Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 731289 times)

Bhishma Kukreti

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चंद  शासन (1600 -1700  ) में उत्तराखंड पर्यटन

Uttarakhand Tourism from 1600-1700
(  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -42

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )     -  42                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--147 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 147 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  1600 से 1700 मध्य चंद शासकों लक्ष्मी चंद (1597-1621 ई  ), दिलीप चंद (1621 -1624 ई ), विजय चंद (1624 -25 ), त्रिमल्ल चंद (1625 -1638 ), बाज बहादुर चंद (1638 -1678 ), द्योत चंद (1678 -1698 ) ने कुमाऊं पर शासन किया।
   यह काल भी युद्ध पर्यटन या राजनैयिक उठापटक पर्यटन के लिए जाना जाएगा।
 पर्यटन विकास की दृष्टि से कुछ घटनाएं महत्वपूर्ण हैं।
लक्ष्मी चंद ने गढ़वाल पर सात बार आक्रमण किया और पराजय मिली।
लक्ष्मी चंद 1612 में जंहागीर के दरबार में उपस्थित हुआ और उसने जहांगीर को पहाड़ी टटटु ,गूंठ , अनेक शिकारी पक्षी कस्तूरी से भरी नाभ , कस्तूरी मृग की खालें , खड्ग उपहार दीं।  जहांगीरनामा  में लक्ष्मी चंद को पर्वतीय राजाओं में सबसे अधिक धनी माना गया है और कुमाऊं में सोने की खान है लिखा गया है। 1620  में भी कुमाऊं से जहांगीर को उपहार दिए गए थे। कुमाऊं के उपहार विशेष दर्जे के थे। जब जहांगीर ग्रीष्म ऋतू राजधानी खोज में हरिद्वार आया तो लक्ष्मी चंद जहांगीर से मिला।  उपहार भी दिए ही होंगे। स्थान विशेष उपहार स्थान छवि वृद्धि कारक होते हैं।
  दिलीप चंद से पहले ही मंत्रियों व संतरियों के आपस में कलह शुरू हो गया था जो राज्य के अहित में अधिक सिद्ध हुआ। विजय चंद की हत्त्या की गयी। 
 त्रिमल चंद कुछ माह श्रीनगर में रहा।
 बाज बहादुर चंद  ने लखनपुर मंदिर , बद्रीनाथ मंदिर सोमेश्वर मंदिर व पिननाथ मंदिर को भूमि प्रदान की थी। उसने अन्य मंदिरों में भी दान किया था।
 बाज बहादुर चंद शाहजहाँ दरबार में उपहार लेकर उपस्थित हुआ था। बाज बहादुर व सिरमौर हिमाचल के राजा  मन्धाता को गढ़वाल जितने का फरमान मिला था।
    उद्योत चंद ने कई मंदिरों का जीर्णोद्धार किया व निर्माण किया था।  कुछ विशेष भवन भी द्योत चंद ने निर्मित करवाए। द्योतचंद ने यज्ञ करवाए व कई मंदिरों को भूमि प्रदान की। 
उद्योत चंद ने काशीपुर , कोटा में आम बाग़ लगवाए।

           विदेशी विद्वानों को आश्रय याने जनसम्पर्क
 बाज बहादुर के आश्रय में कई विद्वान् थे जिनमे महाराष्ट्रियन संस्कृत विद्वान् अनंत देव ने स्मृति कौस्तुभ की रचना की।
  उद्योत चंद ने दक्षिणी विद्वान् भट्ट को भूमि व मकान देकर अल्मोड़ा में बसाया।
 द्योतचंद के दरबार में दूर दूर से कवि व विद्वान् चर्चा हेतु आते थे।
   मतिराम ने उद्योत चंद प्रशंसा कविता से राजा से पुरूस्कार प्राप्त किया था। मदन कवि भी उद्योत चंद के दरबार में था।
 उपरोक्त तथ्य संकेत देते हैं कि विद्वान् कुमाऊं आते जाते रहते थे जो छवि वृद्धि करते थे।  भट्ट ब्राह्मण का अल्मोड़ा में बसवाना द्योतक है कि गैर कुमाउँनी ब्राह्मण किसी इन्हीं कारणों से कुमाऊं में बस रहे थे।
    विदेशी विद्वानों द्वारा प्रशंसा सदा से ही स्थान छवि वृद्धि कारक होता है।

      वर्तमान संदर्भ में - विदेशी पत्रकारों व लेखकों का स्वागत

   किसी भी पर्टयन स्थल को विदेशी पत्रकारों व लेखकों की स्थान प्रसिद्धि हेतु अति आवश्यकता होती है जो स्थान छवि वृद्धि करें।  स्थान प्रसिद्धि हेतु पर्यटन पत्रकारों की सकारात्मक पैरवी आवश्यक है।



Copyright @ Bhishma Kukreti   15/3 //2018

ourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  (कुमाऊं का इतिहास ) -part -10
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;




Bhishma Kukreti

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चंद शासन (1700 -1790 ) में पर्यटन

Tourism in Chand Period (1700-1790)
( चंद शासन में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -43

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )     -  43                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--148 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 148 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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   1700  से 1790  तक कुमाऊं पर ज्ञानचंद /ज्ञान चंद्र (1698 -1708 ई ), जगत चंद (1708 -1720 ) , देवी चंद (1720 -1727 ), अजित चंद (1727 -1729 ), बाली कल्याण चंद (1729  कुछ समय ) , डोटी  कल्याण चंद (1730 -1748 ),दीप  चंद (1748 -1777 ),मोहन चंद पहली बार (1777 -1778 ), प्रद्युम्न चंद   (1779 -1786 ) , मोहन चंद पुनः ( 1786 -1788 ), शिव चंद (1788 ), महेश चंद 1788 -1790 ) शाशकों का शासन रहा।
  1700 से 1790 ई काल कुमाऊं हेतु उथल पुथल व छोटे बड़े युद्ध से अधिक कुमाऊं में राज्याधिकारियों के छल कपट , एक दुसरे को पछाड़ने , राजा को सामने रख  स्वयं राज करने , राज्याधिकारियों द्वारा राजधर्म के स्थान पर स्वार्थ धर्म ,रोहिला आक्रमणों का इतिहास है और अंत में नेपाल द्वारा कुमाऊं हस्तगत का इतिहास ही है।
   1700 से 1790 तक युद्ध पर्यटन , छापामारी पर्यटन , जासूसी पर्यटन , रक्षा पर्यटन  अधिक रहा जो संकेत देते हैं कि पारम्परिक पर्यटन विकास नहीं हुआ।  चंद्र /चंद शासन में कोई ऐसा धार्मिक प्रोडक्ट /मंदिर नहीं निर्मित हुआ जिसने भारतवासियों को आकर्षित किया हो। चंद शासक पुराने मंदिर व्यवस्था हेतु को गूंठ भूमि देते रहे किन्तु इसी दौरान बहुत से प्राचीन मंदिर ध्वस्त हुए , उन मंदिरों से मूर्तियां चोरी हुईं जो स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा।  चंद शासन में कुछ मंदिर निर्मित हुए किन्तु शिल्प कला दृष्टि से कत्यूरी काल से दोयम ही थे।
 बहुत से मंदिर जैसे गोल्यु क्षेत्रपाल देवता मंदिर वास्तव में जन आस्था से निर्मित हुए।
  मानसरोवर यात्रा हेतु यात्री आते रहते थे।  पूर्वी भारत से बद्रीनाथ जाने वाले यात्री कुमाऊं होकर आते थे किन्तु लगता है यात्रा ह्रास ही हुआ।
     कुमाऊं के माल /भाभर में सर्वाधिक उथल पुथल होती रही।  फिर भी भाभर से बन वस्तुओं जैसे बाबड़ , मूँज ,छाल , जड़ , जड़ी बूटी , लकड़ी कत्था , बांस व अन्य लकड़ी, बनैले पशु -पक्षी , जानवरों की खालें व अन्य अंगों का निर्यात होता रहा।
 
          चंद /चंद्र शासन काल

    चंद या चंद्र शासन में पारम्परिक वस्तुओं जैसे जहनिज , ऊन , बनैले वस्तुएं , जड़ी बूटियां , भांड ,खड्ग , कागज , भांग वस्त्र , लाख , गोंद आदि निर्यात होती रहीं।  निर्यात ने कुमाऊं को विशेष छवि प्रदान की।
  चंद /चंद्र शासन में बाह्य ब्राह्मण व राजपूत पूरे कुमाऊं में बेस तो एक नए सामाजिक समीकरण को जन्मदायी रहा।
मंदिरों में पूजा व्यवस्था हेतु गूंठ /जमीन दिया जाता था।
   कुमाऊं शासकों व उनके दीवानों व अन्य अधिकारियों द्वारा मुगल बादशाहों के दरबार में जाने से कुमाऊं में कई नए  सांस्कृतिक बदलाव आये जैसे वस्त्र , वस्त्र सिलाई कला , भोजन ,  नाच गान , नाच गान हेतु कलाकारों का आयात , ढोल- दमाऊ वादन व ढोल वाद्य हेतु , नथ निर्माण कला आयात , व ऐसे कलाकारों, दर्जियों  का आयात भी सत्रहवीं सदी से शुरू हो गया था।
  विद्वानों का आगमन व पलायन भी रहा जिसने कुमाऊं की छवि वृद्धि की। नाथ गुरुओं का भ्रमण होता रहा।
कई कुमाउनी विद्वानों ने कुमाऊं  ( पदम् देव पांडे ) या बनारस  (प्रेम  निधि पंत , विश्वेश्वर पांडे ) में संस्कृत में पोथियाँ रचीं जो विद्वानों द्वारा सराही गयीं। 
 सैनिक प्रशासन में मुगल शैली का आगमन प्रशासन में तकनीक परिवर्तन हुआ।
 रोहिला आक्रमण  कई नई सांस्कृतिक परिवर्तन लाये होंगे।
   गढ़वाल -कुमाऊं में छोटे मोटे  युद्ध ने कुमाऊं से बद्रीनाथ यात्रा मार्ग भी प्रभावित किया ही होगा।  चंद्र शासन में कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला है कि जिससे सिद्ध हो कि किसी  प्रसिद्ध व्यक्ति ने कुमाऊं मार्ग से बद्रीनाथ यात्रा की हो। 

  इतिहासकार बद्री दत्त पांडे अनुसार कुमाऊं में कई महाभारत कालीन पुण्य या प्रसिद्ध स्थान हैं।  किन्तु कत्यूरी या चंद शासकों ने इन प्राचीन स्थानों का प्रचार नहीं किया जिससे पर्यटन विकसित होता।  कत्यूरी निर्मित मंदिर स्थानों की प्रसिद्धि हेतु चंद काल में कोई नायब कार्य नहीं हुआ।

  चंद शासन में कोई ऐसी कला भी विकसित नहीं हुयी जो आज प्रसिद्धि दिला सके।  ऐपण कला सर्वत्र विकसित हुयी .


Copyright @ Bhishma Kukreti  16 /3 //2018


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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  (कुमाऊं का इतिहास ) -part -10
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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गढ़पतियों  से पंवार वंश स्थापना  (1250 -1500  ) तक गढ़वाल में अस्तित्व -रक्षा पर्यटन

Survival Tourism from 1250 to 1500 in Garhwal
(  गढ़पति काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -44

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )     -  44                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--149 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 149 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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 उत्तराखंड पर क्राचल्ल के उत्तराधिकारी का शासन संभवतया 1250 तक रहा।  उसके बाद गढ़वाल देहरादून -हरिद्वार समेत में  100 से अधिक गढ़पतियों का शासन रहा। कुछ ब्राह्मणों  व राजपूतों ने ब्रिटिश काल या उससे पहले अपनी अपनी जाति श्रेष्ठता हेतु जनश्रुतिया प्रचारित कीं जिनमे कनकपाल नाम के राजा की जनश्रुति प्रसारित की गयीं।  'कनकपाल था  व उसके बंशज थे ' के समर्थन में कोई तत्कालीन ऐतिहासिक तथ्य कभी भी उपलब्ध नहीं था।  देवलगढ़ , चांदपुर गढ़ी विध्वंस आदि के जनश्रुति भी  ब्राह्मणों व राजपूतों ने अपनी जाति श्रेष्टता हेतु जोड़ दी।  जब कि विध्वंस कुमाऊं राजा ने की थी।
      गढ़वाल में बावन गढ़ थे भी पूरी तरह मान्य नहीं है रतूड़ी ने चौसठ गढ़पति या गढ़ों  का नाम दिया किन्तु ये गढ़ सौ से अधिक थे।  पंवार अथवा पाल वंश कब स्थापित हुआ पर भी इतिहासकारों के मध्य कोई स्थिर राय नहीं बन सकी है। किसी जगतिपाल का नाम भी देवप्रयाग शिलालेख में बहुत बाद सन 1455 में अंकित हुआ।
     सैकड़ा के करीब गढ़पतियों के राज का अर्थ है बहुराजकता और अनियमितता।

   इसी काल में मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण भी हुए व भारत में उथल पुथल रही।  ढांगू , उदयपुर अजमेर ,  भाभर , देहरादून व हरिद्वार को मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण या लूट झेलनी पड़ी।
 इसी समय तैमूर लंग का हरिद्वार पर आक्रमण हुआ (1398 )  व उसने  चंडीघाट से गंगा किनारे किनारे उदयपुर -ढांगू में प्रवेश किया जहां बंदर चट्टी में ढांगू गढ़ के सैनिकों राजा व जनता ने ढुंग की बर्षा से उसे रोका और फिर रत्नसेन की सेना ने उसे रोका व उसे भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। 
     इस काल में पर्यटन पर विशेष साहित्य या प्रमाण नहीं मिलते किन्तु तार्किक दृष्टि से पर्यटन निम्न प्रकार से रहा होगा -

                      शरणार्थी स्थल

मैदानी हिस्सों में राजनैतिक अस्थिरता , लूटमार , अशांति , हत्त्याओं, आतंकवादी घटनाओं ,   व मंदिरों के विध्वंस के दौर ने हिन्दुओं के लिए पलायन ही विकल्प बच गया था। छोटे  मोटे जागीर पति अपने सैनिकों , नागरिकों के साथ या नागरिक अकेले या समूह में मध्य हिमालय में शरण ली।  कुछ जागीरदारों (राजाओं ) ने शायद मध्य हिमालय या शिवालिक अपनी दो तीन गाँवों से गढ़ भी स्थापित किया होगा।  इन विस्थापित शरणार्थियों के कारण इनके मूल स्थल तक गढ़वाल , हिमाचल , कर्माचल के समाचार भी अवश्य पहुंचे ही होंगे।  दूर बंगाल,  गुजरात , महाराष्ट्र व दक्षिण स्थानों तक सुरक्षित मध्य हिमालय की छवि तो बनी ही होगी। यही कारण रहा होगा कि गढ़वाल पर्यटन में कमी अवश्य आयी होगी किन्तु धार्मिक पर्यटन समाप्त नहीं हुआ।

                   सर्वाइवल टूरिज्म
 यह काल गढ़वाल में सर्वाइवल टूरिज्म या अस्तित्व - रक्षा पर्यटन काल माना जाएगा।
          गंगा महत्व
 तिमूर के समय गंगा जी का महत्व था और हरिद्वार (मायापुर ) तीर्थ था। हरिद्वार में प्राचीन मंदिरों  का न मिलना द्योतक है कि मंदिर तोड़े गए।  दक्षिण गढ़वाल में अधिकतर मंदिरों में भैंसपालक (गुज्जर) द्वारा मूर्ति खंडन की कथाएं , मुस्लिमों द्वारा मनुष्य के खून से  रामतेल  निकालने वाली लोककथाएं संकेत देती हैं कि हरिद्वार में मंदिर तोड़े जाते रहे हैं जिससे किसी प्राचीन मंदिर का जिक्र इतिहास कार तर्क अनुसार नहीं करते हैं।

      तीर्थाटन

     देवप्रयाग के 1455 में अंकित शिलालेख गवाह हैं कि इस काल में देव प्रयाग ,बद्रीनाथ , गोपेश्वर , जोशीमठ , केदरारनाथ में पर्यटक आते थे।  कुछ गंगोत्री -यमनोत्री भी जाते थे। दंडीस्वामियों के कारण बद्रीकाश्म  -केदाराश्रम में व्यवस्था रही।


    सिद्धों का पर्यटन


ब्रजयानी बौद्ध धर्मी साधकों को सिद्ध कहा जाता था

     हरिद्वार , बिजनौर में बौद्ध धर्मी  मठ मंदिर विध्वंस से सिद्ध संत व संत परिवार भाभर के जंगलों व गाँवों में चले गए और धीरे धीरे पहाड़ों की ओर चले गए।  सिद्धों के चमत्कार प्रयोग से जनता में इनका प्रभाव पड़ा।  सिद्धों ने स्थानीय भाषाओं में अपने संभषण रचे।  कतिपय रख्वाळी सिद्ध संत रचित हैं।


  नाथ संतों का पर्यटन


  नाथ संत भी गाँवों में पर्यटन करते थे। मंत्र -तंत्र चिकित्सा का बोलबाला अधिक रहा हो गया होगा। । 


    संस्कृत भाषा समाप्ति के कगार पर


   गढ़वाल की बहुत सी ब्राह्मण जातियों की जनश्रुतियों में उनका आगमन नवीं सदी से बारहवीं , तीरहवीं सदी का बतलाया गया है। किन्तु इस काल याने क्राचल्ल  काल से 1450  तक कोई संस्कृत ताम्रपत्र , शिलालेख चमोली -रुद्रयाग जनपदों में नहीं मिले हैं।  इससे स्पष्ट होता है कि जन शासकों का जिक्र इन ब्राह्मण की जनश्रुतियों में मिलता है वे लघु जमींदार या गढ़पति थे।  1250 से 1450 सन तक संस्कृत वास्तव में लुप्त होने के कगार में पंहुच गयी होगी।

 संस्कृत लुप्तीकरण से स्पष्ट है कि आयुर्वेद चिकित्सा में रुकावट व नए अनुसंधान समाप्ति के अतिरिक्त शिष्य परम्परा पर कुठाराघात से आयुर्वेद में रुकावट।

   

    नव आगुन्तकों से नई चिकत्सा पद्धति आगमन


    शरणार्थियों के आगमन से समाज में कई तरह के उथल  पुथल तो  हुए ही होंगे किन्तु साथ साथ गढ़वाल को कुछ नई चिकत्सा पद्धति भी मिली होगी। 

     



Copyright @ Bhishma Kukreti   17/3 //2018

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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  -part -4
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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Prem Lal Gaur Shastri: A Garhwali Poet 
 (गढ़वाल, उत्तराखंड,हिमालय से गढ़वाली कविता  क्रमगत इतिहास  भाग - 320)
-
 (Critical and Chronological History of Garhwali Poetry, part -320)
  By: Bhishma Kukreti   (Literature Historian)
    A famous Hindi creator Prem Lal Gaur Shastri created Garhwali prose as well Garhwali poetry. Critics appreciated his Garhwali prose article collection ‘Premakanki ‘
      Prem Lal Gaur Shastri was born in 1947 Gaind, Talla Dhangu, Pauri Garhwal (Uttarakhand). After getting Acharya degree from Haridwar, Prem Lal Shastri shifted to Chandigarh.
    A social activist Prem Lal Shastri created a few Garhwali poems published in a few periodicals.
   His poems illustrate pain of society, pain of migration for search of jobs and worsening situation in hills of Uttarakhand. He created a couple of satirical poems too.
    The language of poems by Prem Lal Shastri is Sanskritized. He uses both the conventional style and free style in creating Garhwali poems.

  स्वर्गा  रोहणी
-
आज मुक्त धरा कु जीवन
आज मुक्त गगन –समोरण
संतापित –शिषित छ केवल –
 अब तक अपणी धरती I
 आज विव्हल छ स्वर्गा रोहणी II
अश्रु –भेद आप्लावित तन
वर्चस्वहीन व्यथित जन जीवन
सतत श्रम पीड़ित अंतर्मन I
कब तक या किस्मत मा अपणी-
आज दुखी छ या धरती
आज विव्हल छ  स्वर्गारोहणी II
 (Anjwal, October 1990)


Copyright@ Bhishma Kukreti, 2018
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चमोली गढ़वाल , उत्तराखंड , उत्तरी भारत कविता , लोकगीत  इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल , उत्तराखंड , उत्तरी भारत कविता , लोकगीत  इतिहास ; टिहरी गढ़वाल , उत्तराखंड , उत्तरी भारत कविता , लोकगीत  इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल , उत्तराखंड , उत्तरी भारत कविता , लोकगीत  इतिहास ; देहरादून गढ़वाल , उत्तराखंड , उत्तरी भारत कविता , लोकगीत  इतिहास ; हरिद्वार गढ़वाल , उत्तराखंड , उत्तरी भारत कविता , लोकगीत  इतिहास ;
-
History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Uttarkashi Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Tehri Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Dehradun Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Chamoli Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Pauri Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History  Garhwali poems from Haridwar ;


Bhishma Kukreti

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Jhumpa: A Modern Garhwali Children Lyric Collection -
 (गढ़वाल, उत्तराखंड,हिमालय से गढ़वाली कविता  क्रमगत इतिहास  भाग - 316)
-
 (Critical and Chronological History of Garhwali Poetry, part -316)
(Review of ‘Jhumpa’ a Garhwali Children Lyric Collection )
  By: Bhishma Kukreti   (Literature Historian)
       Yatendra Gaur is famous Garhwali lyricist and poet. Yatendra Gaur released a few cassettes discs too. 
 Recently, Yatendra Gaur published Garhwali Children lyric collection ‘Jhumpa’.
    There are many folk songs in Garhwali. However, now, due to Hindi medium education, folk songs related to children are gone in history books.
         Before, Yatendra Gaur, Dharmendra Negi published Garhwali story lyrics collections. Abodh Bandhu Bahuguna and Puran pant Pathik published children poetry collections. Many Garhwali poets published children lyrics here and there but in organized way.
   There are 56 children lyrics in present collection. There are various subject types of lyrics in Jhumpa as spiritual (Ma Saarsuti, Myar Mab), relationship (  Bwe Bab, Bwe ki ladali, Bwe); domestic animals (Bachhi meri baurani );animals (Machi tulak,  Guni bandar, Aija ghughti); mother’s call ( Myara Biji ja); learning counting and other mathematical puzzles ( Awa ginti gava ); nature  (Kandali, Himalai ); lullaby (Lori); festivals (Pandra August, Hori); patriotism , psychology (Supin); great people, fantasy, mental disciplines children related items as ghutya and many more subjects halya etc.
    The language of each lyric is very simple and children may sing and understand easily.
    फूल रंगिलो फुलेरी रंगिलो
   हर्याळी ऋतू मा फुलदेई रंगिलो
(फुलदेई गीत )
   Or
ग्यानि ध्यानि स्वाणो सुभौ, द्य्वता सि समान छया
संतों को सि खाणु पैरणु , मनिख उ महान छया
 (कलाम त्वे तैं सलाम , गीत से )
  Yatendra Guar used dialogues types in many lyrics ( Patt geet, Jhamm Jhamle )  ) too as  -
भरत –डाळी डाळी फल फूलों की लदकद हुयी झम्म झमलै
     गाढ़ी त्वोड़ी ल्हौंलू त्वेकू थौला भ्वोरि - झम्म झमलै
शकुन्तला – आज त्वेकू पक ऐ धरीं लस्प्सी खीर - झम्म झमलै
    The simplicity language of lyrics ensure that the children will enjoy all the lyrics by Yatendra Gaur .
   The songs compel children that they start imagining further to songs.
   Yatendra Gaur uses phrases and figure of speeches, metaphors, similes enjoyable by children. Wisely Gaur repeats words for children enjoying the poems as –
  आवा  गिन्ती  गावा
एक द्वी तीन बींगी ल्यावा
एक –हे जरा मिथे बि दे
xxxx
छतरु मेरु वाअरे छतरु प्यारु छतरु
दगुडू म्येरू वाअरे दगुड़ू नयारू द्गुडू
  Brilliant poet Yatendra Gaur uses such symbols that children can get the perfect desired imageries as –
   लब्बि स्या लंगत्यार ल्हेकि
इक्सन्या इकसार ह्वेकि
बाटू हिटणा सुर सुरीक
हाँ ! किरम्वळू जी कख बिटिक ?
    The lyrics by Yatendra Gaur are successful in inspiring children for taking action.
     Poetry critics Dr. Nand Kishor Dhoundiyal appreciated children lyrics by Yatendra Gaur. Learned poetry critics Dr. Manu Dhoundiyal stated in an interview that as world poetry remembers C.F. Alexander, William Blake, Robert Burns, Robert Frost, and Rudyard Kipling for their contribution for children lyrics, Garhwali society will remember Yatendra Gaur for creating Garhwali children lyrics. 
Jhumpa
Garhwali Children poetry collection (2017)
Poet-Yatendra Gaur
Publisher- Samay Sakshya
Faltu Line Dehradun
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2018
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History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Uttarkashi Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Tehri Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Dehradun Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Chamoli Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History and review of Garhwali Poems, Folk Song from Pauri Garhwal, Uttarakhand, South Asia; History  Garhwali poems from Haridwar ;


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Maulyar Alu Hi Ta: A Garhwali Poetry Collection of Social Concerns   
 (गढ़वाल, उत्तराखंड,हिमालय से गढ़वाली कविता  क्रमगत इतिहास  भाग - 317)
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 (Critical and Chronological History of Garhwali Poetry, part -317)
(Review of Poetry Collection Maulyar Alu Hi Ta)
  By: Bhishma Kukreti   (Literature Historian)
                  ‘Maulyar Alu Hi Ta’ is poetry collection by famous Garhwali Poetry Historian and Critic Dr. Jagdamba Prasad Kotnala.  Critics and readers appreciated his book ‘Garhwali Kavya ka Udbhava…’  and readers shown interest in Garhwali poems.
    Jagdamba Prasad Kotnala is a product of Dhad Garhwali poetry movement led by Lokesh Navani.  There are 57 poems in the present poetry collection.  There are four types of poems in this collection- free verses (Chhandmukt) , conventional verses (Chhandyukt) , lyrics (geet) and smaller poems including children poems.
 Mostly the poems are concerned to social benefits and unfulfilling the benefits to the man sitting in corner.
     There is rage against anti society elements (Banang ka bad) –
 झणी  कै निजड़ा की करतूत छै कि
मौळयार का ओर धोर हि
बिकट बणान्ग मा
खाक ह्वे गै छयो
जंगळ को सर्या जीवन 
  There is frustration for unfulfilling peoples basic needs (Min kaima run)
 अब चाहे काटि द्या मेरि मूण
पर मिन कैमा रूण
कैमा जाण
अपणी खैरि कैमा लगाण
   The poet is peace demanding person. However, when the central leadership was not fulfilling separate Uttarakhand state , the poet asks society for War , War and just War ( Chauthi dafain 1999) –
 बस युद्ध
भाषा युद्ध
वार्ता युद्ध
उत्तर युद्ध
ह्वेली शान्ति तब
    Since, the poetries created by Jagdamba are from 1990 in this collection, we see different subjects, different mood, different situation and different tones in this marvelous collection. The subject varies from time to time. However, Uttarakhand, common and power less man are in center stage in all poems.
   His smaller poems are children poetries, sharp satire or words play–
 हम तैं
यी सडीं –गळी व्यवस्था तैं
पल्टण चैंद
यो एकौ बसौ काम नी
यां खुण
एक पल्टण चयेंद
  Barring few specific Badalpuri words, Dr. Kotnala uses standard Garhwali words in his poems and lyrics.
      The learned poet uses simple phrases for creating his poems, lyrics and smaller size poems.  Girish Dhoundiyal a Garhwali poetry lover states that Jagdamba uses right symbols for creating desirable imageries.
येन खैयाल . वेन खैयाल
अर तिन ?
जब सब्यूंन खैयाल
त समझा
मिन भि खैयाल
    Garhwali poetry movement leader Lokesh Navani, a Garhwali poetry lover Girish Dhoundiyal appreciated poems by Dr. Jagdamba Prasad Kotnala (Kutz Bharti). 
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 Mochhang: A Mile Stone for Modern Garhwali poetry Development
 (गढ़वाल, उत्तराखंड,हिमालय से गढ़वाली कविता  क्रमगत इतिहास  भाग - 318)
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 (Critical and Chronological History of Garhwali Poetry, part -318)
  By: Bhishma Kukreti   (Literature Historian)
                Pundit Chakradhar Bahuguna (born 1902-expired) published his modern Garhwali poetry collection in 1938.  Chakradhar Bahuguna had already published the said poems of the collection in various periodicals and books.
       The appreciating fact of the Mochhang is that Chakradhar Bahuguna classified Garhwali folk Songs professionally. Perhaps Chakradhar is one of the initial scholars classifying Garhwali Folk Songs professionally.
    There are fifteen poems in the volume.
 Mochhang poem is about importance of mother tongue and promotion of its literature –
  धार ये गाड़ वो , डांडी –मैदान से
एक ही भौण माये हुन्गरा भरी .
ओर से पोर तैं गाजली गूंजली
आज मोछंग का गीत संगीत मां
The Hit Kamna poem  is a spiritual prayer based basically on folk song
.Bal Mukund is about love for child and child behavior narrated by a mother-
सौदो  छ दूध  अरु नौण धरीं छ  मेरी ,
औ, भूक सया अति बुलौंदि छ लाल ! तेरी I
 Vidai is a pathos rapture poem about a dead girl solacing her mother. 
बिनसरि मूं ही सूर्य किरण की
प्रथम चमक मां बण लाली
औलो तेरा दर्शन कू मै
जाण निद्यौ क्वी दिन खाली I
 ‘Khud’ poem is again pathos about pain of separation.
‘Choli’ is spiritual and is heart touching poetry.
‘Dotyal’ illustrates the pain of migrated Nepali labor working in Garhwal. The poem is one of the best poem illustrating pain of separation from mother land by any migrated one.
   अभागी ! छोड़ी की घर , नगर औ देस सणी तू
किले औंदी ? क्या दौन् धरदी दिल मां आश सणीतू ?
उठौन्दी बोझ , औ कणकण कि तैं बाठ चलदी
खरी खोटी सहंदी पर जिकुड़ी स्या नी बिचलदी I I
 ‘Rathi’ illustrates about characteristics of Rath region and its simple but hard working people and their life style.
 ‘Chhaila’ is a love poem of pain of separation.
 In ‘Chandrama’ poem, Chakradhar Bahuguna illustrates the fine images for moon and moonlight.
‘Dhauli’ is again illustration of nature imagery about Ganga River.
‘Sandesh ‘is an inspiring poem.
  One of the best poems of this volume is Harijan. Chakradhar Bahuguna   raises the burning issue of untouchability and worsening economic condition, low position in the society of scheduled caste.
कथे जां, करां क्या ? भुल्यां बाठ सारो
न क्वी टेक बाकी न क्वी भी सहारो I
बड़ी जोर की या लगी खैंच ताण
कुजाणो उड़ोना हमारो पराण I
   There are all types on emotions in this poetry collection by Chakradhar Bahuguna.
 Chakradhar Bahuguna uses simple phrases not only for illustrating simple subjects but complex subject too.
  The language of poem s by Chakradhar is from Shrinagar region that is standard Garhwali.
   Chakradhar Bahuguna uses Sanskrit poetry system (conventional) in creating his poems.
   Critics as Abodh Bahuguna,Dr. Jagdamba Prasad Kotnala appreciated the contribution of Chakradhar Bahuguna for developing Modern Garhwali poetry genre.
  Poetry critic Dr. Manju Dhoundiyal states that the place of Chakradhar Bahuguna in developing modern Garhwali poetry is as the position of Osman Wang Awang, A. Samad Said,  Ahamad Kamal  Abdullah, Dinsman,  S.Z. Ismail, Rahimidin Jahari for developing modern Malay poetry literature. 
 

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Special Issue of Garhwali poetries by Anjwal Magazine (1990)
 (गढ़वाल, उत्तराखंड,हिमालय से गढ़वाली कविता  क्रमगत इतिहास  भाग - 319)
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 (Critical and Chronological History of Garhwali Poetry, part -319)
  By: Bhishma Kukreti   (Literature Historian)

      Anjwal a Garhwali magazine contributed in developing Garhwali literature. Brijendra Negi and Sudha Negi started publishing Garhwali magazine Anjwal from Saharanpur in 1988 and ran for a couple of years regularly.
      Many issues by Anjwal are important for Garhwali literature development purpose. One of special issues for Garhwali poetries (October 1990)  is important for a couple of reasons as publishing poetries by poets unheard till date too.
   There are 6 poems by Dr. Bhagwati Prasad Mishra in special issue of Anjwal.
  The editor published four poems by Vimal Sahityaratna; three poems by Jay Prakash Pundit; three poems by Prem lal Shastri (Gaud) and two poems by Jagdish Nautiyal ‘Benasib’.
 The magazine published two poems each of Puran Pant Pathik, dr, Narendra Gauniyal, Yogesh Panthary,  Kailash Bahukhandi,  Lalit Keshwan. 
There are one poem by each Virendra Panwar, Abodh Bandhu Bahguna. Virendra Guasain, Roshan Lal Bhatt, Nand Kishor Pant, Suresh Chandra Bhatt.
    It was pleasure for reading the poems by Prem Lal Shastri (Gaud), Virendra Gusain, Roshan Lal Bhatt, Nand Kishor Pant, Suresh Chandra Bhatt  and Jagdish Nautiyal ‘Benasib’. This author did not read any poems by the above six Garhwali poems elsewhere.
    There are various subjects, moods, styles and raptures in the Garhwali poems published in the special issue of Anjwal (October 1990).
      Garhwali society will always remember the contribution of Brijendra Negi and Sudha Negi.
   Garhwali poetry world will remember Brijendra Negi and Sudha Negi too for encouraging new poets by publishing their works in Anjwal.
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2018
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Bhishma Kukreti

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पंवार /शाह राज्य  (1500 -1600  ) में उत्तराखंड में  विकासोन्मुखी पर्यटन

Uttarakhand Tourism in Pal/Panwar/ Shah Dynasty
(  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

  -

उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -45

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  45                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--150 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 150 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
--
  पाल या पंवार वंश की स्थापना कब कैसी हुयी पर साक्ष्य न मिलने से इतिहासकारों मध्य मतैक्य है।  अधिकतर चर्चा जनश्रुतियों पर ही होती है।  चांदपुर गढ़ कब निर्मित हुआ पर भी इतिहासकारों मध्य मतैक्य ही है।
    पाल , पंवार या शाह वंश का पहला साक्ष्य देवप्रयाग अभिलेख (1455 ) में मिलता जिसमे जगतीपाल व जगतपाल रजवार का नाम अंकित है और गढ़वाली में है  जिससे इतिहासकार मानते हैं कि जगतपाल देवप्रयाग के निकट का रजवार /शासक था।
       पर्यटन इतिहास दृष्टि से माना जा सकता है कि  अजयपाल से पहले जगतिपाल , जीतपाल , आनंदपाल राजा हुए। गढ़वाल का इतिहास लेखक रतूड़ी ने अजयपाल का शासन  (1500 -1548 ) के बाद सहजपाल ( 1548 -1581 ) बलभद्र शाह (1581 -1591 ई ) माना है।

         कबीरपंथी प्रचारकों का पर्यटन
   अठारहवीं सदी में रचित 'गुरु -महिमा ' ग्रंथ अनुसार कबीर ने गढ़ देस की यात्रा की थी किन्तु अन्य साक्ष्य अनुपलब्ध हैं।  यह हो सकता है कि कबीर जीवन काल में या मृत्यु पश्चात कबीर शिष्य गढ़वाल आये हों और उन्होंने कबीर पंथ का पचार प्रसार किया हो। निरंकार जागरों में कबीर को निरंकार देव का सर्वश्रेष्ठ भक्त माना गया है।
पैलो भगत होलु कबीर तब होलु कमाल
तब को भगत होलु ? तब होलु रैदास चमार।
इससे सूत्र मिलता है कि शिल्पकारों मध्य कबीर पंथियों ने कुछ न कुछ जागरण अवश्य किया था।
     
 नानक का हरिद्वार पर्यटन
सिक्ख प्रथम गुरु नानक अपने शिष्य मर्दाना के साथ हरिद्वार आये थे।  उन्होंने हरिद्वार में अकाट्य संभाषण किये जिनसे लोग प्रभावित भी हुए।  (चतुर्वेदी ,उत्तरी भारत की संत परम्परा ) .

            देव प्रयागी  पंडों की बसाहत
 देवप्रयाग अभिलेख से ज्ञात होता कि रघुनाथ मंदिर में भट्ट पंडों की परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी। याने दक्षिण से आजीविका पलायन पर्यटन चल ही रहा था।
सजवाण जातिका भी राजनीति में महत्व साबित होता है।

   आजीविका पपर्यटन

   इसी तरह अन्य जातियों द्वारा मैदानी भाग छोड़ पहाड़ों में आजीविका या शरणार्थी अस्तित्व पर्यटन चल ही रहा था . मैदान में गढवाली राजनायिक राजनैतिक भ्रमण करते थे तो छवि निर्माण  होती ही थी .

     तीर्थ यात्री
 देवप्रयाग अभिलेख संकेत देता है कि तीर्थ यात्री गढ़वाल पर्यटन करते रहते थे।

        दक्षिण गढ़वाल में मूर्ति भंजन कृत्य

 मैदानी भाग विशेषतः उत्तर भारत में नुस्लीम शासकों द्वारा मूर्ति -मंदिर विरोधी कृत्य आम बात थी।  उथल  पुथल में पहाड़ी उत्तराखंड की यात्रा अवश्य ही बाधित हुयी।  सलाण (हरिद्वार से नयार नदी के दक्षिण  क्षेत्र रामगंगा तक ) में मुसिलम लूटेरों द्वारा मंदिर लूटने की घटनाएं आम थी तो तीर्थ यात्रियों हेतु सुलभ क्षेत्र होने के बाबजूद दक्षिण गढ़वाल में पूजास्थल भंजन से तीर्थ यात्री तीर्थ यात्रा का लाभ नहीं उठा सकते थे।

     इसी काल में व बाद तक कबीर , नानक व अन्य संतों के प्रभाव के कारण भी मूर्ति पूजा बाधित हुईं और उत्तराखंड पर्यटन बाधित हुआ। अनेक मंदिर संस्कृत शिक्षा केंद्र थे वे भी बंद हो गए। 1300 से 1500 ई  तक बद्रीनाथ -केदारनाथ मंदिर पूजा व्यवस्था पर भी कोई प्रकाश नहीं पड़ता है।


         चांदपुरगढ़ निर्माण

    चांदपुर गढ़ का निर्माण 1425 से 1500 मध्य किसी समय हुआ जिसका बिध्वंस चंद नरेश ज्ञान चंद द्वारा 1707 ई में हुआ।  एक ही शिला पर दो 15 x 3 x 3  फ़ीट की सीढ़ियां साबित करती हैं कि वास्तु विज्ञान व परिवहन विकसित तो था किन्तु दक्षिण व पूर्व में उथल पुथल ने इस वास्तु विज्ञान  पर विराम लगा दिया था।

   नाथ संतों द्वारा यात्राएं


 अजयपाल व सत्यनाथ गुरु जनश्रुति प्रमाणित करती हैं कि  नाथपंथी गढ़वाल की यात्राएं करते रहते थे और राजनीति में दखल भी देते थे।


      अजयपाल ने पहले चांदपुर गढ़ राजधानी छोड़ी व देवलगढ़ को राजधानी बनाया व फिर श्रीनगर में राजधानी स्थापित की।  देवलगढ़ में रजरजेश्वरी की स्थापना की जो अब तक एक पवित्र पर्यटक स्थल है। देवलगढ़ में सत्यनाथ मठ निर्माण भी अजयपाल ने ही किया था।

      श्रीनगर में राज प्रासाद


  अजय पाल ने श्रीनगर में महल बनवाया था। जो 1803 के भूकंप में ध्वस्त हो गया था।  चांदपुर गढ़ व श्री नगर महल निर्माण में शिल्पियों व अन्य कर्मियों का आंतरिक व बाह्य पर्यटन अवश्य बढ़ा होगा।


  बद्रीकाश्रम  में दंडी स्वामियों द्वारा पूजा अर्चना


 रतूड़ी ने 1443 से 1776 तक बद्रीनाथ व जोशीमठ में पूजा अर्चना कर्ता 21 दंडी स्वामियों की नामावली दी है।  वर्तमान रावलों के पूर्वज  रावलों ने भी ब्रिटिश शासकों को नामावली दी किंतु वह  केवल अपना स्वामित्व बचाने हेतु नकली नामावली थी।

    दक्षिण भारतीय पुजारियों व उनके सहायकों का आना जाना लगा ही रहा।


   अकबर का हरिद्वार आगमन

  यह निर्वाध सत्य  है कि गढ़वाल राजवंश का देहरादून तक राज्य फ़ैल गया था। अकबर से शाह वंश ने मधुर राजनैतिक संबंध बना लिए थे।  अकबर को गंगा जल शायद हरिद्वार से जाता था।


  अकबर द्वारा गंगा स्रोत्र की खोज


प्रणवानन्द ( Exploration in  Tibet ) अनुसार अकबर ने गंगा स्रोत्र खोजने अन्वेषक दल भेजा था। वः दल मानसरोवर तक पंहुचा था।

    अकबर का ताम्रमुद्रा निर्माणशाला ( टकसाल )


 अकबर की ताम्र मुद्रा निर्माण शाला हरिद्वार में थी और ताम्बा गढ़वाल की खानों से निर्यात होता था। गढ़वाल में मुगल मुद्राओं का प्रचलन भी सामन्य था।


    गढ़ नरेश को 'शाह ' पदवी

बलभद्र से  पहले जनश्रुति व अभिलेखों में गढ़ नरेश का नामान्त पाल था।  किन्तु बलभद्र का नामन्त शाह है।  बलभद्र को शाह पदवी दिलाने व मिलने पर कई जनश्रुतियां है और दो बहगुनाओं , बर्त्वाल अदि को श्रेय दिया जाने की जनश्रुति भी है।

   यह तथ्य प्रमाणित करता है कि गढ़वाल से राजनायक फतेहपुर , दिल्ली आते जाते रहते थे।

  बर्त्वाल जनश्रुति चिकित्सा विशेषग्यता की ओर ही संकेत करता है। याने     मनोचिकत्सा  ( आयुर्वेद में भूत विद्या ) में गढ़वाल को प्रसिद्धि थी।


   गढ़वाल से निर्यात


  मुगल साम्राज्य में अकबर काल से ही ताम्बे , लोहे , लौह -ताम्र वस्तुओं ,खांडे , खुकरियों , स्वर्णचूर्ण , सुहागा , ऊन , चंवर कस्तूरी वन काष्ट  व उनसे निर्मित वस्तुओं , गंगाजल , दास दासियों के अतिरिक्त भाभर के चीतों, हिरणों  का निर्यात होता था। पहाड़ी घोड़े भी निर्यात किये जाते थे।

 

    आयुर्वेद निघंटु रचनाएँ व औषधि पर्यटन


 पांचवीं सदी से आयुर्वेद निघंटु (शब्दकोश ) रचने या संकलित होने शुरू हो गए थे। अष्टांग निघण्टु (8 वीं सदी ) , पर्याय रत्नमाला (नवीन सदी ) , सिद्धसारा निघण्टु (नवीन सदी ) , हरमेखला निघण्टु (10 वीं सदी ) ,चमत्कार निघण्टु व मदनांदि निघण्टु (10 वीं सदी ) ,  द्रव्यांगनिकारा ,द्रव्यांगगुण ,धनवंतरी निघण्टु  , इंदु  निघण्टु ,  निमि निघण्टु ,अरुण दत्त निघण्टु , शब्द चंद्रिका , ( सभी 11 वीं सदी ); वाष्पचनद्र निघण्टु , अनेकार्थ कोष (  दोनों 12 वीं सदी ) ; शोधला निघण्टु , सादृशा निघण्टु ,प्रकाश निघण्टु , हृदय दीपिका निघण्टु  (13 वीं सदी ) ;  मदनपाल निघण्टु ,आयुर्वेद महदादि ,राज निघण्टु , गुण  संग्रह (सभी 14 वीं सदी ), कैव्यदेव निघण्टु , भावप्रकाश निघण्टु , धनंजय निघण्टु  (नेपाल ) ,आयुर्वेद सुखायाम ( सभी 16  वीं सदी के ) आदि  संकलित हुए।

    इस लेखक ने किसी अन्य उद्देश्य से अनुभव किया कि इन निघण्टुओं में मध्य हिमालय -उत्तराखंड के कई ऐसी वनस्पतियों का वर्णन है जो या तो विशेषरूप से यहीं पैदा होती  हैं या मध्य हिमालय में प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं।  जैसे भुर्ज, भोजपत्र  या पशुपात की  औषधि उपयोग कैव्य देव निघण्टु ,भावप्रकाश निघण्टु व राज निघण्टु में उल्लेख हुआ है। भोजपत्र औषधि का वर्णन अष्टांगहृदय (5 वीं सदी ) में उत्तरस्थान अध्याय भी हुआ है।

    यद्यपि  इस क्षेत्र में खोज की अति आवश्यकता है किन्तु एक तथ्य तो स्पष्ट है कि इतने उथल पुथल के मध्य भी गढ़वाल , कुमाऊं , हिमाचल , नेपाल की औषधि वनपस्पति प्राप्ति , इन वनस्पतियों का औषधि निर्माण हेतु कच्चा माल निर्माण विधि या निर्मित औषधि विधियों के ज्ञान व अन्य अन्वेषण का कार्य व मध्य हिमालय व भारत के अन्य प्रदेशों में औषधि ज्ञान का आदान प्रदान हो ही रहा था। उत्तराखंड से औषधीय वनस्पति , औषधि निर्माण हेतु डिहाइड्रेटेड , प्रिजर्वड कच्चा माल , या निर्मित औषधियों का निर्यात किसी न किसी माध्यम से चल रहा था।  उसी तरह आयात भी होता रहा होगा। 


Copyright @ Bhishma Kukreti   18/3 //2018

ourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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Bhishma Kukreti

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मान शाह शासन  (1591 1611   ) में उत्तराखंड में यूनानी चिकत्सा के संकेत

Tourism from 1600-1700 AD in Garhwal
(  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -46

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  ) -  46                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--151 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 151

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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गढ़वाल देस पर 1600 से 1650 ई तक मानशाह (1591 -1611 ) का शासन रहा।
   इस दौरान कई घटनाएं हुईं व कई पर्यटन संबंधी साहित्य से गढ़वाल पर्यटन की दशा का पता चलता है।
  मानशाह काल में कुमाऊं से कई  भिड़ंत हुयीं ।
 
         भूत विद्या  (मंत्र , तंत्र व मनोविज्ञान मिश्रित ) का प्रचार

  बहुगुणा वंशावली में उल्लेख है कि मानशाह (मनापाल ) भी कुमाऊं नरेश लक्ष्मी चंद्र की तरह मंत्र -तंत्र (भूत विद्या ) पर विश्वास करता था और सभाकवि भरत बहुगुणा के मंत्रोच्चारण से मानशाह ने दक्षिण हिमाचल के उतकल (जुब्बल ), कामेठ (क्यूंठल ) बिशेर व सिरमौर क्षेत्र जीते थे। यद्यपि अन्य स्रोत्रों से कोई पुस्टि नहीं होती है।
    कुमाऊं नरेश लक्ष्मीचंद व बहुगुणा वंशावली वृतांत से स्पस्ट है कि उस समय सेना , शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त तंत्र मंत्र पर विश्वास बढ़ गया था जो द्योतक है कि बाहर से भी तांत्रिक -मन्त्रिक उत्तराखंड में पर्यटन करते थे व आंतरिक तांत्रिक -मांत्रिक गढ़वाल -कुमाऊं में घूमते रहे होंगे।
   एक सदी या लगभ डेढ़ सदी बाद दूध फूल या छाया पूजन में दर्यावली का जुड़ना इस बात का द्योतक है कि संत परम्परा के शिष्य भी गढ़वल भर्मण करते रहते थे।

      गढ़नरेश को बोल्दा बद्रीनाथ की विरदावली       
बहुगुणा वंशावली में मानपाल (मानशाह ) को 'बदरीशावतारेण ' उपाधि दी गयी है (त्रिपथगा, सितम्बर  1956 )। पर्यटन दृष्टि से  गढ़वाली शासक को बोलता बद्रीनाथ या बद्रीनाथ का प्रतिनिधि उपाधि से प्रचारित करना गढ़वाल पर्यटन की एक महत्वपूर्ण घटना है।  मार्केटिंग में कहा जाता है -Brand the Chief Executive for Branding the Brand . गढ़वाल शाशक को जीता जागता बद्रीनाथ की छवि गढ़वाल पर्यटन में एक अभिनव कृत्या मना जाएगा। भरत कवि द्वारा मानेदय काव्य में मानशाह की प्रशंसा भी ब्रैंडिंग द चीफ एक्जिक्यूटिव ऑफिसर का प्रशंसनीय नमूना है।

      जहांगीर नामा में भरत ज्योतिषी
     
 अकबरनामा में टोडरमल के मित्र ज्योतिकराय का नाम तीन बार आया है।  बहुगुणा समाज इसे भरत कवि मानते हैं। पर्यटन विपणन दृष्टि से यदि किसी को किसी भी प्रकार से हानि न हो तो   'अपण बल्दौ पैन सिंग ' करने कोई बड़ा गुनाह नहीं ।
  जहांगीरनामा में ज्योतिकराय के ज्योतिष विषयक चमत्कारों का वर्णन पांच बार हुआ है और जहांगीर ने ज्योतिकराय सोने से तुलादान किया था (जहांगीरनामा पृ. 633 , 6 70 , 714 ,727 , 748 , 749 )। शंभुप्रसाद बहुगुणा ने ज्योतिकराय को भरत कवि सिद्ध करने का प्रयास किया।
 
     विलियम फिच का गढ़वाल वर्णन
 ईस्ट इंडिया कम्पनी के ओर से नील व्यापारी ने 1608 -1611 तक व्यापार अनुमान हेतु भारत में गुजारे व जहांगीर के दरबार में भी रहा।  फिंच के संस्मरणों से भारत के विषय में कई सूचनाएं मिलती हैं (फोस्टर , अर्ली ट्रैवल्स इन इण्डिया )।
  गढ़वाल के विषय में भी फिंच ने सुना था कि धौलागिरी पर्वत में जाड़ों में इतनी बर्फ गिरती है कि  वासी घाटी में उतर जाते हैं । जमुना -गंगा मध्य पर्वतीय प्रदेश में मानशा का अधिकार है। मानशा  को शक्तिशाली व धनी बताया गया है। फिंच ने बताया कि मानशा के पास सोने के बासन हैं। देहरादून (फिंच अनुसार सरहिंद से 50 कोष दूर ) अत्यंत उपजाऊ क्षेत्र है।
    फिंच ने गढ़वाल भ्रमण तो नहीं किया किन्तु गढ़वाल का उल्लेख किया है।  जिसका स्पस्ट अर्थ है कि जहांगीर दरबार में गढ़वाल की छवि व जानकारी रखी जाती थी।  दरबारी व गणमान्य व्यक्ति गढ़वाल के बाए में विज्ञ थे व वे अवश्य ही यात्रा करते थे। 
   स्थान छविकरण (प्लेस ब्रैंडिंग ) में माउथ टु माउथ पब्लिसिटी का क्या महत्व होता है यह फिंच संस्मरणों से स्पस्ट होता है।
   

   हरिद्वार व ऋषिकेश में कुम्भ मेले की  शुरुवात ?

  यह आश्चर्य ही है कि हिन्दू जनता कुम्भ मेले को समुद्र मंथन से जोड़ते हैं और हरिद्वार में ही कुम्भ राशि अनुसार कुम्भ मेला तिथि का निर्धारण करते हैं किन्तु रिकॉर्ड तो सत्रहवीं सदी में मिलते हैं जैसे -

   सत्रहवीं सदी में कुम्भ मेले का उल्लेख 'खुलासत -उत -तवारीख (1695 ) में मिलता है।   'खुलासत -उत -तवारीख (1695 ) में उल्लेख है कि वैशाखी के दिन लोग हरिद्वार में उमड़ते हैं, नहाते हैं।  बारहवें अल में जब कुम्भ राशि राज करते है तो लोग गंगा स्नान करते हैं , मुंडन करते हैं , दान करते हैं आदि। चाहर गुलशन  (1759 ) ने कुम्भ मेले का उल्लेख किया है कि बैशाखी दिन जब वृहस्पति कुम्भ राशि में प्रवेश करता है तो हरिद्वार में कुम्भ मेला  लगता है जहां फकीर, सन्यासी , जनता लाखों की संख्या में आते हैं ।

   ऐसा प्रतीत होता है कि हरिद्वार में कुम्भ मेले की शुरुवात 1600 ई से हई।  अकबरनामा में भी कुम्भ मेले का उल्लेख न होना दर्शाता है कि कुम्भ मेला बड़ा मेला न था।  नानक का वैशाखी दिन संदेश  देने आना दर्शाता है कि बैशाखी के दिन हजारों की संख्या में लोग उमड़ते थे।  हरिद्वार पंडा रजिस्टर में भी कुम्भ मेले का उल्लेख न होना आश्चर्य है।

     आगे के गढ़वाली शासकों द्वारा भारत मंदिर ऋषिकेश दर्शन  से लगता है 1398 ई में तैमूर लंग द्वारा भरत मंदिर नष्टीकरण होने के बाद भी हिन्दू भरत मंदिर पूजा हेतु आते रहे हैं।


     अकबर मुद्रा अण्वशाला हरिद्वार

  अकबर  की ताम्र मुद्रा अण्व शाला हरिद्वार होने से स्पस्ट है हरिद्वार में प्रशासनिक , व्यापरियों आदि का आना जाना रहा होगा। गढ़वाल से ही इस टकसाल को ताम्बा निर्यात होता था।


     मूर्तिभंजन  का दौर


अकबर काल में भी मूर्ति भंजन बंद नहीं हुआ था।  दक्षिण (सलाण )  गढ़वाल, ऋषिकेश , हरिद्वार में कोई बड़ा मंदिर न होना द्योतक है कि अकबर , जहांगीर काल में इन क्षेत्रों में मुस्लिम आक्रांताओं (जिन्हे गढ़वाली लोककथाओं में गुज्जर या भैंसपालक नाम दिया गया है ) द्वारा मूर्ति भंजन एक सामान्य बात थी। यदि मंदिर बने भी रहे होंगे तो तोड़ दिए गए होंगे।


उत्तराखंड में यूनानी चिकत्सा  का आगमन


 सुल्तानों के उत्तराखंड सीमा पर शासन व मुगल सीमाओं  के होने से हरिद्वार से लेकर अवध तक मुस्लिम समाज के बसे होने से इन स्थानों में यूनानी चिकत्सा का  होगा। और धीरे धीरे यूनानी चिकत्सा गढ़वाल -कुमाऊं के मैदानों में प्रचलित हुयी होंगी।  दवाई , दारु , बलगम , आदि शब्द गढ़वाली -कुमाउँनी भाषा में प्रचलित होना द्योतक है कि यूनानी चिकत्सा भी समाज में आने लगी होगी।

 दिल्ली के सुल्तानों ने यूनानी चिकत्सा हेतु 'दारुल सिफास ' बनवाया व यूनानी चिकत्सा को विकसित किया।

दिल्ली के सुल्तानों का युद्ध हेतु भाभर -बिजनौर आदि आना संकेत देता है कि उनके साथ 'दारुल सिफास के हकीम भी रहे होंगे , इन हकीमों ने स्थानीय हकीमों को दारुल -सिफास का परसहिस्खन वषय ही दिया होगा।  यह शिक्षा पहले हरिद्वार से पीलीभीत -अवध तक प्रसारित हुई होंगी फिर धीरे ढेरी गढ़वाल -कुमाऊं  अवश्य प्रसारित हई होगी। मुगल काल में भी यूनानी चिकित्सा का विकास हुआ जिसने उत्तराखंड चिकित्सा तंत्र को प्रभावित किया ही होगा। मुगल काल में अकबर दरबार में अब्दुर रहमान जिसे फ़ारसी , संस्कृत का ज्ञान था जैसे विद्वानों के कारण आयुर्वेद व यूनानी चिकत्सा में  संष्लेषण की नींव पड़ी। अकबर के सभसदों में हाकिम हमाम  प्रसिद्ध हकीम अकबर के नवरत्नों में एक रत्न था।अकबर के पांच चिकित्स्क हकीम अब्दुल फतह , हकीम शेख फयाजी , हकीम हमाम , हकीम अली और हकीम आईन -उल -मुल्क राजकीय चिकित्स्क थे।

  भावप्रकाश निघण्टु रचयिता भाव मिश्र बादशाह अकबर का राजवैद्य था।  सिद्ध करता है कि  आयुर्वेद -यूनानी चिकित्सा में संश्लेषण की नींव अकबर काल से ही पड़ी  होगी।  मेथी का दवाई में उपयोग सर्वपर्थम भावप्रकाश में उल्लेख हुआ जिसे दिपानी (हाजमा वर्धक ) नाम दिया गया। 

अकबर व जहांगीर की बेगमों को चिकत्सा व दवाइयों का भी ज्ञान था।


        हुक्के का अन्वेषण


 अकबर काल में सन 1604 -1605 तम्बाकू धूम्रपान का प्रवेश हुआ तो अकबर के राजकीय हकीम हकीम अब्दुल फतह ने तम्बाकू का स्वास्थ्य हेतु हानिकारक पदार्थ के कारण विरोध किया किन्तु अकबर ने  की इजाजत दे दी।  तब हकीम अब्दुल फतह ने पता लगाया कि यदि धुंए को पानी से गुजरा जाय तो तम्बाकू का प्रभाव कम हो जाता है।  फिर हकीम  ने हुक्के का अन्वेषण किया (ए  चट्टोपध्याय , ऐम्परर अकबर ऐज ये ऐंड हिज फिजिशियन्स , 2000 , इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ हिस्ट्री मेडकल , हैदराबाद बुलेटिन ) ।  कुछ समय पश्चात हुक्का धूम्रपान स्टेटस सिंबल हो गया।  लगता है उत्तराखंड में हुक्का धूम्रपान 1650 के बाद  प्रचलन में आया होगा।  थक   बिसारने,  मन व्याकुलता कम करने हेतु धूम्रपान कैसे उत्तराखंड पंहुचा होगा पर खोज होनी बाकी है।

 

Copyright @ Bhishma Kukreti   19/3 //2018

ourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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