Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 233814 times)

devbhumi

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वो टूटे झरोखे

झरोखे से झाँकती रही
ऐसे ही वो मुझ से बात करती रही

आँखों से इंतजार झलकता रहा
उन से रोज यूँ ही मुलाक़ात होती रही

उजाला है, आज बुझा-बुझा सा मन
ना आये वो तो ऐसे ही रात रोती रही

वो मिटटी का चूल्हा आज भी बेकरार है
पास गया उसके तो वो दबे दबे खांसती रही

खंडहरों से जाकर सर को पीटा मैंने
दर्द की करहा आज भी गूंजती रही

चुपचाप अब भी कोई पुकरता है मुझे
अब भी इस दिल से आवाज उठती रही

घर मेरा बरसों पहले रूठ गया है मुझ से
वो टूटे झरोखे मुझे फिर भी बुलाते रहे

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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अब भी तड़पन बाकी है

अपनी बारी का इन्तजार तो करना होगा
देर सवेर ही सही तुम्हे मुझे अलविदा कहना होगा

तेरे दर से रुक्सत होने का मन कब किसको होता है
ताकता रहता है वो बंद दरवाजा कब खुलता है

हमेशा होता है जैसा वैसा अक्सर होता क्यों नहीं
मंजिल का पता है फिर भी मन में भटकन क्यों है

सफर ऐसा चढ़ा है कि मुकाम से पहले छूट जाएगा
खाली पड़ा है सब फिर भरने की कोशिश करता क्यों है

अपने को समझाने में सारी उम्र बस यूँ ही गुजार देता है
समझता है सब कुछ पर असमझा ही बना रहता है

बिना सिर पैर की बातों का अब जिक्र करता कौन है
तुम बस अब एक कोने हो उस कोने आ बैठता कौन है

इस शहर को याद करने में मै अपने गाँव का रस्ता भुला
याद आया वो भुला रस्ता जब थोड़ी चढ़न में सीना फुला

किसे पता था उस पल सब कुछ मेरा यूँ ही बदल जाएगा
खुला आसमान आठ बाई दस के कमरे में कैद हो जायेगा

खेल को कल्पना के इस बिंदु से आगे तो बढ़ाना ही था
मंजिल मेरी पीछे छोटी बरसों पहले,अब भी तड़पन बाकी है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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जब धरा पर.....

जब धरा पर प्रियतम बरसे
बूँद बूँद जब मन तन लिपटे

मन अंतर् खूब हर्षित होगा
दबा अंकुर तब पल्वित होगा

प्रकृति लेगी तब खूब अंगड़ाई
झर झर सर्वत्र सब निर्झराई

खिड़की में बैठ देखूंगा तब मैं
भिगोया हूँ ऐसा अनुभवित होगा

बूँद भर की चाह हो बस जीवन
संचित होगा तब ही तरुवर होगा

गर्वमय पल की गाथा गाये जीवन
बूँद बूँद संचित परिभाष जागे मन

सरल बहेगी तब जीवन सरिता
अगणित वृक्षों की हो जाए संरचना

पर्वतों से जा टकरायेंग जब नभ
सात रंगों का तब सुखद संगम होगा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अपने को ही ढूढ़ने चला हूँ

अपने को ही ढूढ़ने चला हूँ
आज गैरों की महफ़िल में
अपने से कहना बस तू इतना
नाज ना करना लड़ने चला हूँ
अपनी ही किस्मत से

लेकर देकर अपने पास
बस बची है एक ही नजर है
बात दे देखौं तुझे आज इधर से
अपनी किस नजर से

रिश्तोँ की हकीकत
क्या कोई हमे समझायेगा
जब हमने उनसे अलिगन लेकर
अपने को ही बचाया था

मुस्कुराहट मेरी जिंदगी है
मुस्कुराहट की कीमत
क्या कोई हमे समझायेगा
मेरे बारे राय मत बनाना
सब समय ही बताएगा

समय सबको मजबूर बना देता है
मान लो तुम भी मै भी मजबूर हूँ
बैठा हूँ उससे बहुत दूर होकर
उसके मैं ही सबसे करीब हूँ

पत्थर की दुनिया है
वो मेरे स्नेह की बात नहीं समझेगी
जिंदगी के आईने में सिमटे मेरे
जज्बातों के अहसास नहीं समझेगी

मेरे ही अक्स को मेरे दुश्मन बना दिया
मुझ को ही मेरा लोगों ने कातिल बना दिया है
गुनहगारों को ढूढ़ने जब मै निकला
मेरा गुन्हा मुझे खुद सजा बताने चला

अपने को ही ढूढ़ने चला हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
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उनसे अब रोज यूँ ही

कैसे कह दें मुलाक़ात हुई
चुप थे दोनों और बहुत बात हुई
अब मिलते हैं हम इन राहों पर
जहां चुपके आंखों से शुरवात हुई

कोई क्या समझायेगा
आँखों में उमड़े उन अहसाओं को
नजरें मिली जब उनसे
तब जाकर हमारी पहचान हुई

मिल रही हैं अब
गर्म साँसों से वो गर्म साँसे
उजाड़ पड़ी दुनिया थी
चंद लम्हों में ही गुलजार हुई

उनसे अब रोज यूँ ही मिलना मेरा
अपने आप में अब संभलना मेरा
दिन रात सुब्ह शाम अब तुम ही हो
उस रूह में बस तुझे अब वो ढूंढ़ना मेरा

कैसे कह दें मुलाक़ात हुई

बालकृष्ण डी ध्यानी
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पहाड़ों पे चढ़ते उतरते

पहाड़ों पे चढ़ते उतरते
इश्क अगर मुझे तुझ से हो जाए तो

साँसे लेने लगेंगी हांफती मेरी सांसेँ
आँखों से आंखें तेरी जब मिला जाए तो

कोई तो है ऐ मन कहने लगा है
धक धक धड़कता दिल कह जाए तो

आवाज देती रहती है ऐ धड़कन
इस मौन से आ कोई मिल जाए तो

हर बातों में बस बातें हो तुम्हारी
ऐसी सुबह शाम मेरी हो जाए तो

लिखने को लिख दूंगा मैं कुछ भी
पास बैठ हात पकड़ वो लिख जाए तो

पहाड़ों पे चढ़ते उतरते ....

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तुम्हारे जन्मदिन पर

तुम्हारे जन्मदिन पर
अनुभूति जागी जागे हैं अहसास
तुम हो पास बस यही चीज है ख़ास
कहती जा रही ये हवा आज साथ साथ

बस तुम्हार साथ
काफी है मुझे ऐ जीवन जीने के लिए
इस सुंदर जीवन के औंठ पर
तुम संग खुशियों के रंग भरने के लिए
तुम्हारे जन्मदिन पर

मैं मिलना बिलकुल ही भूल गया
दुःख को तो तुमसे मिलने के बाद
भटकता फिरता रहता था
राहों और गलियों में यूँ ही कब से
मिला तुमसे तब से मै
घर जल्दी पंहुचना सिख गया
तुम्हारे जन्मदिन पर

कुछ ना कुछ सीखा देती हो तुम
बातें करता हूँ मै जब तुम से
मैं हूँ मुझे बतला जतला देती हो तुम
अपनी अदा अपने हुनर और उस खूबी से
मुझे अपने आप से मिला देती हो तुम
तुम्हारे जन्मदिन पर

आधा हिस्सा हो तुम ये माना मैंने
फिर भी मेरे शरीर के पुरे हिस्से को
ना जाने कौन से जादू से
उस अधूरे हिस्से को पूरा बना देती हो तुम
तुम्हारे जन्मदिन पर

आंखों में चमक ना जाने कौन सा नमक है
खार होने पर भी वो सहारा सा लगता है
दूर हूँ तुम से मैं कोसों दूर
बंद करता हूँ इन्हे वो तुम्हे पास बिठा देता है
तुम्हारे जन्मदिन पर

devbhumi

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अंदर ही अंदर

संग लिए उन्हें घूम रही थी
जब अपने से ही वो दूर खड़ी थी

असर था या नशा था उनका
ना चढ़ रहा था ना उतर रहा था

मरा रही थी , जिंदा हो रही थी
बस अंदर बाहर स्वास छोड़ रही थी

शून्य में ऐसे ही वो खो रही थी
चेतन थी वो , अचेतन हो रही थी

एक परिंदा सा वो दूर उड़ रहा था
ना जाने उसमे वो क्या ढूंढ रही थी

प्रश्न बड़ा उसे विहल कर रहा था
जवाब सुनकर वो रो पड़ी थी

कितने प्रार्थना बाद मिला था जीवन
व्यर्थ ही अपने से ही वो खो रही थी

इन्तजार संग उसका अथक परिश्रम
लौ इन्तजार की जब बुझ रही थी

निश्छल निस्वार्थ हो वो राख़ हो रही थी
जब अर्थी अग्नि संग प्रज्वलित हो रही थी

अंदर ही अंदर सिमटा था जीवन
मुक्त हो स्वछंद हो खुश हो रहा है

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दो आंखें

थोड़ी नटखट है वो
थोड़ी नादान है
छूने चली है वो आज अकेले
हौंसलों का आसमान है

यकीन हो बस अपने पर
फिर सारा जहां बस तेरा है
पंख की फड़फड़ाहट है
कई और आसमान बाकी हैं

मेहनत बड़ा भाग है यंहा
जब सपनों की पतवार पलती है
कुछ नया कर जाने के लिए
जोड़ सांसों की टकराती है

खामोशी भी ढूंढती है उन्हें
आग़ोश में उड़ते उन परिंदों सी
नींद चैन सब छीन लेती है वो
जमीं पर चुप बैठी सरगोशी सी

कठिन काम भी अब
ऐसे ही आसान हो जातें हैं
हंसती हुयी दो आंखें उनकी
खुद ही अब कह जातें हैं

जन्मदिन है तुम्हारा बेटी
बस यही मेरा आशीर्वाद है
पथ प्रकाशित रहे सदा
यही पिता का दिल से उपहार है

devbhumi

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वो अकेला बस खड़ा रहा

वो अकेला बस खड़ा रहा
स्तब्ध सा क्या हो रहा है सब देखता रहा

सब अपनों में अपने लिए बस खो रहे थे
वो औरों के लिए अपने को खोने लगा

अधूरे ख़्वाबों को देखना उसने छोड़ दिया
बस दूर से उन्हें जाता हुआ वो ताकता रहा

तभी अंधेरों से किसने उसे आवाज दी
लौ की तरह वो फिर फरफरा के जलने लगा

जानता था वो समंदर उसकी तलाश में है
पर वो कतरा बन नदियों को जगाता रहा

उसके हाथ बस वो आखिर में काँटे लगे
उन स्नेह हाथों से उन्हें वो सजाता रहा

आते -जाते साँसों में उसने बस सुख ढूँढा
उस सुखद चुभन संग जब उसने जीना सीखा

ध्यान में क्यों लोगों को इतना आता नहीं है
सब कुछ खोना है यंहा कुछ पाना नहीं है

लगे रहे फिर भी वो जाने किसे शांत करने
ह्रदय की धडकनों को ही बस वो समझ लेते

वो अकेला बस खड़ा रहा

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