हीरा सिंह राणा जी की कविता "उवील कौ छी मैं उन"
उवील कौ छी मैं उन, ऊ नी आई, हरे ठिल ठिल बे म्यर दिन कटाई
दगडी पूछनी कबही तक ऊ आने, मील गिज पर लगै रे छे ताई
उवील कौ छी मैं उन, ऊ नी आई, हरे ठिल ठिल बे म्यर दिन कटाई
होलि है मिल छी थ्वडा रन्ग लगे गे, होलि ल्हे गे ऊनी छौ दिवाई
जानि बखत कै बेर ए जून लौ, तैल कसम ले भीड अन्ग्वाई
उवील कौ छी मैं उन, ऊ नी आई, हरे ठिल ठिल बे म्यर दिन कटाई
जब बे ग्ये छी असल ने कुसल ने, कभे उवील मीके झुठ नी ल्गाई
एक जग भै बेर हम द्वीयु ले, जानि के के जै गानि मानि गठाई
उवील कौ छी मैं उन, ऊ नी आई, हरे ठिल ठिल बे म्यर दिन कटाई
कैल ले देखि उवेल मीके ब्ता च्हो, ऊ तो गोर छी हैगे काई सुवाई
जानि कै हैगो पन्गयार मे नै आय री, बैद्य भैटाय ले चली रे दवायी
उवील कौ छी मैं उन, ऊ नी आई, हरे ठिल ठिल बे म्यर दिन कटाई
यो सुनी बेर मै हिल दिलै रू, क ऊ मीके तो नी रे गे चाई
पीड के पुछू कि चलि रो इलाज़, कथे फ़ूट्नी छौ म्यर यो कपाई
उवील कौ छी मैं उन, ऊ नी आई, हरे ठिल ठिल बे म्यर दिन कटाई