Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 727341 times)

Bhishma Kukreti

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सलाण  गढ़वाल में बौद्ध मत प्रचार से  उत्तराखंड पर्यटन विकास

Medical Tourism in Uttarakhand through Buddhism Popularization
(  बौद्ध मत प्रचार से  उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म  विकास )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -20

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  20                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--125 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 125   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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   महात्मा बुद्ध के समय ही बिहार व पूर्वी उत्तरप्रदेश में लाखों बुद्ध अनुयायी बन चुके थे।
  परवर्ती बौद्ध साहित्य अनुसार महात्मा बुद्ध कनखल के पास उशीरनगर तक पंहुचे थे।  दिव्यावदान अनुसार बुद्ध उत्तराखंड के श्रुघ्न नगर पहुंचकर  उन्होंने एक ब्राह्मण का अभिमान चूर किया था।  युवान चांग ने भी उल्लेख किया है।
      बुद्ध निर्वाण पश्चात दक्षिण उत्तराखंड में बौद्ध चिंतकों का प्रमुख चिंतन स्थल रहा है। बौद्ध धर्म में उतपन कई उलझनों को सुलझाने में उत्तराखंड के स्थाविरों का प्रमुख हाथ रहा है।  हरिद्वार के पासजिन आश्रमों में जहां पहले वेदों , संहिताओं , उपनिषदों , ब्राह्मणों का पठन पाठन होता था वहां बौद्ध धर्म संबंधी साहित्य का पठन पठान व चर्चाएं शुरू हो गए ।  उत्तराखंड के स्थावीरों ने बौद्ध धर्म संबंधी समस्याओं का निराकरण में अन्य क्षेत्र के स्थावीरों के मुकाबले अधिक भूमिका निभायी।
                    बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनंद हुए थे।  आनंद के दो शिष्य थे - यश और साणवासी सम्भूत स्थविर।  साणवासी संभूत कनखल के पास अहोगंगपर्वत पर निवास करते थे।  बुद्ध नर्वाण के सौ साल बाद कालाशोक के राज्य काल में साणवासी के जीवनकाल में बौद्धों के मध्य भीषण फूट पड़ गयी थी। साणवासी संभूत ने अहोगंग से मगध  पंहुचक कर द्वितीय बौद्ध सङ्गीति (कॉनफेरेन्स ) आयोजित की। (महाबंश पृष्ठ 17 -19 )
              अशोक के समय बौद्ध मतावलम्बियों की तीसरी सङ्गीति आयोजित हुयी जिसकी अध्यक्षता अहोगंग के स्थविर मोग्गलि पुत्त  ने किया।
            गंगाद्वार (हरिद्वार से गोविषाण (काशीपुर क्षेत्र ) बौद्ध मतावलम्बियों हेतु चिंतन का केंद्र बन चुका था और बौद्ध प्रचारकों , चिंतकों व जनता का आना जाना बढ़ गया था।  उत्तराखंड का एक पर्वत बौद्धाचल कहलाया जाने लगा (केदारखंड ४० /२८ -२९ ) . बौद्ध मतावलम्बियों के लिए गंगा उतनी ही पवित्र थी जितना सनातनियों  के लिए।

                बौद्ध स्थविर शिष्य चिकित्सा विशेषज्ञ भी होते थे

            अधिकतर बुद्ध व बौद्ध साहित्य को दर्शन , आध्यात्म व मनोविज्ञान तक ही सीमित किया जाता है।  किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि बौद्ध धर्म के उन्नायकों ने भारत ही नहीं चिकित्सा शास्त्र में भी योगदान दिया है। बुद्ध का उद्देश्य ही दुःख हान था।   यदि बौद्ध चिंतक चिकित्सा के प्रति संवेदनशील न होते तो सम्राट अशोक को  ससर्वजनिक जनता हेतु चिकित्सालय व पशुओं हेतु सार्वजनिक चिकित्सालय विचार आते ही नहीं ।
  सातवीं सदी से पहले , गुप्त लिपि में  रचित 'भेषज गुरु -वैदुर्य -प्रभा राजा सूत्र' सिद्ध करता है कि बौद्ध चिंतक शरीर चिकित्सा में भी ध्यान देते थे।

          उत्तराखंड में बौद्ध स्थविरों का वास याने पर्यटन विकास


  गंगाद्वार में मुख्य बौद्ध धर्म प्रचार केंद्र होने से उत्तराखंड में भारत से विद्वानों का आना जाना बढ़ा और उत्तराखंड पर्यटन में निरंतरता रही व नए पर्यटक ग्राहक भी मिले।  मेडिकल पर्यटन वास्तव में सामन्य पर्यटन के साथ स्वयं ही विकसित होता जाता है।  विपासा चिकित्सा पद्धति व अन्य चिकित्सा पद्धति भी उत्तराखंड में प्रसारित  हुयी ही होगी।


        सलाण गढ़वाल में कुछ गाँव


 सलाण के मल्ला ढांगू में पाली ,  डबरालस्यूं में पाली गाँव व लंगूर में पाली गाँव इंगित करते हैं कि गढ़वाल में बौद्ध मत का प्रभाव तो था ही पर्यटक भी उत्तराखंड आते जाते रहते थे।



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Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -भाग २, पृष्ठ ४११ से ४१७
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 Buddhism ,  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;    Buddhism , Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Buddhism ,  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Buddhism ,  Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड परिपेक्ष में  जंगली लहसुन / डोंडो/ जिमु / डंडू   का   मसाला व औषधि उपयोग व इतिहास 
History, Origin, Introduction,  Uses  of  Garlic Chives/Chinese Chives  as   Spices ,  in Uttarakhand
 
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाला , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास - 1                                             
  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -   1                       
         
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   90
History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -90

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Allium tubersum
सामन्य अंग्रेजी नाम - Garlic  Chives or Chines Chives
हिंदी नाम -जंगली लहसुन
नेपाली नाम -डुंडू
उत्तराखंडी नाम - दोणो , जिमू  (हिमाचल )
 जंगली लहसुन  या जंगली दोणो कुछ ही क्षेत्रों जैसे मुनसियारी में मसाले के रूप में उपयोग होता है किन्तु औषधि रूप में अधिक होता है।  यह पौधा 2300 -2600 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय व चीन हिमालय में उगता है। इसकी एक सेंटीमीटर चौड़ी व बीस सेंटीमीटर लम्बी पत्तियां गुच्छों में उगती हैं और अपने भार से झुक जाती हैं।  फूल सफेद व गुलाबी होते हैं 
जन्मस्थल संबंधी सूचना - जंगली लहसुन के जन्म के बारे में वनस्पति शास्त्री एकमत नहीं हैं किंतु इस पौधे का जन्म हिमालय में ही हुआ इसमें दो रे नहीं हैं।
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन - चीन व  तिब्बत में जंगली लहसुन पिछले तीन हजार साल से उपयोग हो रहा है।  चीनी औषधि विज्ञानं की सोलहवीं सदी के पुस्तक में उल्लेख है।  भारत के निघंटु साहित्य में इस स्पेसीज से मिलते जुलते पौधों का जिक्र हुआ है
औषधि उपयोग -
 विटामिन सी से भरपूर , इसका उपयोग उत्तराखंड से बाहर कोलस्ट्रोल कम करने  , रतौंधी , नपंसुकता ,  आदि कष्टों में उपयोग होता है। बालों की आयु बढ़ाने , बुढ़ापा कम करने के लिए भी औसधि उपयोग होता है। पत्तियों के रस  फंगस आदि अवरोधक के रूप में प्रयोग होते हैं।
कुमाऊं विश्वविद्यालय  के फरहा सुल्ताना , ए . शाह व रक्षा मंत्रालय हल्द्वानी के मोहसिन जैसे वैज्ञानिकों ने सलाह दी है की जंगली लहसुन का उत्तराखंड में बड़े स्तर पर कृषिकरण होना चाहिए
                               मसालों में उपयोग

  उत्तराखंड , हिमाचल , नेपाल व मणिपुर जहां जहां तिब्बती संस्कृति का प्रभाव है वहां वहां जंगली लहसुन की पत्तियों व फूलों , मूल का लहसुन जैसे उपयोग होता है याने छौंका , सब्जी -दाल-मांश -अंडे ,  में सलाद व नमक के साथ पीसकर , अचार बनाकर उपयोग होता है।


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Notes on History of Culinary, Gastronomy, Spices  in Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy , Spices in Pithoragarh Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy,  Spices in Doti Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Dwarhat, Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy,  Spices in Pithoragarh Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Champawat Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Nainital Uttarakhand;History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Almora, Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Bageshwar Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Udham Singh Nagar Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Chamoli Garhwal Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy in Rudraprayag, Garhwal Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy in Pauri Garhwal, Uttarakhand; History ofCulinary,Gastronomy in Dehradun Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices   in Tehri Garhwal  Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy,  Spices in Uttarakhand Uttarakhand; History of Culinary,Gastronomy ,  Spices in Haridwar Uttarakhand;

 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )


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कुलिंद -उशीनगर जनपद  (400 -300 BC ) में चिकित्सा व अन्य पर्यटन

( कुलिंद -उशीनगर जनपद काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -21

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  21                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--126 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 126   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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           कुलिंद -उशीनगर जनपद का राजयकाल 400 -300 ईशा पूर्व माना जाता है। उशीनगर चंडीघाट का नाम है। कुलिंद के कई नाम सामने आते हैं जैसे -कुलइंद्राइन , कुलिंद , कुणिंद।  पाणिनि के अष्टाध्यायी में सीमा रेखा स्पष्ट नहीं है किन्तु ताल्मी ने सतलज से कालीनदी के पर्वतीय क्षेत्र को कुलिंद बताया व इन क्षेत्रों से कुलिंद मुद्राएं भी मिली हैं।
    कुलिंद का दुसरा नाम उशीनगर भी था। इस जनपद में कालकूट (कालसी ), तंगण (उत्तरकाशी से चमोली ); भारद्वाज (टिहरी  व पौड़ी गढ़वाल ); रंक (पिथौरागढ़ ); आत्रे या गोविषाण (दक्षिण कुमाऊं ) आते थे।
 
                 महात्मा बुद्ध द्वारा अनुचरों को उत्तराखंड में जाने की अनुज्ञा

 महात्मा बुद्ध के समय उशीनगर  (चंडी घाट ) में कम प्रचार के कारण बुद्ध ने विनयधर सहित पांच शिष्यों को उशीनगर में प्रचार की अनुज्ञा  दी थी (विनय -पिटक ५/३/२/पृ -२१३ )

        कालकूट से अंजन का निर्यात
     कालकूट महाभारत से ही चक्षु अंजन याने सुरमा के लिए प्रसिद्ध था और कुलिंद -उशीनगर जनपद काल में   सुरमा निर्यात होता था।  निर्यात स्वतः ही टूरिज्म को विकसित करता है। अंजनदानी व सलाई  का भी निर्यात होता था।

        शहद निर्यात

     उत्तराखंड सदियों से पहाड़ी शहद हेतु प्रसिद्ध था और कुलिंद -उशीनगर जनपद में भी शहद निर्यात होता था।

          बौद्ध भिक्षुओं का उत्तराखंड में भ्रमण

    पाणनि के अष्टाध्यायी व बौद्ध साहित्य महाबग्ग में गुरुकुल व भिक्षुओं का जिक्र है जिन्हे यहां का भोजन ही नहीं मांश , मदिरा व धूम्रपान भी पसंद था।  भिक्षु -भिक्षुणीयां उशीनगर के आभूषण पसंद करते थे (चुल्ल्बग पृ -419 )।

       रोग और चिकित्सा व जड़ी बूटी निर्यात

       बौद्ध साहित्य जैसे विनय -पिटक  (पृ -२३० ) से पता चलता है कि कुलिंद -उशीनगर के महाहिमालय श्रेणियां  प्रभावशाली जड़ी -बूटियों व बहुत से विषों हेतु प्रसिद्ध था व इन औषधियों का निर्यता होता था।  जड़ी बूटियों -विषों की खोज में भी अतिथि उत्तराखंड भ्रमण करते थे।  विनय पिटक  में हिमालयी जड़ी बूटियों वर्णन से जाहिर होता है कि चिकित्सा जानकार उत्तराखंड में भ्रमण करते थे।

             कुलिंद -उशीनगर को अन्य  राष्ट्रों से जोड़ने वाले मार्ग

भरत सिंह (बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल ) अनुसार बुद्धकालीन जनपद जैसे लिच्छिवी , मल्ल , कोलिय , भग्ग , कलाम , बुलिय व शाक्य जनपदों से जोड़ने हेतु  गढ़वाल भाभर -गोविषाण (कुमाऊं तराई ) से अहोगंग , कालकूट , श्रुघ्न (सहारनपुर क्षेत्र ), साकल जाने हेतु सुपथ (अच्छे मार्ग ) थे. इन मार्गों पर विश्राम स्थल भी थे जहां  जल , भोजन , घास , ईंधन मिल जाता था।  नदी पार करने की व पशु रथ चलाने की भी व्यवस्था थी।  चोर डाकुओं  से रक्षा हेतु किराये के सैनिक भी उपलब्ध थे।
पहाड़ों में कुपथ याने दुर्गम पथ थे। दुर्गम पथ वास्तव में उत्तराखंड की सुरक्षा की गारंटी ही साबित हुए हैं क्योंकि बाह्य आक्रमणकारी सेना भाभर से आगे बढ़ ही नहीं सकी और आज कुपथ भी रोमांचकारी पर्यटन को बढ़ावा देता है।
      उपरोक्त संदर्भ सिद्ध करते हैं कि निर्यात व आयात हेतु परिवहन की पूरी व्यवस्था थी। 

               निर्यात सामग्री व भाभर में व्यापार

 पाणनि के अष्टाध्यायी से पता चलता है कि भाभर में निम्न सामग्रियों का व्यापार (निर्यात ) चलता था (अग्रवाल , पाणनि कालीन भारतवर्ष पृ 19 से 48 , 237 )
अंजन, लवण , उशीर , मूँज , बाबड़ घास , देवदारु फूल , वनस्पति मसाले , ऊन व ऊनी वस्त्र , भांग व भांग वस्त्र , कंबल , मृग चर्म , लाख , चमड़े के थैले व अन्य सामग्री , चमड़ा , वनस्पति थैले , दूध -दही , घी , धोएं सुहागा , अनेक प्रकार की वनस्पति व औषधियां , बिष , बांस व बांस से बनी वस्तुएं , मधु,  गंगाजल, चमर , कई प्रकार के पशु -घोड़े आदि व पक्षी आदि  निर्यात  होते थे।
      निर्यात स्वयमेव पर्यटन का उत्प्रेरक अवयव है।
 
               विशिष्ठ सामग्री याने विशिष्ठ पर्यटन

   अष्टाध्यायी , बौद्ध साहित्य से पता चलता है की उत्तराखंड से अन्यन वस्तुओं का निर्माण , प्रजनन , व ट्रेडिंग होती थीं जो कि एक विशिष्ठ पर्यटन को विकसित करने में सक्षम थी। 

   


Copyright @ Bhishma Kukreti  22 /2 //2018 



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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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उत्तराखंड में  वन अजवाइन , अजमोड़ / राधुनी   मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of  Wild Celery  as   Spices ,  in Uttarakhand
 
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति   का मसाला , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  2                                             
             

  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -  2                     
         
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --  91
History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -91

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Trachyspermum roxburghianum
सामन्य अंग्रेजी नाम - Wild Celery
संस्कृत नाम -अजमोड़ / वन यवनक
हिंदी नाम -अजमोदा  /बंगाली राधुनी
नेपाली नाम -  वन जवानो
उत्तराखंडी नाम -वण अजवाइन , बण अज्वैण
  वास्तव में कृषि जनित अजवाइन में और वन अजवाइन में कुछ ही अंतर् है और दिखने भी कम ही अंतर् है। सुगंध में कुछ अंतर् है।
जन्मस्थल संबंधी सूचना - अधिकतर वैज्ञानिकों की एकमत राय है कि वन अजवाइन का जन्मस्थल इजिप्ट /मिश्र क्षेत्र है।
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन - अजमोदा  का उल्लेख चरक संहिता , शुश्रुता संहिता , अमरकोश , मंदपाल निघण्टु , कैयदेव निघण्टु , सातवीं सदी के बागभट्ट का अष्टांग हृदयम , ग्यारवहीं सदी के चक्र दत्त , बारहवीं सदी के गदा संग्रह , तेरहवीं सदी के सारंगधर संहिता , सत्रहवीं सदी के योगरत्नकारा , अठारवीं सदी के भेषजरत्नावली ,  आदि में हुआ है। 

       वन अजवाइन का औषधि उपयोग

वास्तव में घरलू या जंगली अजवाइन दोनों का मुख्य उपयोग औषधि रूप में ही होता है , उत्तराखंड के हर घर में जंगली या घरेलू अजवाइन अनिवार्य मसाला या औषधि होती ही है।  पेट दर्द या बुखार में लोग अपने आप अजवाइन भूनकर या बिना भुने फांक लेते हैं।  लोग परम्परागत रूप से अदरक , गुड़ या शहद व जंगली या घरेलू अजवाइन बीज या पीसी अजवाइन का क्वाथ सर्दी -जुकाम भगाने हेतु उपयोग करते हैं।

बच्चों के गले में कपड़े के ताजिब में भी जंगली या घरेलू अजवाइन बीज बाँधने का रिवाज तो उत्तरखंडियों के मध्य मुंबई में भी है। 

     वन अजवाइन मसाले के रूप में

 आम लोग अजवाइन बीज को गरम  तासीर , वातनाशक , कफ नाशक मानते हैं और जाड़ों में तो दिन में एक बार भोज्य पदार्थ में चुटकी भर अजवाइन डाल ही  देते हैं विशेषकर उड़द  दाल जैसे भोज्य पदार्थ में।  वास्तव में अजवाइन अन्य मसालों की सहेली है। 
  जाड़ों में चाय में भी डालने का रिवाज है।  मिठाईयों में विशेष स्वाद हेतु वन अजवाइन प्रयोग की जाती है।   



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 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )

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Myths and Religious Uses of Nagkesar   in Uttarakhand
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) - 38
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology, Culture Research Scholar)
Botanical name –Mesua ferrea
Hindi Name – Nagkesar
Sanskrit Name –Nagpushpa, nagkesar
                                           ---Economic benefits –--
Medical uses- Medicines by Nagkesar are used in bleeding disorders as Piles, Menorrhagia, Uterine Bleeding , Epistaxis   etc
Spices -used as spices too
Decoration – Ornamental plant
                   Myths, Religious Uses and Traditions
   According to Hindu astrology, Nagkesar is plant of Ashlesha  Nakshatra. Astrologers suggest ritual performance for Nagkeshar plant for satisfying effects of Ashlesha nakshatra.
            Tantrics also suggest to put Nagkesar seed with other items in a muslin bag ( Tabiz)  and put on hand or neck for wealth and prosperity

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Bhishma Kukreti

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Myths and Religious Uses of Mahua, Butter Tree    in Uttarakhand
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Plant Myths, Religious Importance, and Traditions in Uttarakhand (Himalaya) - 39
By: Bhishma Kukreti, M.Sc. (Botany) (Mythology, Culture Research Scholar)
Botanical name – Madhuca logifolia    
Local Name – Mahwa, Mahua
Hindi Name –Mahwa, Mahua
Sanskrit Name – Guda Pushpa
                                           ---Economic benefits –--
Medical uses-Used as medicines in skin , boils, hiccup, cough , impotency , debility etc.
Furniture, Agriculture Instruments,- Each part of Mahua is useful for human beings.as  fodders, wood, fertilizers by products of oil extraction,  etc.
Food Uses – Making vegetable butter, fat, alcohol, sweetening agent from flowers, syrup etc.

                   Myths, Religious Uses and Traditions
    According to Hindu Astrology, Mahuwa, Mahua tree is representative of Revati nakshatra.
  Astrologers suggest for writing Swastika symbol on g Mahua leave and to keep in pocket for tension relief.
 Astrologers also suggest to write Swastika symbol on Mahua twig  and to keep it in Tijori/safe for prosperity.
 
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उत्तराखंड  में    रतनजोत , रतन जोत   मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of Ratanjot/ Ratan jot , Alkanet   as   Spices ,  in Uttarakhand
 
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  के मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  3                                             
             

  History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand -3                         
         
  उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास --   92
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -92

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति  शास्त्री )
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वनस्पति शास्त्रीय नाम - Alkanna tinctoria
सामन्य अंग्रेजी नाम - Alkanet, Dyer's Alkanet
हिंदी नाम - रतनजोत , अंजनकेशी ,
उत्तराखंडी नाम - रतनजोत
सिद्ध नाम -रथपालै
रतनजोत एक खर पतवार है जिसकी जड़ें पौधे से बड़ी होती हैं  , नीले रंग  वाला रतनजोत  चीड़ वन स्तर की ऊंचाई में उगता है और कश्मीर  से कुमाऊं तक पाया जाता है ।  उत्तराखंड में रतनजोत का भोजन उपयोग बहुत कम होता है किन्तु पहले कपड़े आदि रंगाई में उपयोग होता था।  रतनजोत की जड़ों से लाल रंग मिलता है जो कि पानी में तो नहीं घुलता किन्तु पेड़ पौधों के भागों को रगने में कामयाब रंग है।  इसलिए इसका उपयोग भात , सूजी , दाल , मांश आदि को रंग देने हेतु होता था। अब नामात्र को उपयोग होता है।
जन्मस्थल संबंधी सूचना - रतनजोत का  मेडिटेरियन सागर , मध्य -दक्षिण यूरोप क्षेत्र माना जाता है जहां रतनजोत की जड़ों रस से से आज भी मेक अप सामग्री बनाई जाती है।
संदर्भ पुस्तकों में वर्णन - रतनजोत का जिक्र यूनानी साहित्य में सन 00 70 से मिलना शुरू होता है।  रोमन सेना में कार्यरत यूनानी डाक्टर पेडानियस डायोसकौरिदेस ने De Materia Medica में जिक्र किया जो बाद में लेटिन में सन 512 में अनुदित हुआ।
      औषधि उपयोग
रतनजोत का उपयोग उत्तराखंड में वैद करते थे।  रतनजोत के विभिन्न भागों से आँखों की रौशनी  वृद्धि , त्वचा का रूखापन  करने , खाज खुजली , पेट दर्द ,कृमि नास , पथरी नाश ,बालों की दूर करने , रक्त शोधन आदि में अन्य अवयवों या अकेले दवाई बनाने  है।

    रतनजोत जड़ों से भोजन रंग

  रतनजोत के जड़ों से भोजन को रंग देने हेतु उपयोग होता है।  रतनजोत की जड़ों के  भोजन  को रंग ही नहीं मिलता अपितु स्वाद वृद्धि भी होती है।

    उत्तराखंड में आयुष योजना हेतु सलाह

 राजीव कुमार , वी के जोशी आदि वैज्ञानिक उत्तराखंड को मेडिकल हब बनाने हेतु रतनजोत जैसे वनस्पति  पर ध्यान देने की सलाह देते रहे हैं।
   



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 ( उत्तराखंड में कृषि,  मसाला ,  व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि ,  मसाला व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )


Bhishma Kukreti

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नंद व मौर्य युग (350  -184  BC ) में उत्तराखंड में पलायन पर्यटन व अन्य पर्यटन


 Medical tourism in Maurya Era
(  मौर्य काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -22

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  22                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--127 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 127   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  मौर्य काल को 321 BC से 184 या 148 BC तक माना जाता है। उससे पहले नंद युग था।

         नंद या अन्य द्वारा सैनिक बन कर  पलयान
 मौर्य शासन से पहले नंद साम्राज्य था।  नंद कौन था इस विषय पर एकमत नहीं है किन्तु एक सिद्धांत कहता है कि नंद वंश का संस्थापक उग्रसेन -महापद्म गोविषाण  (कुमाऊं तराई ) का था या उसका संबंध उत्तराखंड से था।
    रैपसन की धरना है कि शिशुनाग व नंद वंश की स्थापना करने वाले पर्वतवासी थे (कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृ -280 ) . महापद्म क राज्य हिमालय से नीलगिरि व गोदावरी तक फैला था। महापद्म के एक पुत्र नाम गोविषाण भी था  समय शाशन किया ।
   चन्द्रगुप्त या अशोक द्वारा उत्तराखंड विजय की कोई सूचना नहीं मिलती किन्तु गोविषाण (काशीपुर) , कालकूट (कालसी ) व श्रुघ्न में अशोक की लाट  सिद्ध करती हैं कि उत्तराखंड नंद वंश के अंतर्गत ा चूका था और मौर्य शाशन में पुराने शाशक मौर्यों के प्रतिनिधि बन चुके थे।
   मुद्राराक्षस नाटक में पर्वतेश्वर चरित्र से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का पर्वतेश्वर से रक्त संबंध था।

       युद्ध नौकरी पर्यटन

   नंद वंश स्थापना के  विभिन्न सिद्धांतों से सिद्ध होता है कि मैदानी राष्ट्रों को उत्तराखंड से सैनिक बुलाने पड़ते थे। चन्द्रगुप्त के राजमहल में किरात सैनिक थे जिन्हे विश्वासी सैनिक माना जाता था।
 इतिहासकार राय चौधरी के अनुसार मौर्य साम्राज्य में पहाड़ी सैनिकों की बड़ी मांग थी।  हट्ठे कट्ठे खश , कनैत मौर्य सेना में भर्ती होते थे। चन्द्रगुप्त को मगध सिंहासन दिलाने में पहाड़ी सैनिको का प्रमुख हाथ था। सेनाओं की अग्रिम दल इकाई पहाड़ी खशों द्वारा ही संचालित होती थी।
  युद्ध नौकरी कई प्रकार के अन्य पर्यटनों को विकसित करता है।  नौकरी करने बाहर जाना याने ज्ञान -विज्ञान का आदान प्रदान को प्राथमिकता।
      मौर्य काल में पहाड़ों से आम आदमियों हेतु मैदानों ही नहीं पाटलिपुत्र तक घोड़े निर्यात होते थे। सैनकों के लिए उबड़ खाबड़ स्थानों में परिवहन हेतु भारद्वाज व टंगण अश्वों की मांग पूर्ववत थी।

        वनस्पति निर्यात
 कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में जिन वनस्पतियों व वस्तुओं का वर्णन मिलता है उनमे से कई वनस्पति उत्तराखंड से निर्यात होती लगतीं हैं।

    शिल्प विशेषज्ञ
  कालसी के अशोक शिलालेख से स्पष्ट है कि शिल्प विज्ञान का आदान प्रदान हुआ।  स्थानीय शिल्पकारों के कार्य भी महत्वपूर्ण रहा होगा।  शिल्प कला विज्ञान के आदान प्रदान में अवश्य ही विशेष पर्यटन विकसित होता है।  यदि अशोक ने कालसी  में शिलालेख , गोविषाण (स्तूप ) व श्रुघ्न (स्तूप निर्माण ) को शिलालेखों आदि के लिए चुना था तो अवश्य ही भूगोल शास्त्री , भूगर्भशास्त्री, खनिज शास्त्री , लेखक ,शिला काटने वाले , शिला कोरने  वाले विशेषज्ञों ने पहले ही नहीं शिलालेख आदि निर्माण के बाद भी पर्यटन किया होगा।  गोविषाण , कालसी व श्रुघ्न -सहारनपुर बड़ी मंडी तो थी हीं , सम्राट अशोक द्वारा यहां शिलालेख स्थापित करवाने के बाद इन स्थानों की छवि अधिक संवरी होगी।  आज भी सम्राट अशोक के शिलालेखों के कारण ये स्थान विश्व प्रसिद्ध पर्यटक स्थल हैं।

     चिकत्सा पर्यटन
  महावंश (पृ 25 ) से पता चलता है कि सम्राट अशोक की गंगाजल में असीम श्रद्धा थी। अशोक हेतु प्रतिदिन देवता मानसरोवर से आठ बहंगी गंगाजल लाते थे व चार बहंगी जल संघ , एक स्थविरों को , एक असंघमित्रा को व शेष अशोक हेतु दी जातीं थीं।
    महावंश (पृ 21 ) से पता चलता है कि उत्तराखंड वासी नागलता के दातुन , आंवला , हरितिका  जड़ी बूटी , आमों को लेकर रोज पाटलिपुत्र पंहुचते थे।  यदि विक्रेता पाटलिपुत्र पंहुचते थे तो साथ में अन्य सामग्री भी बेचने हेतु ले जाते होंगे।
 
         बौद्ध प्रचारकों का उत्तराखंड आगमन याने विशिष्ठ पर्यटन

     भरत सिंह अनुसार महात्मा बुद्ध उशीरध्वज पर्वत तक  पंहुचे थे।  इसके बाद गोविषाण (काशीपुर ) से लेकर सहारनपुर तक कई बुद्ध आश्रम खुले।  अशोक के समय व पश्चात निम्न स्थविर उत्तराखंड पंहुचे -

 मोग्गलिपुत्त तिस्स
कास्सपगोत्त  के नेतृत्व  में ंव अलक देव , दुंद भिसार , महावीर  अथवा मञ्झिम स्थविर के नेतृत्व में कास्सपगोत्त , दन्दुभिसार , सहदेव व मूलकदेव।
  इससे साफ़ जाहिर है कि मौर्य काल में बौद्ध मुनियों का उत्तराखंड के भाभर -तराई भाग में अधिक आना जाना था।

 
 




Copyright @ Bhishma Kukreti  23 /2 //2018 



Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   


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सम्राट अशोक के  पगलपन से  भारत में  विज्ञान सोच समाप्त होना

     (पपर्यटन प्रबंध में निरंतरता की महत्ता )


( अशोक काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -23

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   Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Medical Tourism History  )     -  23                 

  (Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--128 )   

      उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 128   

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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 सम्राट अशोक की प्रशंसा में हजारों टन कागज लग चुका होगा।  अशोक का राज्य स्तर पर सामाजिक हित कार्य की प्रशंसा होनी ही चाहिए।  इतने बड़े राष्ट्र में लाटों , शिलालेखों व अन्य माध्यमों से अपनी मनशा को जन जन में पंहुचाने का  कार्य अपने आप में इन्नोवेटिव , मौलिक था।
     किंतु यदि अशोक के खाते में Credit है तो साथ में Debit भी है।

       बौद्ध धर्म प्रचार के ठसक  में कई लाख श्रुतियों का विनाश
   
     महात्मा बुद्ध यदि महात्मा बुद्ध बने तो उसमे केवल देव व्रत का व्यक्तिगत हाथ नहीं था अपितु भारत में हजारों साल से चली आ रही एक विशेष सोच का हाथ है।  महात्मा गांधी ने अहिंसा को स्वतंत्रता पाने हेतु  हथियार बनाने की बात की और भारतीय समाज ने चट से मान लिया तो उस मानसिकता के पीछे महाभारत से लेकर बुद्ध साहित्य , जैन साहित्य , भारतीय दर्शनों , पुराणों का हाथ था जो भारतीय मन में हजारों साल तक वैसे के वैसे जमा रही जो महाभारत के अंतिम खंडों में रचा गया था।
              सामंत अशोक के सम्राट बनने के बाद अशोक ने  अपने मानसिक हठ  ''एक राज्य -एक धर्म'' हेतु सनातन धर्म विरुद्ध वास्तव में एक हिंसात्मक व अंहिसात्मक युद्ध छेड़ दिया था।  इससे क्या हुआ ? जो विज्ञान , जो कला , कृषि शास्त्र आदि जो भी  शास्त्र श्रुति रूप में विद्यमान थे वे अशोक के 'हेतुवाद ' की बलि चढ़ गयी। महाभारत के कई खंड अशोक के बाद सम्पादित हुए।  महाभारत के वनपर्व 190 वे खंड में वर्णित है कि किस तरह अशोक के 'हेतुवाद'  प्रचार ने उन ब्राह्मणों को समाप्त किया जिनके मष्तिष्क में विभिन्न विज्ञान -शास्त्र सुरक्षित थे।  जिनके मष्तिष्क में विज्ञान व शास्त्र सुरक्षित थे उनको प्रताड़ित कर बौद्ध धर्मी बना दिया गया और उन मुनियों को शिष्य बनाने के सभी अवसर समाप्त कर दिए गए और विज्ञान -शास्त्र -कला की स्मृतियों -संहिताओं को सुरक्षित रखने वाले व उन्हें फिर आगे बढ़ाने वाले कोई न रहे।  जो भी ज्ञान था वह  अशोक के समय थम गया , अशोक काल व बाद में भी ज्ञान -विज्ञान में अन्वेषण करने हेतु सुविधा ही समाप्त कर दी गयी।  यह महाभारत के भीष्म मृत्यु खंड (इसका संपादन अशोक के बाद हुआ ) में उद्घृत भी है कि वृहस्पति के एक लाख श्लोक समाप्त कर दिए गए या खो गए।  याने वृहस्पति सिद्धांत के श्लोकों को कंठस्त करने के लिए जब शिष्य  मिले  ही नहीं होंगे तो वृहस्पति  विज्ञान शाखा ही समाप्त  हो गयी ।
             अशोक या उनके अनुचरों द्वारा हेतुवाद प्रचार की हठवादिता ने भारत वर्ष में जो भी विज्ञान अन्वेषित हुआ था उसका 80 प्रतिशत से अधिक  समाप्त कर दिया।  राज्य का संसाधन जब धर्म प्रसार में लग जाय तो भविष्य अन्धेरा ही होगा।  यदि हम ध्यान दें तो पाएंगे कि अशोक के समय या बाद में भारत में कृषि में , चिकित्सा , पशुपालन आदि विज्ञान में कोई उल्लेखनीय प्रगति अंग्रेजी शासन काल तक नहीं हुआ।  उसका कारण था श्रुतियों की समाप्ति।  जो भी चरक संहिता , व्याकरण , कौटिल्य का अर्थ शास्त्र , अनेक शास्त्र आदि रचे गए थे वे अशोक से पहले रचे (create ) गए थे और उनका संकलन -सम्पादन बाद में होता गया।  अशोक व उसके बाद रचना (Innovation and Practice ) तकरीबन समाप्त ही हो गए थे और विज्ञान शाखा ही समाप्त हो गयी। गुरुकुल समाप्ति का अर्थ है विचार उत्तपत्ति  , अन्वेषण , क्रियान्वतिकरण और परिणाम का प्रचार -प्रसार संस्कृति की समाप्ति।

                 उत्तराखडं  में स्थानीय भाषा समाप्ति से हानि

  इतिहास अपने को दोहराता है क्योंकि इतिहास से हम कुछ नहीं सीखते हैं।  अंग्रेजों ने उत्तराखंड में शिक्षा को जीवित किया किन्तु साथ में शिक्षा की हिंदी माध्यम ने स्थानीय भाषाओं को मृत प्रायः भी कर डाला।  यही कारण है कि कृषि , आयुर्विज्ञान आदि विषयक कथ्य (Phrases ) ही समाप्त हो गए।  इन कथ्यों में कई गंभीर सिद्धांत छुपे थे जॉब अब नहीं मिलते हैं।

         नारायण दत्त तिवारी का पर्यटन उद्यम योजनाएं और परवर्ती शासकों द्वारा निरंतरता का विनाश
   
       मेरी दृष्टि में नारायण दत्त तिवाड़ी एक दूरदृष्टि वाले राजनीतिज्ञ हैं जो उनकेउत्तराखंड  मुख्यमंत्री काल (2002 -2007 ) में बने पर्यटन योजनाओं में साफ़ दृष्टिगोचर होता है।  उनके काल में उत्तराखंड पर्यटन की योजनाओं की जो आधारशिला रखी गयीं और उन पर जो कार्य शुरू हुए और बाद के मुख्यमंत्रियों द्वारा स्वार्थी राजनीति के तहत अनुकरण न करने से वास्तव में पर्यटन उद्यम को सबसे अधिक नुक्सान हुआ।  पर्यटन उद्यम तभी फलता -फूलता है जब प्रशासनिक व राजनैतिक निरंतरता बनी रहे।  तिवाड़ी के बाद पर्यटन संबंधी  किसी मुख्यमंत्री की वह दूरदृष्टि थी ही नहीं कि उत्तराखंड पर्यटन को सही दिशा मिल सके।  फिर हर दो साल में मुख्यमंत्री बदलने से भी पर्यटन योजनाओं में निरंतरता में कमी आयी और आज भी उत्तराखंड में पर्यटन उद्यम  उस गति से नहीं विकसित हो रहा है जिस गति का उत्तराखंड पर्यटन हकदार है। 



Copyright @ Bhishma Kukreti  24 /2 //2018 



Tourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3, page 140- 200
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  Asoka broke continuity in science thinking , Loss in science thinking in Asoka time
  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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उत्तराखंड  में   बथुआ /बेथु   मसाला , औषधि उपयोग  इतिहास

   History, Origin, Introduction,  Uses  of Bathua    as   Spices ,  in Uttarakhand
 
उत्तराखंड  परिपेक्ष में वन वनस्पति  मसाले , औषधि  व अन्य   उपयोग और   इतिहास -  4                                         
 History, Origin, Introduction Uses  of    Wild Plant  Spices ,  Uttarakhand - 4                       
  उत्तराखंड में कृषि, मसाला ,  खान -पान -भोजन का इतिहास --  93
History of Agriculture , spices ,  Culinary , Gastronomy, Food, Recipes  in Uttarakhand -93

 आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व संस्कृति शास्त्री )
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Botanical Name -Chenopodium album
हिंदी नाम बथुआ
स्थानीय नाम - बेथू, बथुआ
संस्कृत नाम -वस्तुका:
नेपाल -बेथे
चीनी नाम -ताक
बथुआ एक गेहूं में पाये जाने वाला खर पतवार है।   बथुआ की दूसरी प्रजाति का वर्णन हिमालयी  चीन में 2500 -1900 BC में मिलता है. अत:  कह सकते हैं कि बथुआ उत्तराखंड में प्रागैतिहासिक काल से पैदा होता रहा है।  यूरोप में इसका अस्तित्व 800 BC में  था।  वैज्ञानिक बथुआ का जन्मस्थान यूरोप मानते हैं।  हिमालय की कई देसों में बथुवा की खेती भी होती है।  डा के.पी.  सिंह ने लिखा है कि बथुवे का जन्मस्थल पश्चिम एसिया है।  शायद बथुआ का कृषिकरण चीन व भारत -नेपाल याने मध्य हिमालय में शुरू हुआ। अनुमान है कि बथुवा के बीज चालीस साल तक ज़िंदा रह सकते हैं।
आयुर्वैदिक साहित्य जैसे  भेल संहिता (1650 AD ) में बथुवे का आयुवैदिक उपयोग का उल्लेख है (K.T Acharya , 1994, Indian Food)। बथुआ का वर्णन भावप्रकाश निघण्टु , राज निघण्टु , मदनपाल में दवाईओं हेतु हुआ है।
  समरंगना सूत्रधार में बथुआ का उपयोग मकान पोतने हेतु उल्लेख हुआ है।
साधारणतया बथुआ का पौधा तीन फीट तक ऊंचा होता है किन्तु 6 फीट ऊंचा बथुआ भी पाया जाता है।
प्राचीन काल में बथुआ के बीजों को अन्य अनाजों के साथ मिलाकर आटा बनाया जाता  था।

   बथुआ का औषधि उपयोग
बथुआ का पेट दर्द , गठिया , पेचिस , जले आदि में औषधि में उपयोग होता है।
 
      फसलों के साथ बथुवा के पौधे कीटनाशक का कार्य भी करते हैं।  कई कीड़े गेहूं को छोड़ बथुवा  पर लग जाते  हैं और गेंहूं कीड़ों की मार से बच जाते हैं।

      बथुआ का मसाले रूप (पितकुट या बेथकुट ) में उपयोग
 
    गढ़वाल में बथुआ सब्जी बनाने , आटा बनाने हेतु ही प्रयोग नहीं होता था अपितु मसला मिश्रण का एक अंग भी होता था। इस लेखक ने  पने गाँव में बथुआ को मसाले रूप में प्रयोग होते देखा है और उपयोग भी किय है । 
   बेथकुट या पितकुट बनाने के लिए बेथु के पूर्ण पकी मा बीजों के टहनी  उखाड़ कर सुखाया जाता है फिर जड़ तोड़कर मय बीज , टहनी को ओखली में कूटा जाता है। बहुत अधिक महीन नहीं कूटा जाता है।  फिर इस कूटे मसाले को नमक के साथ पीसकर चटनी बनाई जा सकती है।  बेथकुट या पितकुट को पळयो , झुळी में बहुत उपयोग होता था।  अन्य सब्जियों में विशेष स्वाद बढ़ाने हेतु सहायक मसाले के रूप में उपयोग होता था। बहुत बार वैद्य  किसी विशेष उपचार हेतु मरीज को भोजन में पितकुट या बेथकूट  उपयोग की सलाह भी देते थे। 
 
        सुरा /शराब , घांटीबनाने हेतु एक अवयव

  हिमाचल व हिमाचल से लगे उत्तराखंड में बथुआ बीजों का उपयोग सुरा , घाँटी शराब बनाने हेतु एक अवयव के रूप में उपयोग होता है। 





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