Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 527367 times)

jagmohan singh jayara

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   "तौं डाँड्यौं का पार"

पंचाचूली, त्रिशूली,
शिवजी का कैलाश,
नंदा घूंटी प्यारी जख,
नंदा कू निवास....

चौखम्भा, केदारकाँठा,
कनि स्वाणि कांठी,
कुमाऊँ गढ़वाल छन,
ऊंचि-ऊंचि डांडी.....

हिंवाळि काँठ्यौं तैं हेरा,
जब औन्दु घाम,
सोना चाँदी सी चमकदि,
देवतौं का धाम.....

ह्यूंचळि काँठ्यौं तैं हेरि,
औन्दु छ उलार,
मन बोल्दु फुर्र उड़ि जौं,
तौं डाँड्यौं का पार.....

हिंवाळ्यौं मा चमलांदु,
ढूध जनु ह्यूं
ख्वै जान्दु छ मन,
खुश होन्दु ज्यू......

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली
9.9.2009 दूरभास:9868795187
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

jagmohan singh jayara

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एक बार कखि उत्तराखंडी कवि सम्मलेन कू आयोजन ह्वै.  आयोजनकर्ताओंन विषय रखि "पर्वतीय नारी"...सब्बि कव्यौन  सोचि...अपणी धर्मपत्नी भि त पर्वतीय नारी छ, किलै न ऊंका बारा मा ही कविता बोले जौ हास्य रूप मा.

"उत्तराखंडी कवि सम्मलेन"

एक कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
ब्याळि वींन मै फर,
स्यूं सग्त,
कर्छुलै की मारी,
खाँदा छैं त खैल्या,
निखाणि होलि तुमारी,
मैकु होयुं छ मुन्डारु,
आज अति भारी.

दूसरा  कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
भग्यान छ भारी,
छोड़दि निछ डिसाणि,
ज्व छ वींकी लाचारी,
कब बणाला चाय मैकु,
करदी छ इंतजारी,
बात माणा जू,
रन्दि खुश भारी.

तीसरा कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
मिजाज वींका भारी,
वींकी नजर मा,
फुन्ड धोल्युं छौं मैं,
ज्व छ मेरी लाचारी,
कैमा नि बोल्यन,
कन्डाळिन भि,
सपोड़्यु छौं.

चौथा कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
वीं सनै पसन्द छ,
आलु कू थिन्च्वाणि,
हमारा घौर आऊ क्वी,
नि पिलौण्यां पाणी,
द्वी रोठी ज्यादा खौलु,
मन मा रन्दि,
भारी कणताणी.

पांचवां कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
प्रचंड वीन्कु रूप छ,
हाथ ध्वैक भूक छ
सैडा गौं का लोखु तैं,
वींकी भारी डौर छ,
मैन क्या बोन्न,
बिराळु बण्युं,
नर्क अपन्णु घौर छ.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This is an excellent Poem on a Uttarakhandi who come in search Job in City and what kinds of difficulties he faced in the City, is well described in this Poem: Somebody has posted this poem to me, i don't who actually composed this. Whosoever composed this,i salute him.
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खिला एक फूल फिर इन पहाडों में.
मुरझाने फिर चला delhi की गलियों में.
graduate की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.

फिर एक उत्तराखंडी लड़का जिंदा लांश बन गया.......
खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मारा बस के धक्कों में वो.दिन है या रात वो भूल गया.
फिर एक गढ़वाली लड़का जिंदा लांश बन गया......

देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
फिर एक उत्तराखंडी  लड़का जिंदा लांश बन गया......

अब साल में चार दिन घर जाता है
वो.सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया

फिर एक उत्तराखंडी  लड़का जिंदा लांश बन गया.....

मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
गढ़वाली गाने सुने तो उदास होता गया..

फिर एक उत्तराखंडी  लड़का जिंदा लांश बन गया......

न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
रोते हैं माली रोता है चमन..

उत्तराखंड का फूल उत्तराखंड में महकेगा की नहीं

hem

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सुन्दर रचना. साधुवाद.

jagmohan singh jayara

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 कंडाळी प्यारा पहाड़ मा प्रसिद्ध छ.  कंडाळी कू त्यौहार भी होन्दु छ पहाड़ मा.  कंडाळी कू साग....जू नि खै सकलु...यनु बिंगा...नि छन वैका बड़ा भाग... वीर भड़ुन...हमारा पित्रुन भी खाई छकिक......भूत भौत डरदु छ कंडाळी देखिक....
 
 "कंडाळी-सिस्यूण"

प्यारा उत्तराखंड मा, झर-झरी कंडाळी की डाळी,
गौं का न्यौड़ु पुन्गड़ौं मा, होन्दि छ झपन्याळी.

वीर भड़ुन भी खाई, झंगोरा मा राळि-राळि.
भूत भगौण मा काम औन्दि, झर-झरी कंडाळी.

ब्वै बाब डरौंदा दिखैक, छोरों तैं झर-झरी कंडाळी,
ऊछाद नि कन्नु मेरा बेटा, देख त्वैन बिंग्याली.

कथगा सवादि होन्दु छ,  झर-झरी कंडाळी कू साग,
खालु क्वी भग्यान छकिक, जैका होला बड़ा भाग.

पित्रुन खाई काफलु बणैक, आस औलाद भी पाळी,
उत्तराखंडी भै बन्धु, बड़ा काम की चीज छ कंडाळी.

झूठा अर् चोर मन्खि फर, जब लगौन्दा छन कंडाळी,
वैका मुख सी छूटि जान्दु सच, देन्दु सारा राज ऊबाळी.

जुग-जुग राजि रै पहाड़ मा, बड़ा काम की हे कंडाळी,
फलि फूली प्यारा पहाड़, सदानि रै हरी भरी झपन्याळी.
     

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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इजा (माँ को उत्तराखंड की कुमा उनी भाषा में ईजा कहते है)

डॉक्टर : दीपा गोबाड़ी की यह रचना ईजा पर
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इजा ! म्यार भूख डाड़ में त्वील  निवाल देछ
मील मागो रुवट त्वील पकवान देछी

मील चद्दर मागो, त्वील नरम दिशांण देछ
स्यो  इच्छा मेरी त्वील, बड़ भेर आँचल देछ
म्यर लेखन पड़नक इच्छा, त्वील मीके ज्ञान देछ
एक्क त्वप पाणी इच्छा, त्वील ठुल्लो सागर देछ
जली पीडान घौ म्यार, त्वील ठण्ड मलम देछ

म्यार स्वीनक पाखन के त्वील उडी नहीं आकाश देछ
तवी शक्ति छे, तवी दुर्गा छे, तवी जननी इजा
म्यर सबे पेड के दूर कर भेर, मीके खुशिक नीद देछ


Sabhar : Kumauni Masik Patrika - "Pahru"

Jagga

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पहाड़ की एक कल्पना , मेरे आँखों का धरोहर >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

सारी उम्र आँखों मैं एक पहाड़ रहा !
सारी उम्र बीत गयी वो वशा पहाड़ रहा !
न जाने क्या है उस पहाड़ और मुझ मैं !
सारी महफिल भूल गए बस पहाड़ की याद मैं !

आज लगता है क्यों उदासी छाई है !
क्योकि पहाड़ से हम लोगो की जुदाई है !
रोया है फिर एक तन्हाई पहाड़ का है!
क्यों जाने प्रदेश मैं आज पाहड है !

मैं दोडा बड़े जोश से बचपन पहाड़
तब ना याद था मुझे अपना पहाड़
क्यों की अ़ब हम ना लोट चलगे पहाड़
क्यों की मैंने धिख सपनु का पहाड़ !

पेड होकर भी छुट जाता है पहाड़
पत्थर और मिटी का होता है पहाड़
पाणी इस से भागता है इस पहाड़
बहार जाने ही याद आता है पहाड़

पहाड़ से निकला पत्थर रुकता नहीं
जवानी मैं हमे पहाड़ फलता नहीं
पहाड़ से निकलते ही हटना नहीं
पहाड़ याद दिलता है अपना पहाड़

सोचा था न करगे किशी से पहाड़ की बात
मुख से पहले निकलता है पहाड़
क्यों की हम को जन्म से दिखा है पहाड़
तभी आँखों मैं घूमता है आपना पहाड़

पहाड़ को रोज फोड़ने वाले क्या जाने
पहाड़ के रिवाजो को आज हर क्या जाने
होती है कितनी तकलीफ पहाड़ बनाने मैं
प्रदेश मैं बसा हर पहाडी क्या जाने

धन्य है वो जो पहाड़ बना क्या , सत नमन है उस को मेरे
जिस ने दिया बच्च पनप्यार , वो है सब का प्यारा पहाड़ !!!


Jagga

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पहाड़ मैं होगा सब पहाडी , एक होगा पैदा ऐश पहाडी !
फिर न कही अँधेरा मैं होगा अपना पहाडी , सूरज उगेगा मेरे पहाडी वैभव का
पहाड़ का घर-घर अपना फेरा होगा, एक होगा पैदा ऐश पहाडी !!

पहाडी बोली की होगी अपनी बस्तिया , चमकता हुवा हर पहाडी चेहरा होगा !
प्रहरी सुख पहाड़ का घेरा अपना होगा , हर गुज मैं गुजेगा पहाडी अपना होगा !!
हर जुबान पै पहाड़ का पहाडी नारा होगा , उन्नति -प्रगति मैं अपना पहाडी होगा !

तब सुंदर उत्तराखंड पहाड़ हमारा अपना होगा , जब महकेगा पहाडी का पाणी , माटी!
उस दिन धन्य होगा पहाड़ का अपना पहाडी , हर होगा ऐश अपना पहाडी
जिस से धन्य होगा अपना सब पहाडी , जल्दी पैदा होगा अपना पहाडी !!

जय पहाडी भूमि के म्यएर सत सत नमन छु , हर पहाडी जुबान पै पहाड़ लिजी नमन छु
अब हमर पहाड़ ले आपुड़ मैं मग्न छु , हिन्दुतान मैं आपु मैं उ चमन छु पहाडी !!


Jagga

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तेरी गोद मैं सोना है मुझे पहाड़ . जी भर के रोना है पहाड़
तू सुला दे मुझे अपने आचल की छाव मैं पहाड़
तू है मरा सुकून मुझे वही रहना है तेरे पाउ मैं पहाड़ !!!

मुझको बचपन का मासूम फ़रिश्ता याद देगी तेरी गोद
जो ना जाने ज़माने मैं किशी आपने का बोझ
तू सुला दे मुझे नींद वैसी फिर अपनी गोद पहाड़
अब और गम नहीं सहना है मेरे अपना पहाड़

तेरे सीने से लग कर हलका होगा मरा गम एक दम
तेरी यादु मी पहाड़ मुझे मिलेगा अपना बचपन का जन
तेरी हवा मेरी दवा है तेरी ही हम पर दया का एक अंस
तेरे ही पास ही मेरे अपना है जीवन का एक छंद भज!!! 

मैं तरसता रहा तेरी गोद के लिए पहाड़
तेरी कलकल छाऊ को .. तेरी घास को , तेरी हर लहराती ब्याव को पहाड़
तेरी ही अमानत से जन्नत का खिलौना है मेरे पहाड़ !!!

है ये दुःख जहा देता है रोज़ दर्द के कुछ घाऊ
मैंने धुडा ना कहा सुकून मुझे मिलता है पहाड़ सकुन
तुझसे दूर हो गया हूँ तो हर कोई ठोकर लगा रहा है मुझे
मैं बहुत रूट गया हु , मुझे बुला ले अब अपने पहाड़ !!!

मैं अब रुक ना सकू चलते चलते इन ज्ख्मु पर
दर्द होता है ज्ख्मु पर मलहम के लग दे अपना पहाड़
जल्दी से बुला ले तू पहाडी को उस का अपना पहाड़
वो दोडा-२ कर आएगा अपना पहाड़ ब्लेगा
म्यर पहाड़ ........................वार पार म्यर पहाड़

Jagga Kandpal

Jagga

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खिला एक फूल फिर इन पहाडों में.
मुरझाने फिर चला delhi की गलियों में.
graduate की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
फिर एक गढ़वाली लड़का जिंदा लांश बन गया.......

खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मारा बस के धक्कों में वो.
दिन है या रात वो भूल गया.
फिर एक गढ़वाली लड़का जिंदा लांश बन गया......

देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
फिर एक गढ़वाली लड़का जिंदा लांश बन गया......

अब साल में चार दिन घर जाता है वो.
सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया
फिर एक गढ़वाली लड़का जिंदा लांश बन गया......

मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
गढ़वाली गाने सुने तो उदास होता गया..
फिर एक गढ़वाली लड़का जिंदा लांश बन गया......

न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
रोते हैं माली रोता है चमन..
उत्तराखंड का फूल उत्तराखंड में महकेगा की नहीं
Geeta Rawat By ajmer

 

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