Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 234466 times)

devbhumi

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कल सेल्फी ली थी
कल सेल्फी ली थी
माँ की मैंने
खुश थी वो अनपढ़
ना जाने किस बात पर
एक पल हंसी थी वो
ना जाने क्यों वो कल खुलकर
पूछा मैंने आज
जब बैठी उदास उस बूढी माँ से
कहा उसने
अपनों से मिली थी मैं ऐसे ही
एक बरस पहले
कहा था बेटों बेटियों ने बड़े प्यार से
हैप्पी मदर्स डे माँ
फिर उसी दिन के इंतजार में
बैठी हूँ फिर आज इसी आस मैं
उस हंसी के लिये
एक बरस फिर लगेंगे
उनसे मिलने एक ही घर में
अपनों के इन्तजार में
बस आंखें छलक गयी मेरी
कल सेल्फी ली थी
माँ की मैंने
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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आंखों में उभरी नमी  के लिये

आंखों में उभरी नमी  के लिये
चेहरों पे बिखरी हंसी के लिये
जिंदगी ढूंढती रही  जिंदगी के लिये
आंखों में उभरी नमी  के लिये

पहाड़ों से मेरा अलग ही लगाव है
दूर बैठा हूँ शायद इसलिये  उस से बहुत प्यार है
धड़कती ये धड़कन अचानक क्या गाने लगी
छलकने लगी आंखें उनकी याद आने लगी

मर जाते हैं हम थोड़ी जमीं के लिये 
तड़पते रहे उम्रभर  उस कमी के लिए
जिंदगी ढूंढती रही  जिंदगी के लिये
आंखों में उभरी नमी  के लिये

आयेग वो  समय जब भी करीब मेरे
ना अपना रहूंगा  ना बेगाना मैं
मोड़कर देखूंगा जब इस जमाने को मैं
ना तकिया रहेगा ना ठिकाना मेरा

घर को मैं अपना घर बना ना सका
उसकी जदोजहद में खुद को भी पा ना सका
जिंदगी ढूंढती रही बस  जिंदगी के लिये
आंखों में उभरी नमी  के लिये

बालकृष्ण डी ध्यानी
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लाने बस चार आने मुझे

अभी बहुत दूर तक जाना मुझे
लाने बस चार आने मुझे
जगमग दिप खूब जलाये मैंने
जब अंधेरों ने खूब ठगाये  मुझे

भावनाओं ने रचा सारा खेल था
अच्छाई  बुराई का सारा मेल था
अपने आप को  इसमें चढ़ा लिया
सुख और दुःख की जो चली रेल है 

छटपटाते  हुए जब हांफने लगा
गजबज कर मैं उसे ढूंढने लगा
पीछे छूटा मोड़ बहुत दूर था
महसूस होता है सब उसी छोर था

लगाई किसने वो स्नेह आवाज थी
भावक हो बहक गया मैं उस राह
ना जाना सका मेरा  भला बुरा 
उस भ्रमक रहा पर  बढ़ता रहा   

कर्म होता है क्या  मुझको नहीं पता
गिरते पड़ते उठते बस मै  चलता चला
अभी बहुत दूर तक जाना मुझे
लाने बस चार आने मुझे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अब भी जीने के लिए अपना पूरा जोर लगाता हूँ

हम ने छोड़ दी अब तन्हाइयों से बातें करना 
तुम आते हो तो  मेरा ठहर वक्त गुजर जाता है 

घर कि चार दीवारी को घंटों हम घुरा करते हैं
अकेले हैं हम आज वो कैसे समझ जाता है 

अपने होने का एहसास उनके ना होने से हुआ
ये तजुर्बा हमे अपना सब कुछ खोने से हुआ

जब तक माँ थी मेरी तब तक घर घर था मेरा
मुसाफिरखाना है अब ऐ जागता है सो जाता है

पहाड़ों में घर था मेरा अब वंहा कोई नहीं रहता
जहां बाप दादाओं ने अपनी मेहनत लगाई थी

अब भी देखती रहती है एक नजर एकटक मुझे
अब भी मैं  उस नजर से नजरें अपनी चुराता हूँ

फ़क़त दो सांस रह गई इस मांस के ढांचे में अब
अब भी जीने के लिए अपना पूरा जोर लगाता हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
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हे तमस हरा

अज्ञानता अब तुझ से 
लड़ने का मन करता  है
फैले तमस में उजियारा
तुझे ढूंढने का मन करता है

वो अँधेरा छा रहा है खूब
मन ये रजस् सा ललचा रहा है खूब
आंच उसकी जला रही है खूब
मुझको अब वो लुभा रही है खूब

असर रजस् का हो रहा है भरपूर 
कोई अपना मुझ से हो रहा है  दूर
वो तृष्णा और लालसा मेरी बढ़ा रही
मोह की और वो मुझको  बढ़ रही  है

अब ये नश्वर शरीर खुद से ही
सब भूल जाना चाहत है
बोध आत्म को जब भी
अंतर्मन सत्व का होता है

एकाकार से जब तमस मिटता है
पूरी तरह अपने से वो छट जाता है
अंधकार से प्रकाश पल्वित होता है
तब  ही मोक्ष मार्ग खुलता है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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तेरे बारे में.....

कुछ अधूरे चित्र हैं  रंग ने मुझे
खाव्ब उन आंखों के अधूरे बुनने मुझे

देखता हूँ तो खुद से हैरत होती मुझे
हालातों अकेले तुम से उनको लड़ते हुये

यह अहसास मेरा एकदम बिलकुल सच है
पतंग बन उड़ जाने को वंहा शाम मस्त  है

नहीं है मूल्य इनका यंहा कुछ भी वंहा
आनंद नाम  मेरा कहता है वो आ मिल जा  गले

मुश्किलों के घुप्प अन्धेरों में वो फंसना मेरा
मुश्किलों से टकराकर खुद को परखना तेरा 

समय-समय पर मुझे यूँ ही संभाला लेता है तू
गोदी बन माँ की अपने आँचल सुला देता  है तू

आत्म-विश्वास यूँ ही मेरा  बढ़ा लेता  हूँ मै
दूर खड़े पहाड़ों जब तुम्हारे समीप आता हूँ मै

तेरे बारे में जब इतना सा ही सोच लेता हूँ मैं
अनुपम सुख आनंद की अनुभूति पाता हूँ मैं

बालकृष्ण डी ध्यानी
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क्या  तस्वीर खींचता रह जाएगा

जलते जंगल जाना  मंगल
कौन पूछेगा सवाल किसे 
उलझे पड़े हैं  जवाब सभी
मौन खड़े हैं विचार सभी

जब अपनों को बचा ना पायेगा
हाथ तेरे क्या आएगा
हर पल तो अक्षम खड़ा रह जाएगा
वो लूटने  आया है वो लूट ले जाएगा

कैसी सदियों की विडंबना है
राख होते हैं भविष्य बस सवेदना है
आंखें छलकती लाचार खड़ी हुई
पिटती  छाती और झुलसी  हुई

इतना निर्बल मन है तेरा क्षीण  है तू
कहता है बाहुबली सा वीर है तू
मोबाइलों से तस्वीर लेने में तू लगा रहा
इंसानियत का अस्तित्व तेरा  छिपा रहा

आगा तेरे घर तक जब तक ना पहुँचेगी
जब  तक तू इस दर्द से ना खुद कहरायेगा
ऐ  दर्द का मंजर तू ना महसूस कर पायेगा 
देखूंगा तभी भी तू
क्या  तस्वीर खींचता रह जाएगा  ... ३

बालकृष्ण डी ध्यानी
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आज कल

सुना है पर्बतों पर मेला लगा है आज कल
कोई अपना अकेला फिर रहा है वंहा अब भी आज कल

ना जमीन है  ना आसमान है वंहा
मिल रहा है वो वंही आज कल
चलो चलें क्षितिज के उस पर कह रहा है
वो वंही से आज कल

सात रंगों ने अपनी छटा बिखराई हुई है वंही पर आज कल
झर झर झरते झरनों ने हरयाली फैलाई है वंही पर आज कल

बीते  पलों को वो ढूंढ रहा है जो उस से छूट गया आज कल
उजड़े खंडहरों  में ना जाने आज किसे वो ढूंढ रहा है आज कल

आया है बड़े दिनों बाद वो
लाया है बस दो दिन का अवकाश वो
बिछोह सदियों का इतने काम समय में कैसे करेगा पार वो
वो ही अब समझेगा वो ही अब समझायेगा
मन को पहले भी मनाया था अब भी उसको ही मनाएगा

शायद ग्रीष्म  ऋतू आई है छाई है
इसलिए लगता हैं  पहाड़ों ने ली फिर अंगड़ाई है
त्रस्त  हुए ग्रीष्म  से मुसफ़िरों ने
फिर अपने गाँव  की और दौड़ लगाई है
आज कल

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरे अपने घर आएंगे

मेरे अपने घर आएंगे
आज नहीं वो कल आएंगे
संग अपने सपने लाएंगे
आज नहीं वो कल आएंगे

कल भी ऐसे ही मिलूँगी
जैसे छोड़ गए थे तुम
राहों में बैठे बैठे
मुझ से दूर हुए थे तुम

कल एक नई बात भी होगी
चुपके से शुरुआत भी होगी
चुप रहूंगी आज भी मैं
बस बोलो गे तुम

मन ही मन मैं सोचूंगी
तन मन फिर अर्पित कर दूंगी
उस घर कोने में बिखरी पड़ी हूँ मैं
मन ने कहा आज कह दूँ तुम से

तब भी चुप थी आज भी चुप हूँ मैं
फिर अवकाश खत्म हुआ तुम्हरा
फिर आँखों से ओझल हुए तुम
मेरे अपने घर आएंगे
 
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गाथा तेरी अवर्णीय

पता  नहीं है क्या सोच रहा 
क्षण प्रति क्षण जो मुझ से बोल रहा 

बैठ अकेला वो रो रहा
सुख नींद दूर कोई  अकेला सो रहा

पराग ने अभी गहरी साँस भरी
वसुंधरा अभी भी हरी भरी

अपरिचित सृष्टि अल्कल्पनीय वो
विवेचना मेरी भी कह रही वो

नारी तेरी गाथा है अवर्णीय
काँटों से फूलों को क्यों तोड़ रहा

मुक्ति  ‘कोई तो’ प्रतीक्षा करता
इस भाव संग सब वो छोड़ रहा

संध्या उड़ते धूल भरी सरिता बह
स्वयं ही दासता बंधन तेरा जोड़ रहा

किसी मोड़ मै भी मिलूंगी  तुम से 
क्षण प्रति क्षण जो मुझ से बोल रहा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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