Author Topic: Mahakumbh-2010, Haridwar : महाकुम्भ-२०१०, हरिद्वार  (Read 107966 times)

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Kumbh Mela 2010 in Haridwar

Besides being the holiest, the Maha Kumbh Mela of Haridwar also has the eminence of being the largest religious fair in human history. Alternately, the spiritual fair is organized in three cities (Allahabad, Haridwar, Ujjain and Nasik) at the interval of every three years.

 Hundreds of thousands of devotees and pilgrims participate in the Kumbh Fair from every part of the world. Hindus believe that the religious festival blesses them by purging all their sins of the past. At the same time the Kumbh the festival is believed to release humans from the cycle of rebirth as per the Hindu mythology. During the mela,

the riverbanks of Ganga in Haridwar gets over packed with pilgrims. The Kumbh Mela in Haridwar remains steeped in countless Hindu religion myths and legends.

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Mythological Background

According to the Hindu mythology, gods were suffering from a curse during the creation of earth. They became feeble. To rid them of their misery, Lord Brahma advised them to churn the ocean to obtain 'amrit' from it.

Since it was not an easy task, the gods sought help from the demons and promised the latter to give away half the nectar. It was a long procedure and consumed 1000 years. Finally the task was completed. But when the gods received the nectar, they fled away.

 The gods did so because they never wanted the nectar to be misused by the demons. When the demons gave the gods a chase and a battle was taking place, the demi-gods concealed the nectar in four places.

While the demigods were carrying the nectar, one drop of the nectar fell down on earth at the four sacred spots where they hid it. These four places are believed to be Allahab, Haridwar, Ujjain and Nasik. All these cities are, therefore, considered to be very sacred

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Kumbh Mela Activities & Participants

over 10 million pilgrims had participated in the Kumbh Mela of 2003. During the Kumbh Mela season, the Ganga ghats in Haridwar and the town itself is over packed with pilgrims, saints, priests, rishis and yogis from every corner of the country.

The pilgrimage town of Haridwar is held in high regard by Hindus also because it is the point from where Ganga makes its entry into the plains after originating in the Gaumukh glacier.

Among all pilgrims at the Haridwar Kumbh Mela, the sadhus that attract the most attention are the 'Naga Sadhus' or the 'Naga Babas'. The characteristic features of Naga sadhus include being naked, with long matted hair and the body smeared in ashes.

 It is interesting to note that the extremities of weather do not affect them. Another prominent sect of sadhus is the Urdhwavahurs. These sadhus believe in observing self mortification.

 Sadhus of the Parivajakas sect observe complete silence. In order to clear the way, they do not say a word but tinkle little bells. A popular sect of sadhus is the Shrishasins who keep themselves in the standing posture round the clock. They remain busy meditating standing upside down.

For one entire month of the Kumbh Mela, the kalpvasis can be noticed observing meditation and rituals as well as taking a holy dip in the divine waters of the Ganga three times a day. Hindus believe that a holy bath in the Ganges during the Kumbh Fair will free them of all the sins and evils. The holy water of the Ganges is believed to attain healing properties during the mela season.


http://www.kumbhmelainharidwar.com

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    यूं तो बारहों महीने वसंत है संतई में। पर इन दिनों गंगनगरी हरिद्वार में संतो का विराट् वसंतोत्‍सव आने को है। महाकुम्‍भ के रूप में संत बनने-बनाने का द्वादशवर्षीय दुर्लभ अवसर आने को है। रोज़गार के अवसर जुटनेवाले हैं। समाज को ऋणी होना चाहिए कि बेरोज़गारों को काम मिलने वाला है। उन्‍हें राज़ी-रोटी ही नहीं मुफ्त में पैसा और प्रणाम मिलने के दिन  आने वाले हैं। उम्र की कोई सीमा नहीं है।




बच्‍चे हैं तो बालयोगी या बालब्रह्मचारी और बड़े हैं तो 108 से 1008 तक श्रीयुक्‍त हो सकते हैं। जो अशक्‍त हैं, जो परित्‍यक्‍त है, जो घर-परिवार से विरक्‍त है, उन सबके लिये सशक्‍त ढंग से अभिव्‍यक्‍त और आश्‍वस्‍त होने का अवसर आ गया है। जाना कुछ है नहीं, बस आना ही आना है। कहावत पूरी होने को है, ''हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा होय।''

    करना कुछ नहीं; बस एक बार कपड़े उतार कर नग्‍न होना है फिर उसके बाद तो इतनी चादरें चढ़ेंगी कि एक नहीं कई कई 'चादर-भण्‍डार' खोल लो या अपने पूर्व परिजनों को खुलवा दो। किस्‍मत ने साथ दे दिया और गट्टों में दम रहा तो नेता-अफ़सर चीज़ ही क्‍या है, मंत्री और मुख्‍यमंत्री तक अपनी कुर्सी आपसे  छिनवाकर गौरवान्वित होंगे। खुद को बड़ा उपकृत अनुभव करेंगे।

    यूं भी संतई में बड़े मज़े हैं। पन्‍द्रह-बीस प्रतिशत विद्वान् संतों को छोड़कर शेष को अपनी संतर्इ चलाने के लिये  आजकल कुछ ख़ास करना भी नहीं पड़ता।

 पहले भी आसान था बाबा बनना और आजकल तो और भी ज्‍्यादा आसान है। तुलसीदास लिख गए हैं कि ''नारि मुई, गृह, संपति नासी, मूड़ मुड़ाए भए संन्‍यासी।'' पर अब तो ऐसा ना भी हो तो भी बाबा बनना आसान है और फ़ायदेमन्‍द भी है। जैसे नेता, अभिनेता या पत्रकार बनने में किसी योग्‍यता, शिक्षा दीक्षा या अनुभव की ज़रूरत नहीं होती वैसे ही बाबा बनने के लिए भी केवल इच्‍छाभर होनी चाहिए।

कपड़े का रंग पसंद करो और बाबागीरी शुरू। भगवा पहनो या सफेद, लाल पहनो या काला। जटाजूट रखो या रुण्‍ड-मुण्ड बन जाओ। वस्‍त्र पहनों या निर्वस्‍त्र रहो। रामनाम जपो या किसी की मां-बहन एक करो। आपके लिये सब जायज़ है। आजकल बड़े बड़े लठपति ही मठपति बनते हैं। फिर सारा समाज आपको सप्रणाम विस्‍तृत अनंत अधिकार प्रदान कर देता है।

    अभी अभी हरिद्वार में ऐसा हो भी गया है। हरिद्वार महोत्‍सव के  उद्घाटन मंच पर संत महंतों का जमावड़ा था। आसन्‍न कुम्‍भ के चलते आजकल इन सबकी सर्वत्र घुसपैठ और जबरदस्‍त सम्‍मान का दौर है इसलिये हरिद्वार महोत्‍सव कैसे अछूता रहता। सो बाबालोग मंचासीन ही नहीं हुए बल्कि प्रदेश के मुखिया की कुर्सी तक हथिया बैठे। मुख्‍यमंत्री को जनता में बैठकर देखना पड़ा कि 'बाबानाम केवलम्' का जलवा क्‍या होता है।

 संस्‍कृति के उस मंच से मुख्‍यमंत्री की उपस्थिति में जिस असांस्‍कृतिक, अश्‍लील, अभद्र, मातृ-भगिनी-मूलक गालियों का जो प्रसारण संतों के श्रीमुख से हुआ, वह जिसने भी देखा-सुना वह आज तक अचंभे में है। लोगों को विश्‍वास हो गया है कि हरिद्वार में सचमुच कुम्‍भ आने को है। संतों के निर्बाध दम्‍भ के पीछे ही तो आजकल कुम्‍भ आता है।

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वर्तमान समय में भी वसुधा के ओर-छोरतक किसी न किसी रुप में अखिल कोटिब्रह्याण्डनायक उस परम प्रभु की व्यापक शासन-शक्ति धर्मरुप से निर्बाध दृष्टिगोचर हो रही है। वर्णा श्रमियों की सुदृढ़ता का ही फल है कि परमपिता परमेश्वर भी सदेह धरातल पर अवतीर्ण होकर सज्जन, साधु-रक्षा एवं दुष्टों का संहार कर पृथ्वी का भार हल्का करन में अग्रसर होते हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥


भावार्थ- नाना प्रकार के पर्वो का सर्जन भी धार्मिक विज्ञानों द्वारा ही हुआ था। सबसे मूल में कोई न कोई अलौकिक विशेषता विद्यमान रहती है जिसे विचारशील ही समझ पाते हैं। इन्हीं महापर्वों में कुम्भ पर्व भी है जो कि भारत के हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार स्थानों में मनाया जाता है।

वैसे 'कुम्भ' शब्द का अर्थ साधारणः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदाय में पात्रता के निर्माण की रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जनमानस के उद्धार की प्रेरणा निहित है।

यथार्थतः 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टि के कल्याकारी अर्थ को अपने आपमें समेटे हुए है-

कुं पथ्वीं भवयन्ति संकेतयन्ति भविष्यक्तल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बुहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान-विशंषानुद्दिश्य यस्मित्‌ सः कुम्भः।

भावार्थ- 'पृथ्वी को कल्याण की आगामी सूचना देने के लिये या शुभ भविष्य के संकेत के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य स्थान विशेष के उद्देश्य से निर्मल महाकाश में बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें, उसे कुम्भ' कहते हैं।'

इसके अतिरिक्त अन्यान्य जन कल्याणकारी भावों को भी 'कुम्भ' शब्द के शब्दार्थ देखा जा सकता है।

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पुराणों में कुम्भ पर्व की स्थापना बारह की संख्या में की गयी है, जिनमें से चार मृत्युलोक के लिये और आठ देवलोक के लिये है-

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यैर्द्वादशवत्सरैः।
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया॥
पापापनुत्तये नृणां चत्वारि भुवि भारते।
अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः॥

भावार्थ- भूमण्डल के मनुष्य मात्र के पाप को दूर करना ही कुम्भकी उत्पत्तिका हेतु है। यह पर्व प्रत्येक बारह में वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानों में होता रहता है। इन पर्वों में भारत के प्रान्तों से समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करने के लिये आते हैं।

क्षार-समुद्र से पर्यवेष्टित भारत भूमि स्वभावतः मलिनता के कलंक पकड़ से युक्त है। यह पुण्यप्रक्षालित भूमि है। भौगोलिक दृष्टि से इसके चार पवित्र स्थानों में उस अमृत-कुम्भ की प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र-मन्थन से उदूत हुआ था।

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कालिक दृष्टि से ग्रहयोग जो खगोल में लुप्त-सुप्त अमृतत्व को प्रत्यक्ष और प्रबुद्ध कर देते हैं, चारों स्थानों में बारह-बारह वर्ष पर अर्थात्‌ द्वादश वर्षात्मक कालयोग से प्रकट होते हैं।

तब गंगा (हरिद्वार), त्रिवेणीजी (प्रयाग), शिप्रा (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक)-ये पतितपावनी नदियाँ अपनी जलधारा में अमृतत्व को प्रवाहित करती हैं। अर्थात्‌ देश, काल एवं वस्तु तीनों अमृत के पादुर्भाव के योग्य हो जाते है। फलस्वरुप अमृतघट या कुम्भ का आवतरण होता है।



कालचक्र न केवल जीवन के क्रिया-कलाप का मूलाधार है; अपितु समस्त यज्ञकर्म, अनुष्ठान एवं संस्कार आदि भी कालचक्र पर आधारित हैं। कालचक्र में सूर्य, चन्द्रमा एवं देवगुरु बृहस्पति महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों का योग ही कुम्भ पर्व का प्रमुख आधार है। जब बृहस्पति मेष राशि पर तथा चन्द्रमा, सूर्य मकर राशि पर स्थित हों तब प्रयाग में अमावस्या तिथि को अति दुर्लभ कुम्भ होता है।

 इस स्थिति में सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ होते हैं। हमारे जीवन में जब मित्र और श्रेष्ठजनों का मिलन होता है तभी श्रेष्ठ एवं शुभ विचारों का उदय होता है और हमारे जीवन में यह योग ही सुखदायक होता है।

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कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति और धर्म से अनुप्राणित सभी सम्प्रदायों के धर्मानुयायी एकत्रित होकर अपने समाज, धर्म एवं राष्ट्र की एकता, अखण्डता, अक्षुण्णता के लिये विचार-विमर्श करते हैं।

स्नान, दान, तर्पण तथा यज्ञ का पवित्र वातावरण देवताओं को भी आकृष्ट किये बिना नहीं रहता। ऐसी मान्यता है कि महापर्व पर सभी देवगण तथा अन्य पितर-यक्ष-गन्धर्व आदि पृथ्वी पर उपस्थित होकर न केवल मनुष्यमात्र, अपितु जीवमात्र को अपनी पावन उपस्थिति से पवित्र करते रहते हैं।

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                             महाकुम्भ की उत्पति और अमरकथा
                            =====================

एक समय की बात है, दैत्यों और दानवों ने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओं पर चढ़ाई की। उस युद्ध में दैत्यों के सामने देवता परास्त हो गये, तक इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि आगे करके ब्रह्याजी की शरण में गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्याजी ने कहा-'तुम लोग मेरे साथ भगवान्‌ की शरण में चलो।' यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओं को साथ ले क्षीरसागर में उत्तर-तट पर गये और भगवान्‌ वासुदेव को सम्बोधित करके बोले-÷विष्णो !

 शीघ्र उठिये और इन देवताओं का कल्याण कीजिये। आपकी सहायता न मिलने से दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।' उनके ऐसा कहने पर कमल के समान नेत्रवाले भगवान्‌ अन्तर्यामी पुरूषोत्तम ने देवताओं के शरीर की अवस्था देखकर कहा-÷देवगण ! मैं तुम्हारे तेज की वृद्धि करूँगा। मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुम लोग करो।

 दैत्यों के साथ मिलकर सब प्रकार की औषधियाँ ले आओं और उन्हें क्षीरसागर में डाल दो। फिर मन्दराचल को मथानी और वासुकि नागको नेती (रस्सी) बनाकर समुद्र का मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो। इस कार्य में मैं तुम लोगों की सहायता करूँगा। समुद्र का मन्थन करने पर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करने से तुम लोग बलवान्‌ और अमर हो जाओगे।'

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देवाधिदेव भगवान्‌ के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्र में लग गये-

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कलशोत्पत्तिमुत्तमाम्‌।
उत्तरे हिमवत्यार्श्वे क्षीरोदो नाम सागरः॥
आरब्धं मन्थनं तत्र देवैर्दानवपूर्वकैः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम्‌।
मूले कूर्मन्तु संस्थाप्य विष्णोर्बाहू च मन्दरे।
एकत्र देवताः सर्वे गलिमुख्यास्तथैकतः॥
मथ्यमाने तदा तस्मिनू क्षीरोदे सागरोत्तमे।
उत्पन्नं गरलं पूर्व शम्भुना भक्षितं च तत्‌॥
अथ स्वास्थ्यं गते लोके प्रकथ्यन्तेह्ढद्य तानि हि।
उत्पन्नति च रतननि यानि तत्र महानित च॥
विमानं पुष्पकं पूर्वमुत्तमं हंसवाहनम्‌।
नाग ऐरावतच्श्रेव पादपः पारिजातकः॥


भावार्थ-
'तत्पश्चात्‌ देवता और दानवों ने पृथ्वी के उत्तर भाग में हिमालय के समीप क्षीरोदसिन्धु में मन्थन किया, जिसमें मन्दराचल 'मन्थनदण्ड' था, वासुकी नेती' थे, कच्छप-रुपधारी भगवान्‌ मन्दरा चल के पृष्ठ भाग थे और भगवान्‌ विष्णु उक्त मन्थन-दण्ड को पकड़े हुए थे, तदनन्तर उस क्षीरसागर से चौदह रत्न- लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पाञ्‌चजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अमृत-कुम्भ निकले।

 उन्हीं रत्नों में से अमृत-कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र ÷जयन्त' अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिये जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा।

 

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