आंखों में उभरी नमी के लिये
आंखों में उभरी नमी के लिये
चेहरों पे बिखरी हंसी के लिये
जिंदगी ढूंढती रही जिंदगी के लिये
आंखों में उभरी नमी के लिये
पहाड़ों से मेरा अलग ही लगाव है
दूर बैठा हूँ शायद इसलिये उस से बहुत प्यार है
धड़कती ये धड़कन अचानक क्या गाने लगी
छलकने लगी आंखें उनकी याद आने लगी
मर जाते हैं हम थोड़ी जमीं के लिये
तड़पते रहे उम्रभर उस कमी के लिए
जिंदगी ढूंढती रही जिंदगी के लिये
आंखों में उभरी नमी के लिये
आयेग वो समय जब भी करीब मेरे
ना अपना रहूंगा ना बेगाना मैं
मोड़कर देखूंगा जब इस जमाने को मैं
ना तकिया रहेगा ना ठिकाना मेरा
घर को मैं अपना घर बना ना सका
उसकी जदोजहद में खुद को भी पा ना सका
जिंदगी ढूंढती रही बस जिंदगी के लिये
आंखों में उभरी नमी के लिये
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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