Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 237565 times)

devbhumi

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वो पर्वतों का पटल

ना ऊँगली उठेगी
ना बात बिगड़ेगी

ना शराब पिएंगे
ना शराब बनेगी

कम दुर्घटन होंगी
ना उजड़ेंगे घर

सावधानी बरतोगे
जिंदगी संवरेगी 

उबड़ खबड़ है मगर
चलो चले संभल

पलायन अच्छा नहीं
सबल बनो सज्जन

एक रस्ता गुजरे
प्रिये बस तेर बगल

तेरे हिर्दय में सदा बसे
वो पर्वतों का पटल

बालकृष्ण डी ध्यानी
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हमे देर तो ना  हो जायेगी

लेने चला था कुछ और ही
कुछ और ही ले चला आया
बदलने चला इस जग को
पर खुद ही बदल आया
अँधेरे में छटपटाती
मेरी कवितायें
सिसक झिझक  रो रही थी
चुपी दबी बंद मुख से
जाने क्या
वो चिला  रही थी
समझाने चली थी
वो अपनों को
और खुद ही बिसरा आयी
ठंड सता  जा रही  है
अब खूब सबको
कुछ वक्त बाद
ये ग्रीष्म सताएगी
बदलते वातवरण की
ऐ  घटती बढ़ती अनियमिता
क्या दुनिया समझ पाएगी
कंही समझने से पहले उसे
हमे देर तो ना  हो जायेगी

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कुछ और मस्तक

भूल न ना हमे पथ पर आगे बढ़ना  है
साथ  नहीं तो अकेले ही बस अब आगे चलना है

जीवन की ऐ बहुत बड़ी कटु बिड़बना है
यंहा पर जो कुछ  होता  बस वो सब अचानक है

दूसरों की परेशानी में  गाने वालों जरा  सुनो तुम
अपनों के दुखड़ों में भी जाकर तो तुम्हे भी कभी रोना है

धधक रही अग्नि सब ख़ाक कर जाने आतुर है अब
उठ जाओ इस नींद से  एकदिन तो इस संग खूब सोना है

दिशा  भूल ना जाना जाने वाले पथिक आगे जाकर  तुम
पीछे आने वालों के लिये तुम्हे नये सपनों को जो बुनना हैं

बड़ी ही कठिन कर्म की ऊपर नीचे होती ऐ पगडंडी है
प्रथम विफलता में ही छुपी दबी सफलता की वो कुंजी

अपने ही आएंगे बेगाने बन बनकर राह  अवरुद करने
एकाकीपन  के घोर निराशा के बादल बन वो छाएंगे

रण में घात लगा बैठा होगा तब जो कोई अपना पराया
कुमकुम की थाल में घुल जलकण अश्रु बन ढुलक जाएंगे

तब एक ज्वाला प्रज्वलित होगी सब एकाकार कर जाऐगी
चल पड़ेंगे कदम तेरे  वो जाने वाली  राह नेक हो जाएगी

कुछ मस्तक कम पड़े होंगे  माँ भरती की  माला के लिए
कुछ और मस्तक माँ भरती माला में सजने आतुर हो जाएंगे


बालकृष्ण डी ध्यानी
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 जब मन से बात हो

कभी  खुद से बातें करो
कभी  खुद  के साथ चलो
हर वक्त क्यों तुम्हारे कन्धों पर
बोझ दूसरों का ही हो

मन तू  ऐसी कविता लिख दे
निराशा मन से फुर्र  हो
बेचैनी हो जाये कोसों दूर
तब जाकर तु संपूर्ण हो

पुकार ले मन तो जरा
मुझे  भी तो तेरा अहसास हो
ना उदास बैठा ना हो अकेला
चाहत की अब शुरुआत हो

मन का दीप जब जले
अंधकार  छटना प्रारंभ हो
मौसम हो जाए हरे भरे
अगणित आनंद का संचार हो

बालकृष्ण डी ध्यानी
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आई और आ के टल गई

मौत आ के टल गई 
जिंदगी फिर सँभल गई
आघात चाँद का बुझ गया
आँख खुली सुबह हो गई

याद फिर तुझे दिल ने किया
फिर ये सुबह महक गई
याद ना रख बेवफा हवा को तू 
जो तेरे बगल से गुजर गई

कर के चले थे साफ़ हम
मामला जो था उलझा हुआ
सामने फिर तेरीबात आई
फिर क्यों मेरी राहें  बदल गई

जाने  कौन सा  है ये सफर
जो चल रहा यूँ तन्हा हमसफ़र
खो गई फिर वो  हवा किधर
फिर वो  सुबह किधर चली गई

बालकृष्ण डी ध्यानी
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दो पल का भैजी !!!
अपनी बातों को जब मैं बोलने और समझाने में मैं असमर्थ होने लगा तब मैंने लिखना आरंभ किया और अपनी भवनाओं अहसासों को समेटने का ऐसे एक सफर शरू हुआ
कभी मैंने भी सोचा ना था की मै कुछ लिख पाऊँगा पर ये दिल लिखाता गया और मै लिखता चला गया
कभी कभी मेरे लिखे शब्दों को मैं जब फिर से देखता हूँ तो मुझे विशवास नहीं होता की मैंने उसे लिखे हैं लेकिन फिर भी लगता है की मुझे अब भी लिखना नहीं आया पर अब भी उस प्रवास में प्रयासरत हूँ श्याद कभी तो मुझे लिखना आ जाए
आप का दो पल का भैजी
बालकृष्ण डी ध्यानी
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क्यों ?

जीवन है बस रैनबसेरा
ना कुछ इसमें  तेरा ,ना कुछ इसमें मेरा

अब रटते ही ,गुजरेगा जीवन
क्यों ? तू ये पार ,मैं वो पार

आओ बैठें ,बात करें कुछ
क्यों ? ऐ हाला तेरा ,वो हाला मेरा

एक ही नारा ,एक ही नाम हो
क्यों ? ऐ राम  तेरा ,वो  राम मेरा

सुख है एक सपना ,दुख एक मेहमान
क्या इसमें तेरा ,क्या इसमें  मेरा

क्या सोच है ये , क्या अभिव्यक्ति
क्यों ? ऐ सपना मेरा , वो सपना तेरा

मानसिक हलचल , जीवन की तलहटी में
क्यों ? ना कुछ तेरा ,ना कुछ मेरा

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आपकी मेरी बातें

बहुत काम है पर ज्यादा है
बता दे क्या तेरा इरादा है

लटकी है जान हथेली पर
फिर भी धन की अभिलाष है

बस इन सांसों ने  रोक रखा है
ख़्बाव को हकीकत से जोड़ रखा है

मन  बड़ा अब भी ललचाता है
क्यों  नये नये खेल खिलाता है

फुरसत में आ भीड़ जाता है
वक्त वो फुर्र से उड़ जाता  है

आखिर हात कुछ नहीं आता है
सब धरा का धरा रह जाता है

हवा  का झोंक सा उड़ जाता है
नजरों से ओझल हो जाता है

जीवन की उन  कठनाईयों को
सर से वो हल्का कर जाता है 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अकथ-मन से गंगा

मैंने अपने
अन्तस् को देखा
वो कुछ कह रहा था
अकेले बैठे  वो रो रहा था

जब खुद को ही
खुद में ही न ढूंढ़ पाती है  गंगा
किनारे जा जा कर
अपनी व्यथा लहरों संग
जब  गाती है गंगा

थाह पाने
संध्या बेला अपनों में आती है गंगा
धुंधले टिमटिमाते तारों
बहते छोटे प्रज्वलित दीपों संग
क्या पाती है गंगा

पहली बार देखा
श्मशान की सीढ़ियों पर बैठी जलती  गंगा
किनारे शांत सूखी आँखों को
अपने पवन जल से भिगोती  गंगा

अब अकेला ही ठीक हूँ मैं
सागर की ओर कहती  बहती जाती गंगा
खुद पर नज़र लग गयी, उस दर्द के सौदागर
जब छोड़ के  जाती अकथ-मन से गंगा

अकथ-मन से गंगा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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समर्पण

अपना जो भी मिले
वो अपनापन लिए मिले
कुछ नहीं है चाह मेरी
जिये वो अपनों के लिये जीये

 पीढ़ियाँ याद करें उन्हें
जो थोड़ा कुछ पीछे छोड़ चले
उनकी छोड़ी निशानियों पर
चलो मिलकर हम तुम चले

पत्थर की बनी वो सीढ़ियां है
घर मेरा यंहा नहीं वंहा  है
खोया हूँ गुम हूँ इन राहों में
छोडे निशाँ खो गये  कंहा है

जिंदगी मिले मुझे बस ऐसी
कोई हुनर हो मेरा ऐसा भी
अपनापन फैलाता चलों मै
गैरों को अपना बनता चलों

अपना जो भी मिले   ........

बालकृष्ण डी ध्यानी
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