इस श्रृंखला में लिखने से पहले मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं स्वयं को इस योग्य नहीं समझता | किंतु 'मेरा पहाड़' और श्री मेहता ने मुझे दायित्व सौंपा है तो उसे यथाशक्ति पूरा करने का यत्न करूंगा | सबसे पहले मैं अपनी उस तुकबंदी के द्बारा 'मेरा पहाड़' का आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जिसकी प्रत्येक पंक्ति के पहले अक्षर से फॉरम का नाम बनता है और जिसे मैं पहले भी अन्यत्र पोस्ट कर चुका हूँ:-
मेरे मन की पीड़ा को कुछ हल्का करता
राहत देता मुझको अपनों से मिलवा कर
पन्कज, मेहता आदि बहुत से मित्र बने हैं
हाड़ तोड़ मेहनत से करते फॉरम बेहतर
आभार प्रकट करना इस लिए जरूरी है कि मैंने इन्टरनेट में हिन्दी लिखना पंकज मेहर जी की पोस्टों से ही सीखा है |
इस लेख के द्बारा मैं प्रवासियों की एक समस्या की चर्चा करना चाहता हूँ | वह है प्रवासियों का अपने अंचल के प्रति मोह | इस मोह को कभी कभी स्थानीय लोग पचा नहीं पाते | मुंबई में उत्तरभारतीयों के प्रति असहिष्णुता इसी अपच का परिणाम है (यद्यपि यह तुच्छ क्षेत्रीय राजनीति है) | मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि प्रवास पर रहते हुए भी हमें अपनी आंचलिक संस्कृति के प्रति सजग रहना चाहिए और आने वाली पीढ़ी,जिसका जीवंत संपर्क पहाड़ से नहीं है,को भी सजग करना चाहिए,ताकि कोई धोनी अपने को उत्तरांचली कहने से न कतराए | दुर्भाग्य से अपने व्यक्तिगत जीवन में मुझे कुछ पहाड़ी इस प्रवृति के मिले |
१९८५ में कुमाऊँ समाज भोपाल की स्मारिका "शकुनाखर" में प्रकाशन हेतु हमने दैनिक भास्कर के तत्कालीन सम्पादक श्री महेश श्रीवास्तव एवं स्वर्गीय मोहन उप्रेती के अग्रज डाक्टर धीरेन्द्र उप्रेती के विचार 'आंचलिकता बनाम राष्ट्रीयता ' के सन्दर्भ में जानना चाहे | उसी के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ :
महेश श्रीवास्तव कहते हैं:
"आंचलिकता और राष्ट्रीयता का विषय आजकल टकराहट की दृष्टि से देखा जाने लगा है |राजनीति में आन्चलिकता को ही क्षेत्रीयता शब्द की चौखट में रख कर घातक और खतरनाक निरूपित किया जा रहा है |इस निरूपण के पीछे भी राजनीति है और राजनीति ही क्षेत्रीयता में विषाणुओं का संचार करती है |
वैसे शाब्दिक और ध्वनिगत अर्थों को ग्रहण किया जाए तो आंचलिकता और क्षेत्रीयता में अन्तर स्पष्ट है | आंचलिकता के साथ कोमलता,सहजता और मिट्टी के साथ जुडे होने का जो अहसास है वह क्षेत्रीयता जैसे शब्दों में नहीं | क्षेत्रीयता में प्रेम तत्व उतने उदात्त और निःस्वार्थ भाव में प्रकट नहीं होता जितना आंचलिकता में |
क्षेत्रीयता के साथ हित-अहित, आग्रह-दुराग्रह,स्वार्थ और अंहकार जैसे तत्व भी जुड़े हैं | यही कारण है कि क्षेत्रीयता के ये ज्वलनशील तत्व राजनीति की माचिस से तत्काल सुलग उठते हैं | किंतु आंचलिकता की अनुभूति एक प्रकार का निर्विकार सम्मोहन है,निःस्वार्थ लगाव है,एक प्रकार की गीली मिट्टी है, जो सुलगना नहीं जानती | अतः क्षेत्रीय भावना शीघ्र ही राष्ट्रीय भावना के विरुद्ध जा सकती है, किंतु आंचलिक भावना नहीं |
जैसे कोई व्यक्ति सम्पूर्ण समाज का हो कर भी यह नहीं कह सकता कि वह अपने माता पिता से अलग है वैसे ही राष्ट्रीयता की बात करने वाला व्यक्ति भी आंचलिकता से पृथक नहीं किया जा सकता | वास्तविकता तो यह है कि आंचलिकता की पगडंडी से हो कर ही व्यक्ति राष्ट्रीयता के राजमार्ग पर पहुंचता है |"
इसी बात को पर्वतीय प्रवासियों के सन्दर्भ में डाक्टर धीरेन्द्र उप्रेती ने कुछ इस प्रकार कहा:
"क्या ये सम्भव है कि वे उन बिम्ब-प्रतिबिम्बों को भूल जाएँ जो पर्वतीय क्षेत्रों की भौतिक,प्राकृतिक अथवा सामाजिक परिवेश से पैदा होते हैं? जिन मूर्त और अमूर्त बिम्ब-प्रतिबिम्बों को उन्होंने जिया है अथवा अनुभव किया है वे उनके व्यक्तित्व का अंग बन गए हैं |आधुनिकता के नाम पर नकारना क्या उनके व्यक्तित्व को सीमित-प्राणहीन नहीं बना देगा?
हिमालय की ऊंचाइयों,विशालता, सौन्दर्य को जिसने अनुभव किया है उसे अपने व्यक्तित्व में कभी न कभी सुखद अनुभूति अवश्य ही होती होगी, विशेषकर पर्वतीय जनों को |
प्रश्न यह है कि प्रवासी पर्वतीय अपने अंचल से दूर कार्यरत होते हुए भी क्या पर्वतीय क्षेत्रों के प्राकृतिक तथा सामाजिक परिवेश,जनमानस से जुड़े रह सकते हैं ? सामान्यतया यह सम्भव नहीं लगता है | पर जिस परिवेश में वे कार्यरत रहे हैं उससे जुड़े रहने के साथ-साथ यदि वे अपने पुरुखों की भूमि,परम्परा,वर्तमान में होने वाले परिवर्तनों और भविष्य की संभावनाओं के प्रति सजग रहें तो उन्हें अपने वर्तमान कार्यक्षेत्र में भी अधिक समझ का अनुभव होगा क्योंकि स्थान,समय की भिन्नताओं के होते हुए भी अधिकांश नैसर्गिक एवं सामजिक मूल्यों में एकरूपता मिलती है |
प्रवासी पर्वतीयों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी स्थानों-पदों पर कार्यरत है | इस बुद्धिजीवी वर्ग ने कला, साहित्य, विज्ञान, शिक्षा,प्रशासन आदि क्षेत्रों में अनुभव अर्जित किया है | अपने अंचल की सामयिक गतिविधियों से दूर रहने के बावजूद यह सम्भव है और वांछनीय भी कि उनकी क्षमताओं,अनुभवों का लाभ पर्वतीय अंचलों के विकास में हो सके | यह तभी सम्भव है जब यह वर्ग भावनात्मक स्तर पर अपने को पर्वतीय अंचल से जुड़ा हुआ महसूस करे | बौद्धिक स्तर पर पर्वतीय अंचलों की वर्तमान समस्याओं का विवेचन, भविष्य में विकास की दिशा और संभावनाओं का विश्लेषण इस वर्ग के सहयोग से किया जा सकता है | इस पारस्परिक सहयोग से उन दूरियों को भी कम किया जा सकता है जो पर्वतीय अंचल में कार्यरत और प्रवासी पर्वतीयों के बीच बौद्धिक स्तर में भी मालूम पड़ती है |इस वर्ग का भी दायित्व है कि अपनी भावी पीढ़ी को अपने पुरखों की भूमि,समाज से जुड़े रहने की आकांक्षा, ललक धरोहर में दे जाए |"
सारांश यह कि प्रवासी पर्वतीयों को अपने अंचल की संस्कृति,परिवेश और समस्याओं से भी अवगत होना चाहिए तथा आने वाली पीढ़ी को भी अवगत कराना चाहिए | इतना ही नहीं प्रवास में रहते हुए भी वह अपने अंचल-विशेष के लिए क्या कर सकता है-यह विचारना चाहिए | मैंने सुना है कि विदेशों में रहने वाले कुछ पर्वतीय युवा अपने मूल ग्राम के उत्थान हेतु प्रयत्नशील हैं |यह एक अच्छी शुरुआत है |
लेकिन समस्या का समाधान कुछ और है -पलायन रोकना | आज के वैश्वीकरण के युग में
बेहतर भविष्य के लिए अंचल से बाहर जाना मैं बुरा नहीं समझता लेकिन पहाडों में मुख्यतः उदर-पूर्ति के लिए ही पलायन हो रहा है, जो अत्यन्त चिंताजनक है | चारु तिवारी जी ने अपने लेख में इस ओर इंगित किया है | इस प्रकार का पलायन रोकना मुख्यतः राज्य सरकार की जिम्मेदारी है | आज भी पहाडों में रोजगार के समुचित साधन नहीं हैं |
संभवतः उत्तराखंड बन जाने के बाद भी राज्य सरकार ने रोजगार के साधन बढ़ाने के लिए कुछ विशेष नहीं किया | मेरे विचार में राज्य ने पर्यटन को बढावा देने के लिए विशेष कार्य योजना बनानी चाहिए| राज्य में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं | पाताल भुवनेश्वर जैसे अद्भुत स्थान के बारे में उत्तराखंडियों के अलावा गिने-चुने लोगों ने ही सुना होगा | राज्य के सैकड़ों पर्यटन स्थलों को पर्यटकों हेतु सुगम्य और सुविधाजनक बनाना और उसका प्रचार करना राज्य का उत्तरदायित्व है | पर्यटन बढ़ने से निश्चित रूप से रोजगार के अवसर भी बढेंगे |