Author Topic: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....  (Read 26077 times)

Barthwal

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From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« on: April 26, 2010, 02:06:16 AM »
मेरा पहाड़ के माननीय सदस्यगण यहां पर अपनी स्वरचित कवितायें, लेख आदि लिख सकते हैं।
 
MeraPahad
 
 
http://meeuttarakhandi.blogspot.com/2010/04/blog-post_25.html


~ माँ मितै बडुलि लगदी ~

जब जब मितै याद तेरी औंदि माँ,
तब तब मितै बडुलि भी लगदी माँ।

तू भी माँ मितै याद करणि होली,
रूणी कथका तेरी जिकुडी होलि।
आंखि तेरि भी माँ रुझणि होलि,
बडुलि त्वै ते भी लगणि होली।

तेरी आंख्यू न सदा खुशी देखि मेरी,
आज वू आंख्यू मा पाणी च तेरी|
मन मा तेरो कुलबुलाट मच्यू होलू,
जिकुडी तेरी सुगबुगहाट करणी होली।

दूधा-भत्ति अर जू बोली मीतै खिलायी,
दुधि बाली गै कन तीन मीतै सुलायी।
कन हूंदो च सुख यू भी तीन नी जाणी|
बस हर दुख म्यार तीन अप्णु जाणी।

कथुका बगत नज़र तीन मेरि उतारी,
अफु भुखि रेकन पुटगि तीन मेरि भ्वारी।
कुशल रंवा हम वाकुण ब्रत तीना धारी,
उम्र तीना घर बणान मा काटी सारी

त्यार आंचल मा छुप्य़ू च ब्रह्मांड इन बुदिन,
त्यार हथ सदनि आश्रीवाद कुण ही उठिन।
तेरी खुशियूँ की खातिर करी मीन नौकरी,
निभाणू छौ अब बाल-बच्चो की जिम्मेदारी।

रूणि नी रेई तू तख मेरी माँ,
छौ कुशल मंगल मी इख माँ।
करदू प्रार्थना हथ जोडी मेरी माँ,
राजी खुशी रैई तू तख मेरी माँ।

ओलु छुट्टी दर्शन त्यार मी करलू,
त्यार हथ क स्वाद फिर मी च्खलू।
जख बुललि उख त्वैते मी घुमोलु,
तेरी सुणलु अर अपणी मी सुणोलु।

कनु हूंद भगवान मिल नी जानि,
तु ही छै सब कुछ यू मीन मानि।
मीन भगवान सदेनि त्वैमा देखि,
यां से अगनै मी नी सकदू लेखि।

जब जब मितै याद तेरी औंदि माँ,
तब तब मितै बडुलि भी लगदी माँ।

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, आबु धाबी, यूएई

(सबी माँओ ते समर्पित या कविता)


(अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली)

Barthwal

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देर सबेर - गढवाली नाटक
« Reply #1 on: April 26, 2010, 02:14:49 AM »
http://meeuttarakhandi.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html
देर-सबेर - गढवाली नाटक

चार लोग [सिपै : सुबेदार राम सिंह, बामण: पं जगदम्बा उर्फ जग्गू दा, हल्या: मनोहर उर्फ मन्नू, बुढ्या: ब्वाढा]


सिपै: [गाना गै की प्रवेश - मेरी डाडीयू कांठियू का मुल्क जैलू.... ] अरे कख गीन सब लोग!! दिखेणा नी छन। क्या बात अकाल पोडी गै या हैजा खे गे सबो ते। चार  साल बाद आनू छौ अर कथूक बदिल गै म्यार गांव्. ना त पुंगडी हसणा छन न डाला बूटा बुलाणा छन्। क्या ह्वे ह्वालो कै की बुरी नज़र लगी होल।

(धै लगाण बैठी--हे काका हे बवाढा हे मन्नू ,  जग्गू अरे मी आ गंयो कख छवां तुम लोग्।)

[मन्नू क आणू ]
मन्नु: अबे राम सिंह केबर अये भै तू। खूब सेहत बणी तेरी। किले छे बरराणु तू
सिपै; मन्नू द्ग्डया कन छै तू.हां भै फौजी आदिम छौ सेहत त चैणी ल्गी निथर कन मा देश क ऱक्षा करलु। यू बता क्या ह्वे क्वी नी दिखेनू च कख छन सब पलट्न हमर गांव की?
मन्नु: अरे पुछी न तू स्बलोग बिसरी गीन, जू उंद जांदू फिर घर क बाटू नी दिखदू अब गीण - गाणिक 4 परिवार रेगिन।

[जग्गू का आण - मंत्रो क उच्चारण क दगडी और राम सिहं ते गला मिलीक ]

जग्गू: क्या बात कब पोंछी तू भुल्ला कन च त्यार परिवार ?
सिपै: बस दादा गुजारु चनु चा एक छुट्टु च एक तै अभी स्कूल मा दाखिल करे। इख हूंदा त मी भी टैम से आनु रेंद अर खर्चा पानी भी ह्वे जांद अर बांझ पुड्या पंगडा भी सांस लीना रेंद। डाडीयू कांठियू की खुद भी बिसरे ज्यादिं। क्या कन वा भी नी आण चांदि,वा भी रम गै उख
जग्गू: अरे दगड्यो, पिछला साल मी दिल्ली गै छ्याई अरे प्रिथु भैजी क नोन मिली मितै पैली त वे न पछाणी नी च।फिर याद दिले मिन। अबे क्या लाड साब बण्यू उख। मी गढव्ली मा बुनु अर उ हिन्दी मा अर अंग्रेजी मा। पता नी जब वू लोग इख छाई तैबर त ठैट बुल्दु छ्याई
मनु: अरे सब भैर ज्याकि सब अंग्रेज़  बणी गीन. डड्रियाल जी क व कविता याद आणि " घर भटैक अयां कि गढवली भुल्याक है ज़रा ज़रा विदेश की अधकची फुक्याक है"

[सिपै व जग्गु सभी हस्न बैठिगीन]

सिपै: अरे इन च सभी क दगडी या बात नी च. आजकल का जमाना क दगडी चलना कुण या अच्छी खबर च कि अब हमर बेटा-बेटी, भुला-भुली सब अगनै बढिगीन. पर कई लोग छन जूं का प्रेम अप्णु उत्तराचल क दग्डी उथ्कु ही चा अर नो भी कमाणा छन. बस ज़रा हमर राज्य अर गावो मा भी सुधार ह्वे जाओ त फिर लोग ज़रा कम जाला। शायद उख भटै इख भी आवन लोग अब।
जग्गू: हां ज़रा शिक्षा मा सुधार चेनू लग्यू च
मनु: खेती बाडी अर स्वास्थ्य क भी ध्यान करी लीदं त अच्छू हूंद . गांवो मा अभी भी सुविधा नी छन।
सिपै: अरे अब हमर लोग समझेण बैठि गिन, अब त उत्तराखंड बणी गै त लुखो क उम्मीद भी और बढि गैन. अब उम्मीद च कि पलायन पर थोडा  विराम लगालू।

[खंसदू खसंदू ब्वाढा जी क आण ....]

ब्वाढा : अरे को चा आवाज त सुणनू छौ पर यू फुटायां आख्यू नी दिखेदू। अब कुछ  इन लगणू भीड ह्वेग्या इखम

[ सब  खुटा छुण बैठीन  ]

सैपे: ब्वाढा मी छौ हवल्दार राम सिंह - पान सिंह का नोनू ' अर भीड नी च बस मी ,ज्ग्गू अर मनु बस
ब्वाढा: अरे पाना क नोनू  कख भटैक भूलि रस्ता तू अपर गौ क. इख त अब क्वी भी नी दिखेंदु। अर भीड....अर  तीन आदिम भीड लगदी अब.पैली त क्वी आंद् नी च अर आला भी त हम तै देखि मुख फरक्या दिंदीन. क्वी ध्वार् भी नी आंदू जांद।
जगु: अरे बाढा हम त आणा ही रंद्वा तेरी खोज खबरी लीना कु कि अभी बच्यु च ब्वाढा की ना।
मनु : चिंता नी केरी बाढा त्वे तै कंधा कुन हम द्वी अर द्वी हेक का गओ भटिक ल्योला किलै छै फिकर कर्नी.
सिपै: अरे किले बुना छवा तन, ब्वाढा त म्यार नोनो क ब्याह कर्याकन ही जालू. किले ब्वाडा?
.... अर तुम लोग सुणाओ क्या हाल छन? क्या कना रंदवा तुम लोग आजकल..टैम पास होणु च कि कामकाज भी?
मनु: अरे अब त जनी तनी कै कि अप्रु हल लगै दींदू. गुजर बसर हुणु च. अर बाकि राम क मर्जी। अबै तेरी ना.... भगवान राम की!!! पैली त 5-6 मौ क हल लगाणु कू मिल जाम्दो छयु अब के कुण लागाण.
ज्ग्गू: हां अब जज्मान भी क्वी नी च इख या अगल बगल गांव मा. पूजा पाति त बस नामकुन च. स्कूल मा बच्चा भी न छन अर मास्टर भी नी छन .त कैबर मी चल जांदू पढाण कुण द्वी चार बच्चो तै. थोडा बहुत मन लग जांद निथर कुछ नी नच्यू ये गांव मा.
ब्वाडा: अरे पैली क्या हर्यू भर्यू छ्या. लोड बाल कु शोर्गुल मा आनन्द आंदू छ्याओ,अच्छु बुरु, ब्याह शादी अर काम काज मा एक दुसरा का सुख दुख मा सब दगडी छयाई
ब्वारी बेटी सब अगने पिछने सेवा मा हाजिर, नोना नाती पोता सब इज्जत दीदा छ्याई/ खूब रोनक रेंदी छै  अर अब न आप्णु ना बिरणु हर्चि गीन सब. काश म्यार जाण से पैली एक बार म्यार गांव क वा पुरनी छवि देखि सक्दू आंख्यू ना भी त महसूस कैरी लींद...
सिपै: बाढा त्यार मन क दुख मी समझनू छौ. मन त म्यार भी करदू अर बस कमाण अर परिवार क खातिर च्ल गै छौ मी लेकिन अब मीन सोचि आलि कि मी अगली साल बच्चो तै इख ल्योल अर फिर द्वी साल मा म्यार रिटायर्मेट भी च त मी अप्रु जन्म्भूमि मा वापिस ओलू फिर अपरु गौ ते उनी बणान क कोशिश कर्ल्यु आप लुखो क दगड मिलीक यू डाडी कांठियू तै फिर से रोतुली सुहाण बणाक क कोशिश करला।
जगु: अब मीतै एक जजमान अर द्वी विद्दर्थी ओर मिल जाल हा हा हा
मनु: अब त त्यार हल भी मी लगोल...  अर त्यार गोर बछरा भी मी ही चरोलु . क्या बुलदि
सिपै: हां हम सब मिलिक अप्रो गों की हंसी-खुशी वापिस लोला अर अगने बढौला
ब्वाढा; कथुक दिनु बाद या खुसि मिल. चलो प्रान भलि जाला पर तुम लुखो कि बात सुणि क मीतै खुसि च कि अब सैद बाकि लोग भी अप्र गांव पहाड क प्रति केवल लगाव ही नी राखल बलिक ये तै हर भरु बणान  मा भी अप्रि भूमिका निभाल.
( सब मिलीकन  : हम अपरी भरसक प्रयत्न करला कि अपणू उत्तरखंड का लुखो क हर प्रकार से सह्योग करला जै भी रुप मा ह्वे साकू। चाहे इख रोला या उख और उन सभी बूढि आंखयू का सपनो ते नयू आयाम दयूला।)

लेखक: प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल, अबु धाबी, यूएई

हेम पन्त

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Re: कुछ मेरी कलम से....
« Reply #2 on: April 26, 2010, 10:43:08 AM »
Great work Barthwal ji, lekhda raya

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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Re: कुछ मेरी कलम से....
« Reply #3 on: April 26, 2010, 01:26:14 PM »
jai ho barthwal ji bahut sundar lagi rao bhaute badi

Barthwal

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Re: कुछ मेरी कलम से....
« Reply #4 on: May 15, 2010, 07:41:17 PM »
कुछ याद आई गौं का बारा मा त यू भी याद आई कि उत्तराखंड मा बिठला द्वी शब्दू का प्रयोग करदिन..
"हे जी सुणा" अर "छी भै" त सोची की द्वी शब्द मी भी लेखि दूंय नोंक  झोंक

हे जी सुणा
उठो दि घाम ऎ गै
चाय लयो,चिनी की गुड़
          लोलि जरा झूठी केरी ले
          फिर नी चैणी चीनी न गुड़
छी भै........

हे जी सुणा
सरग च गगराणू
बरखा च हूणी
          चल रुझि जौला
          गीत हम भी लगोला
छी भै........

हे जी सुणा
कांया मा खैला
भुज्जी मा कि बणो साग
          सुणदि! तू इखमा बैठ
          तेर कचपोली बणोदु आज
छी भै........

हे जी सुणा
चलो घूमि ओला
भितरा भीतर बौले ग्यों
          चल मेरी नारंगी दाणी
          ल्योल वापिस यीं मुखडी कू पाणी
छी भै........

हे जी सुणा
कंरी मेरी भी सान
कन छौ मी लगणू
        जचणी छै लगणी छै मैडम
        भगै कन ली जौ त्वेते
छी भै........


हे जी सुणा
ढलकणी च उमर
क्या मी बुढेग्यो
         केन ब्वाल, केकि आंख फुटिन
         मेरी लाटी तू स्वाणी छै दिखेणी
छी भै........

हे जी सुणा
रात प्वड़िगे
चलो सै जोला
          चुची जुन्ख्यालि च रात
          कुछ  लगोला  छुई़ बात
छी भै........

हे जी सुणा
क्या छां तुम सुचणा
हाथ लगलू तुमर चुसणा
          ल्यादि इनै तौ कुंगली हथि
          फिर क्या सुचण सिरफ चुसणा
छी भै........

हे जी सुणा
खुद लगी च माँ की
मैत जाण क ज्यू च बुनु
        जाणी छै त ज्याले पर
        पर मितै तेरी खुद लगली त
छी भै........

(प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल , अबु धाबी यूएई)
(अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली)

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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self written /स्वरचित.
« Reply #5 on: May 24, 2010, 11:42:20 AM »
मेरा पहाड़ के सभी सदस्यों को सुचित करते हुवे आपार हर्ष हो रहा है कि मै सुन्दर सिंह नेगी मेरा पहाड पर एक स्व लेखन विषय सुरू करने जा रहा हु. आप सभी मेरा पहाड के सदस्य लेखको से अनरोध है कि आप भी अपनी स्वरचित रचना इस बिषय मे लिख सकते है।
मै कोई लेखक नही हु, मै कोई कवि नही हु. फिर भी कुछ लिखने कि कोशिश करता हु, तो आप भी कर सकते है कोशिश कुछ लिखने की.
वैसे मेरा पहाड मे लेखको की कमी भी नही है ये सुन्दर सिंह नेगी का मानना है।

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: self written /स्वरचित.
« Reply #6 on: May 24, 2010, 11:48:27 AM »
परंमपरा हमारी जीवन शैली की अभिन्न पहचान है, जो परंमपरा पिछे से चली आ रही है उसे आघे तक ले जाना और फिर उसे और आघे ले जाना यह परंमपराऐ इंसान से ही सुरू होती है और इनसानियत पर खत्म होती है।
मतलब साफ है अगर इंसान मे इनसानियत बरकरार है तो समझो अभी परमपराऐ भी जीवित है, अगर इंसान मे इनसानियत नही रही यानी इंसान बदल गया तो समझो कि परमपरा भी बदल गई है, श्री राम चंद्र जी ने भाई लक्षमण से यही कहा था कि मुह का मिठा लंगुठी का यार कभी नही बदलता, इसका साफ संदेश यही है कि आज हम मुह के मिठे और लंगुठीया यार नही रहे।

यानी आज हमारे बोलने मे भले ही मिठास हो मगर वह निहःस्वार्थ मिठास नही ब्लकि स्वार्थ के लिए बोली गई मिठास है, जो मतलब निकल जाने  के बाद कड़वी लगने लगती है, ठिक इसी तरहै हम परमपराओ के साथ भी कर रहे है यानी हम अपने निजी स्वार्थ के लिए अपनी परमपराओ को भी बदल देते है जो कि हमारी पहचान होती है। अब बात बची लंगुठिया यार कि तो आज हम लंगुठिया यार भी स्वार्थ के लिए ही बनते है, कहने का मतलब है कि वही तक किसी के साथ चलते है जहा तक अपना काम बन जाय, और जब काम बन जाये तो लंगुठी छोड देते है.

तो दोस्तो विश्वास जगाओ इसे बुझाओ मत, वरना विश्वासघात ही हमारी जीवन शैली बन जायेगी।
 
सुन्दर सिंह नेगी 10/05/2010.

--

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #7 on: May 24, 2010, 04:31:10 PM »
      कोंन बदलता है समय या आप?

सब कहते है समय बदलता है हम कहते है कि बस ये दौर होते है।
जब दौर बदलते है तो जिन्दगी ही नही बहुत कुछ बदल जाता है।

और जहां जिन्दगी बदल जाती है वहा इन्सान बदल जाते है।
जहा इन्सान बदल जाता है वहां रिस्ते भी बदल जाते है।

रहन सहन बदल जाता है खान पान बदल जाता है।
यहां तक कि उठने बैठने का ढंग तक बदल जाता है।

ये बदलाव उसे ही अच्छे लगते है जो कहता है कि समय बदलता है।
अब सच नही मानते हो तो मै पुछता कि समय कितना बदल गया है।

क्या रबी पश्चिम से उदय होने लगे है? क्या पानी उपर को बहने लगा है?
क्या चाँद कि अब सितलता खत्म हो गई है? क्या तांरो ने अब जगमगाना छोड दिया है?
 
क्या हवा ने चलना बन्द कर दिया है? इतने सबुतो के बाद भी आप कहते है समय बदलता है।
तो फिर आप समय कि परिभाषा नही समझते है। तुम एक समय चक्र मे बदलते इन्सान हो।

पहले हर्दय मे बसा लेते हो फिर जब जी भर जाए उसे त्यागना उचित समझते हो।
यह बदलाव नही आपका स्वार्थ है, जिसे तुम समय परिर्वतन कहते हो।

समय के आते जाते दौर मे कुछ पाने को भी किस्मत समझते हो।
उसके खो जाने को भी किस्मत कहते हो, इस तरहै भी क्यो बदलाना चाहते हो।
 
लो यह मेरी एक सलाह मुफ्त मे ले लो, सुरज कि तरहै चमकते रहो।
चाँद कि तरहै सितल रहो, पानी कि तरहै एक दिशा मे बहो।
 
समुन्दर कि तरहै गहरे बनते जाओ, तारो कि तरहै जगमगाते रहो।
इन्सान हो तो इन्सान कि तरहै रहो, इनसानियतता का प्रचार करो।
 
फिर मुझे बताना कि समय बदलता है या दौर बदलते है।
तुम इन्सान हो आपस मे, समय कि तरहै ब्यवहारशिल रहो।
 
न दुख दुखी करेगा, न सुख मदहोस करेगा।
जीवन का आन्नद, हर इन्सान महसुस करेगा।

जिन्दगी चार दिन नही, हजार दिन जीनो को मन करेगा।
बस समय को बदनाम करना छोड़ दो, दौंरो को बदलते रहने दो।

तुम समय कि तरहै स्थिर रहो, फिर देखो कोंन बदलता है।
सब कहते है समय बदलता है, हम कहते है दौर बदलते है।
 
स्वरचित सुन्दर सिंह नेगी 22-04-2010.

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #8 on: May 24, 2010, 05:05:35 PM »
      कोंन बदलता है समय या आप?

सब कहते है समय बदलता है हम कहते है कि बस ये दौर होते है।
जब दौर बदलते है तो जिन्दगी ही नही बहुत कुछ बदल जाता है।

और जहां जिन्दगी बदल जाती है वहा इन्सान बदल जाते है।
जहा इन्सान बदल जाता है वहां रिस्ते भी बदल जाते है।

रहन सहन बदल जाता है खान पान बदल जाता है।
यहां तक कि उठने बैठने का ढंग तक बदल जाता है।

ये बदलाव उसे ही अच्छे लगते है जो कहता है कि समय बदलता है।
अब सच नही मानते हो तो मै पुछता कि समय कितना बदल गया है।

क्या रबी पश्चिम से उदय होने लगे है? क्या पानी उपर को बहने लगा है?
क्या चाँद कि अब सितलता खत्म हो गई है? क्या तांरो ने अब जगमगाना छोड दिया है?
 
क्या हवा ने चलना बन्द कर दिया है? इतने सबुतो के बाद भी आप कहते है समय बदलता है।
तो फिर आप समय कि परिभाषा नही समझते है। तुम एक समय चक्र मे बदलते इन्सान हो।

पहले हर्दय मे बसा लेते हो फिर जब जी भर जाए उसे त्यागना उचित समझते हो।
यह बदलाव नही आपका स्वार्थ है, जिसे तुम समय परिर्वतन कहते हो।

समय के आते जाते दौर मे कुछ पाने को भी किस्मत समझते हो।
उसके खो जाने को भी किस्मत कहते हो, इस तरहै भी क्यो बदलाना चाहते हो।
 
लो यह मेरी एक सलाह मुफ्त मे ले लो, सुरज कि तरहै चमकते रहो।
चाँद कि तरहै सितल रहो, पानी कि तरहै एक दिशा मे बहो।
 
समुन्दर कि तरहै गहरे बनते जाओ, तारो कि तरहै जगमगाते रहो।
इन्सान हो तो इन्सान कि तरहै रहो, इनसानियतता का प्रचार करो।
 
फिर मुझे बताना कि समय बदलता है या दौर बदलते है।
तुम इन्सान हो आपस मे, समय कि तरहै ब्यवहारशिल रहो।
 
न दुख दुखी करेगा, न सुख मदहोस करेगा।
जीवन का आन्नद, हर इन्सान महसुस करेगा।

जिन्दगी चार दिन नही, हजार दिन जीनो को मन करेगा।
बस समय को बदनाम करना छोड़ दो, दौंरो को बदलते रहने दो।

तुम समय कि तरहै स्थिर रहो, फिर देखो कोंन बदलता है।
सब कहते है समय बदलता है, हम कहते है दौर बदलते है।
 
स्वरचित सुन्दर सिंह नेगी 22-04-2010.
नेगी जी आप तो ठैरे पोएट आपकी बातें समझाने के लिए भी ज्ञान चाहिए, मैं तो कहता हू की इंसान अपना मन स्थिर कर ले फिर देखो न समय बदलता है ना ही इंसान, लेकिन क्या करे ये चंचल मन है यह एक सेकंड के लिए भी स्थिर नहीं रहता, अभी तक तो इंसान ही बदला है हाँ मेरा दावा है अगर मन स्थिर हो जाये तो इंसान अमर हो जायेगा,

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #9 on: May 25, 2010, 02:42:11 PM »
           प्रेम है या मोह?

प्रेम कि परिभाषा न तुम जानती थी न मे जानता था।
हा यह एक हम दोनो के बीच का एहसाश जरूर था।

तुम मुझे कुछ समझाती थी, मे कुछ तुमहै समझाता था।
तुम कभी मुझे खिड़की से, पल भर के लिए निहारती थी।

तो मे कभी तुमहै अपने आंगन से पल भर के लिए गुन गुनाता था।
तुमहै भी कुछ एहसाश होता होगा, जैसे कुछ एहसाश मुझे होता था।

तुम पास आना चाहती थी, तो मे तुम्हारे करीब से गुजरना चाहता था।

मेरा एहसाश था कि तुम मिल जाती तो, मे समझ लेता कि सब कुछ पा लिया।
तुम्हारा एहसाश था कि तुम मुझे पा लेती तो, जीवन खुशियों से भर जाता।

स्वरचित
सुन्दर सिंह नेगी 16-04-2010.

 

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