Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 76222 times)

jagmohan singh jayara

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"उड़ि   जा  रे  मन"

तू पंछी बणिक, ऊँ डाडंयौं का पोर,
जख डाळ्यौं मा घुघती, होलि घुराणि,
कखि होलु  बासणु चकोर.

भौंरा रिटणा होला फूलूमा,
हिंसर किनगोड़ की दाणी,
गाड डगदन्यौं मा बगणु होलु,
छोया ढुंग्यौं कू पाणी.

कखि होलि सजिं बैखु की कछड़ी,
होला ऊ बैठिक  छ्वीं लगाणा,
गौं का बाटौं फुन्ड होला हिटणा,
ज्वान अर दाना सयाणा.

कखि होला बजणा ढोल दमाऊँ,
कखि होलु लगणु घड्याळु,
होलु क्वी डगड़्या देवतों का ऎथर,
देणु घरया घ्यू कू धुपाणु.

बुबा जी होला तिबारी मा बैठ्याँ,
कुड़ कुड़ ह्वक्का पेणा,
सैडा खोळा का भै बन्ध होला,
ओंगणा हबरि  सेणा.

हैंसणि होलि जोन द्योरा मा,
डांडी कांठी होयिं जुन्याळि,
टिट्यौं पोथ्लु होलु टिट्याणु,
बोडा बोन्नु मैन सुण्यालि.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाशित २७.३.२००३ )
दूरभास: ०९८६८७९५१८७
E-mail: j_jayara@yahoo.com

हेम पन्त

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हमारे सन्जू दा (Dr Shailesh upreti, अमेरिका वाले) और बिन्दिया भाभी जी गैरसैंण के पक्ष में अमेरिका के प्रवासी उत्तराखण्डियों को जागरुक कर रहे हैं. उनकी यह सुन्दर कविता देखिये

ठान एछौ मन में आज, पूर करण छु सबुक स्वैंण
टालि हैलो बहुत दिनां बे, आब बनानू उत्तराखंडक राजधानी गैरसैण
राजनितिक दल, राजनेता, समाजसेवी सब्ब बस कौने रेंल
स्वैण छु हमौर, यौके सत्य करूहूँ हम जेंल
यौ नि हुन - ऊ नि हुन - कै बेर के नि हुन
जब पिस्छा पीसी इजू ग्यूं दागड़ पिसछौ घुन
काम छु कठिन पर नामुमकिन नहेती, मिलाओ हाथ सब भै बैण
आओ तुम लै भागीदार बनो, बनानू हम उत्तराखंडक राजधानी गैरसैण...

और ले छन समस्या हमरी यश ले सोचिल कुछ दगड़ू
भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी छोड़ि बे गैर्सैणक पछिल किले पड़ू
ठीक सोच्छा आपू.. हम ले तुमौर दगड़ छूं ददा भुलू..
पर कें तो करण पड़ली शुरुआत, यौ लिजी गैरसैण हम चलु
देश मजी भ्रष्टाचार कां नहेती, बेरोजगारी दुनिया मजी फैली...
गरीबीक यश हाल छु भैया, दूध बे सस्ती छु शराबक थैली..
देश व परदेश लिजी महत्वपूर्ण हैछौ राजधानी..
वें बेटी विकास योजना बननी, और एंछौ बिजली-पाणी

दगड़ु, उत्तराखंड प्रदेश छु गरीब किसानुक, जो बसी छन पहाड़ा मजी..
कसीक पहुंचाल अपण दुःख व्यथा राजधानी, जो छु इतू दूर बसी..
जां ननाहूँ दूध नहेती वाँ शहर जाहूं डबल कां बे आल..

कसि करला गाँव माँ विकासक आशा, जब नेता शहरक चमकें चैल
किलेकी जां होली राजधानी, ऊ तो वोट मांगन्हु वैं ही जेंल
शहरक विकास हेने रौलो, गरीब जस छि तस्स रेंल
गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ले वस्सी रौली..
शहर और गाँव मजी फर्क हन्ने जालो गैण..
काम छु कठिन पर नामुमकिन नहेती...मिलाओ हाथ सब भै बैण..
आओ तुम लै भागीदार बनो, बनानू हम उत्तराखंडक राजधानी गैरसैण...

चिपको आन्दोलन माजी कूदी कदूगैज मातृभूमि, भक्त, मैश-सैण...
वी भाव चें छौ हमुकें आज, बनाहूँ उत्तराखंडक राजधानी गैरसैण....
कसीक नी हौल पुर हमर तुमौर यौ स्वैण ...
मिलबे करुल तो गोल ज्यु ले है जेंल देणं..
काम छु कठिन पर नामुमकिन नहेती...मिलाओ हाथ सब भै बैण..
आओ तुम लै भागीदार बनो, बनानू हम उत्तराखंडक राजधानी गैरसैण...

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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संजू पहाड़ी के मन्हस्थिति को समझते हुए एक कविता मेरी भी --------
अन्यार पट्ट राइ नि सकू, जल्दी ब्याली रात,
राजधानी जिक्र जब आलो होली गैरसैण की बात,
दीक्षित आयोग कुनपन  लै जाल
सरकार लै पलटी खै जाल
उत्तराखंडी मुनाव उठाला
है जाला सब सांथ,
राजधानी  जिक्र जब आलो, होली गैरसैं की बात,
आन्दोलन करी उसीके रै गिन,
दमन कारी गद्दी मैं भैगिन,
अब ज्यादा दिन नि चलल,
यो गोरिख्यो जस राज,
राजधानी  जिक्र जब आलो, होली गैरसैण की बात,
गों - गों बटी आवाज उठीगे,
अन्याई आब  भौती गई गे,
जनूल गैरसैण  नाम सुजाछी,
ऊँ लै बागियों का सांथ,
राजधानी  जिक्र जब आलो, होली गैरसैण की बात
नौ सालो मैं पाँच बदल गिन
बता- ग्वहता उसकी रै गिन
ऊँ  लै  नि नज़र आया
जेल पैरा यो ताज,
राजधानी  जिक्र जब आलो, होली गैरसैण की बात
नई शहर बसून नि भाय
पुराण शहर रचून नि भाय,
सारे विकाश है जे के जाल,
एक सौ आट (१०८) सांथ
राजधानी  जिक्र जब आलो, होली गैरसैण की बात,

jagmohan singh jayara

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  "दैनन्दिनी"(डा य री)

एक दिन देखी मैंने,
पन्ने पलट पलट कर,
जिसमें लिखे हैं स्मरण मैंने,
अतीत से आज तक.
 
फर्क इतना है,
लिखे हैं मैंने,
कुछ बचपन में पहाड़ पर,
कुछ परदेश प्रवास में,
जीवन काल के बीते लम्हों के,
संकलन के रूप में,
जो फिर नहीं लौटेगा,
तरकस के तीर की तरह.

जब पढ़ा मैंने,
वो बीच का पन्ना,
जिसमें लिखी है,
पहाड़ से परदेश आने की,
तारीख और साल.

कैसे तय किया होगा,
अपने  गाँव बागी-नौसा से दूर,
पैदल पहाड़ी रस्ते का सफ़र,
जामणीखाळ बस स्टेशन तक.

फिर मन में ख्याल आया,
तब तो मैं पहाड़ी जवान था,
पर्वतों को लांघने में,
ऊकाळ और ऊद्यार जाने में,
नहीं घबराता था,
आज की तरह,
क्योंकि, अब जकड़ लिया है,
जिंदगी के जालों ने,
चढ़ रहा हूँ,
बुढ़ापे की पहली सीढ़ियाँ,
"दैनन्दिनी" भी,
आज हो गई मेरी तरह.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ७.४.२०१०)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पर्यावरण के विनाश को देख कर यह टूटी फूटी कविता मैंने लिखने का प्रयास किया है !

कब जागेगा तू रे इंसान
पर्यावरण का देख रहा तू विनाश ...२

         झुका रहा हिमालय
         सूख रहा है पानी
         हाय हाय हो रही जिंदगानी

कब जागेगा तू रे इंसान
पर्यावरण का देख रहा तू विनाश ...२

       पेड़ सूख रहे है, नीर के क्ष्रोत सूख रहे
       घुघूती, घिनोड़ी चिड़िया भाग रहे है
       पर्यावरण का विनाश नजदीग है 

कब जागेगा तू रे इंसान
पर्यावरण का देख रहा तू विनाश ...२

      क्यों खो रही है हरियाली
      क्यों जल रहे है जंगल
      क्यों देख रहा तू यह तांडव
      किस काल है है तुझे इन्तेजार

कब जागेगा तू रे इंसान
पर्यावरण का देख रहा तू विनाश ...२

 

Devbhoomi,Uttarakhand

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UTTARAKHAND KE SABHI KAVIYON KA SWAGAT HAI, DOSTON MJAA AA GAYA APKI IN SUNDAR SUDAR KAVITAON KO PADKAR LAGE RAHO

धनेश कोठारी

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jakhi ji kahin aapka vichar MunnaBhai ghoshit karnn ka to nahi, kal aap shayad kahen-- MunnBhai Uttarakhandi kavi,

धनेश कोठारी

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.......प्रयाण

निर्माण कू
एक विचार
एक आरी
एक कुलाड़ी
एक ठेकेदार
बस्स यि च
डाळौं कू
अंतिम प्रयाण.....॥
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari


dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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लो महाराज दो लाइन ग्लोबल वार्मिंग पर सुनो ---

गोला गरम हो रहा है,
हिमालय पिघल रहा है,
कही चक्रवात कही तूफान है,
कही ज्वालामुखी का उफान है,
कही कोहरा ढाका  है,
कही बादल फटा है,
कही आग बरष रही है,
कही धरती दरक रही है,
कही nuclization है,
कही radiation  है,
पर्यावरण संतुलन खो रहा है,
क्या प्रलय हो रहा है?
क्यों हा-हा कार है,
कौन जम्मेदार है,
जिसकी गोद मैं बैठे है,
उसी प्रकृति को चुनोती दे रहे हैं,
xx        xx        xx         xx
हमें प्रदुषण रोकना होगा,
प्रकृति के सांथ चलाना होगा
तब हम शुखद जी पायंगे,
संसार को बचा पायंगे.

jagmohan singh jayara

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"ठोकर"

लगती हैं इंसानों को,

जब वे आँख होते हुए भी,

ज्ञान होते हुए भी,

अज्ञान के वसीभूत होकर,

चलते  हैं अपनी राह पर,

और खाते हैं ठोकरें,

तब खुलती हैं उनकी आँखें,

होता है ज्ञान का एहसास,

ठोकर खाने के बाद.



पत्थर से भी लग जाती है,

फिर कोसता है इंसान,

ठोकर लगने के बाद,

पथ पर पड़े पत्थर को,

जो इन्सान की तरह नहीं,

बेजान है पथ पर पड़ा.

खा जाते हैं इन्सान कभी,

कुछ अनोखा करने की ठानकर,

जब नहीं होती कल्पना साकार,

लेकिन! फिर भी आगे बढ़ता है,

ठोकर खाने के बाद,

कुछ प्राप्त करने की चाहत में.


रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १४.४.२०१०)

 

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