Author Topic: Articles By Hem Pandey - हेम पाण्डेय जी के लेख  (Read 19897 times)

पंकज सिंह महर

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आपकी कहानियों से काफी कुछ सीखने और सोचने को मिला...........शब्दों में वर्णन मेरे लिये संभव नहीं है।  मेरा पहाड़, दो रुप पर टिप्पणी देने का मन कर रहा है...पहला वाला रुप वाकई अजीब सा है, स्वार्थ के लिये जीना और अपने आप में ही रहना भी लोग अब सीख रहे हैं, जिससे समाज अवसान की ओर ही जा रहा है..........दूसरा जो पहलू आपने दिया वह हम लोगों का निश्छल और निष्कपट चेहरा है। इस बार की पहाड़ यात्रा में एक महिला मिली जो नितान्त अपरिचित थी, उसने मेरे पिताजी, दादाजी तक के बारे में पूछा, मेरी ससुराल कहां है, मैं क्या काम करता हूं, कितने बच्चे हैं..वगैरा...लेकिन उन्होंने सिर्फ औपचारिक तौर पर सामान्यतः यह पूछा था। तो यह भी पहलू है कि नितान्त अपरिचित से भी पूछा जाता है "को भया ला तुम, कै गौ का भया" कैका च्याला भया" घर में को-को छ्न "कतुक नान्तिन छ्न, कि काम करछा, खेती-बाड़ी...धिनाली- पानी कि छ"।

लेकिन कुछ लोग वैसे भी हैं, समाज बदल रहा है.....आपकी लेखनी से और लेखों की प्रतीक्षा रहेगी।

हेम पन्त

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हेम जी ने ’देबिया’ के माध्यम से ऐसे आदर्श चरित्र को दर्शाया है जिसकी हमारे समाज को और देश को भी सख्त जरूरत है. बहुराष्ट्रीयकरण के इस दौर में संस्कृतियां, रीति-रिवाज और बोली-भाषा के अस्तित्व को भारी खतरा है. यह खतरा हमारे जैसे समाज के लिये अधिक व्यापक है, क्योंकि हम एक छोटे से इलाके से आते हैं और पलायन की समस्या से सदियों से जूझ रहे हैं.

अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज और बोली-भाषा बचाने के लिये हम कागजों पर चाहे कितना ही लिख डालें लेकिन यदि अगली पीढी में अपने समाज के प्रति श्रद्धा का भाव जागृत नहीं कर पाये तो सब व्यर्थ है. काश पहाङ से निकला हर व्यक्ति ऊंची गद्दी और मोटी पगार की गर्मी के बीच ’देबिया’ की तरह ही अपने संस्कार और बोली भाषा को बचा कर रख पाता और उसे अपनी अगली पीढी को ससम्मान हस्तांतरित कर पाता.

hem

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यह लेख मैंने अपने ब्लॉग http://www.shakunaakhar.blogspot.com/ में पोस्ट किया है | यहाँ इसलिए दे रहा हूँ कि मेरा पहाड़ के विजिटर भी इस उत्तराखंडी माँ और बच्ची के बारे में जान सकें |   


                                       माँ को नमन




भोपाल में रुचिका नाम की १२ साल की एक बच्ची है जो सामान्य बुद्धि ले कर नहीं जन्मी थी|वह ऑटिज्म  से पीड़ित पाई गयी | जन्म के समय शारीरिक रूप से वह पूर्णत: सामान्य थी, किंतु ढाई - तीन साल बाद लगने लगा कि वह सामान्य बुद्धि की नहीं है | वह आवश्यकता से अधिक चपल और सक्रिय थी | पल दो पल के लिए भी स्थिर या निष्क्रिय रहना उसके लिए असह्य था | माता - पिता को इस बात का  भान भी नहीं था कि बच्ची की  अत्यधिक चंचलता किसी रोग का कारण हो सकता है | जब उन्होंने पाया कि बच्ची किसी भी एक कार्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती तो उन्होंने चिकित्सकों से संपर्क साधा | 

पिता शरद पांडे और माँ सुमनलता  ने हरसम्भव यत्न किया कि उनकी बच्ची सामान्य बच्चों का जीवन जिए| पिता की कार्यालयीन व्यस्तता और फ़िर मुंबई पोस्टिंग हो जाने के कारण रुचिका का पूरा दायित्व माँ पर आ पड़ा | माँ ने बच्ची की परवरिश को पूजा मान लिया और अपने दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहन करते हुए उस असामान्य बच्ची को इस योग्य बना दिया कि वह हिन्दी ,अंग्रेजी,गणित आदि सभी विषयों का स्कूली ज्ञान तो प्राप्त कर ही रही है साथ ही गायन की एक अद्भुत प्रतिभा लेकर संगीत के क्षेत्र में अपना कौशल दिखा रही है | उसकी प्रतिभा से चमत्कृत हो कर ही दैनिक भास्कर के भोपाल संस्करण के साथ प्रकाशित होने वाले डी बी स्टार ने बहुत बड़ा कवरेज़ दे कर उसकी इस प्रतिभा से पाठकों को रूबरू कराया है | मैं भी रुचिका की प्रतिभा और संगीत में उसकी पकड़ का कायल हूँ , किंतु उसकी योग्यता से अधिक महत्त्व उसकी माँ के त्याग को देते हुए  नमन करता हूँ उस माँ को जिसने उस असामान्य बच्ची को इस योग्य बना दिया |

 समाज में असामान्य बुद्धि या असामान्य शारीरिक बनावट के साथ हजारों बच्चे पैदा होते हैं और उनके माँ-बाप यथा सम्भव उनका उपचार भी करवाते हैं | लेकिन जिस प्रकार इस माँ ने अपने जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य बच्ची की उचित परवरिश को बना कर अपने सारे व्यक्तिगत और सामाजिक दायित्वों को गौण बना दिया वह अनुकरणीय है |   

प्रारंभ में बच्ची को अनेक मनोचिकित्सकों को दिखाया गया | उन्होंने बच्ची को हायपरएक्टिव पाया और सलाह दी कि बच्ची को चौबीसों घंटे व्यस्त रखने की आवश्यकता है | माँ ने इस राय को सर माथे लिया | आगे चल कर  चिकित्सकों ने कुछ दवाएं देने की राय दी | माँ ने देखा कि इस प्रकार के बच्चे जो कुछ वर्षों से दवाओं का सेवन कर रहे हैं, अत्यन्त आक्रामक हो गए हैं | माँ ने बच्ची को दवाओं का सेवन न करने देने और केवल प्रशिक्षण पर ही निर्भर रहने का निश्चय किया |   

 प्राय: देखा गया है कि इस प्रकार के बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों को किसी प्रशिक्षण गृह में भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं |  लेकिन इस माँ ने प्रशिक्षण गृह में पल रहे बच्चों के आचरण का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला कि केवल प्रशिक्षण गृह में भेज देना समस्या का समाधान नहीं है अपितु बच्ची की चौबीसों घंटे निगरानी आवश्यक है |

बच्ची को लेकर माँ ने स्कूलों के चक्कर काटे | कुछ ने लेने से मना कर दिया, कुछ ने फीस लेकर एडमिशन दिया और हायपरएक्टिव बताकर निकाल दिया | अंत में एक स्कूल ने सहानुभूति दिखाई | उस स्कूल में माँ को बच्ची के साथ ही क्लास में बैठने की अनुमति दी गयी ताकि बच्ची को नियंत्रण में रखा जा सके | यह क्रम तीन वर्षों तक चला | 

इसी बीच बच्ची की गायन प्रतिभा और संगीत की उसकी समझ का पता चला | महसूस किया गया कि बच्ची का संगीत के प्रति लगाव ईश्वर प्रदत्त है | बस क्या था - माँ ने उसकी इस प्रतिभा को निखारने का निश्चय किया | जाने माने संगीत शिक्षकों से संपर्क साधा | बच्ची को लेकर माँ स्कूल जाती | उसके बाद तीन अलग अलग दिशाओं में अलग अलग शिक्षकों के पास जा कर बच्ची को संगीत का अभ्यास करवाती | अंतत: बच्ची की संगीत के प्रति रूचि बढ़ती ही गयी | यही नहीं संगीत के साथ साथ अब पढ़ाई में भी उसकी रूचि बढ़ने लगी |   

 इस सारी भाग दौड़ में माँ को अपने व्यक्तिगत और सामाजिक दायित्वों से मुँह मोड़ना पड़ा| माँ योग प्रशिक्षक थी| उस कार्य को तिलांजलि दी | दैनिक पूजा पाठ भी यदि नियमित न हो पाई तो बच्ची की सेवा को ही पूजा मान लिया -
ऐ खुदा मेरी बख्श दे खता
फूल पूजा के तुझ पे चढ़ा न सका
हाथ बन्दों की खिदमत में मशगूल थे
हाथ बंदगी के लिए उठा न सका 
परिचितों, रिश्तेदारों के यहाँ आना जाना, उनके सुख - दुःख के कार्यक्रमों में शामिल होना छोड़ना पड़ा और उनकी नाराज़गी झेलनी पड़ी |     

कुल मिला कर माँ ने सब कुछ भूल कर केवल बच्ची को सामान्य बनाने के लिए अपना जीवन होम कर दिया और उसी का फल है कि बारह साल पहले जन्मी एक असामान्य बच्ची सामान्य लोगों को पीछे छोड़ कर संगीत - क्षितिज पर उभर रही है | वह ध्रुपद का प्रशिक्षण ले रही है | आठ भाषाओं में गा सकती है | उसकी प्रतिभा से प्रभावित हो विकलांगों के लिए काम करने वाले दिल्ली के एक एन. जी. ओ. ने उसके गानों का एल्बम बनाया है जो तीन दिसम्बर को रिलीज होगा |   

यह सबक है उन माता - पिताओं के लिए जिनकी संतानें किसी प्रकार की असामान्यता से ग्रसित हैं | यदि वे इस प्रकार की संतान के लिए स्वयं के जीवन को उत्सर्ग करने के लिए तैयार हैं तो संतान का भविष्य सुधर सकता है |       

hem

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कहानी

(यह कहानी भोपाल गैस त्रासदी पर आधारित है. यह त्रासदी २-३ दिसम्बर १९८४  की दरम्यानी रात में घटित हुई थी.कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं.)


मुआवजा

हरी सिंह जितनी गहरी नींद सोता था,उसकी पत्नी देबुली की नींद उससे अधिक गहरी होती थी.दिसम्बर के  ठण्ड की उस रात दोनों ही निश्चिंत हो गहरी नीद में थे . पास ही भांजा इंदर भी उसी बेफिक्री से सो रहा था .पाँच दिन पहले ही आया था इंदर अपने गाँव काफलीगैर से . हरी सिंह को आशा थी कि वह इंदर को कहीं न कहीं नौकरी से चिपका देने में सफल हो जायेगा .अनाथ इंदर की अपने गाँव में अपने ही चाचा के यहाँ दुर्गत हो रही थी . इसी लिए उसने इंदर को अपने पास भोपाल बुला लिया था .   

इंदर जीवन में पहली बार अपने गाँव से बाहर आया था .आश्चर्य-विस्फरित थे उसके नेत्र एक नयी दुनिया देख कर .मात्र  दो पटरियों पर इतनी बड़ी रेलगाडी को चलते देखना एक अचम्भा था . मीलों लंबे खेत भी उसने पहली बार देखे थे . वह मनसूबे बनाने लगा था - जब गाँव लौटेगा तो अपने दोस्त रमुआ और शेरुआ से किस प्रकार अपने अनुभव बांटेगा .   

इंदर को वर्षों बाद देख कर हरी सिंह खुश ही हुआ था. हरी सिंह की घरवाली देबुली अलबत्ता मन में विचार करने लगी थी कि अब इंदर का भार हम पर आ गया क्योंकि इंदर का छोटा मामा तो गाँव की छोटी सी खेती और छोटी - मोटी मजदूरी पर निर्भर था और कमाई से ज्यादा पी जाता था . उससे इंदर का दायित्व संभालने की अपेक्षा करना मूर्खता थी .           

इन पाँच दिनों में इंदर ने भोपाल के तीन स्थान देख पाये थे - मामी के साथ गुफा मन्दिर, पड़ोसी बचे नाथ के लड़के सुरेन्द्र के साथ बड़ा तालाब और खड़क सिंह के साथ यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री.खड़क सिंह यूनियन कार्बाइड में ड्रायवर था और उसने इंदर को फैक्ट्री में डेली वेजेज में लगाने का आश्वासन दे दिया था. फैक्ट्री देखने के बाद इंदर के मन में अजीब सी गुदगुदी हुई थी.वह सोचने लगा नौकरी में लगने के बाद वह जल्दी ही छुट्टी लेकर अपने गाँव जायेगा और रमुआ और शेरुआ को दिखा देगा कि वह क्या से क्या हो गया है. चाचा - चाची यद्यपि उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे, लेकिन गाँव जाने की कल्पना में वह उनके प्रति सारी दुर्भावना भुला चुका था और कका के लिए कुरता - पायजामा और चाची के लिए लाल फूलों के प्रिंट वाली साड़ी ले जाने के मनसूबे बनाने लगा था. लेकिन कका की छोटी लडकी रूपा के लिए वह क्या ले जायेगा - यह निश्चय नहीं कर पा रहा था.उस रात यही सब सोचते वह सोया था और रात भर सपने में भी वह कभी अपने को कार्बाइड की बड़ी - बड़ी टंकियों के पास खडा पाता, कभी . ट्रेन में साफ़ सुथरे पैंट - कमीज पहने आंखों में धूप का चश्मा लगाए वापस गाँव जाता हुआ और कभी गाँव में रमुआ - शेरुआ के बीच अपने अनुभवों की डींग हांकता.

रात के डेढ़ - दो बजे, जब इंदर गहरी नींद में सो रहा था और सोते हुए मुस्कुरा रहा था (शायद वह यूनियन कार्बाइड में अपनी नौकरी लग जाने पर मिलने वाली खुशी के सपने देख रहा था ) ,हरी सिंह की नींद दरवाजे में पड़ी जोरदार थापों और बचे नाथ की आवाज़ - हरदा ,अबे हरदा उठ ; बोजी,ओ बोजी की आवाज़ से बमुश्किल टूटी.उसने बेखबर सोयी देबुली को जगा कर सचेत किया और लाइट जला कर दरवाजा खोलने को बढ़ा.'बचे नाथ की बीबी को पीड़ उठने लगी है शायद ' हरी सिंह ने सोचा. उसे नौवां महीना चल रहा था.
दरवाजा खोलने पर पता चला बचे नाथ के साथ छोटेलाल भी खडा था . 'जल्दी से अपना सिलेंडर चैक कर' बचे नाथ बिना किसी भूमिका के खांसते खांसते हड़बड़ाये स्वर में बोला.दरवाजा खोलते ही गैस का एक भभका सा हरी  सिंह ने भी महसूस किया.गैस लीकेज की आशंका से मन ही मन देबुली को गाली देते हुए वह गैस सिलेंडर की ओर बढ़ा. सिलेंडर ऑफ़ था.चूल्हे की नॉब भी बंद थी.उसने राहत की साँस ली.'यार बचदा गैस तो बंद है लेकिन स्साली बास आ रही है.'वह बोला. अब तक छोटे लाल और बचे नाथ कालोनी के सभी क्वार्टरों के सिलेंडर चैक करा चुके थे.उनकी आँखों से बेतहाशा पानी आ रहा था और जलन हो रही थी.तभी सायरन की तेज आवाज सुनाई दी. 'ओ हो यूनियन कार्बाइड में फ़िर आग लग गयी होगी.'छोटेलाल ने कहा.पहले भी वहाँ एक - दो दुर्घटनाएं हो चुकी थीं.कोई तेजाब का टैंक जल गया होगा उसी की गैस फ़ैल गयी है- हरी सिंह ने अनुमान लगाया. इसी बीच आस पास सड़क पर दौड़ने-भागने-खाँसने की आवाजें आने लगीं. बहुत से लोग शायद सड़क पर निकल आए थे. छोटेलाल खाँसते खाँसते अपने क्वार्टर की तरफ बढ़ा.देबुली ने बचे नाथ और हरी सिंह को भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर लिया.दरवाजा खोलने से गैस का तीखापन कमरे में घुस आया था और बचे नाथ,हरी सिंह,देबुली सभी दम घुटा सा महसूस करने लगे. इंदर भी उठ चुका था. खाँस खाँस कर उसके बुरे हाल थे. आख़िर उल्टी हो जाने पर ही उसे राहत मिली. उस ठण्ड में हरी सिंह ने पंखा फुल पर चला दिया. बचे नाथ और हरी सिंह किन्कर्तव्यविमूढ़ से मंत्रणा कर रहे थे - बाहर जाएँ या न जाएँ. कहीं कमरे में ही दम न घुट जाए. अंत में दोनों ने तय किया कि बाहर जाने से बेहतर भगवान भरोसे रह कर बच्चों के साथ अपने अपने क्वार्टरों में ही रहा जाए. बचे नाथ ने अपने क्वार्टर जाना चाहा. हरी सिंह ने बचे नाथ के लिए दरवाजा खोला तो इस बार गैस का भभका कम मालूम पड़ा. थोड़ी देर में बाहर कुछ लोगों की चर्चा से आभास हुआ कि गैस का असर कम हो चुका है.हरी सिंह ने खिड़की - दरवाज़े खोल दिए. दिसम्बर की उस ठण्ड की रात में उन्हें हवा के झोंकों और फुल पर चल रहे पंखे से राहत महसूस हुई.

दूसरे दिन सुबह बचे नाथ ने ख़बर दी कि एक बुढ़िया रात के हादसे में मरी है. हरी सिंह ने अनुमान लगाया - एक की ख़बर है, पाँच - सात और भी मरे होंगे. कालोनी के सभी लोग इकठ्ठा हो रात की ही चर्चा कर अपने अपने अनुभव बता रहे थे. कुछ ही देर में जहांगीराबाद से गुमानीराम, श्यामला हिल से गणेशी लाल और टी टी नगर से जोशी जी आदि सभी आ आ कर हरी सिंह की कुशल क्षेम ले गए. इन्हीं लोगों से मालूम पड़ा कि पाँच - सात सौ से कम आदमी नहीं मरे.हमीदिया अस्पताल में लाशों के ढेर और मरीजों की भीड़ लगी है. छोला में रहने वाले टीकाराम जी  का पूरा परिवार भारती है. इंदर भी यह सब सुन रहा था. उसे दुःख था तो केवल इस बात का कि अब फेक्ट्री में शायद उसकी नौकरी न लग पाये.'स्साली किस्मत ही ऐसी है'-उसने सोचा.

बचे नाथ और हरी सिंह दोनों ही हमीदिया अस्पताल की ओर चल पड़े. सोचा टीकारामजी के परिवार की कुशल ले आयें.अस्पताल में ऐसा लग रहा था जैसे बागेश्वर के उत्तरायणी का मेला हो.नीचे सड़क तक टेंट लगे थे और आंखों में दवा डाली जा रही थी.प्रत्येक टेंट में मरीजों की भयंकर भीड़ थी.पैदल,किसी का सहारा लिए, ताँगे में,मेटाडोर में भरकर और अन्य विभिन्न साधनों से गैस से बेहाल हुए लोग लाये जा रहे थे. वार्डों के भीतर पलंग पर और जमीन पर तो मरीज भरे ही थे,बाहर खुले में भी बेसुध कराह रहे लोगों  की भरमार थी. कईयों को देख कर तो लग रहा था - अब मरे तब मरे. कुछ लोग लाश घर की ओर से आ रहे थे. उनमें से एक बोला-सात सौ तिरपन. रात कितनी बड़ी दुर्घटना हो गयी इसका अंदाजा बचे नाथ और हरी सिंह को अब हो रहा था. टीका राम जी के परिवार को इन हजारों की भीड़ में ढूंढ पाना असंभव था.निराश हो दोनों लौट आए. लौटने पर सबसे पहले दोनों के ही दिमाग में जो बात सबसे पहले आयी वह थी अपने अपने गाँव सूचना देने की. दोनों ही तार घर की ओर बढे.वहां जो भीड़ थी उसमें चार घंटे तक नंबर आने की कोई संभावना नहीं थी.चलो हमीदिया रोड के तारघर से तार कर लेंगे – उन्होंने सोचा.वहाँ पहुँचने पर भी भीड़ का वही आलम था. फ़िर भी दोनों ही लाइन में लग कर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे. अचानक कुछ लोग भागते नजर आए.गैस फ़िर लीक हो गयी - कोई बोला.तारघर की सारी भीड़ और तार बाबू भी भागने वालों में शामिल हो गए. बचे नाथ और हरी सिंह भी भागने लगे.दोनों ही अपने अपने बीबी बच्चों की चिंता से उद्विग्न हुए जा रहे थे.भागते हुए जब तक घर पहुंचे, दोनों ने ही अपने अपने घरों पर ताले लटके देखे.आस पास के सारे घर सूने थे. कहाँ जाएँ परिजनों को ढूँढने वे ? हार कर दोनों हरी सिंह के घर के बंद दरवाजे पर पीठ टिका कर बैठ गए. दोनों ही परेशान हो उठे थे और शंका-कुशंका से घिरे थे. इधर लाउड स्पीकर से घोषणा की जाने लगी थी -'घबराएं नहीं, निश्चिंत रहें, अपने-अपने घरों को वापस जाएँ.अब किसी प्रकार का गैस रिसाव नहीं हुआ है.   

वास्तव में फ़िर से गैस फैलने की अफवाह फ़ैल गयी थी और रात की घटना से भयभीत लोग अपने अपने घर छोड़ भाग उठे थे.कुछ देर बाद लोग अपने घरों को लौटने लगे. हरी सिंह और बचे नाथ का परिवार भी लौट आया था.इंदर खासा घबरा गया था. पहाडों की शांत और बेफिक्र जिन्दगी जीने वाला वह किशोर पहली बार शहर आया था और आते ही उसे ऐसा कटु अनुभव हुआ कि वह बुरी तरह विचलित हो गया.

शहर का माहौल उन दिनों असमंजसपूर्ण चल रहा था.हादसे में मरने वालों की संख्या रेडियो जहाँ हजार - डेढ़ हजार बता रहा था वहीं समाचार पत्र पाँच से दस हजार के बीच बताते थे.हरी सिंह और देबुली अपने को भाग्यशाली समझते थे कि वे लोग न तो मरे और न अत्यधिक गंभीर रूप से बीमार हुए.इंदर अलबत्ता कुछ ज्यादा परेशान हुआ था और उसे उल्टी भी हुई थी, लेकिन जहाँ हजारों लोग मर गए हों,असंख्य उल्टी और आँखों की जलन के शिकार हो गए हों,वहाँ इतनी छोटी सी तखलीफ़ से छुट्टी मिल जाना खुशकिस्मती  ही थी. लेकिन स्वयं इंदर इतना घबरा गया था कि जब 'आपरेशन फेथ' के दौरान हरी सिंह सपरिवार भोपाल छोड़ कर  अपने गाँव तक हो आया तो इंदर ने अपनी चाची के दुर्व्यवहार के बावजूद उन्हीं के पास रहने की इच्छा प्रकट की और हरी सिंह इंदर को काफलीगैर ही छोड़ आया.   

 हरी सिंह जब कभी सपरिवार अपने गाँव जाता तो बचे नाथ को अपने क्वार्टर की जिम्मेदारी सौंप जाता.लेकिन इस बार तो बचे नाथ क्या कोई भी आस पड़ोस  में नहीं बचा था.सभी अपने अपने परिचितों - सम्बन्धियों के पास जा चुके थे.इस लिए हरी सिंह जितने दिन अपने गाँव रहा उसे यही चिंता सताती रही कि कहीं उसके क्वार्टर का ताला टूट न जाए और वर्षों की मेहनत से जमी गृहस्थी, जिसमें एक सोफा, गैसचूल्हा,कुकर,एक रेडियो,अलमारी और कुछ स्टील के बर्तन थे,उजड़ न जाए. लेकिन जब लौटने पर उन्हें अपनी गृहस्थी सही सलामत मिली तो हरी सिंह और देबुली ने ईश्वर को धन्यवाद दिया. देबुली ने तो गुफा मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने का संकल्प भी कर लिया.

दिन बीतते गए. गैस काण्ड की चर्चा तो होती रहती लेकिन लोगों के दिल से सदमा उतरने लगा था. इधर सरकार ने राहत देने की कवायद शुरू कर दी.मुफ्त राशन दिया जाने लगा.जब पहले महीने हरी सिंह  मुफ्त राशन लाया तो देबुली की खुशी का ठिकाना न था और साल के अंत में जब राशन मिलना बंद हुआ तो मायूस हुई थी वह, लेकिन उसने हिसाब लगा लिया था कि अगले तीन - चार महीने और वह जमा राशन से काम चला लेगी. देबुली की खुशी तब और बढ़ी जब शासन की तरफ़ से पन्द्रह सौ रुपये राहत राशि की घोषणा की गयी. इस बीच मुआवजे हेतु क्लेम फॉर्म भरे जाने लगे और जब हरी सिंह पन्द्रह हजार रूपये का क्लेम भर कर आया तो देबुली ने उसकी  मोटी बुद्धि पर खूब लानत भेजी. पड़ौसी लोग पचास हज़ार और एक लाख तक का क्लेम लगा आए थे और एक हरी सिंह था कि पन्द्रह हज़ार पर संतोष कर रहा था.   

पन्द्रह सौ रूपये  भी हरी सिंह को अब तक नहीं मिल पाये थे. इस कारण भी देबुली हरी सिंह से रुष्ट थी.वास्तव में गलती हरी सिंह की ही थी. जब सर्वे हो रहा था तो हरी सिंह ने अपनी आय सात सौ पिचहत्तर रुपये लिखवा दी थी जो उसकी वास्तविक आय थी,जबकि राहत पाने के लिए आय पाँच सौ रूपये होनी चाहिए थी. अंत में इसका भी निराकरण हो गया. देबुली ने ही ख़बर दी -'पन्द्रह सौ रूपये के लिए पुतली घर में फ़िर से नंबर लग रहे हैं बल.जाओ, छुट्टी ले कर नंबर लगा आओ. हाँ इस बार राजा हरिश्चंद्र मत बन जाना. और जब हरी सिंह के पास पन्द्रह सौ रूपये की पर्ची आ गयी तो देबुली ने इसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रसाद माना.

जब पन्द्रह सौ रूपये प्राप्त करना देबुली के दिमाग की उपज थी तो उसका उपयोग करने के लिए भी वह स्वतंत्र थी. बहुत दिनों से देबुली की इच्छा एक टी वी लेने की थी, लेकिन पैसों का जुगाड़ नहीं बन पाता था. अंततः गैस देवी की कृपा से हरी सिंह ने एक टी वी खरीद ही लिया. बुधवार को टी वी आया था और आज सेकंड सेटरडे था. हरी सिंह और देबुली बड़ी प्रसन्नता से टी वी में दिन का कार्यक्रम देख रहे थे. इसी समय तारवाला एक टेलीग्राम दे गया. तार काफलीगैर से था -  इंदर की मौत का. 

भोपाल से जाने के बाद से ही इंदर सहमा सा रहता . थका - थका बीमार सा रहता. यद्यपि प्रकट में ज्वर आदि नहीं रहता.गाँव में कभी कभार वैद्य जी से दवा ले लेता. एक - दो बार झाड़ फूंक भी की. लेकिन सब व्यर्थ. इंदर बच न सका. हरी सिंह गहरे सोच में डूब गए - कहीं गैस का ही असर तो नहीं ? कहीं हम लोग भी अन्दर से खोखले तो नहीं होते जा रहे ?

रात हुयी . हरी सिंह को नींद नहीं आ रही थी. देबुली को भी. हरी सिंह का दुःख गहराता जा रहा था. देबुली हरी सिंह की दशा देख कर कुछ बोलने का साहस न जुटा पायी,लेकिन सोच रही थी - इंदर को भी गैस लगी थी, कुछ लिखा - पढी करके इंदर का मुआवजा नहीं मिल सकेगा क्या ?                     

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Dr. B L Jalandhari

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पांडे जी पहाड़ी समाज का आदर्श देबिया जैसी दशा आज हर उस नौजवान की है जो पलायन की पीडा समेटे उत्तराखंड से एक उज्जवल भबिश्य के खातिर निकला है,  वह कल और आज में फंसकर मजबूर है, आज के परिपेक्ष्य में देविया की घुटन हर उस नौजवान में ब्याप्त है जिसकी आत्मा में पहाड़ की संस्कृति बसी है परन्तु वह परिस्तिथियों के साथ लड़ने में लाचार है, 
          देविया के माध्यम से आपकी मन की पीड़ा का अहसास हुआ. आप धन्य हैं

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanx Hem Ji,

Indeed a good article. Thanx for sharing amongst us.

कहानी

(यह कहानी भोपाल गैस त्रासदी पर आधारित है. यह त्रासदी २-३ दिसम्बर १९८४  की दरम्यानी रात में घटित हुई थी.कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं.)


मुआवजा

हरी सिंह जितनी गहरी नींद सोता था,उसकी पत्नी देबुली की नींद उससे अधिक गहरी होती थी.दिसम्बर के  ठण्ड की उस रात दोनों ही निश्चिंत हो गहरी नीद में थे . पास ही भांजा इंदर भी उसी बेफिक्री से सो रहा था .पाँच दिन पहले ही आया था इंदर अपने गाँव काफलीगैर से . हरी सिंह को आशा थी कि वह इंदर को कहीं न कहीं नौकरी से चिपका देने में सफल हो जायेगा .अनाथ इंदर की अपने गाँव में अपने ही चाचा के यहाँ दुर्गत हो रही थी . इसी लिए उसने इंदर को अपने पास भोपाल बुला लिया था .  

इंदर जीवन में पहली बार अपने गाँव से बाहर आया था .आश्चर्य-विस्फरित थे उसके नेत्र एक नयी दुनिया देख कर .मात्र  दो पटरियों पर इतनी बड़ी रेलगाडी को चलते देखना एक अचम्भा था . मीलों लंबे खेत भी उसने पहली बार देखे थे . वह मनसूबे बनाने लगा था - जब गाँव लौटेगा तो अपने दोस्त रमुआ और शेरुआ से किस प्रकार अपने अनुभव बांटेगा .   

इंदर को वर्षों बाद देख कर हरी सिंह खुश ही हुआ था. हरी सिंह की घरवाली देबुली अलबत्ता मन में विचार करने लगी थी कि अब इंदर का भार हम पर आ गया क्योंकि इंदर का छोटा मामा तो गाँव की छोटी सी खेती और छोटी - मोटी मजदूरी पर निर्भर था और कमाई से ज्यादा पी जाता था . उससे इंदर का दायित्व संभालने की अपेक्षा करना मूर्खता थी .          

इन पाँच दिनों में इंदर ने भोपाल के तीन स्थान देख पाये थे - मामी के साथ गुफा मन्दिर, पड़ोसी बचे नाथ के लड़के सुरेन्द्र के साथ बड़ा तालाब और खड़क सिंह के साथ यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री.खड़क सिंह यूनियन कार्बाइड में ड्रायवर था और उसने इंदर को फैक्ट्री में डेली वेजेज में लगाने का आश्वासन दे दिया था. फैक्ट्री देखने के बाद इंदर के मन में अजीब सी गुदगुदी हुई थी.वह सोचने लगा नौकरी में लगने के बाद वह जल्दी ही छुट्टी लेकर अपने गाँव जायेगा और रमुआ और शेरुआ को दिखा देगा कि वह क्या से क्या हो गया है. चाचा - चाची यद्यपि उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे, लेकिन गाँव जाने की कल्पना में वह उनके प्रति सारी दुर्भावना भुला चुका था और कका के लिए कुरता - पायजामा और चाची के लिए लाल फूलों के प्रिंट वाली साड़ी ले जाने के मनसूबे बनाने लगा था. लेकिन कका की छोटी लडकी रूपा के लिए वह क्या ले जायेगा - यह निश्चय नहीं कर पा रहा था.उस रात यही सब सोचते वह सोया था और रात भर सपने में भी वह कभी अपने को कार्बाइड की बड़ी - बड़ी टंकियों के पास खडा पाता, कभी . ट्रेन में साफ़ सुथरे पैंट - कमीज पहने आंखों में धूप का चश्मा लगाए वापस गाँव जाता हुआ और कभी गाँव में रमुआ - शेरुआ के बीच अपने अनुभवों की डींग हांकता.

रात के डेढ़ - दो बजे, जब इंदर गहरी नींद में सो रहा था और सोते हुए मुस्कुरा रहा था (शायद वह यूनियन कार्बाइड में अपनी नौकरी लग जाने पर मिलने वाली खुशी के सपने देख रहा था ) ,हरी सिंह की नींद दरवाजे में पड़ी जोरदार थापों और बचे नाथ की आवाज़ - हरदा ,अबे हरदा उठ ; बोजी,ओ बोजी की आवाज़ से बमुश्किल टूटी.उसने बेखबर सोयी देबुली को जगा कर सचेत किया और लाइट जला कर दरवाजा खोलने को बढ़ा.'बचे नाथ की बीबी को पीड़ उठने लगी है शायद ' हरी सिंह ने सोचा. उसे नौवां महीना चल रहा था.
दरवाजा खोलने पर पता चला बचे नाथ के साथ छोटेलाल भी खडा था . 'जल्दी से अपना सिलेंडर चैक कर' बचे नाथ बिना किसी भूमिका के खांसते खांसते हड़बड़ाये स्वर में बोला.दरवाजा खोलते ही गैस का एक भभका सा हरी  सिंह ने भी महसूस किया.गैस लीकेज की आशंका से मन ही मन देबुली को गाली देते हुए वह गैस सिलेंडर की ओर बढ़ा. सिलेंडर ऑफ़ था.चूल्हे की नॉब भी बंद थी.उसने राहत की साँस ली.'यार बचदा गैस तो बंद है लेकिन स्साली बास आ रही है.'वह बोला. अब तक छोटे लाल और बचे नाथ कालोनी के सभी क्वार्टरों के सिलेंडर चैक करा चुके थे.उनकी आँखों से बेतहाशा पानी आ रहा था और जलन हो रही थी.तभी सायरन की तेज आवाज सुनाई दी. 'ओ हो यूनियन कार्बाइड में फ़िर आग लग गयी होगी.'छोटेलाल ने कहा.पहले भी वहाँ एक - दो दुर्घटनाएं हो चुकी थीं.कोई तेजाब का टैंक जल गया होगा उसी की गैस फ़ैल गयी है- हरी सिंह ने अनुमान लगाया. इसी बीच आस पास सड़क पर दौड़ने-भागने-खाँसने की आवाजें आने लगीं. बहुत से लोग शायद सड़क पर निकल आए थे. छोटेलाल खाँसते खाँसते अपने क्वार्टर की तरफ बढ़ा.देबुली ने बचे नाथ और हरी सिंह को भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर लिया.दरवाजा खोलने से गैस का तीखापन कमरे में घुस आया था और बचे नाथ,हरी सिंह,देबुली सभी दम घुटा सा महसूस करने लगे. इंदर भी उठ चुका था. खाँस खाँस कर उसके बुरे हाल थे. आख़िर उल्टी हो जाने पर ही उसे राहत मिली. उस ठण्ड में हरी सिंह ने पंखा फुल पर चला दिया. बचे नाथ और हरी सिंह किन्कर्तव्यविमूढ़ से मंत्रणा कर रहे थे - बाहर जाएँ या न जाएँ. कहीं कमरे में ही दम न घुट जाए. अंत में दोनों ने तय किया कि बाहर जाने से बेहतर भगवान भरोसे रह कर बच्चों के साथ अपने अपने क्वार्टरों में ही रहा जाए. बचे नाथ ने अपने क्वार्टर जाना चाहा. हरी सिंह ने बचे नाथ के लिए दरवाजा खोला तो इस बार गैस का भभका कम मालूम पड़ा. थोड़ी देर में बाहर कुछ लोगों की चर्चा से आभास हुआ कि गैस का असर कम हो चुका है.हरी सिंह ने खिड़की - दरवाज़े खोल दिए. दिसम्बर की उस ठण्ड की रात में उन्हें हवा के झोंकों और फुल पर चल रहे पंखे से राहत महसूस हुई.

दूसरे दिन सुबह बचे नाथ ने ख़बर दी कि एक बुढ़िया रात के हादसे में मरी है. हरी सिंह ने अनुमान लगाया - एक की ख़बर है, पाँच - सात और भी मरे होंगे. कालोनी के सभी लोग इकठ्ठा हो रात की ही चर्चा कर अपने अपने अनुभव बता रहे थे. कुछ ही देर में जहांगीराबाद से गुमानीराम, श्यामला हिल से गणेशी लाल और टी टी नगर से जोशी जी आदि सभी आ आ कर हरी सिंह की कुशल क्षेम ले गए. इन्हीं लोगों से मालूम पड़ा कि पाँच - सात सौ से कम आदमी नहीं मरे.हमीदिया अस्पताल में लाशों के ढेर और मरीजों की भीड़ लगी है. छोला में रहने वाले टीकाराम जी  का पूरा परिवार भारती है. इंदर भी यह सब सुन रहा था. उसे दुःख था तो केवल इस बात का कि अब फेक्ट्री में शायद उसकी नौकरी न लग पाये.'स्साली किस्मत ही ऐसी है'-उसने सोचा.

बचे नाथ और हरी सिंह दोनों ही हमीदिया अस्पताल की ओर चल पड़े. सोचा टीकारामजी के परिवार की कुशल ले आयें.अस्पताल में ऐसा लग रहा था जैसे बागेश्वर के उत्तरायणी का मेला हो.नीचे सड़क तक टेंट लगे थे और आंखों में दवा डाली जा रही थी.प्रत्येक टेंट में मरीजों की भयंकर भीड़ थी.पैदल,किसी का सहारा लिए, ताँगे में,मेटाडोर में भरकर और अन्य विभिन्न साधनों से गैस से बेहाल हुए लोग लाये जा रहे थे. वार्डों के भीतर पलंग पर और जमीन पर तो मरीज भरे ही थे,बाहर खुले में भी बेसुध कराह रहे लोगों  की भरमार थी. कईयों को देख कर तो लग रहा था - अब मरे तब मरे. कुछ लोग लाश घर की ओर से आ रहे थे. उनमें से एक बोला-सात सौ तिरपन. रात कितनी बड़ी दुर्घटना हो गयी इसका अंदाजा बचे नाथ और हरी सिंह को अब हो रहा था. टीका राम जी के परिवार को इन हजारों की भीड़ में ढूंढ पाना असंभव था.निराश हो दोनों लौट आए. लौटने पर सबसे पहले दोनों के ही दिमाग में जो बात सबसे पहले आयी वह थी अपने अपने गाँव सूचना देने की. दोनों ही तार घर की ओर बढे.वहां जो भीड़ थी उसमें चार घंटे तक नंबर आने की कोई संभावना नहीं थी.चलो हमीदिया रोड के तारघर से तार कर लेंगे – उन्होंने सोचा.वहाँ पहुँचने पर भी भीड़ का वही आलम था. फ़िर भी दोनों ही लाइन में लग कर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे. अचानक कुछ लोग भागते नजर आए.गैस फ़िर लीक हो गयी - कोई बोला.तारघर की सारी भीड़ और तार बाबू भी भागने वालों में शामिल हो गए. बचे नाथ और हरी सिंह भी भागने लगे.दोनों ही अपने अपने बीबी बच्चों की चिंता से उद्विग्न हुए जा रहे थे.भागते हुए जब तक घर पहुंचे, दोनों ने ही अपने अपने घरों पर ताले लटके देखे.आस पास के सारे घर सूने थे. कहाँ जाएँ परिजनों को ढूँढने वे ? हार कर दोनों हरी सिंह के घर के बंद दरवाजे पर पीठ टिका कर बैठ गए. दोनों ही परेशान हो उठे थे और शंका-कुशंका से घिरे थे. इधर लाउड स्पीकर से घोषणा की जाने लगी थी -'घबराएं नहीं, निश्चिंत रहें, अपने-अपने घरों को वापस जाएँ.अब किसी प्रकार का गैस रिसाव नहीं हुआ है.  

वास्तव में फ़िर से गैस फैलने की अफवाह फ़ैल गयी थी और रात की घटना से भयभीत लोग अपने अपने घर छोड़ भाग उठे थे.कुछ देर बाद लोग अपने घरों को लौटने लगे. हरी सिंह और बचे नाथ का परिवार भी लौट आया था.इंदर खासा घबरा गया था. पहाडों की शांत और बेफिक्र जिन्दगी जीने वाला वह किशोर पहली बार शहर आया था और आते ही उसे ऐसा कटु अनुभव हुआ कि वह बुरी तरह विचलित हो गया.

शहर का माहौल उन दिनों असमंजसपूर्ण चल रहा था.हादसे में मरने वालों की संख्या रेडियो जहाँ हजार - डेढ़ हजार बता रहा था वहीं समाचार पत्र पाँच से दस हजार के बीच बताते थे.हरी सिंह और देबुली अपने को भाग्यशाली समझते थे कि वे लोग न तो मरे और न अत्यधिक गंभीर रूप से बीमार हुए.इंदर अलबत्ता कुछ ज्यादा परेशान हुआ था और उसे उल्टी भी हुई थी, लेकिन जहाँ हजारों लोग मर गए हों,असंख्य उल्टी और आँखों की जलन के शिकार हो गए हों,वहाँ इतनी छोटी सी तखलीफ़ से छुट्टी मिल जाना खुशकिस्मती  ही थी. लेकिन स्वयं इंदर इतना घबरा गया था कि जब 'आपरेशन फेथ' के दौरान हरी सिंह सपरिवार भोपाल छोड़ कर  अपने गाँव तक हो आया तो इंदर ने अपनी चाची के दुर्व्यवहार के बावजूद उन्हीं के पास रहने की इच्छा प्रकट की और हरी सिंह इंदर को काफलीगैर ही छोड़ आया.  

 हरी सिंह जब कभी सपरिवार अपने गाँव जाता तो बचे नाथ को अपने क्वार्टर की जिम्मेदारी सौंप जाता.लेकिन इस बार तो बचे नाथ क्या कोई भी आस पड़ोस  में नहीं बचा था.सभी अपने अपने परिचितों - सम्बन्धियों के पास जा चुके थे.इस लिए हरी सिंह जितने दिन अपने गाँव रहा उसे यही चिंता सताती रही कि कहीं उसके क्वार्टर का ताला टूट न जाए और वर्षों की मेहनत से जमी गृहस्थी, जिसमें एक सोफा, गैसचूल्हा,कुकर,एक रेडियो,अलमारी और कुछ स्टील के बर्तन थे,उजड़ न जाए. लेकिन जब लौटने पर उन्हें अपनी गृहस्थी सही सलामत मिली तो हरी सिंह और देबुली ने ईश्वर को धन्यवाद दिया. देबुली ने तो गुफा मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने का संकल्प भी कर लिया.

दिन बीतते गए. गैस काण्ड की चर्चा तो होती रहती लेकिन लोगों के दिल से सदमा उतरने लगा था. इधर सरकार ने राहत देने की कवायद शुरू कर दी.मुफ्त राशन दिया जाने लगा.जब पहले महीने हरी सिंह  मुफ्त राशन लाया तो देबुली की खुशी का ठिकाना न था और साल के अंत में जब राशन मिलना बंद हुआ तो मायूस हुई थी वह, लेकिन उसने हिसाब लगा लिया था कि अगले तीन - चार महीने और वह जमा राशन से काम चला लेगी. देबुली की खुशी तब और बढ़ी जब शासन की तरफ़ से पन्द्रह सौ रुपये राहत राशि की घोषणा की गयी. इस बीच मुआवजे हेतु क्लेम फॉर्म भरे जाने लगे और जब हरी सिंह पन्द्रह हजार रूपये का क्लेम भर कर आया तो देबुली ने उसकी  मोटी बुद्धि पर खूब लानत भेजी. पड़ौसी लोग पचास हज़ार और एक लाख तक का क्लेम लगा आए थे और एक हरी सिंह था कि पन्द्रह हज़ार पर संतोष कर रहा था.   

पन्द्रह सौ रूपये  भी हरी सिंह को अब तक नहीं मिल पाये थे. इस कारण भी देबुली हरी सिंह से रुष्ट थी.वास्तव में गलती हरी सिंह की ही थी. जब सर्वे हो रहा था तो हरी सिंह ने अपनी आय सात सौ पिचहत्तर रुपये लिखवा दी थी जो उसकी वास्तविक आय थी,जबकि राहत पाने के लिए आय पाँच सौ रूपये होनी चाहिए थी. अंत में इसका भी निराकरण हो गया. देबुली ने ही ख़बर दी -'पन्द्रह सौ रूपये के लिए पुतली घर में फ़िर से नंबर लग रहे हैं बल.जाओ, छुट्टी ले कर नंबर लगा आओ. हाँ इस बार राजा हरिश्चंद्र मत बन जाना. और जब हरी सिंह के पास पन्द्रह सौ रूपये की पर्ची आ गयी तो देबुली ने इसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रसाद माना.

जब पन्द्रह सौ रूपये प्राप्त करना देबुली के दिमाग की उपज थी तो उसका उपयोग करने के लिए भी वह स्वतंत्र थी. बहुत दिनों से देबुली की इच्छा एक टी वी लेने की थी, लेकिन पैसों का जुगाड़ नहीं बन पाता था. अंततः गैस देवी की कृपा से हरी सिंह ने एक टी वी खरीद ही लिया. बुधवार को टी वी आया था और आज सेकंड सेटरडे था. हरी सिंह और देबुली बड़ी प्रसन्नता से टी वी में दिन का कार्यक्रम देख रहे थे. इसी समय तारवाला एक टेलीग्राम दे गया. तार काफलीगैर से था -  इंदर की मौत का. 

भोपाल से जाने के बाद से ही इंदर सहमा सा रहता . थका - थका बीमार सा रहता. यद्यपि प्रकट में ज्वर आदि नहीं रहता.गाँव में कभी कभार वैद्य जी से दवा ले लेता. एक - दो बार झाड़ फूंक भी की. लेकिन सब व्यर्थ. इंदर बच न सका. हरी सिंह गहरे सोच में डूब गए - कहीं गैस का ही असर तो नहीं ? कहीं हम लोग भी अन्दर से खोखले तो नहीं होते जा रहे ?

रात हुयी . हरी सिंह को नींद नहीं आ रही थी. देबुली को भी. हरी सिंह का दुःख गहराता जा रहा था. देबुली हरी सिंह की दशा देख कर कुछ बोलने का साहस न जुटा पायी,लेकिन सोच रही थी - इंदर को भी गैस लगी थी, कुछ लिखा - पढी करके इंदर का मुआवजा नहीं मिल सकेगा क्या ?                    

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Mukul

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Kahani kafi badiya hai...
Aur kafi kuch sochanai ko majboor kerti hai...


हेम जी,
सचमुच बहुत संवेदनशील हैं दोनो कहनियाँ.  ’देबिया’ हर उस पहाड़ी के अन्दर सदा जीवित रहेगा जिनका बचपन पहाड़ों में बीता है. उनमें यह देबिया कभी नहीं मर सकता, यह गाहे बगाहे, बार बार सर उठाता रहेगा.  और उनका यह फ़र्ज भी है कि वे अपने बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ी में, जिनका जन्म पहाड़ से बाहर हुआ है, में भी उस देबिया को उत्पन्न करने की कोशिश करें. नई पीढ़ी को अपने पहाड़ से भावनात्मक रूप से जोड़ने की कोशिश करें. कहीं ऐसा न हो कि वे अपने पुरखों की धरती को केवल एक घूमने फिरने  एवं पिकनिक स्पाट समझ कर न रह जाएं जैसा कि पश्चिमी देशों में पैदा हुए प्रवासी भारतीयों के बच्चों की भारत के बारे में सोच है.

दोनों लेख भी काफ़ी विचारोत्तेजक हैं.  स्वरोजगार एवं व्यापार के क्षेत्र में भी अब उत्तराखंडी लोग आगे आ रहे है.  सरकार से भी आशा है कि इसमें पर्याप्त सहयोग दे एवं लोगों का रुझान इस ओर बढ़ाने के लिये जागरूकता फ़ैलाए.

आशा है कि हेम जी के लेख हमें आगे भी रोशानी दिखाते रहेंगे.

वीरेन्द्र सिंह बिष्ट


Mukul

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यह कहानी बहुत ही बढ़िया है

hem

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कवियत्री निर्मला जोशी मंच, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए एक जाना माना नाम है. निर्मलाजी  मूलतः अल्मोड़ा की हैं. वर्तमान में संभवतः संयुक्त अरब अमीरात में हैं. प्रस्तुत है उनकी एक पहाड़ी कविता :   

मन छ हिमाले
तन छ शिवाले
आंखन तेरा गंगाजल |

को तेरो गौं छ
के तेरो नौं छ
तू छे मुसाफिर हिटने चल |

प्राण पछिन कै
चलण अघिन कै
खुटन में तेरा अनगिन छल |
 
एक जोड़ी  आँखा   
बीछड़िं पाँखा
घायल भोतै छ काजल |

खून तू दींछैं
जान तू दींछै
शान में न्हाती कोई खलल |
 
माटी  को दियो
तेल छ हीयो
जोत जगूं छै झलमल झल |
       

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Hem ji,

Thanx for providing these lines of Nirmala Joshi ji.
Heart touching poem on real pahad issues.



कवियत्री निर्मला जोशी मंच, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए एक जाना माना नाम है. निर्मलाजी  मूलतः अल्मोड़ा की हैं. वर्तमान में संभवतः संयुक्त अरब अमीरात में हैं. प्रस्तुत है उनकी एक पहाड़ी कविता :  

मन छ हिमाले
तन छ शिवाले
आंखन तेरा गंगाजल |

को तेरो गौं छ
के तेरो नौं छ
तू छे मुसाफिर हिटने चल |

प्राण पछिन कै
चलण अघिन कै
खुटन में तेरा अनगिन छल |
 
एक जोड़ी  आँखा   
बीछड़िं पाँखा
घायल भोतै छ काजल |

खून तू दींछैं
जान तू दींछै
शान में न्हाती कोई खलल |
 
माटी  को दियो
तेल छ हीयो
जोत जगूं छै झलमल झल |
       


 

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