देवाधिदेव भगवान् के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्र में लग गये-
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कलशोत्पत्तिमुत्तमाम्।
उत्तरे हिमवत्यार्श्वे क्षीरोदो नाम सागरः॥
आरब्धं मन्थनं तत्र देवैर्दानवपूर्वकैः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम्।
मूले कूर्मन्तु संस्थाप्य विष्णोर्बाहू च मन्दरे।
एकत्र देवताः सर्वे गलिमुख्यास्तथैकतः॥
मथ्यमाने तदा तस्मिनू क्षीरोदे सागरोत्तमे।
उत्पन्नं गरलं पूर्व शम्भुना भक्षितं च तत्॥
अथ स्वास्थ्यं गते लोके प्रकथ्यन्तेह्ढद्य तानि हि।
उत्पन्नति च रतननि यानि तत्र महानित च॥
विमानं पुष्पकं पूर्वमुत्तमं हंसवाहनम्।
नाग ऐरावतच्श्रेव पादपः पारिजातकः॥
भावार्थ-
'तत्पश्चात् देवता और दानवों ने पृथ्वी के उत्तर भाग में हिमालय के समीप क्षीरोदसिन्धु में मन्थन किया, जिसमें मन्दराचल 'मन्थनदण्ड' था, वासुकी नेती' थे, कच्छप-रुपधारी भगवान् मन्दरा चल के पृष्ठ भाग थे और भगवान् विष्णु उक्त मन्थन-दण्ड को पकड़े हुए थे, तदनन्तर उस क्षीरसागर से चौदह रत्न- लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पाञ्चजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अमृत-कुम्भ निकले।
उन्हीं रत्नों में से अमृत-कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र ÷जयन्त' अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिये जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा।