उत्तराखंड में रंवाई एक ऐसी सुरम्य व अद्भुत घाटी है जो अपने में गौरवशाली इतिहास तथा कला व संस्कृति संजोये है..यहाँ पांडवों के साथ-साथ दुर्योधन की पूजा भी होती है और यहाँ इसका बाकायदा मंदिर भी है..सबसे कम पलायन करने वाली यह घाटी पूरे उत्तराखंड के लिए एक आदर्श बन सकती है. रंवाई में बहने वाली यमुना व टौंस के पानी ने यहाँ के लोगों में सदियों से वीरता की ऐसी लौ जलाए रखी कि टेहरी राजशाही भी यहाँ के लोगों से थर-थर कॉपती थी. यहाँ के लोगो ने निरंकुश राजशाही का हमेशा डटकर मुकाबला किया, जिससे राजा इन्हें ढंडकी (क्रांतिकारी) के नाम से संबोधित करता था. 30 मई 1930 को यमुना के किनारे तिलाड़ी के मैदान में राजशाही से टक्कर लेते हुए यहाँ के आन्दोलनकारियों ने जिस प्रकार की शहादत दी उसकी गूँज उस समय ब्रिटेन के अखबारों तक में सुनाई दी.
कम ही लोग जानते हैं कि तिलाड़ी का आन्दोलन रंवाई राजशाही के खिलाफ 18वां ढंडक था. इनका जिक्र यहाँ के पुराने लोक गाथाओं एव लोकगीतों में आता है जो यहाँ के इतिहास की अमूल्य धरोहर है. राजशाही के जमाने में एक प्रचलन था कि यदि राजपरिवार के किसी सदस्य की मौत होती थी तो पूरे राज्य के पुरुषों को मुंडन करवाना पड़ता था, जो अपना मुंडन नहीं करवाता था उसे राजद्रोह का दोषी माना जाता था. एक बार रंवाई के एक युवा ने यह शर्त मानने से इनकार कर दिया. वह एक बार बचपन में भी तब लगातार दो दिन तक रोया था जब राज परिवार के किसी के मरने पर उसका उसके घरवालों ने जबरदस्ती मुंडन कर दिया गया था. यह बात उसके दिल में गहरा घाव कर गई थी. दूसरा मौक़ा आया तो वह इस निरंकुश क़ानून का विरोध करने के लिए डांगरा (स्थानीय हथियार) कमर में लटकाकर राजा से सीधे बात करने टेहरी दरबार के लिए रवाना हो गया. वहां जाकर दरबारियों ने उसे गेट पर ही पकड़ लिया पर उसने वहीँ हंगामा खड़ा कर दिया और अपना डांगरा थामकर मरने-मारने पर उतारू हो गया. वह अपनी बात राजपरिवार तक पहुंचाने की जिद पर अड़ा था..
राजा राज्य से बाहर गया था. हंगामा सुनकर रानी ने बाहर निकललकर हंगामे का कारण जानना चाहा तो युवक ने बेधड़क अपनी बात रानी को बताई और कहा कि ये कौन सा अंधा क़ानून है कि आपके परिवार में किसी के मरते ही पूरे राज्य के निवासियों का सर मुंडवा दिया जाता है. यह कहाँ का न्याय है? रानी को दृढ़ता से रखी गयी इस साहसी युवक की बात तर्कसंगत लगी और रानी ने घोषणा करवा दी कि अब के बाद राज परिवार में किसी की मौत पर सर मुड़वाना जनता के लिए जरूरी नहीं बल्कि स्वैच्छिक होगा. इस तरह के ऐतिहासिक क्रान्ति के दस्तावेज यहाँ की लोक कथाओं व लोक गीतों में भरी पडी है, जिसमे शोधकर कर इन तथ्यों को यहाँ के इतिहास में संजोने की जरूरत है. यहाँ के समाज सेवियों ने यमुनोत्री जिले की मांग को सरकार से मनवाकर इस पिछड़े क्षेत्र के विकास के लिए नये द्वार खोल दिए
लेखक विजेंद्र रावत उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं
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