Author Topic: Articles By Bhisma Kukreti - श्री भीष्म कुकरेती जी के लेख  (Read 725227 times)

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
मलारी   (चमोली ) मे राशन दुकान भवन   की  निमदारी में काष्ठ कला अलंकरण , नक्कासी

गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली  , खोली  , मोरी , कोटि बनाल   ) काष्ठ कला अलंकरण अंकन, नक्काशी- 248 
  House Wood Carving Art  from  Malari, Niti , Chamoli 
(अलंकरण व कला पर केंद्रित ) 
 
 संकलन - भीष्म कुकरेती -
 
  मलारी , गमशाली के कुछ  भवनों के मिल्कियत की जानकारी न होने से इन्हें संख्या नाम दिया गया है जैसे प्रस्तुत मकान का नाम मलारी भवन संख्या 2 या सरकारी राशन गल्ले की दुकान  भवन I
राशन दुकान भवन दुखंड (तिभित्या-एक कमरा अन्दर व एक भर ) , व ढाईपुर शैली का है Iमलारी का   राशन दुकान भवन हर सूरत में  कुछ साल पहले ही सीमेंट से निर्मित हुआ या पुन: निर्मित हुआ या मरोम्मत हुआ हैI भवन के तल मंजिल में लकड़ी का बड़ा दरवाजा है जिस पर आयताकार आकृति कटान (ज्यामितीय कला /अलंकरण ) हुआ है I तल मंजिल के उपर  पहली मंजिल पर छज्जा बंधा है व छज्जे के उपर टिन की छत है जो इस भवन की अधुन्किता को प्रकट करता हैI .छत आधार कड़ी पर धातु की बेल बूटेदार खुदाई की लम्बी पट्टी  चिपकी हुयी है I मकान में  धातु की  कलायुक्त   पट्टी उपयोग भी नव युग मकान की सूचना दे देता है I
  छज्जे की आधार कड़ी के उपर सामने की ओर 9 व बगल की ओर (सीढ़ी की ओर ) एक स्तम्भ स्थापित हैं I सामने के 9 स्तम्भ आठ ख्वाळ/खोली बनाते हैंI  स्तम्भों के आधार में दो ढाई फिट ऊँचाई तक स्तम्भ के दोनों काष्ठ पट्टिका लगी हैं जो स्तम्भ को मोटा होने का आभास देते हैं I इस ऊँचाई के बाद स्तम्भ सीधे सपाट और छतकी कड़ी से मिल जाते हैं I स्तम्भ व छत की कड़ी में कोई कलाकृति उभर कर नही आई है I
  स्तम्भ आधार से एक फूट उपर तक एक रेलिंग कड़ी है जिसके ख्वाळ में नीचे लकड़ी के बेलन नुमा 9 आकृति स्थापित है याने  निमदारी  के जंगले में इस भाग में कुल 72 बेलन नुमा आकृति स्थापित हैंजो भवन की सुन्दरता वृद्धि अकरने में बहुत योगदान देते हैं I . बेलन नुमा आकृति का  निचला भाग उल्टी लौकी फल जैसा है जिसके नीचे छोड़ा व बड़ा ड्यूलहैं I बेलन नुमा आकृति के निह्क्ले भाग के उपर ड्यूल है जहाँ से सीधी लौकी आकार है व उपर  ड्यूल हैं I याने बेलन आकृति में दो  लौकी फल  विरोधी दिशा में है जो   हुश्न बढ़ाने का काम करते हैं . निचले रेलिंग की कड़ी के उपर धातु के जंगले हैं जिसके  एक फूट में उपर लकड़ी की रेलिंग है व इन कड़ीयों के बीच में धातु जाली है I स्तम्भ के बीच  ख्वाळओं  में नीचे लकड़ी की बेलननुमा आकृति व उपरी रेलिंग /जंगले में धातु जाली भवन सुन्दरता में चार चाँद लगाने में सफल हुए हैंI
  पहली मंजिल की खिडकियों व कमरे के दरवाजे में व ढाईपुर की खडकी में ज्यामितीय कटान ही हुआ है . ढाईपुर की छत . ढलवां है व छत के आधार नीचे लकड़ी की  सपाट पट्टी है उस पर कोई नक्कासी नही हुयी है .
    निष्कर्ष निकलता है कि मलारी (चमोली गढवाल ) में राशन दूकान भवन में ज्यामितीय कटान अलंकरण हुआ है व यही कटान मकान की सुन्दरता कायम रखने को सफल हुए हैं I बेलन आक्रति ने तो  आशियाना हुश्न (मकान की सुन्दरता ) बढ़ाने में  बहुत कामयाबी हासिल की है I गमशाली में भवन संख्या 3 या  पंच नाग भक्त की निमदारी की रेलिंग में 100 हुक्के की नै  आकृतियों ने ‘आशियाना –ए- हुश्न ‘ बढ़ाने में कामयाबी की तो मलारी के राशन दुकान भवन की निमदारी म की रेलिंग में 72बेलन नुमा  आकृतियों ने ‘ आशियाना –ए –हुश्न ‘ बढाई है I
 
सूचना व फोटो आभार:   
यह लेख  भवन  कला संबंधित  है न कि मिल्कियत  संबंधी  . मालिकाना   जानकारी  श्रुति से मिलती है अत:  वस्तु स्थिति में  अंतर   हो सकता है जिसके लिए  सूचना  दाता व  संकलन कर्ता  उत्तरदायी  नही हैं .
Copyright @ Bhishma Kukreti, 2020
गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली , मोरी , खोली,  कोटि बनाल  ) काष्ठ  कला अंकन , लकड़ी नक्काशी श्रंखला जारी   
   House Wood Carving Ornamentation from  Chamoli, Chamoli garhwal , Uttarakhand ;   House Wood Carving Ornamentation/ Art  from  Joshimath ,Chamoli garhwal , Uttarakhand ;  House Wood Carving Ornamentation from  Gairsain Chamoli garhwal , Uttarakhand ;     House Wood Carving Ornamentation from  Karnaprayag Chamoli garhwal , Uttarakhand ;   House Wood Carving Ornamentation from  Pokhari  Chamoli garhwal , Uttarakhand ;   कर्णप्रयाग में  भवन काष्ठ कला, नक्काशी ;  गपेश्वर में  भवन काष्ठ कला,नक्काशी ;  नीति,   घाटी में भवन काष्ठ  कला, नक्काशी  ; जोशीमठ में भवन काष्ठ कला, नक्काशी , पोखरी -गैरसैण  में भवन काष्ठ कला, नक्काशी श्रृंखला जारी  रहेगी

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1

        जुंडळ /जवार का  बनि -बनि  पारम्परिक उत्तराखंडी खाणा 
          (जवार के  पारम्परिक उत्तराखंडी व्यंजन )
                संकलन भीष्म कुकरेती
लाभ - गुलेटिन रहित ,रेशायुक्त /fibres , रक्त शक़्कर नियंत्रण ,  काफी  प्रोटीन मात्रा , लौह युक्त ,हड्डी हेतु लाभदायक , वजन कमकारी , कई लवण, खनिज व सूक्ष्मपोषतीक तत्वों की खांडि 

हिंदी नाम - जवार
अंग्रेजी नाम - ड्यूरा ,ग्रेट मिलेट /jowar
उत्तराखंडी नाम - जुंडळ
 १- रोट  अकेला
२- रळौ -मिसौ (मिश्रित )  रोट /रुटि / डोट /ढबड़ि रोटी /रोट
३- लुण्या   (नमकीन )   रोट  अकेला 
४-    लुण्या  रळौ -मिसौ (मिश्रित )  रोट /रुटि 
५- मिठु  रॉट /रुटि
६- मिठि   (मीठा ) रळौ -मिसौ (मिश्रित )  रोट /रुटि 
७ -  मिठि  लगड़ी  ( sweet Pan  cake )
-८  लुण्या  लगड़ी  अर /डोसा जनि
९ - मिश्रित ढुंगळ  ( आग म पत्थर म पकाण , जन  कड़क बन ) , कबि कबि अकेला जुंडळौ आटो ढुंगळ बि
१०- -  सत्तू
११ - जुंडळौ  सत्तू से लड्डू ,
१२- सत्तू से रुटि।  लगड़ी  आदि भी बणना छन
१३- दूध दगड़  आटो या सत्तू से लबसी
१४- सत्तू या आटु से हलवा
१५- आटो  से भरीं  रोट /प  दलभरा या सब्जी भरा पराठा
१६- गेंहू आटे  संग पूरी , स्वाळ
 १७- दळिया
 १८- जुंडळुं  दाण  दाळ  दगड़  खिचड़ी
 १९- झंग्वर -क्वाद   -बजरु  , दाळ आदि दगड़  गिंजड़ी
  २०- दूध दगड़ दाणों खीर या खाली गुड़ दगड़  खीर
२१- पळयो /कढ़ी  में बेसन की जगह जुंडळौ  आलण
२२- क्वलटण  (बिस्किट जन )
२३- खील
२४- खील से विभिन्न भोज्य पदार्थ
२५- आटो  तै इकहड़ो पकाओ तो  क्रैकर
२६- पंद्यर  भुजी तै  दड़ बड़ (लतपतो ) बणाणो  वास्ता आलण (बेसन का रिप्लेसमेंट )
२७- काचो जुंडळुं उमी /पोक  (tender fresh orgasm grains with  cub  are roasted   )
अब तो पिजा, केक  आदि बि
कुछ जगा देशी शराब बि

 Copyright@ Bhishma Kukreti, Mumbai, India, 2010


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
ढोल का कुमाऊं -गढ़वाल में प्रचलन कब शुरू हुआ होगा ?

आलेख : भीष्म कुकरेती

   ढोल भारत का अवनद्ध वाद्यों में एक महत्वपूर्ण वाद्य है। ढोल हमारे समाज में इतना घुल गया है किआप किसी भी पुस्तक को पढ़ें तो लिखा पायेंगे कि ढोल भारत का एक प्राचीन पोला -खाल वाद्य है। जैसे उत्तराखंडी कद्दू , मकई को पहाड़ों का परम्परागत भोजन समझते हैं। वास्तव में ढोल भारत में पन्द्रहवीं सदी में आया व दो शताब्दी में इतना प्रसिद्ध हो चला कि ढोल को प्राचीनतम वाद्य माना जाने लगा।
ढोल है तो डमरू , हुडकी , मृदंग की जाति का वाद्य किन्तु ढोल मृदंग या दुंदभि की बनावट व बजाने की रीती में बहुत अधिक अंतर है। ढोल का आकार एक फुट के व्यास  का होता है व मध्य व मुख भाग लगभग एक ही आकार के होते हैं। ढोल को एक तरफ से टेढ़ी लांकुड़ व दूसरे हिस्से को हाथ से बजाया जाता है जब कि दमाऊ को दो लांकुड़ों से बजाया जाता है।
ढोल का संदर्भ किसी भी प्राचीन भारतीय संगीत पुस्तकों में कहीं नहीं मिलता केवल 1800 सदी में रची पुस्तक संगीतसार में ढोल का पहली बार किसी भारतीय संगीत साहित्य में वर्णन हुआ है। इससे पहले आईने अकबरी में ही ढोल वर्णन मिलता है।

क्या सिंधु घाटी सभ्यता में ढोल था ?
सौम्य वाजपेयी तिवारी (हिंदुस्तान टाइम्स , 16 /8 /2016 ) में संगीत अन्वेषक शैल व्यास के हवाले से टिप्पणी करती हैं कि धातु उपकरण , घटम के अतिरिक्त कुछ ऐसे वाद्य यंत्र सिंधु घाटी समाज उपयोग करता था जो ढोल , ताशा , मंजीरा व गोंग जैसे। इससे सिद्ध होता है बल सिंधु घाटी सभ्यता में ढोल प्रयोग नहीं होता था।

वैदिक साहित्य में ढोल
वेदों में दुंदभि , भू दुंदभि घटम , तालव का उल्लेख हुआ है (चैतन्य कुंटे, स्वर गंगा फॉउंडेशन )

उपनिषद आदि में चरम थाप वाद्य यंत्र
उपनिषदों में कई वीणाओं का उल्लेख अधिक हुआ है चरम थाप वाद्य यंत्रों का उल्लेख शायद हुआ ही नहीं।

पुराणों में चरम थाप वाद्य यंत्र
पुराणों में मृदंग , पाणव , भृग , दारदुरा , अनाका , मुराजा का उल्लेख है किन्तु ढोल जैसा जो लान्कुड़ व हाथ की थाप से बजाया जाने वाले चरम वाद्य यंत्र का जिक्र पुराणों में नहीं मिलता (संदर्भ २ )
वायु पुराण में मरदाला , दुंदभि , डिंडिम उल्लेख है (, प्रेमलता शर्मा , इंडियन म्यूजिक पृष्ठ 26 )
मार्कण्डेय पुराण (9 वीं सदी ) में मृदंग , दरदुरा , दुंदभि , मृदंग , पानव का उल्लेख हुआ है किन्तु ढोल शब्द अनुपस्थित है।

महाकाव्यों , बौद्ध व जैन साहित्य में ढोल
महाकाव्यों , बौद्ध व जैन साहित्य में डमरू मर्दुक , दुंदभि डिंडिम , मृदंग का उल्लेख अवश्य मिलता है किन्तु ढोल शब्द नहीं मिलता। अजंता एलोरा , कोणार्क आदि मंदिरों , देवालयों में ढोल नहीं मिलता।
गुप्त कालीन तीसरी सदी रचित नाट्य शास्त्र में ढोल
भरत नाट्य शास्त्र में मृदंग , त्रिपुष्कर , दार्दुर , दुंदभि पानव , डफ्फ , जल्लारी का उल्लेख तो मिलता है किन्तु ढोल शब्द व इससे मिलता जुलता वाद्य यंत्र नदारद है।
तमिल साहित्य पुराणानुरू (100 -200 ई )
तमिल साहित्य में चरम थाप वाद्य यंत्रों को बड़ा सम्मान दिया गया है व इनको युद्ध वाद्य यन्यत्र , न्याय वाद्य यंत्र व बलि वाद्य यंत्र में विभाजित किया गया है। ढोल प्राचीन तमिल साहित्य में भी उल्लेखित नहीं है।
कालिदास साहित्य
कालिदास साहित्य में मृदंग पुष्कर , मरजाजा , मरदाला जैसे चरम थाप वाद्य यंत्रों का उल्लेख हुआ है।
( पुराण से कालिदास तक संदर्भ , प्रेमलता शर्मा , इंडियन म्यूजिक )

मध्य कालीन नारदकृत संगीत मकरंद में चर्म थाप वाद्य यंत्र

संगीत मकरंद में ढोल उल्लेख नहीं मिलता है

तेरहवीं सदी का संगीत रत्नाकर पुस्तक

संगीत रत्नाकर पुस्तक में मृदंग , दुंदभि , तुम्ब्की , घट , मर्दल , दार्दुल , हुड़का ( हुड़की ) कुडुका , सेलुका , ढक्का , डमरुक , रुन्जा का ही उल्लेख है (चैतन्य कुंटे )

सुलतान काल व ततपश्चात में वाद्य यंत्र
आमिर खुशरो ने दुहुल का उल्लेख किया है (इजाज इ खुसरवी ) और खुसरो को सितार व तबला का जनक भी माना जाता है।

भक्ति काल
दक्षिण व उत्तर दोनों क्षेत्रों के भक्ति कालीन साहित्य में मृदंग का ाहिक उल्लेख हुआ है। 15 वीं सदी के विजयनगर कालीन अरुणागिरि नाथ साहित्य में डिंडिम का उल्लेख हुआ है।
आईने अकबरी
आईने अकबरी में चर्म वाद्यों में नक्कारा /नगाड़ा , , ढोलक /डुहुल , पुखबाजा , तबला का उल्लेख मिलता है। (आईने अकबरी , वॉल 3 1894 एसियाटिक सोसिटी ऑफ बंगाल पृष्ठ 254 )
प्रथम बार भारतीय साहित्य में आईने अकबरी में ही आवज (जैसे ढोल ), दुहूल (ढोल समान ) , धेडा (छोटे आकार का ढोल ) का मिलता है ( दिलीप रंजन बरथाकार , 2003 , , द म्यूजिक ऐंड इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ नार्थ ईस्टर्न इण्डिया, मित्तल पब्लिकेशन दिल्ली , भारत पृष्ठ 31 ). आईने अकबरी में नगाड़ों द्वारा नौबत शब्द का प्रयोग हुआ है जो भारत में कई क्षेत्रों में प्रयोग होता है जैसे गढ़वाल व गजरात में दमाऊ से नौबत बजायी जाती है
इससे साफ़ जाहिर होता है बल ढोल (दुहुल DUHUL ) का बिगड़ा रूप है , तुलसीदास का प्रसिद्ध दोहा ढोल नारी ताड़न के अधिकारी भी कहीं न कहीं अकबर काल में ढोल की जानकारी देता है
खोजों के अनुसार duhul तुर्किस्तान , अर्मेनिया क्षेत्र का प्राचीनतम पारम्परिक चर्म थाप वाद्य है जो अपनी विशेषताओं के कारण ईरान में प्रसिद्ध हुआ और अकबर काल में भारत आया। चूँकि ढोल संगीत में ऊर्जा है व सोते हुए लुंज को भी नाचने को बाध्य कर लेता है तो यह बाद्य भारत में इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोक देव पूजाओं का हिस्सा बन बैठा।
जहां तक पर्वतीय उत्तराखंड में ढोल प्रवेश का प्रश्न है अभी तक इस विषय पर कोई वैज्ञानिक खोजों का कार्य शुरू नहीं हुआ है। इतिहासकार , संस्कृति विश्लेषक जिस प्रकार आलू , मकई , कद्दू को गढ़वाल -कुमाऊं का प्राचीन भोज्य पदार्थ मानकर चलते हैं वैसे ही ढोल को कुमाऊं -गढ़वाल का प्राचीनतम वाद्य लिख बैठते हैं।
इस लेखक के गणित अनुसार यदि ढोल उपयोग राज दरबार में प्रारम्भ हुआ होगा तो वह कुमाऊं दरबार में शुरू हुआ होगा। कुमाऊं राजाओं के अकबर से लेकर शाहजहां से अधिक अच्छे संबंध थे और कुमाऊं राजनेयिक गढ़वाली राजनैयिकों के बनिस्पत दिल्ली दरबार अधिक आते जाते थे तो संभवत: चंद राजा पहले पहल ढोल लाये होंगे. .चूँकि नौबत संस्कृति प्रचलित हुयी तो कहा जा सकता है बल ढोल दमाऊ पहले पहल राज दरबार में ही प्रचलित हुए होंगे। बड़ा मंगण /प्रशंसा जागर भी इसी ओर इंगित करते हैं बल ढोल वादन संस्कृति राज दरबार से ही प्रचलित हुयी होगी। इस लेखक के अनुमान से श्रीनगर में सुलेमान शिकोह के साथ ढोल का अधिक उपयोग हुआ होगा व सत्रहवीं सदी अंत में ही श्रीनगर राज दरबार में ढोल को स्थान मिला होगा।
यदि समाज ने ढोल अपनाया तो ढोल बिजनौर , हरिद्वार , बरेली, पीलीभीत से भाभर -तराई भाग में पहले प्रसिद्ध हुआ होगा और ततपश्चात पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित हुआ । अनुमान किया जा सकता है ढोल गढ़वाल -कुमाऊं में अठारहवीं सदी में प्रचलित हुआ व ब्रिटिश शासन में जब समृद्धि आयी तो थोकदारों ने ढोल वादकों को अधिक परिश्रय दिया। अर्थात ढोल का अधिक प्रचलन ब्रिटिश काल में ही हुआ। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में ढोल प्राचीन नहीं अपितु आधुनिक वाद्य ही है के समर्थन में एक तर्क यह भी है कि ढोल निर्माण गढ़वाली या कुमाउँनी नहीं करते थे और ब्रिटिश काल के अंत में भी नहीं। ब्रिटिश काल में श्रीनगर में भी ढोल व्यापार मुस्लिम व्यापारी करते थे ना कि गढ़वाली।
ढोल सागर को भी गढ़वाली बोली का साहित्य बताया जाता है जबकि ढोल सागर ब्रज भाषायी साहित्य है और उसमे गढ़वाली नाममात्र की है। इस दृष्टि से भी ढोल प्राचीन वाद्य नहीं कहा जा सकता है।

संदर्भ -
२- शोधगंगा inflinet.ac.in

Copyright @Bhishma Kukreti , Mumbai , October 2018

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
Talk with Prajamandal by Tehri Administration

History of Tehri King Narendra Shah -87
History of Tehri Kingdom (Tehri and Uttarkashi Garhwal) from 1815 –1948- 279 
  History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) – 1528
By: Bhishma Kukreti (History Student)
  Government did not allow the  registration of Prajamandal in the life of Shridev Suman. Jaynarayan Vyas the Secretary of All India Deshi rajya Lok Parishad wrote a letter to  Tehri King for providing recognition (Registration) Prajamandal of Tehri in 1944, June 9145, and in June 1946. By 1946, there was high awareness among citizens about citizens’ rights.  There was congress government tin United Province (2).
There was a political conference in Dehradun in June 1946. Jaynarayan Vyas met mmbers of Praja Mandal and he reached Narendra Nagar for discussing the matter with administration.  Jay Narayan Vyas met the Chief minister there and the Chief Minister assured him that the government could recognize Prajamandal by end of July.
References
1-Dabral S.P. Tehri Garhwal Rajya ka Itihas Bhag 2 (new edition), Veer Gatha Press, Dogadda, (1999) page 80
2- Karmabhumi 26 January 1956
 Copyright@ Bhishma Kukreti, 2020

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
A settlement between h Prajamandal and Tehri Kingdom Administration

History of Tehri King Narendra Shah -89
History of Tehri Kingdom (Tehri and Uttarkashi Garhwal) from 1815 –1948- 281 
  History of Uttarakhand (Garhwal, Kumaon and Haridwar) – 1530
By: Bhishma Kukreti (History Student)
 In August 1946, there had been talks between Vyas the secretary of Desi Rajya Loksamiti and Tehri administration.
 Vyas and Colonel  Pritisharan  Raturi met activists in  Tehri jail. Later on MLA doctor Kushla Nand Gairola, reached Tehri, Bhadari King Raja bajrang Bahdur singh MLC too reached Tehri and met activists in jail. Later on there was accord between Prajamandal and Tehri administration and the settlement was (2)-
There would not be a ban on the meetings and processions of Prajamandal.
The Pauni tuti tax (import and export duties were abolished for personal articles.
Government agreed to free political prisoners.
Government would take a decision to abolish the Registration act .
Government agreed for registration of Prajamandal.
Government would shortly settle the problems of land settlement procedures
The curt would not interfere in Meetings by Prajamandal and Prajamandal could use the Tricolour flag too. 
 Prajamandal opened an office in Tehri . (2) 
 
References
1-Dabral S.P. Tehri Garhwal Rajya ka Itihas Bhag 2 (new edition), Veer Gatha Press, Dogadda, (1999) page 80
2- Karmabhumi 1st September 1946
 Copyright@ Bhishma Kukreti, 2020

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
तोरी घास /टुंटक्या की  इतिहास व सब्जी व मसाला उपयोग

Recipe of Shepherd's Purse   (Capsella Bursa pastoris  )
 (पारम्परिक  उत्तराखंड भोजन श्रृंखला )

 संकलन - भीष्म कुकरेती

 उत्तराखंड नाम- तोरी  घास

 उत्तराखंड नाम -  टुंटक्या
नेपाली  नाम - चमसुरे झाड़
अन्य नाम - शेरशनी
जन्म स्थल - एशिया माइनर व यूरोप। 
स्वीडिश वनस्पति शास्त्री ने  सबसे पहले तोरी घास का 1792 में वर्णन किया।  विलियम कॉल्स ने भी तोरी  घास का वर्णन सन १६५७ में आडम   इन ईडन' में किया था।
आयुर्वेद व निघंटुओं में तोरी   घास का वर्णन नहीं मिलता है। 
   उत्तराखंड के वन सब्जियों के संदर्भ में  तोरी घास का नाम बहुत कम  सुना  जाता है किंतु पारम्परिक  वैद्यकी  में प्रयोग होता आ रहा है।  माहवारी आदि को नियमित करने या रक्तश्राव रोकने में काम आता है।  अन्य किस्म के रक्तश्राव रोकने , पीलिया ,
जे के तिवारी , राधाबल्लभ व पी तिवारी ने सूचना दी कि कोमलतम पौधा    हरी सब्जी जैसे ही भोजन   प्रयोग होता है।  वास्तव में   तोरी घास   सर्वथा  दुर्भिक्ष  का भोजन रहा है व सरसों जैसे तीखे स्वाद के कारण  जब तक हरी मिर्च का प्रवेश नहीं हुआ था तो  तोरी को  भोजन में तीखापन लाने हेतु  बीज ,  पत्तियों ,  डंठल  व जड़ों को मसाले रूप में प्रयोग होता था।  अब केवल  औषधि रूप में ही अधिक प्रयोग होता है। 
सूखी जड़ अदरक का विकल्प है।
बीजों व सूखे जड़ों /पत्तों  की चाय बनाकर दस्त रोग में औषधि उपयोग होता है। 
 मसाला उपयोग
 बीजों को सरसों के बीज जैसा उपयोग - तोरी  घास के बीजों को तड़का देने या  पीसकर मसाले रूप में प्रयोग होता था।  अब भी संभावना है।
  मूला /ककड़ी   सलाद हेतु   तोरी   घास  के बीज, सूखे पत्ते -जड़ों को     नमक के साथ पीसा भी जाता है   
सब्जी उपयोग -
 आम तौर पर तोरी  घास का अकेला सब्जी नहीं बनाई जाती अपितु साथ में बनाई जाती है।  प्याज के साथ अधिकतर तोरी घास   बनाई जाती है /थी।   तोरी  घास को मय जड़ खूब धोया जाता है व जड़ सहित काटकर अन्य पत्तियों की सब्जी के साथ मिलाकर सब्जी बनाई जाती है।  तोरी  घास से मिट्टी निकालना जरा कठिन होता है अतः  ध्यान से साफ़ करना आवश्यक है। 
प्याज , आलू , अरबी पकाने के तुरंत बाद तोरी  की कटी पत्तियों को मिलाया जाता है। 
 कई बार  पालक की सब्जी जैसे उबालकर पीसकर  पंद्यर /तरीदार साक बनाया जाता है। 
उत्तरी अलकनंदा घाटी में  पंद्यर साक /सूप में भी तोरी घास प्रयोग होता है। कपिलु  भी तोरी  घास से बनाया जाता है।   फाणु (  भिगोई पिसी  दाल का सूप )   में भी तोरी घास डाली जाती है।   
पेस्ट से साग बनाने की विधि
तोरी  घास को दण्डतल मय पत्तों के उबाल  कर  पीसकर पेस्ट बना या जाता है व फिर  प्याज आदि के  सात सब्जी बनाई जाती है जैसे  पालक पेस्ट . 

सर्वाधिकार 


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1

    पतंजलि  योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद       भाग -2
 
प्रमाणविपर्यविकल्पनिद्रास्मृतय: I6i
चित्त तै अस्थिर /विचलित करणवळ  (पांच) कारक छन – सै/सत्य ज्ञान , विपर्य (मिथ्या या अशुद्ध धारणा), विकल्प ( काल्पनिक विचार ) , निद्रा/सुपिन / सियीं चेतना/अचेतन मन  (Sub-Conscioousness ) , स्मृति /समळौण I ६I
प्रत्यक्षानुमानागमा:  प्रमाणनि I7 I
सत्य ज्ञान  सीधा , वास्तवकिता  से प्रमाणित हूंद  और अथवा प्राचीन विशेष ज्ञान ग्रन्थों से बि I ७ I
   विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्    I 8I
मिथ्या ज्ञान या अशुद्ध ज्ञान या भ्रम  को आधार असलियत हीन व अ -वास्तविक  हूंद I८ I
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प: I 9I
अशुद्ध धारणा वळ ज्ञान सत्त हीन अर काल्पनिक हूंद I 9I
अभावप्रत्ययाल्म्बना वृतिर्निद्रा  I 10 I
निद्रा म जु बि ज्ञान हूंद  उखम भौतिक/बाह्य ज्ञान  अनुपस्थित  रौंद  (१०)
सुपिन हीन नींद या अवचेतन मन वास्तव म  जड़ आंतरिक चेतना च जखम अस्तित्व अनुभव नि हूंद .
 
योग सूत्र अनुवाद बाकी अग्वाड़ी  भाग म


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
  पताजलि  योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद       भाग - 3

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
-
अनुभूतविषयासंप्रमोष : स्मृति: I  11 I
स्मृति (समळौण )  शब्द व अनुभव को पुनः स्मरण हूंद। 11 । 

अभ्यासवैराग्याभ्यां तत्रिरोध: I  12  ।   
-
हभ्यास  अर  निर्लिप्तता ही मार्च छन जु  चित्त विचलन स्माप्र कारल। ।  12 । 
-
तत्र स्थितौ   यत्नोsभ्यास:   ।  13  ।   
हभ्यास   अस्थिर  /विचलित चित्त तै स्थिर करणो  एक दृढ़ पर्यटन च।  13  । 
-
   स तु दीर्घकालनैरन्तर्य सत्कारासेवितो  दृढ़भूमि:  ।  14  ।   
   लम्बो , निरंतर , बिन बाधित , चौकस  हभ्यास  से  विचलित चित्त  स्थिर ह्वे  जांद ।  14   ।   
-
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्     ।  15  ।   
 त्याग ही निर्लिप्त हूणो  हभ्यास  च    ।  15  ।   
-
 अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
 पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   प्रथम    खंड   भाग -  4

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
-
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृण्यम्    - योगसूत्र :1 , 16
-
जब  पुरुष ज्ञान (आत्मज्ञान ) से प्रकृति क गुणों म तृष्णा को सर्वतः आभाव ह्वे  जांद त  वी 'परम् वैराग्य ' च।   योगसूत्र - 1 , 16
-
वितर्कविचारानन्दा स्मितारुपानुगमात् संप्रज्ञात: - योगसूत्र : 1 , 17   
-
वितर्क , विचार, आनंद  अर  अस्मिता  इन चारों क संबंध से युक्त चित्त वृत्ति  क समाधान 'सम्प्राज्ञ योग (समाधि ) च  योगसूत्र - 1 , 17
-
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व:  संस्कारशेषोsअन्य:   योगसूत्र : 1 , 18
-
परा वैराग्य क पुनः पुनः हभ्यास  करण  से जब मानसिक क्रिया शांत ह्वेका  बच जांदन त  वा समाधि 'असंप्रज्ञात समाधि ' हूंद।  योगसूत्र - 1 , 18   

-
भवप्रत्ययो  विदेहप्रकृतिलयानाम्   योगसूत्र : 1 , 19   
-
विदेह अर प्रकृतिलय  योगियूं को मथ्या योग 'भव प्रत्यय ' योग हूंद।  योगसूत्र - 1 , 19 
-
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतोषाम्  : योगसूत्र : 1 , 20
-
  विदेह , प्रकृतालयुं  से भिन्न  योग्युं तै श्रद्धा , वीर्य (ऊर्जा ) , स्मृति , समाधि  अर प्रज्ञा आदि  क्रमगत उपायों   से 'असम्प्रज्ञात समाधि' सिद्ध (प्राप्ति ) हूंद।       योगसूत्र - 1 , 20   
-
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
  योग सूत्र अनुवाद बाकी अग्वाड़ी  भाग म   


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
  पतंजलि   योग सूत्र : गढ़वाळि   अनुवाद   , प्रथम खंड    भाग - 4

अनुवादक -  भीष्म कुकरेती  (प्रबंध आचार्य )
s = आधा अ
-
तीब्रसंवेगानामासन्न:  । 21  ।
  जौंक  साधना गति तीब्र हूंद ऊं तैं  'निर्बीज समाधि ; शीघ्र सिद्ध हूंदी  ।ग. २१ ।   
मृदुमध्यधिमात्रत्वात् ततोsपि विशेष:  । 22 ।
साधना की मात्रा लघु , मध्य अर अर  उच्च गति म बि  भेद हूंद। अर  गति अंतर  से बि  निर्बीज समाधि' सिद्धि (मिलण) म अंतर ऐ  जांद  ।ग.२२।   . 
ईश्वरप्रणिधानाद्वा  ।23। 
यांको अतिरिक्त ,  चित्त तैं  ईश्वर पर  ध्यान लगैक अर  सम्पूर्ण समर्पण से बि  चित्त निरोध सिद्ध हूंद।   अथवा ईश्वर मा शत प्रतिशत ध्यान   व शरणागत से समाधि शीघ्र सिद्ध हूंद  ।ग. २३ ।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: ।24। 
जु दुःख , कर्म , कर्म फलों , अर कर्म संस्कारों से रहित /बिगळयूं  हो अर समस्त पुरुषों म उत्तम ह्वावो वी इ त 'ईश्वर' च।  ।ग. २४ ।   
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञजम्  ।25  ।
ईश्वर अतुलनीय ज्ञान बीज च। अथवा सब ज्ञान का जन्मदाता ईश्वर इ त
 च।  ।ग.२५ ।   
-
अनुवाद  सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती   
योग सूत्र अनुवाद शेष अग्वाड़ी  खंडोंम 


 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22