Author Topic: Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख  (Read 19397 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]मेरा पहाड़ फोरम के सभी सदस्यगण, पाठक एवं दर्शकगण,

मैं इस टॉपिक के माध्यम से श्री उदय टम्टा जी के लेखों को आपके सम्मुख रखने की कोशिश करूँगा और स्वयं भी श्री उदय जी फोरम से जुड़कर अपने लेखों को हमारे सम्मुख रखेंगे। आशा है कि आपको श्री उदय जी के लेख पसंद आयेंगे।

धन्यवाद
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(विनोद गढ़िया)





About Uday Tamta Ji

[justify]Retired from a senior class I government post. Earlier contributed articles to 'sevagram'. a magazine based primarily on Gandhian thought, published by Rev. Gnayanendra Prasad Jain from Delhi, along with contemporaries, like L.S.B. Batrohi, MEHARUDDIN KHAN and Savitri Parmar, who later earned laurels through the 'Saptahik Hindustan', during  the late sixties. My first  book entitled  "KUMAONI LOK KATHAEN" in Hindi was published in 1988.  I had almost left writing, but I was encouraged by my friend Gulshan Suri to continue it. I had been associated with Suri from the very beginning when he started the rendering of the whole of Deewane-e-Ghalib into English verse. His work was acclaimed by many famous Shayars and  writers like Kurratulain Hyder. The forward was written by none other than the creator of the world grade story "Biniya passes by''--Ruskin Bond.The book is yet to be published, but its prominent excerpts  and stanzas rendered into English verse, have already been published by Sahitya Academy and  some other reputed publishers. On Gulshan Suri's insistence I resorted  to writing 'something' once again As a result thereof, my two more books, namely, 'Folk Tales Of Uttarakhand " in English and 'Udaranchal Ki Vyathaen' in Hindi are to come up soon.[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

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समस्याएं पहाड़ की--हिमालय से भी बड़ी!

by Uday Tamta

[justify]मित्रो, आज जब वेबसाइट पर गए तो सर्वप्रथम एक सन्देश नज़र आया, जिसमें कहा गया है कि पहाड़ का विकास बिलकुल भी नहीं हुआ, जबकि हमने कई लोगों को राजनीति के इस महा खेल में अरब पति बना दिया, इस कथित विकास की दौड़ में केवल कुछ ही स्थानों को ध्यान में रखा गया, जो मुख्य शहरों के आसपास हैं और पहिले से सडको से जुड़े थे, और उन जगहों का सुधलेवा कोई नहीं है, जो बहुत अन्दरोनी इलाकों में हैं, सडको से जुड़े नहीं हैं, और जहाँ विकास की कोई किरण आज तक नहीं पहुँचीं. मित्रो, विषय तो वही है, जिस पर पर यह नोट है, पर इसमें उस बात का विवेचन नहीं होगा की विकास के नाम पर किसने माल कूटा है, और कौन कौन बहुत ही अल्प अवधि में ही, खगपति से लखपति, लखपति से करोड़पति और अब अरब पति होगये हैं. यह नाम बहुत ज्यादा नहीं हैं, होंगे कोई सौ सवा सौ और इनको सब लोग जानते ही हैं, उसका खुलासा यहाँ पर करने की आवश्यकता नहीं है. उसका इलाज आने वाले समय में जनता स्वयं ही करेगी, अभी नहीं तो, फिर कभी, पर ऐसी स्थिति जल्द ही आनेवाली है, क्योंकि जनता अब भीषण कष्टों के शिखर पर है, कहा नहीं जासकता कि इस पर्वतीय राज्य की 'जारशाही' के विरुद्ध यह 'बुर्जुआ आन्दोलन' कब शुरू हो जाय. इसका फ्लैश पॉइंट तैयार है, कब इसमें कोई चिंगारी देने वाला 'लेनिन' प्रकट हो जाय, कह नहीं सकते. यह इस लिए कि अब 'निगुराट' या बेशर्मी इतनी बढ़ गई है कि 'तलब न तनखा, धन सिंह हवालदार' वाली स्थिति विद्यमान हो गई है. जिनके पास २० साल पहिले तराई या भाबर में एक छोटा सा मकान, या सौ गज का एक जमीन का टुकड़ा भी नहीं था, आज उनके पास अरबों की संपत्ति है, जब कि जाहिरा तौर पर न तो उनके पास कोई उद्योग है, न व्यापार और न ही 'नैमिषी' के समतुल्य हमेशा दूध देनेवाली गाय की तरह का आमदनी का कोई बड़ा ज्ञात स्रोत ही ! यह स्थिति तो तब है जब अधिकांश जनता दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इस हालत में नहीं है कि अपने भूख से बिलखते बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी भी जुटा सके. इन महानुभावों के पास आज जो अरबों के 'नकद नारायन' का विशाल भंडार या 'कुचल' सम्पति (इसे अचल संपत्ति इस लिए नहीं कह सकते, क्योंकि इससे तात्पर्य या आशय ज्ञात श्रोतो से अर्जित संपत्ति से लगाया जाता है) है. वह यह 'कोढ़ी का सा धन' केवल अवैध व अनुत्पादक मदों में ही लगाता है, जैसे वोटरों के खरीदने में, लोगों को धमकाने में या लठैतों, दंडधरों अथवा असामाजिकों को प्रश्रय देने इत्यादि में. यह धन सम्पदा उक्त मदों के अलावा किसी अन्य मद में खर्च ही नहीं होती. मित्रो, रूस में १९१७ की जो महान क्रांति हुई, उसकी शुरुआत कोई एक दिन में ही नहीं होगई थी. जारशाही के ज़माने में रूस की जनता उतनी भी जागरूक नहीं थी, जितनी कि आज उत्तराखंड की जनता है. तब के रूस में जनता बर्फानी तूफानों में भी खेतों में काम करती थी और आलीशान फार्म हाउसों में बैठे धनाढ्य उस कमाई पर ऐश कर रहे थे, जबकि मेहनतकश जनता भूखों मर रही थी. धीरे धीरे जनता जागरूक हुई, और वह यादगार क्रांति हो ही गई. यह क्रांति भी प्रारंभ में स्वरुप से खूनी क्रांति कतई नहीं थी. क्रांतियाँ केवल हिंसा के बल पर ही नहीं होतीं. भारत की आजादी के लिए भी न्यूनाधिक क्रांति का स्वरुप अहिंसात्मक ही था. इसके लिए बस लेनिन व स्टालिन की तरह का उत्साह, उद्देश्य व भलमनसाहत चाहिए, बस. यदि ऐसी स्थिति खुदा-न-खास्ता यहाँ पर भी आती है, तो वह स्थिति कदापि नहीं रहेगी, जिसमें कहा गया था--''तूने जो की थी मेहनत, ठगुवा ठग ले जायो रे.'' यकीन रखिये, यदि इसी तरह का अहिंसक आन्दोलन कभी यहाँ पर भी हुआ तो जो अवैध धन-सम्पदा के जो बड़े जखीरे इस तरह से आपके आँखों के सामने ही इकठ्ठा होगये हैं, वह आम जनता के हाथों आ ही जाएगी. इसके लिए हिंसा की नहीं, थोड़ी सी जागरूकता की आवश्यकता है बस, आगे के सारे काम खुद-ब-खुद ही होते चले जायेंगे और मेहनत करने वाले अपने बच्चों को भरपेट भोजन कराने की हालत में जरुर आजाएंगे. बस, इसके लिए हिंसा का नहीं, शांति का ही मार्ग सर्वोत्तम है। हिंसा से तो बचके ही रहना है।

विनोद सिंह गढ़िया

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अफुल्याट तथा चल्लाग !

by Uday Tamta on 5 January 2013 at 10:04 AM ·

[justify]मित्रो,       कुमाऊँ तथा गढ़वाल के पर्वतीय भागों की बोली में कई ऐसे शब्द विद्यमान हैं, जो लम्बे वाक्यों व समासों के स्थान पर एक विकल्पीय प्रतिस्थापन (One word substitution) के तौर पर अज्ञात काल से प्रयुक्त होते आये हैं। आइये, सबसे पहिले इसी तरह के एक अत्याधिक प्रचलित शब्द 'अफुल्याट' का उल्लेख करें। यह् शब्द मूल शब्द 'अफुल' से बना है--जिसका सामान्यतः अर्थ है--लाड़-प्यार से पला या बहुत अधिक मुंह लगा। दूसरा शब्द है--'चल्लाग'. इसका सामान्य अर्थ तो चालाक ही है, पर यह उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है, जो चतुर तो होता ही है, पर कुछ हद तक षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति भी लिए हुए होता है, और अपने निजी स्वार्थ के निमित्त औरों का हक़ छीनते हुए लगभग एक ठग के सामान ही व्यवहार करता है। उक्त दोनों शब्दों का व्यावहारिक प्रयोग देखना हो वर्ष 2000 में स्थापित अपने इस नये राज्य उत्तराखंड के ही दृष्टांत काफी मिल जायेंगे। इसकी स्थापना होते ही दो, जातीय वर्ग से सर्वथा भिन्न वर्ग स्पष्ट रूप से बन गए थे--पहला वर्ग वह, जो शासन के आँख का तारा बन गया। इस वर्ग के लोगों को ही लगभग सारी नौकरियाँ--नियमित या संविदा वाली--मिली, सारे ठेके, सब्सिडी सहित सारे आर्थिक लाभ, माननीयों के विवेकाधीन खजाने का लाभ सब कुछ मिला। बहुत बार तो कोन्केव लेंस से देखने पर लगता था कि ठेके इत्यादि सामान्य जनों को मिले हैं, पर जब कोवेक्स लेंस से देखो तो इसमें भी साफ छवि किसी मान्यवर या महामान्यवर की ही आती थी या उनके निकट परिजनों की ! वह् सब पहिले से ही संपन्न थे, और इस अफुल्याट के लाभार्थी बनजाने से कुबेर की श्रेणी में ही जाकर खड़े होगये ! उनके पास हमेशा ही यह विकल्प था--''हतो वा प्राप्श्यसि स्वर्गम्, जित्वा तु भोग्श्यसे महीम्''--अर्थात् जीते रहे तो (गुलछर्रे उड़ाते हुए) (उतराखंड की) धरती के संसाधनों का भरपूर उपयोग करोगे। यदि किसी कारण से मृत्यु आ ही बैठी, तो भी घाटे में नहीं रहोगे, क्योंकि तब भी स्वर्ग की प्राप्ति तो कहीं गई ही नहीं ! यानि कि चित भी तेरी और पट भी तेरी ही ! राज्य की स्थापना के बाद बना दूसरा वर्ग वह था जिसे तथा कथित विकास की सारी योजनाओं से दूर ही रखा गया और वह जो पहिले से ही अभावग्रस्त था, अब और अधिक विपन्नावस्था में चला गया। उसके हाथ में यह झुनझुना थमा दिया गया था--''कर्मंन्येवधिकारस्तु मा फलेषु कदाचन् !''--अर्थात् (चुपचाप) अपना काम करते रहो, अपने पसीने की कीमत (मनरेगा की मजदूरी या मिलों को सप्लाई किये गए गन्ने का भुगतान इत्यादि) को हक़ की तरह मत मांगो और न ही इसके मिलने की कोई (पुख्ता) उम्मीद रखो ! वह अपनी घरकुड़ी वीरान छोड़ कर मैदानी भागों को पलायन करने को मजबूर हुआ। चल्लाग लोगों ने तो कई मान्यवरी व महामान्यवरी कुर्सियों पर भी अधिकार जमा लिया !

विनोद सिंह गढ़िया

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कुमाऊँ का भडौ यानि कि वीरगाथा

by Uday Tamta

मित्रो, जिस तरह मध्यकाल में भांड तथा चारणों के वीरता के अतिशयोकिपूर्ण वर्णनों के द्वारा अपने आश्रयदाता राजाओं का बखान करने की परंपरा रही है, ठीक उसी तरह की परंपरा कुमायूं में भडौ गायन के रूप में रही है। चंद बरदाई का पृथ्वी राज रासो तथा जागनिक का आल्हा ऊदल के प्रसंग् भी भाट परंपरा के ही उदाहरण हैं। यहाँ पर कत्यूरी राजाओं के समय से ही भडौ गायकी की परंपरा चलने का उल्लेख इतिहास में मिलता है, जो चंद राजाओं के समय भी चला। 'भड़' शब्द मूल संस्कृत के 'भट' शब्द का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ वीर होता है। यहाँ पर इस गायकी का विकास निरंतर चलते रहने वाले युद्धों के कारण हुआ, जहाँ पर भडौ दल भी साथ रहता था, जो उनकी वीरता के बखान के द्वारा उनका साहस बढाता था। कत्यूरी शासन के दौर के कुछ ही भडौ उपलब्ध हैं, पर चंदो के काफ़ी भडौ मिलते हैं। भडौ आम तौर पर राजाओं के वंशजों के घर में संध्याकाल में आयोजित किये जाते थे, जो सामाजिक मान सम्मान के द्योतक माने जाते थे। अब भड परंपरा समाप्त हो गई है, क्योंकि एक तो यहाँ पर राजतंत्रीय व्यवस्था समाप्त हो गई, साथ ही भड़ गायकों की अगली पीढ़ियों से भी यह परंपरा चली ही गई।   

विनोद सिंह गढ़िया

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बाकी सब ठीक है !

by Uday Tamta

[justify]मित्रो, पहाड़ों में आज भी अधिकांश युवक फौजी के रूप में देश के दूरदराज क्षेत्रों में बहुत ही कठिन परिस्थतियों में रहकर देश की सेवा कर रहे हैं। फ़ौज में वही भरती होते हैं, जो बिलकुल स्वस्थ, शिक्षित व कर्मठ हों। इसके बिपरीत जो युवा पढने लिखने कमजोर और स्वास्थ्य में भी कमजोर हो तथा काम से बचने वाली प्रवृत्ति के हों, वह गांव में ही रह गये। समय ने पल्टा खाया। फौजी के परिवार के लोग तो उसके भेजे हुये मनी आर्डर पर ही निर्भर हो गये और उनकी आर्थिक हालत खस्ता हाल ही बनी रही, परन्तु जो व्यक्ति यहीं रह गया वह या तो गांव का प्रधान, लीसे का ठेकेदार, रेता बजरी का कारोबारी या नशे का व्यापारी बन गया। उसका परिवार उन्नति के शिखर पर है। फौजी का पिता अपने बेटे को आम तौर पर जो खत लिखता है, उसका एक काल्पनिक नमूना आपकी सेवा में प्रस्तुत है--                                                                                                                                                             * *प्रिय बेटा, खुश रहो। तुम्हारी माता की ओर से तुम्हें आशीर्वाद । तुमारी छोटी बहन खिमुली की ओर से तुमको हाथ जोड़कर पैलागन। बेटा कई दिन से तुम्हारा ख़त नहीं मिला, इसलिए बहुत चिंता हो रही है। बेटा घर के हालचाल तो तुम्हें मालूम ही ठहरे, बाकी क्या लिखूं, भैंस बिचारी मर गई है। बैल भी बीमार चल रहा है। नया ही लेना पड़ेगा। तुमने तीन महीने पहिले जो पैसे भेजे थे, वह राशन में ही खर्च गए, क्योंकि रतन दा की राशन की दुकान में कई महीनों से राशन ही नहीं आया। कहता है कि ऊपर से राशन ही नहीं आया। सच क्या है, वही जाने। हाँ आजकल असूर के जंगल में लीसे का काम चल रहा है। अपना भतीजा दिनेश साल भर से किटकन (उप ठेके) में उस में काम कर रहा है। उसका अच्छा काम चल रहा है। सफ़ेद बोलेरो गाड़ी ले आया है । उसमें ही लीसा भर के ले जाता है हल्द्वनी की तरफ। जीत सिंह का बेटा भी अब सही लेंन में आ गया है। उसने लड़ाई झगडा अब छोड़ ही दिया है। सुना है रेते बजरी का काम कर रहा है और अपना ही ट्रक भी ले लिया है। रमेश भी अब चोरी चपाटी का काम नहीं कर रहा है । वह इस चुनाव में प्रधान बन गया था। उसने मकान भी हल्द्वानी में ही बना लिया है, बच्चे भी वही रहते हैं। अपनी नई आई -20 गाड़ी से कभी कभी गांव आने वाला ही ठहरा कागज में दस्तख़त करने के लिए। सुना है मनरेगा में तो खाली रजिस्टर में नाम ही लिखता है लोगों के, काम व मजदूरी तो किसी को देता नहीं। खैर इसमें हमें चिंता क्या करनी ठहरी। पैसा तो सरकार का ही ठहरा, वह नहीं खायेगा तो कोई और खायेगा। तुम्हारी इजा बहुत बीमार चल रही है। गांव में जो अस्पताल खुला था उसमें डाक्टर ही नहीं आया । फिर दवा कहाँ आने वाली ठहरी । अब कमपौडर भी चला गया है। तुम घर आओगे तो इजा को डाक्टर के पास ले जाओगे। पल्ले में पैसे नहीं रहे। यदि भेज सको तो कुछ पैसे भेज देना। घर की कोई चिंता मत करना। अपना खयाल रखना। यहाँ पर बाकी सब ठीक ठाक ही ठहरा !

विनोद सिंह गढ़िया

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गंगोली की बेल पट्टी

by Uday Tamta

[justify]मेरे परम मित्रो, केवल कुमाऊँ ही नहीं, बल्कि गढ़वाल के इलाकों में भी अज्ञात इतिहास काल से ही हलकों अथवा भूक्षेत्रों का विभाजन पट्टियों के रूप में रहा है। यह पट्टियां कई गांवों के समूह को मिलाकर बनाई गई थीं। ग्राम इकाई के बाद यही बड़ी प्रशासनिक इकाई थी, जिसके बल पर ही राज्याधिकारी प्रजा पर शासन करते थे। मेरे विचार से इन पट्टियों का गठन संभवतः गुप्त काल में, लगभग चौथी सदी के आसपास, ही होगया था, जबकि सर्व प्रथम भूमि की नापजोख प्रारंभ हुई थी। 1901 में भू राजस्व अधिनियम लागू होने के बाद अंग्रेजों ने भी इस व्यवस्था को जारी रखा । गंगोली क्षेत्र पूर्वी रामगंगा व सरयू नदी के बीच के क्षेत्र को कहा जाता है, जिसकी सीमा बागेश्वर क्षेत्र से लगती हैं। इसमें से गंगोलीहाट की खड़ी बाज़ार, जिसे जान्धेवी बाज़ार कहा जाता है, से नीचे रामेश्वर तक के क्षेत्र को बेल पट्टी कहा जाता था। इस खड़ी बाज़ार के उत्तरी भाग को भेरंग पट्टी कहा जाता था । दोंनो ओर से दो बिकराल नदियों से घिरा बेल पट्टी का यह क्षेत्र बहुत ही दुर्गम व पिछड़ा हुआ था, परन्तु पैदावार व मानवशक्ति के मामले में छतीसगढ़ की तरह अनाज तथा दूसरी पैदावारों के मामले में 'चावल की कटोरी' माना जाता था । तब यहाँ के जमाली भात की बड़ी ही शोहरत थी। कहते हें कि जमाली चावल की मुख्य पैदावार तो गेवाड़ की ओर ही होती थी, परंतु गंगोली के राजा के यहाँ इसकी आपूर्ति बेल पट्टी के गांव डमडे, बुर्सम व ड़ूनी से होती थी। इस चावल के बारे में कहा जाता है कि यह इतना अधिक सुगन्धित था कि किसी एक घर में भी इसका भात बनता तो इसकी खुशबू पूरे गांव में ही फ़ैल जाती थी। सुगन्धित धान की यह पैदावार गोरखा शासनकाल के अत्याचारों के कारण समाप्त हो गई और इस अमूल्य फसल का बीज भी उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ही समाप्त होगया था। 'जमाली को भात' का उल्लेख कुमायूं के प्रसिद्द लोक कवि गुमानी ने भी किया है। यहाँ के अधिकांश लोग सीधे साधे, निरक्षर,पर मेहनतकश व ईमानदार होते थे, और छल कपट से सर्वदा बहुत दूर रहते थे । इसके विपरीत भेरंग को सामान्य रूप में अभावग्रस्त, पर बुद्धि चातुर्य वालों का इलाका माना जाता था। इसकी बजह यह थी कि जहाँ भेरंग वाले मनकोटी राज्य के समय में राजकाज से सम्बंधित सारे कार्यों में अधिकारितापूर्ण स्थान रखते थे, वहीँ फल, फूल, अनाज, दूध, दही, घी, शहद, सरयू की सफ़ेद मछली, जमाली के खुशबूदार चावल तथा अन्य कई पदार्थों की आपूर्ति बेल पट्टी से ही होती थी। गंगोली में कम से कम छः पीढ़ियों तक मनकोटी राजाओं का शासन रहा था। आज की परिस्थ्तियों के हिसाब से कहें तो वह 'विदेशी' थे, पर ऐतिहासिक सच्चई तो यह है कि यह् भाग तब नेपाल के डोटी राज्य का ही एक भाग था। विदेशी होते हुए भी मनकोटी शासक बड़े उदार व न्यायकारी माने जाते थे। उनके समय में जो षड्यंत्र हुए, वह राजकर्मियों के आपसी बर्चस्व की लड़ाई के कारण ही हुए, जिनमें भेरंग के एक प्रमुख गांव से एक पक्ष को पूर्ण रूप से बेदखल करके, यह पूरा गांव दूसरे पक्ष को दे दिया गया था। परन्तु बेल पट्टी में इस आपसी बर्चस्व की लड़ाई का कोई असर नहीं हुआ। हाँ, राजस्व वसूली के मामलों में बेल पट्टी वालों पर बहुत अत्याचार भी चंद व गोरखा शासनकाल में ही हुए, जिसके लिए न भेरंगवाले जिम्मेदार थे और न ही चंद शासक, बल्कि इसके लिए जिम्मेदार अन्यत्र से मनकोटी शासन के समय लाये गए भूलेखन व राजस्व से संवंधित अधिकारी थे। कहा जाता है कि ये लोग स्वभाव से भी बड़े उग्र, क्रूर व अन्यायकारी प्रवृत्ति के थे। यहाँ पर 'ढाडा दंड' की प्रथा भी संभवतः इन्होने ही प्रारंभ की। इनके बारे में कहा जाता था कि यह गंगोली के आपसी भ्रातृभाव से परिपूर्ण माहौल को बिगाड़ने में भी अंततः कामयाब हो ही गए थे। इनके अनैतिक व अनुचित व्यवहार के कारण अति संपन्न बेल पट्टी अंततः अभावों के दौर में पहुंच ही गई। वहां पर अभावों के इस दौर का अंत आज तक भी नहीं हो पाया है।

विनोद सिंह गढ़िया

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क्यों असफल है उत्तराखंड का पर्यटन उद्योग ?

by Uday Tamta

[justify]मित्रो, हम एक परंपरागत कथन के तौर पर हमेशा ही बहुत ही सहज रूप में कह देते हैं कि उत्तराखंड में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं। इसी सहज भाव व भंगिमा में सरकारें भी कह देती हैं कि हम पर्यटन को उन्नत दशा में पंहुचा कर ही दम लेंगे ! पर, वास्तविकता इससे कोसों दूर है। कथनी व करनी में हमेशा अंतर होता ही है। उत्तराखंड में दो प्रकार के पर्यटन की संभावनाएं हैं/थीं। एक तो धार्मिक पर्यटन दूसरा सामान्य पर्यटन। सामान्य पर्यटन के लिए सरकारों का कार्य सामान्य सुविधाएं प्रदान करने तक ही सीमित होना चाहिए, जैसे कि सड़क, परिवहन, शोषण विहीन व सुरक्षित आवास व सामाजिक सुरक्षा इत्यादि। धार्मिक पर्यटन के लिए भी न्यूनाधिक इन्हीं आधारभूत संरचनाओं का ही जिम्मा सरकार का होता है, इससे आगे बिलकुल नहीं। पर मित्रो, यहाँ का सारा ही पर्यटन जाने-अनजाने ही भारत सरकार व प्रदेश सरकार के पदाधिकारियों, उनके रिश्तेदारों, वह अन्य प्रियजनों के आतिथ्य तक ही सीमित होकर रह गया है। इसमें घुमा फिराकर सरकारी खजाने से ही अकूत धन खर्च होता है, और आमदनी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। फिर, वह कैसा उद्योग, जिसमें आमदनी चवन्नी और खर्च रुपैय्या ? उदाहरण के लिए अपने अध्यक्ष साहबान को ही लेलें, करोड़ों का हवाई खर्च ही सरकार ने 'ख़ुशी-ख़ुशी' ही उठा लिया था ! फिर बड़े परिवारों की कार्बेट यात्रा को ही ले लें, इसमें क्या मिलना था पर्यटन व्यवसाय को  आमदनी के रूप में ? जो करोड़ों गया, सरकार के पल्ले से ही गया ! तो, मित्रो, यहाँ धार्मिक पर्यटन हो, या सामान्य पर्यटन, यह सिर्फ परिजनों व रिश्तेदारों की मेहमान नवाजी का ही एक प्रदर्शन हो कर रह गया है। इनकी तुलना में एक छोटे से देश पेरू के पर्यटन उद्योग को ले लें। वहां पर माचू में इनका सभ्यता की निशानी के रूप में चौदहवीं सदी में निर्मित पुक्चु इमारतों के अवशेष थे। यह स्थान स्पेनिश उपनिवेशियों की नज़र से तो बच गया था, पर इस सभ्यता के विनष्ट होने के बाद सोने की तलाश में लोगों ने इसके भवनों के एक-एक पत्थर को उखाड़ डाला था। पेरू की सरकार ने उन्ही पत्थरों में से हर पत्थर को बड़ी मेहनत से उसके मूल स्थान पर लगाते हुए सभी ध्वंस इमारतों को वही पुरानी शक्ल दे दी, जिस कारण यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्ज़ा दे दिया। हमारे यहाँ की तरह वहाँ पर मेहमानी पर्यटन नहीं होता है। आज हालत यह है कि अकेले माचु पुक्चु में ही इतने अधिक पर्यटक आते हैं कि जितने कि पूरे उत्तराखंड में भी साल भर में नहीं आते ! कारण वही--हमारे यहाँ मुफ्तखोरी का पर्यटन और वहां पूर्ण रूप से व्यावसायिक स्तर का पर्यटन !

Rajen

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श्री टम्टा जी के लेखों को यहाँ पर 'शेयर' करने के लिए बिनोद जी को बहुत - बहुत धन्यबाद. (+1 कर्मा)

विनोद सिंह गढ़िया

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आपको साधुवाद।

श्री टम्टा जी के लेखों को यहाँ पर 'शेयर' करने के लिए बिनोद जी को बहुत - बहुत धन्यबाद. (+1 कर्मा)

विनोद सिंह गढ़िया

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नैणताल व नैना देवी मंदिर

by Uday Tamta on 9 January 2013 at 06:27 AM ·

[justify]मित्रो, बैरन एक अंग्रेज था, जिसकी शाहजहांपुर में एक छोटी सी डिस्टिलरी थी, जिसमें वह अंग्रेज अधिकारियों व कर्मचारियों के सेवन के लिए मामूली सी ब्रुअरी में शराब का उत्पादन करता था। व्यवसायी होने के साथ-साथ वह एक प्रकृति प्रेमी व अन्वेषक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी था। एक बार वह पहाड़ की यात्रा पर निकल पड़ा। शाहजहांपुर में लम्बे समय तक रहने के कारण वह हिंदी अच्छी तरह से समझता था तथा कुछ् कुछ बोल भी लेता था। वह साहसी तो था ही, कुछ मजदूरों के साथ रानीबाग से ही मार्ग विहीन जंगल से कठिन चढ़ाई पार करते हुए किसी तरह नैणताल, जिसे अब नैनीताल के नाम से जाना जाता है, के ऊपर के ऊंचे डांडे में पहुंच गया। उसने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो घने बाँझ वृक्षों की ओट में एक सुन्दर नीला तालाब नज़र आया, जिसके किनारे काई से पटे पड़े थे तथा चारों ओर पक्षियों का कलरव गूंज रहा था, जिसकी मधुर ध्वनि ऊँचे डांडे तक भी पहुंच रही थी। वहां से भी ताल तक कोई रास्ता नहीं था। वह किसी तरह पेड़ों की साख व बाभिला घास के सहारे नीचे उतरा। ताल की सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया। इस प्रकार 1840-41 में बाहरी दुनियां के लिए अज्ञात नैनीताल की 'खोज' बैरन के हाथों हो गई ! वहां पर उसे कोई आदमी नहीं मिला। नीचे उतरते हुए उसे किसी बस्ती के लोगों से उसे पता चला कि पूरे ताल व इलाके का मालिक नैनुवां उर्फ़ नैनसिंह नाम का कोई व्यक्ति था, जो नजदीक के किसी गांव में रहता था। उसनें नैनुवां से संपर्क किया। नैनसिंह हिंदी नहीं जानता था, और बैरन भी पहाड़ी नहीं समझता था। सो किसी हिंदी जानने वाले के माध्यम से उनमें कुछ बातचीत हुई। अगली बार फिर गर्मी के मौसम में बैरन एक बढई व एक नाविक को लेकर बनी बनाई, खुले हिस्सों वाली नाव के साथ वहां पहुंचा। उसने आदमी भेजकर नैनसिंह को बुलवाया। नैनसिंह को उसने अपने साथ नाव में बिठा लिया। उसने बीच ताल में पहुँच कर पूरा इलाका खरीदने का प्रस्ताव नैनसिंह के सामने रखा । यद्यपि नैनसिंह के लिए इस ताल व क्षेत्र का कोई आर्थिक महत्व नहीं था, तथापि वह पूर्वजों की इस थाती को बेचने को तैयार नहीं हुआ। इस पर बैरन ने उसे ताल में डुबा देने की धमकी दे डाली और पहिले से तैयार कागज में उसका अंगूठा लगवा लिया। इस तरह पहिले बैरन, फिर ईस्ट इंडिया कंपनी व कालांतर मे अंग्रेज सरकार इसकी मालिक बन गई। उसके बाद तो अंग्रेजों ने नैनीताल का जो जो किया वह सामने ही है। यहां पर नैना देवी का एक बहुत ही छोटा थान (देवस्थान, भव्य मंदिर नहीं) पहिले से ही था, जिसमें कुछ छोटे से त्रिशूल व लोहे के छोटे से दीये थे। यह थान वर्तमान मंदिर से ऊपर की पहाड़ी पर था। पुराना नैना देवी का उक्त थान 1880 के भयंकर भूस्खलन में नेस्तनाबूंद होगया था, जिसके कुछ दीये वर्तमान मंदिर के पास बरामद हो गए थे। अतः इसी स्थान पर पर 1882 को जेठ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन जगन्नाथ शाह व उनके सहयोगियों ने मंदिर की स्थापना की। मित्रो, यह तो रहा ऐतिहासिक विवरण। इसके सामानांतर ही नैनीताल की स्थापना के सम्वन्ध में मानस खंड, जिसे कुछ लोग स्कंद पुराण का ही एक भाग मानते हैं, में एक और ही कहानी चलती है। इसके अनुसार कहा जाता है कि एक बार सप्त ऋषियों में से तीन ऋषि--अत्रि, पुलस्त्य व पुलह ने हिमालय की यात्रा प्रारंभ की। उनको अत्यधिक प्यास लगी, परन्तु वह कोई जल श्रोत नहीं ढूंढ़ पाए ताकि अपनी पिपासा शांत कर सकें। प्यास से वह बहुत व्याकुल हो गये। उन्होंने अपने मन में पवित्र सरोवर--मानसरोवर-- का स्मरण किया तथा यहाँ पर कुछ गड्ढे खोदे। उनकी पिपासा को बुझाने के लिए यहाँ पर स्वतः ही तत्काल एक ताल का निर्माण हो गया !

मित्रो, इस ताल को पहिले लोग नैणताल अथवा नैनताल के नाम से ही जानते थे। बाद में इसे नैनीताल नाम दिया गया। नैनताल या नैनीताल नाम दो कारणों से पड़ा--पहला कारण यह है कि इसके स्वामी नैनुवाँ की वजह से लोग इसे नैनुवां का ताल तथा बाद में नैनताल कहने लगे होंगे। दूसरा कारण यहाँ पर नैना देवी का थान पहिले से ही होने के कारण इसे यह नाम मिला होगा।

 

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