इससे स्वतः ही ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो बैठा कि कालांतर में इस 'महा प्रथा' के विकास का अगला चरण भी प्रारंभ होगया। अब उत्तराखंड में जेरदस्ताँ के किसी 'तगड़े' उम्मीदवार को 'उठाने' की व्यवस्था ऐसे दूसरे ही दल के द्वारा की जाती है, जिसे परंपरागत तौर पर इस वर्ग का वोट नहीं मिलता या बहुत कम मिलता है। उस डमी उम्मीदवार के लिए प्रचार सामग्री की व्यवस्था भी नेपथ्य से वही लोग करते हैं। उस उम्मीदवार की हथेली में कुछ चिकनाई लगा दी जाती है कि वह इस समूह के वोटों को कबाड़ में डालने का काम करे और स्वयं आराम से खाए-पिए और एक ओर पड़ा रहे ! इस वर्ग के लोगों के मन से इस महा संजाल को काटने की अब कोई युक्ति बची ही नहीं रह गई है। इसीलिए इस व्याधि के उपचार की फिलहाल कोई उम्मीद ही नज़र नहीं आरही। हँस-हँस के बांधी गांठें फिर रो रो कर भी नहीं खुल रहीं !
[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
[justify]दहेज़ बनाम पाणी अथवा फोटक बनाम रोटी !

by Shri Uday Tamta Ji

मित्रो, इस आलेख के द्वारा मैं आपके सामने दो परिदृश्य प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा. यह किसी के प्रति आलोचनात्मक न होकर आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति के होंगे।                                                   
                                                  परिदृश्य --1.

फिल्म 'दो बूंद पानी'---यह ख्वाज़ा अहमद अब्बास की महान कृति थी। इसे संगीत से रवि ने सजाया था। फिल्म में मुख्य भूमिका किरन कुमार, जलाल आगा, सिम्मी ग्रेवाल मधुछंदा की थी। इसमें एक कथानक था--सूखी मरुभूमि के एक साधन विहीन परिवार का बेटा मेहनत मजदूरी की तलाश में एक निर्माणाधीन बांध में पहुंचा। वहां पर अपनी कठिन मेहनत व अच्छे व्यव्हार के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ। वह वहां से एक धनी परिवार की बेटी से शादी करके घर लौटा। घर पर उसका लाचार वृद्ध पिता रुग्णावस्था में पड़ा था। किसी ने उसे बताया--''तुम्हारा बेटा सुन्दर दूल्हन लाया है, जो बहुत सारा दहेज़ भी साथ लाई है।'' इस पर उस रुग्ण वृद्ध ने करवट बदले बिना ही बहुत ही करुण शब्दों में पूछा--''क्या पाणी भी लाई है ?'' साफ था कि उसके सूखे हुए हलक को पानी की अधिक जरुरत थी और इसकी अपेक्षा बहुमूल्य दहेज़ का महत्व अधिक नहीं था। यह एक बहुत ही संगीतमय फिल्म भी थी और इसमें बारहवीं-तेरहवीं सदी के बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्वान व सूफी संत अमीर खुसरो के बोल--''छाप तिलक छीनी री, मोसे नैना मिलाय के'' को भी बहुत कर्णप्रिय धुन में पिरोया गया था। इस फिल्म का अन्त इस मायने में सुखद सा था कि राजस्थान नहर ने आकर मरुभूमि में स्थित गंगानगर जैसी सूखी धरती को भी हरित प्रदेश में तब्दील कर दिया था।                                                                                                                                                                                                                                                परिदृश्य--2


देवीधुरा के एक गावं की कहानी--विश्व विख्यात छायाकार बृजमोहन जोशी ने विश्व फोटोग्राफी दिवस के अवसर पर एक मर्मस्पर्शी संस्मरण को एक दैनिक पत्र के माध्यम से पाठकों से बांटा था. उन्होंने बताया कि एक बार वह देवीधुरा के पास के एक गावं मे गए थे। वहां पर उन्हें एक बहुत ही कृषकाय 85 वर्ष की एक वृद्धा मिली, जिसका समूचा चेहरा झुर्रियों से भरा पड़ा था। एक फोटोग्राफर के नाते उन्होंने उसका एक चित्र ले लिया। यही चित्र एक अंतर्राष्ट्रीय फोटो प्रदर्शनी में सर्वश्रेष्ठ घोषित हुआ, जिससे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी ख्याति मिली। वह एक दिन उस वृद्धा के प्रति आभार व श्रद्धा व्यक्त करने के लिए उससे मिलने उसके गावं पहुंचे और उसी चित्र की एक प्रति उसे भेंट करने लगे। उस वृद्धा ने उनसे बहुत ही निरीह अंदाज़ में कहा--''इस फोटक का मैं क्या करुँगी ? इससे अच्छा होता की तुम मेरे लिये भरपेट खाना लाते !'' उन्होंने कहीं से व्यवस्था करके उस भूखी आत्मा को भरपेट भोजन कराया। उल्लेखनीय है कि देवीधुरा नैनीताल, अल्मोड़ा व चम्पावत जनपदों की तृसंधि पर स्थित है, जहाँ विश्व प्रसिद्ध बाराही देवी की शक्तिपीठ है. यह स्थान बग्वाल अर्थात प्रस्तर युद्ध के लिए भी अब संसार भर में जाना जाता है। कितनी विसंगति है--एक ओर एक दिव्य नारी के रूप में शक्तिशाली बाराही देवी का आस्थान और वहीँ दूसरी ओर भूख से बिलखती एक सांसारिक नारी ! अवश्य ही हमसे इसमें कोई बहुत बड़ी चूक हुई है रोटी के वितरण में। यह क्षेत्र आम तौर पर संपन्न माना जाता है। जब यहाँ भी इतनी अधिक भूख बसती है तो दूरदराज के पर्वतीय क्षेत्रों का क्या हाल होगा, इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है ! यह हमारे लिए आत्मनिरीक्षण का समुचित अवसर है.
[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
विलुप्त होता किल्मोड़ा !
« Reply #27 on: May 10, 2013, 01:18:49 PM »
[justify]विलुप्त होता किल्मोड़ा !

by Shri Uday Tamta Ji

मित्रो, उत्तराखंड के पर्वतीय भागों में सर्वत्र पाई जाने वाली किल्मोड़ा नाम की वनस्पति आज विलुप्ति की कगार पर है. जो पुरानी पीढ़ी के लोग हैं, उन्हें अच्छी तरह से ज्ञात है की यह काले रंग के छोटे से फल देने वाली वनस्पति अकाल के समय भोजन का भी एक बहुत बड़ा विकल्प थी. इसने खाद्यान्नों के अभाव की स्थिति में हजारों जानें भी बचाई थी. यह समुद्र तल के समकक्ष से लेकर आठ हजार फिट की ऊंचाइयों में भी उग जाता है तथा इसकी कई प्रजातियाँ यहाँ पर विद्यमान हैं. आज भले ही केवल जुबान के स्वाद के लिए लोग इसका उपयोग करते हो, पर खाद्यान्न के विकल्प के रूप में इसका सेवन कोई नहीं करता. पूर्व में इसने खाद्यान्न के अभाव की स्थिति में कमाल का काम किया था. केवल मनुष्य ही नहीं, कई पक्षी तथा अन्य जंतु भी जीवित रहने के लिए इसका सेवन करते हैं. इसकी छाल व जड़ों का पिछले तीस पैंतीस सालों में इतना अधिक, बेतरतीब व बेतहाशा दोहन हुआ है की यह कई स्थानों से समूल ही नष्ट हो चूका है. इसका कारण है काठगोदाम स्थित एक जापानी कंपनी के द्वारा इससे निकाला जाने वाला एक रसायन. जिसके बारे कहा जाता है की इससे वहां पर एक दवा का निर्माण किया जाता है. देश या राज्य को इससे राजस्व भी नहीं मिलता होगा, क्योंकि इसका निर्यात करमुक्त है. यदि इस बहुउद्देश्यीय वनस्पति का संरक्षण   करना हो तो इस उद्योग को बंद होना ही पड़ेगा, अन्यथा कुछ ही वर्षों में यह यह वनस्पति यहाँ से बिलकुल होकर समाप्त ही हो जाएगी. [/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
काफल पाक्को, मी नि चाक्खो !
« Reply #28 on: May 13, 2013, 10:49:10 AM »
काफल पाक्को, मी नि चाक्खो !

by Shri Uday Tamta Ji


[justify]मित्रो,
Kafal काफल

काफल, जिसकी संसार भर में लगभग पचास प्रजातियाँ उपलव्ध हैं, मुख्यतः ठन्डे प्रदेशों का वृक्ष है। इसको अलग अलग देशों में अलग अलग नामों से जाना जाता है। इसकी कई किस्में भी हैं, और तदनुसार उपयोग भी कई हैं। इसके कुछ नाम हैं बरगी बेरी, कैंडल बेरी, स्वीट गेल, वैक्स मिर्टल इत्यादि। इसका प्रमुख वानस्पतिक नाम myrica esculenta है। इसकी कुछ प्रजातियाँ, जैसे वैक्स-बेरी, जिसका फल मोम की परत युक्त होता है, केवल कुछ ही पक्षियों के द्वारा खाया जाता है। यह मनुष्य के लिए खाद्य श्रेणी में नहीं है। यह प्रजाति उत्तरखंड में नहीं पाई जाती। यहाँ मिरिका प्रजाति के ही विभिन्न पेड़ पाए जाते हैं। किस्म व उच्च स्थानों के अनुसार इनके पकने का समय, स्वाद व रंगत भी कुछ अलग अलग प्रकार की होतीं हैं। इसके लिए सर्वोत्तम स्थिति 1500 मी. से अधिक ऊंचाई वाले बांज मिश्रित ऐसे नम वन हैं, जिनमें आम तौर पर बर्फवारी होती है।इसका फल स्वाद में खट्टा मीठा होता है, पर फल का अधिकांश भाग गुठली ही होता है। खाद्य भाग केवल बाहर की पतली परत ही होती है। इसी कारण से इसका खास व्यापारिक महत्व तो नहीं है, पर उत्तराखंड में इसका बड़ा सांस्कृतिक महत्व है। इससे कई लोक कथाएँ व लोकगीत भी जुड़ी हुये हैं। चैत व बैसाख के महीने में भिटौली की जो परंपरा है, उससे भी यह जुड़ा हुआ है। कुछ ही दशक पूर्व तक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले माँ-बाप अपनी पुत्रियों के ससुराल में भिटौली की छापरी लेकर जब भी पहुँचते थे, उसमें एक छोटी पोटली काफल की अवश्य ही होती थी। उनका भेटुली का समय काफल के फल पकने से जुड़ा रहता था। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पचास के दशक तक काफल वृक्ष की छाल का उपयोग टेनरी व्यवसाय में चमड़े को रंगने व कमाने में होता था, परन्तु वह लोग इस जुमले पर यकीन रखते हुए--'भेड़ के बाल उतार सकते हैं, खाल नहीं' इसका उपयोग करते थे। वह एक छोटे हिस्से से ही छाल निकालते थे ताकि पेड़ बचा रहे। अब भी, केवल वनसंपदा के अमित्रों को छोड़कर, कोई आम व्यक्ति काफल के पेड़ पर कुल्हाड़ी नहीं चलाता, क्योंकि यह उसकी संस्कृतिक धरोहर है और यह उसके संस्कारों से गहरे जुड़ा हुआ है।


[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 1,676
  • Karma: +21/-0
[justify]जल, जंगल और जमीन में बसती है उत्तराखंड की आत्मा !

by Shri Uday Tamta Ji

मित्रो, उत्तराखंड को देवभूमि भी कहा गया है। इसे यह नाम यों ही नहीं मिल गया, बल्कि इसके पीछे है इसकी मनमोहक भूसंरचना, मनोहारी वानिकी सौन्दर्य और नदियों, धारों, गाड गधेरों व निर्मल हिम के रूप में विद्यमान विशाल जलश्रोत, जिस कारण हमेशा से ही महामनीषियों ने इसका रुख किया और इसको देवभूमि का दर्ज़ा देकर एक धरोहर के रूप में हमें सौप दिया। महाकवि कालिदास ने इसी कारण से इसकी स्तुति इन शब्दों में की थी--'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः।' पर इसे एक विडंवना ही कहेंगे कि हम इसका वह नैसर्गिक स्वरुप तो बरकारार नहीं रख सके, बल्कि इसकी प्राकृतिक सम्पदा को भी खुर्दबुर्द करने में भी कतई पीछे नहीं रहे।हम शायद यह सोच कर ही चले कि हमारी ही पीढ़ी मानव सभ्यता का आखिरी अंतस है, इसे आगे के लिए क्यों और किसके लिए बचाना। हमने स्वयं ही वनसंपदा, जलसंपदा व भू सम्पदा पर ही न केवल भीषण प्रहार नहीं किये, बल्कि इसे बाहरी भूहर्ताओं, वनराक्षसों, जलपिशाचों के द्वारा रौंद डालने के लिए खुला छोड़ दिया। हम सत्ता के शिखर पर रहते हुए भी मौजमस्ती में ही लीन रहे और इधर नकाबधारियों ने बेनकाब होकर खूब लूट मचाई। आज सारी भूसंपदा हरित होने के बजाय हृत हो चुकी है, वनसंपदा पर वन राक्षसों का फेरा है। जलधाराएं अपनी अंतिम सांसें ले रहीं हैं। कुमायूं में वन विभाग की स्थापना का कार्य सर्वप्रथम तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने 1826 में किया था। इससे पूर्व 1817 में कमिश्नर सटाइक ने कुमायूं वासियों पर आरोप मढ दिया था की इन्होने सारे वनों का विनाश कर डाला है। वनों पर गोरखा शासन के दौरान भी भीषण प्रहार हुआ। तब से आज तक यह विनाश निरंतर जारी है। स्वाभाविक रूप से इससे जलाभाव की स्थति तो उत्पन्न हो ही गई है, सूखी धरती में भू कटान रोकने की सामर्थ्य ही नहीं बची। बची खुची भूमि भूहर्ताओं की नज़र हो गई । इस तरह हमने उत्तराखंड की इस महान आत्मा को अपने आंगन से रुखसत ही कर दिया है।[/justify]

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22