Author Topic: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....  (Read 26342 times)

सत्यदेव सिंह नेगी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #90 on: July 16, 2010, 05:37:47 PM »
सुन्दर भेजी तुमल यु ठीक ही ब्वाल भासा का उचारण  म जरा जरा फरक ता छैंचा पर इन भि च कि द्वी चार दिन एक दगडी बैठी जौला त बच्याणु समझ  म आई  ही जालू

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #91 on: July 16, 2010, 05:45:50 PM »
नेगी जी बैठने का समय आजकल के दौर मे कम ही मिलता है क्योकी हमारी दिनचर्या अब पुर्ण शहरी रूप ले चुकी है.
"शहर जहां जिन्दगी चलती रहती है, जिन्दगी जीने के लिए".

सत्यदेव सिंह नेगी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #92 on: July 16, 2010, 05:53:31 PM »
सुन्दर भाई जी सिन भी ठीक हि बोली आपल पर कई बत इनि भि हुन्दी की बिन बैठ्याँ काम नि चल्दु . आर कई काम इन भि छी जॉनका बान
बैठना कि जरुरत नि पोडंदी उन हमरा लोग ब्य्खुनदा बोतल खोलिकी भि त बैठदा छी कि न

सत्यदेव सिंह नेगी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #93 on: July 16, 2010, 06:01:00 PM »
अरे भाई हमारे साथ न सही किसी के साथ तो बैठते ही होंगे आप या
बैठने की हसरत रखते होंगे
या बैठने ही कसक होगी

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #94 on: July 16, 2010, 06:05:01 PM »
बोतल खोलकर बैठने वालो की समाज ही अलग होती है नेगी जी
वह तो ऐसी समाज है जहां हडक लेने के बाद क्या होगा कुछ कहा नही जाता एक बार एक शराब पिये हुवे आदमी ने मेरे तरफ गरम चाय फैक दी

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #95 on: July 16, 2010, 06:14:32 PM »
नेगी जी बैठते है मगर बुजुर्गो के बीच मे क्योकी हमारे बुजुर्ग हमे जीने के टिप्स देते है क्योकी जिन रास्तो पर हमने आघे चलना है वह उन रास्तो पर चल चुके होते है और हां बुजुर्ग से घृणा नही करनी चाहिए जैसे की बुजुर्गो का खास खास कर वही तुम्हारे सामने थुक देना. क्योकी उनको उठने बैठने मे तकलिफ होती है वह बुढापा ढल्ती जीवन की अंतीम सिढी होती है.

dramanainital

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #96 on: July 17, 2010, 08:45:08 AM »
bhai logon kyo is thread ko baatcheet kaa platform banaa rahe ho.kavitaein post karte,anand aataa.

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #97 on: July 19, 2010, 11:22:50 AM »
                       "मै अंग्रेजी मे देहाती अंग्रेज"

मेरी अंग्रजी इतनी जबरदस्त है की बस पुछो मत 100 प्रतिशत सुनता हु लेकिन समझता 0 प्रतिशत हु,99 प्रतिशत पढ लेता हु लेकिन समझता 9 प्रतिशत हु, 10 प्रतिशत लिख भी लेता हु लेकिन 10 दिन बाद अपने लिखे को ही नही पढ पाता हु. अब बताओ हु न मै अंग्रेजी मे देहाती अंग्रेज अरे भई जब छटी क्लास मे पहुचने के बाद abcd पढंगे लिखंगे तो देहाती अंग्रेज ही तो बनंगे क्योकी पहले गांव मे 1 से 5 तक अंग्रेजी नही पढाई जाती थी क्योकी अ,आ, क,ख, बारहखडियां पढना लिखना, मुख जुबानी याद करना ही भारी पडता था.
 

वैसे तो मै हिन्दुस्तान के सबसे कठिन माने जाने वाले बोर्ड से मध्यम क्लास तक पढा लिखा हु यानी उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड. उस समय उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था.
 
जहां आज के दौर मे शिक्षा के क्षेत्र मे भारी बदलाव देखने को मिल रहे है जैसे अब 10-दसवीं का बोर्ड सिस्टम खत्म कर दिया गया है वही हमने उस दौर मे 5पांचवी क्लास का बोर्ड इक्जाम दिया. आज जहां डीविजन सिस्टम खत्म कर ग्रेड सिस्टम बना दिया है वही हमारे दौर मे 1,2,3 डीविजन पास करना एक जंग जीतने के बराबर होता था और अगर डीविजन पास नही भी हुवे तो कोई बात नही ग्रेस सिस्टम से पास होना ही बहुत बडी बात होती थी.
 
खैर छोडो ये सब बाते मुझे तो देहाती अंग्रेज होने पर ही संतुष्टी है कम से कम किसी अंग्रेज से तो मेरा पाला नही पडेगा जो अपने तो क्या किसी के भी नही होते, जो गैरो को तो क्या अपनी माँ बहनो को माँ बहन समझना जरूरी नही समझते.
 
बात अंग्रेजी की चल रही है इसलिए अंग्रेजो को भी बीच मे ले आया हु हालाकी मै देहाती अंग्रेज शहरी अंग्रेज को -0 प्रतिशत ही समझ पाता हुं.
क्योकी उनकी भाषा 100 प्रतिशत लोकल भाषा होती है यानी वो अपनी बोल चाल मे ग्रामर का स्तेमाल नही करते जैसे की एक हिन्दुस्तानी 100 प्रतिशत ग्रामर इंग्लिस बोलता है, लिखता है.
 
अरे छोडिये जाने दिजीये इस अंग्रेजी और अंग्रेजो  को इन्होने ने तो हर दिमांग हर देश मे राज कर रख्खा है जरा गौर से सोचीये.

बच्चा अंग्रेजी मे कम नम्बर लाता है तो सबसे पहले उसे माँ बाप की प्रताडना मिलती है बहार वालो की बात तो छोडो वो तो कहंगे ही कि तुम्हारा बच्चा पढाई मे कमजोर है आदि.. और हां अगर फेल हो जाये तो फिर तो आत्म हत्या तक बात पहुच जाती है. आखीर कब हमारी यह मानसिक्ता बदलेगी और हम यह कब सोचंगे कि जिन्दगी एक उपाधी (डीग्री) नही प्रयोगिक (प्रैक्टिकल) है.

अगर कोई देश प्रगति करता है तो अंग्रजी कहती है फला देश की यह प्रगति पुरे विश्व के लिए अशांती और खतरा है उस देश पर विटो पावर का स्तेमाल करने लगते है क्योकी वो ये कतई नही चाहते है कि अंग्रेजी से आघे कोइ जाये या उनसे कोई आघे बढे. या उनकी संस्कृति से आघे किसी देश की संस्कृति बिश्व मे पहचान बनाए. अगर विश्वास नही होता तो किसी अंग्रेज से पुछने की जरुरत नही है अपने प्रवासी भारतीयों से पुछ लिजीये.
 
सुन्दर सिंह नेगी 16/07/2010.

सत्यदेव सिंह नेगी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #98 on: July 19, 2010, 12:44:53 PM »
बच्चे सही मायने में हमारे शिक्षक हैं   अक्सर देखा गया है की हम लोग अपने बच्चों से बेहतर करने की अपेक्षा रखते हैं  और इस बीच हम अपने को भूल जाते हैं , मेरा अपना ही उदाहरण ले लीजिये गाँव से पढ़ के आये गरीबी इतनी थी की गाँव से बहार निकालने तक का ही किराया देने तक की ही क्षमता थी हमारे माबाप की इसलिए आईटीआई सल्ड महादेव से मानचित्रकार सिविल का कोर्स  कर लिया और आंखों में इंजिनियर बनाने का ख्वाब लिए हुए देश  की राजधानी में पहुच गए यहाँ किसी तरह से पेट भरने का इन्तेजाम हुआ नहीं की गाँव में पिताजी ने रिश्ता पक्का करलिया हमारा हमें भनक तक नहीं लगी साहब हमने तो अपने सपने की दिशा में बढ़ना सुरु किया और AMIE में नाम लिखवा लिया और पढाई शुरू हो गयी जी हमारी इस बीच मेरे मित्र की शादी हो गयी और हमें वो अपनी शादी में गाँव ले गया जहा जाके हम भी फस गए और अगले साल हमारी भी शादी हो गयी और इस बीच हमारे सपने भी चूर चूर हो गए. शहर में ग्रहस्ती बच्चे इस सब में ऐसे फसे की पता ही नहीं चला की कब बच्चे की शिक्षा भी हमारी शिक्षा के नजदीक आ गयी   अब साहब हमें भी ज़माने की तरह अपने बच्चे से अच्छे नम्बर लेने की चाहत होने लगी और बच्चे भी हमारी उम्मीद पर उतरते गए पर अब समस्या ये थी की जब बच्चा ११-१२ क्लास पढ़ेगा तो हम उसे गणित और विज्ञानं कैसे पढ़ाएंगे क्योंकि हमने तो गाँव की उच्चतम शिक्षा ( १२ गणित विज्ञानं) तक ही पढ़ी थी और बच्चे हमें अपना आदर्श मानते हैं और जो सवाल उन्हें स्कूल और टयूसन में समझ नहीं आते वे हमसे ही पूछते हैं और किस्मत से हमसे हल हो भी जाते हैं हमने सोचा की इज्जत का अब फलूदा न निकल जाये इससे पहले हमने भी अपनी पढाई शुरू कर दी और ठीक ठाक चल भी रही है   तो सही मायनों में मेरे लिए तो मेरे बच्चे ही मेरे शिक्षक हुए न जिनकी वजह से मै २५ साल बाद दुबारा स्कूल गया और मुझे ऐसा करते हुए लज्जा भी नहीं आई आज ईश्वर के आशीर्वाद से अच्छा कमा खा रहा हूँ पर इतनी पर ही संतुष्ट होना भी उचित सा नहीं लगा परिवार का मुखिया होने का मतलब इतना ही नहीं होता की सिर्फ दबाव ही बनाया जाये . आज अंग्रेजी का ज्ञान अगर आगे बढ़ने के लिए जरूरी है तो ज्ञान ही तो है अगर हम सोचते हैं की मेरा बच्चा अच्छी अंग्रेजी जाने तो उससे पहले हम क्यों नहीं मैंने अक्सर महसूस किया है की मेरे दोस्तों में अपने रुतवे का घमंड जल्दी आ जाता है और उन्हें पता ही नहीं चल पता की कब उनकी ये बीमारी उनके सारे परिवार में चली गयी .

dramanainital

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #99 on: July 20, 2010, 08:33:08 AM »
उन्यासी उन्हत्तर में हम फर्क़ नहीं कर पाते हैं,
कोइ अंग्रेज़ी में हँसे अगर,हम हिन्दी में शर्माते हैं.

 

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