गद्य -पद्यात्मक काव्य
इस प्रकार के गीतों को कुछ विद्वान लोक-गाथाएँ कहकर अध्ययन करते है । वास्तव में ऐसे गीतों में अनेक स्थल ऐसे आते हैं जबकि गायक पद्य के अलावा गद्य का भी प्रयोग करता है । वह गद्य होता है परन्तु गायक उस गद्य को भी गेय बनाकर प्रस्तुत करता है ।
ऐसी गाथाओं में 'मालूशाही' का विशेष महत्व है । 'मालूशाही' कव्यूरी वंश के राजा 'मालू' तथा सुनपति शौका की पुत्री 'राजुली' की प्रेम-गाथा है । कुमाऊँ में यह प्रेम-गाथा सर्वत्र बड़े चाव से सुनी व गायी जाती है । इसकी कथा जोहार पिथौरागढ़, बारामण्डल, पाली-पछाऊँ और नैनीताल-भीमताल क्षेत्र में अलग-अलग रुपों में मिलती है परन्तु सब क्षेत्रों में मुख्य कथा एक जैसी है ।
कुमाऊँ में वीरगाथा काव्यों की अधिकता है । इन्हें कुमाऊँनी में 'भड़ौ' कहा जाता है । 'बफौल', 'सकराम कार्की', 'चन्द विखेपाल', 'दुला साही', 'भागद्यौ', 'नागी-भागीमल' और 'कुजीपाल' आदि अनेक गाथाएँ हैं जिन्हें भड़ौं के अन्तर्गत लिया जा सकता है ।
चन्द राजाओं में 'उदय चन्द', 'रतनी चन्द', 'विक्रम चन्द', 'भारती चन्द' और 'गुरु ज्ञानी चन्द' के भड़ौ कुमाऊँ में अधिक विख्यात हैं ।
पौराणिक कथाओं में भी 'भड़ौं' मिलते हैं । इनका प्रचार समस्त कुमाऊँ में कुछ परिवर्तनों के साथ मिलता है ।
स्फुट गीत - कुमाऊँ अंचल में 'भड़ों', 'जागरों' और अन्य प्रकार के गीतों के अतिरिक्त कुछ मुक्तक शैली के स्फुट गीत भी मिलते हैं । कहीं भी और कभी भी कोई घटना हो सकती है । इन्हीं घटनाओं पर लम्बे प्रबन्ध गीतों के अलावा छोटे गीत भी जन्म ले लेते हैं । स्फुट गीतों के कुछ नाम भी पड़ चुके हैं । ऐसे गीतों में 'धन्याली', 'गणतउ', 'टोसुक' और 'सोगुन' गिने जाते हैं । इसी परम्परा में राष्ट्र-प्रेम के गीत भी सम्मिलित किये जा सकते हैं । वैसे घटना विशेष के गीतों का कोई विशिष्ट वर्ग नहीं होता । जैसी घना होती है - वैसा ही उसका विषय भी बन जाता है ।
रमोला - कुमाऊँ में इन गाथा को विशेष आदर मिला है । इस गाथा में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और कलात्मक रुप एक साथ मिलता है । यह ऐसा सुन्दर बन पड़ा है कि 'लोक महाकाव्य' कहने में तनिक भी संकोच नहीं होता । यह ऐसा 'लोक महाकाव्य' है जिसमें प्रेमाख्यान, वीर-भावना, तांत्रिक चमत्कार, सिद्ध और नाथ-पंथी परम्पराओं का अत्यन्त कुशलता से समावेश किया गया है । इस गाथा की गायन शैली गीतात्मक है । इस शैली का इतना आकर्षण है कि सर्वत्र 'रमोला' लोककाव्य की मांग होती है। अभी कुछ महीने पहले रमेशचनद्र शाह और मोहन उप्रेती ने दूरदर्शन के लिए 'रमोला' लोक महाकाव्य की प्रस्तुति अत्यंत कलापूर्ण ढंग से की थी ।