भाषा के बिना कितना भी विकसित माना जाया एक अतिशयोक्ति ही माना जाएगा, संस्कृति की पहचान भाषा के पश्चात ही होती है, जहाँ भी संकृति शब्द का प्रयोग होता किया जाता है, उसके साथ यदि भाषा शब्द उसके अग्रज शब्द के साथ न जोड़ा जाय तो वह हमेशा अपूर्ण रहेगा, समाज में केवल संकृति की बात करना फूहड़पन ही कहा जाएगा, क्यूं की संस्कृति की ध्वज्बाहक भाषा ही मानी जाती है, आज के उत्तराखंडी समाज दो भागों में बांटता नजर आ रहा है, इन दोनों के बिच की दूरी चेतना के अभाव में कम होने की बजाय दिन प्रतिदिन बढती जा रही है,
यह दूरी क्यों बढ़ रही है यह हम बखूबी से जानते है, हम इस दूरी को कम करने की हर सम्बभा कोशिश में हैं परन्तु हमें इस प्रकार का सशक्त माध्यम नहीं मिल रहा है, जिसके अंतर्गत हम इस दूरी को पता सके,
उत्तराखंडी समाज उत्तराखंड के अलावा देश के कोने कोने में अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के साथ साथ विदेशों में अपनी कीर्ति फैला रहा है, देश विदेश में बसे उत्तराखंडियों के मन में कही न कही एक डर अवश्य होता है की जिस गढ़वाली कुमौनी को आज हम लोग बोल रहे है, क्या उसे हमारी आने वाली पीडी इसी प्रकार बोल पायेगी, इस और देश विदेश में बसने वाले उत्तराखंडियों का ध्यान ही नहीं है,
अपितु उत्तराखंड के अंदर रहनेवाले विद्वानों ने भी इसे गहरे से लिया है, कई लोगों ने इसे बेकार की बात मानकर एक किनारे कर दिया, क्योंकि उन्हें केवल वर्तमान दिखाई दे रहा है, उनमे वर्तमान की सोच और आने वाली पीढी को दियेजाने वाले सरोकारों की सूजबूझ ही नहीं है,
उदहारण के रूप में विदेश में होने वाले कार्य कर्म का का जिक्र करना आवशक होगो, जब मंच से विदेशी भाषा तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी के कर्म के संबोधन को तोड़ते हुए एक गायक की आवाज अपनी स्थानीय भाषा के लोकगीत के रूप में आती है, तो सभी का ध्यान अकग्र्चित होकर उस और एकटक हो जाता है, *आमा की दी माँ घुघती न बंसा* गीत के सुरताल में वासताबिक रूप में क्या था, *मेरो गधों कु देश बावन गरहों कु देश* गीत ने आख़िर में सात समुद्र पर बसे उत्तराखंडियों को क्या संदेश दिया, *चम् चमकू घाम कान्थियोंमा हिवाळी डंडी अचंदी की बनी गेना* इन गीतों में आख़िर क्या है, क्या यह कबी की कल्पना है,
या अपनी धरती से रू व रू होने का साक्षात्कार, बहुत कम लोगों का इसकी मूल भावना की और ध्यान गया होगा, क्यों की केवल तीन घंटे का कार्यकर्म जिसमे केवल आधा घंटा ही बमुश्किल से इस कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने अपनी धरती से साक्षात्कार होने का मोका मिला उस आधे घंटे ने पूरे तीन घंटे वसूल कर दिए, ऐ जो तीन गीत गढ़वाली कुमौनी भाषा के मूल ध्वनियों के साथ सुरताल में प्रस्तुत किए गए यह वास्ताबिक रूप में यहाँ की भाषा का ही कमल है, जिसने हजारों मील दूर बैठे उत्तराखंडियों को झुमने के लिए मजबूर कर दिया, यह भी भाषा का ही कमल है, जो आज के समय में प्रतीक मात्र बनती जा रही है,