वो हात खाली रह गये
मन उथल-पुथल तब हो जाता
बिन बोले करीब से दूर तू चला जाता
सोचता हूँ बैठे अकेले जब तेरे बारे में
तू झट दौड़ के समीप हो जाता
निराशा आशा के गर्त समंदर में
अक्सर दोनों में युद्ध क्यों चलता रहता
वो वियोग वो दर्द उस तिलमिलाहट से
अब तू क्यों इतना उचट सा जाता
अपनों से अपनी बातें कहने में भी अब
मीलों और सदियों की दुरी वो क्यों पाता
आधुनिकता विकास लगी दौड़ ऐसी
आपस में अपना यूँ मुख क्यों तकती
छोटी-छोटी बातों में मेरे हिर्दय तुम
अब सुख अपना खोजना हम भूल गये
देख लिये हैं दूर कहीं हमने बड़े सपने
वंहा से वापस लौट आना हम भूल गये
अपनों से मिलने ध्यानी अब वक्ता तो लगता है
मौसम कैसा भी हो मगर बस चलना तो पड़ता है
अपने 'विवादों को हम सुलझाते उलझाते रह गये
पीछे मोड़ देखा वो हात खाली रह गये
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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