[justify]देवता ही नहीं गांव का भी मनोरंजन
रवांई, जौनपूर, जौनसार व बाबर क्षेत्र में आजकल पांडव नृत्य की धूम है। कई गांवों में आजकल पांडव मंडाण (नृत्य) चल रहे हैं। नौ दिन तक चलने वाले इस उत्सव में जहां देवताओं को खुश किया जाता है वहीं ये पांडव नृत्य गांव के मनोरंजन के भी साधन हैं।
पांडवों को मनाने और मन्नतें मांगने आजकल जहां गांव-गांव में पांडव 'नौड़ते' (नवरात्रि) के माध्यम से भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन, द्रोपदी, देवी, ग्राम देवता, काली आदि को प्रसन्न किया जाता है वहीं, अकाल मौत से मरे लोगों को बुलाने को भी घडियालों (जागरों) आयोजन किया जाता है। चीणा, कौणी, अखरोट व पूरी-पकोड़ी आदि पकवानों से पितरों का आह्वाहन और बिदाई दी जाती है। मंगसीर, पूष व कार्तिक महीने में इन आयोजनों का विशेष महत्व है। कई गांवों में पांडव नृत्य के दौरान एक से बढ़कर एक 'स्वांग' (राक्षसों के रूप) भी बनाए जाते हैं। पांडव नृत्य से जहां गांवों का मनोरंजन होता है वहीं अपने ग्राम देवता और अराध्य देव भी खुश रहते हैं। मान्यता यह भी है कि गांव पांडव नृत्य से गांव में खुशहाली रहती है। इससे फसल और गांव की प्रगति और बुरी नजर से ग्रामीणों को बचाया जाता है। इसके लिए नौंवें दिन पूरे रातभर देवता के पश्वा जागरण कर गांव के चारों तरफ 'घाटे' (सुरक्षा कवच) बांधते हैं।
पांडव मंडाण (नृत्य) को लेकर मान्यता है कि जीवन के अन्तिम समय पांडवों ने इसी जगह से स्वर्गारोहिणी में प्राण त्यागे। पहाड़ों में आज भी पांडवों को जीवित माना जाता है तथा गांव-गांव में पश्वा के रूप में महिला, पुरूषों में देवता के रूप में अवतरित होते हैं। वहीं, छोटी उम्र में अकाल मृत्यु के ग्रास बनने वाले पितरों को देवी, देवताओं के समान श्रेष्ठ स्थान देने को गांव-घरों में तीन व पांच दिन के घडियाले (जागर) लगाये जाते हैं। इस दौरान बाजगी ढ़ोल दमाऊ और पेलई गाथाओं से देवताओं को झूलने के लिए मजबूर कर देते हैं।
इस संबंध में पोरा गांव के 70 वर्षीय खिलानन्द बिजल्वाण कहते हैं कि पांडव नृत्य व पितरों का जागरा रवांई क्षेत्र की आस्था व परम्परा का प्रतीक है। इसके माध्यम से देवताओं व पितरों से मन्नतेमांगी जाती हैं।