Tourism in Uttarakhand > Religious Places Of Uttarakhand - देव भूमि उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध देव मन्दिर एवं धार्मिक कहानियां

Spiritual Places of Uttarakhand - विभिन्न स्थानों से जुड़ी धार्मिक मान्यतायें

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
 
प्राचीन परशुराम मंदिर - UTTARKASHI

यहां भगवान विष्णु एवं उनके 24वें अवतार परशुराम की पूजा होती है। यहां परशुराम की प्रतिमा इस मंदिर में 8वीं सदी से ही है।

RELIGIOUS IMPORTANCE

कहा जाता है कि परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता का सिर काट दिया। जमदग्नि मुनि ने इस आज्ञाकारिता से प्रसन्न होकर उन्हें एक वरदान दिया। परशुराम ने वरदान स्वरूप अपनी माता के पुनर्जीवन की मांग की जो मिल गया। फिर भी, वे मातृ हत्या के अपराधी हुए तथा उनके पिता ने उन्हें उत्तरकाशी जाकर प्रायश्चित करने को कहा। इस प्रकार उत्तरकाशी उनकी तपोस्थली है।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
प्राचीन भैरों मंदिर UTTARKARSHI

इस मंदिर में भैरों की प्रतिमा स्वयंभू है अर्थात अपने आप उदित। केदार खंड में कहा गया है कि भगवान शिव से पहले भैरों की पूजा होती है क्योंकि वे भगवान शिव के रक्षक हैं। इसलिये यह मूर्ति विश्वनाथ मंदिर का संरक्षक है ठीक उसी प्रकार जैसे वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के निकट ही भैरव मंदिर है।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
गौरीकुंड जहाँ पर कटा था गणेश भगवान् का सिर

गौरीकुंड ( रुद्रप्रयाग ) मे गौरीकुंड नाम का जगह है ! जहाँ पर कहा जाता है की गौरी माता सनान करती थी , इसी जगह पर एक बार जब गौरा माता स्नान कर रही थे और दरवाजे पर गणेश भगवान् को उन्होंने दरवाजे पर पहरी के रूप मे खड़ा किया था ! परन्तु जब भोले नाथ वहां पर आए उन्हें यह पता नही था और उन्होंने विवाद मे गणेश जी का सिर काट दिया !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

केदार नाथ से जुड़ी धार्मिक मान्यता


केदारनाथ मंदिर का अस्तित्व पहले भी था क्योंकि स्वयं भगवान शिव ने भी यहां तप किया था। केदारनाथ के बारे में अधिक हाल की किंबदन्ती पांडवों से संबंधित है जो महाकाव्य महाभारत के नायक थे तथा भगवान शिव जो रूद्रप्रयाग तथा चमोली जिलों के इर्द-गिर्द संपूर्ण केदारनाथ क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करता है।

यह समय महाभारत का उत्तरकाल है। पांडव विजयी हुए हैं, पर वे सगे संबंधियों से युद्ध कर उदास हैं इसलिए अपने भाईयों को मारने के पाप से मुक्ति पाने के लिए वे ऋषि वेदव्यास के पास जाते है। व्यास उन्हें भगवान शिव के पास भेजते हैं क्योंकि केवल वे ही क्षमा दान दे सकते हैं और केदारेश्वर के बिना मुक्ति या छुटकारा पाना संभव नहीं है। इसलिए पांडव शिव की खोज करते है। भावु शिव उन्हें क्षमा करने को तैयार नहीं हैं पर चूंकि वे ना भी नहीं कह सकते इसलिए भागे फिर रहे है और उनके सामने आना नहीं चाहते।

परंतु पांडवों को उन्हें ढूंढना ही था और इस प्रकार वे उनके पीछे-पीछे चलते रहे। शिव आगे-आगे और पांडव उनके पीछे-पीछे यत्र, तत्र, सर्वत्र चलते रहे। जब भगवान शिव काशी पहुंचे तो पांडवों ने उन्हें देख लिया और फिर शिव विलीन होकर गुप्तकाशी में प्रकट हुए। इस प्रकार गढ़वाल हिमालय में इस जगह का नाम ऐसा पड़ा तथा कुछ समय तक भगवान शिव इस निर्जनता में वेश बदलकर खुशी-खुशी रहे। परंतु कुछ समय बाद ही पांडवों को उनका सुराग मिल गया और फिर महाभाग-दौड़ शुरू हुआ।

अंत में भगवान शिव केदार घाटी पहुंच गये। जो एक चालाक विकल्प नहीं हो सकता था क्योंकि इसके और आगे कोई रास्ता नहीं था और केवल बर्फीली चोटियां क्षेत्र उनके लिए बाधा नहीं हो सकते थे। संभवतः उन्होंने तय कर लिया था कि पांडवों की काफी परीक्षा हो चुकी है।

केदारघाटी में प्रवेश एवं बाहर आने का एक ही रास्ता है, पांडवों को भान हुआ कि वे भगवान शिव के पहुंच के करीब हैं। पर शिव ने अभी भी सोचा या ऐसा बहाना किया कि वे खेल जारी रखना चाहते हैं। चूंकि उच्च पर्वतों पर कई चारागाह थे इसलिए शिव बैल का रूप धारण मवेशियों के साथ मिल गये ताकि उन्हें पहचाना नहीं जाय और इस प्रकार पांडवों के लिए यह इतना निकट पर कितने दूर साबित हो।

इतनी दूर आने के बाद पांडव इसे छोड़ देने को तैयार नहीं थे। निश्चित ही नहीं। शीघ्र ही उन्होंने भगवान शिव को फंसाने की कार्य योजना बनायी। भीम अपनी काया को विशाल बनाकर प्रवेश द्वार पर खड़े हो गये जिससे घाटी का रास्ता अवरूद्ध हो गया। पांडवों के अन्य भाईयों ने मवेशियों को हांकना शुरू किया। विचार यह था कि मवेशी तो भीम के फैले पैर के बीच से निकल जांयेंगे पर भगवान होने के नाते शिव ऐसा नहीं करेंगे और उन्हें जानकर वे पकड़ लेगें। भगवान शिव ने इस योजना को भांप लिया तथा अंतिम प्रयास के रूप में उन्होंने अपना सिर पृथ्वी में घुसा दिया। विशाल भीम को इसका भान हुआ तथा वे शीघ्र उस जगह पहुंचे। तब तक बैल कमर तक पृथ्वी में समा चुका था और केवल दोनों पीछे के पैर और पूछ ही जमीन के ऊपर थी। भीम ने पूछ पकड़ ली और उसे जाने नहीं दिया। उस क्षण शिव मान गये। वे अपने मूल रूप मे आकर पांडवों के समक्ष प्रकट हुए तथा उन्हें अपने सगे-संबंधियों की गोत्र हत्या से मुक्ति दे दी। जमीन के ऊपर बैल के पिछले भाग की पूजा करने उनके साथ वे भी शामिल हो गये और इस प्रकार वे केदारनाथ के प्रथम पूजक बने और उन्होंने ही केदारनाथ का मूल मंदिर बनवाया जिसके बाद मानव-भक्तों ने इसे बनवाया।

पृथ्वी के अंदर का धसा भाग विभिन्न जगहों पर फिर प्रकट हुआ जो नेपाल में पशुपतिनाथ तथा गढ़वाल के कपलेश्वर या कल्पनाथ में बाल, रूद्रनाथ में चेहरा (मुंह) तुंगनाथ में छाती तथा वाहे एवं मध-माहेश्वर में मध्य भाग या नाभि-क्षेत्र है और इसलिए इन जगहों पर शिव के लिंग की पूजा नहीं होती है उनके अन्य अंगों की पूजा होती है।

गढ़वाल में इन पांच स्थलों को पंच केदार कहा जाता है। माना जाता है कि जो भी तीर्थयात्री इन पांच मंदिरों में पूजा कर लेता है उसके जीवन भर के पाप धुल जाते हैं।

मम क्षेत्राणी पंचेवा भक्तिप्रीतिकारिणी वै

केदारम मध्यम तुंग थाता रूद्रालयम प्रियम

कल्पकम चा महादेवी सर्वपाप प्रनाशममं

कथितं ते महाभागे केदारेश्वर मंडलम

मेरे मात्र पांच स्थल हैं जो शिष्यों में प्रेम लाते हैं वे केदारनाथ, मध्यम (मधमाहेश्वर) तुंग (तुंगनाथ) रूद्रालय (रूद्रनाथ) तथा कल्पकार (कल्पेश्वर) हैं। हे महादेवी, ये सभी पाप धो डालते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
केदार नाथ के निकट भैरव मन्दिर

केदारनाथ मंदिर यहां की भूमि का संरक्षण एवं रखवाली करता है, पर जाड़ों में जब मंदिर बंद हो जाता है तब भैरवनाथ ही इस स्थान की बुराइयों से रक्षा करते हैं। हैलीपैड के ठीक ऊपर केदारनाथ मंदिर से आधा किलोमीटर दूर भैरव को समर्पित यह मंदिर है, जहां पूजा केदारनाथ मंदिर के खुलने पर और बंद होने से पहले होती है। बनिया समुदाय एवं चरवाहों के लिये यह विशिष्ट पूजा स्थल है।


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