Author Topic: Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये  (Read 29133 times)

Brijendra Negi

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कच्ची


    (91)

पद, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा हर्च
कुछ नि बच्यूँ बाकि सच्ची,
तिमला का त्यारा तिमला खत्येन
अर नंगि का नंगि दिखेई सच्ची,

हे ! अवगुणी अबेर हूणी चा
अब त सुधर जा सच्ची,
न अलझ अब रे अभागी
फुण्ड फूक सीं पक्की-कच्ची।


    (92)

न सेवा-सौंलि मा दे कच्ची,
न सौं-करार मा पे कच्ची,
न तड़क-भड़क मा दिखा कच्ची,
न दैल-फैल मा पिला कच्ची,

न घूस-रिस्पत मा दे कच्ची,
न सुविधा पाणा कु पिला कच्ची,
न अतै-बितै कि आर-सार कच्ची,
न उदेल-उखेल कु रस्ता कच्ची।


क्रमश........



Brijendra Negi

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कच्ची


    (93)

ब्वल्यूँ मानले हे ऐबि !
न ट्वटुकु प्वड्यों रै सच्ची,
न पैथर पोड़ सीं दारू कु
ऐजा से ऐब छोड़ि सच्ची,

आँखा खोल अब तू भि
बक्त नीचा तौं बुजणा कु,
सब कुछ हर्च ग्या वूंकू
जो सियाँ रैगीं पेकि कच्ची।


    (94)

सुबेर कु भुल्यूँ ब्यखुन्दा आजा
वे खुण भुल्यूँ नि ब्वल्दा सच्ची,
जब उठी तभी सुबेर समझी
ऐथर बढ़ण चैन्द सच्ची,

औंसि कि राति कु बाद
पूर्णमसि भि आन्द छुछा,
अंध्यरि रात मा रस्ता मिल्दी
यदि इच्छा शक्ति निह्वा कच्ची।


क्रमश .....

Brijendra Negi

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कच्ची


    (95)

सोची, समझी, समझा कि
जिकुड़ी थै मजबूत कैर सच्ची,
आज एक सौं न पीणा कि
न पिलौण कि ल्हे सच्ची,

फिर देख तेरि जिंदगी मा
कन बहार आन्द सच्ची,
अप्णी सौं-करार मगर
कभि नि हूण दे तु कच्ची।


    (96)

जिकुड़ी कु दर्द मा उमाल आई
खत्ये कि आखर बणी सच्ची,
आखर उकरि कि शब्द बणी
जो नशा कु उयार बणी सच्ची,

सुपथ पर वो लौटि कि ऐजै
घर-परिवार कि सुध ल्हेकि,
सुफल समझुलु अप्णु प्रयास
चाहे मेरी कलम ह्वेजा कच्ची।


.....समाप्त..... (प्रतिक्रिया दें) 

Brijendra Negi

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उत्तराखंड त्रासदी
(16-17 जून 2013)



मुक्तिधाम के दुर्गम पथ
बनाये पहले सुलभ, सुगम,
दर्शन करने पहुँचे फिर 
लेकर अपना सारा कुटुंभ। ।1।

 
देवभूमि का आँचल चीर कर
निर्मित की विध्वंस की राह,
अहंकार में अनसुनी की   
मानव ने माँ की करुण कराह। ।2।


खोदे, तोड़े रोज पहाड़
मानस ने अपने स्वार्थ में,
कहीं सड़क, भवन बनाए
पनबिजली कहीं सुरंग में। ।3।


नदियाँ, नाले बनते गए 
जंगल, बाग बगीचे,
तटबंधो पर सजने लगे
आशियाने बे-तरीके। ।4।


तीर्थधाम बन गए सैरगाह
संस्कृति सारी कुचली,
भक्तिभाव को त्याग दुर्बुद्धि
आमोद-प्रमोद में फिसली। ।5।


क्रमश............

Brijendra Negi

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उत्तराखंड त्रासदी
(16-17 जून 2013)


मानव तेरी ताकत को
प्रकृति तोल रही थी,
महा-विनाश की रचना को
चुपचाप देख रही थी। ।6।


अक्षम्य, असह्य हुआ घड़ा
जब दुराचारी तेरे पाप का,
प्रकृति ने रूप दिखाया
तुझको अपने ताप का। ।7।


प्रकृति ने रौद्र रूप लिया
काले मेघ उमड़ पड़े,
दुर्गम बर्फानी घाटी में
महा-मेघ फटने  लगे। ।8।


अविरल बरसती जलधारा से
छलक़ने लगे जलाशय,
बूँदों में भरने लगी
महासागर सी प्रलय। ।9।


नभ-चुंबी पर्वतशिखा से
उमड़ा मटियाला पानी,
मानस का छीजा आँचल
क्षण में क्षीण हुआ अभिमानी। ।10।


नदियों ने बाहें फैलाई
उमड़ पड़ा जल का सैलाब,
खंड-मंड कर नगर-गाँव
प्रकृति ने तुझको दिया जबाब। ।11।


क्रमश.......
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Brijendra Negi

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उत्तराखंड त्रासदी
(16-17 जून 2013)



प्रकृति का जब गुस्सा फूटा
टूट गए सारे तटबंध,
मानव तेरे विज्ञान का
निष्क्रिय हुआ हर अंग। ।12।

कहाँ तेरा विज्ञान गया
कहाँ तेरी प्रौध्योगिकि,
तिनके सी ढह गई
मानस तेरी भौतिकी। ।13।
 
बद से बदतर हो गए
पल भर में हालात।
चर-अचर बहा ले गई
एक रात की बरसात। ।14।

देवभूमि के  दर्द से
काँप उठी जब धरती,
फलभर में सिमट गई
मानव तेरी हस्ती। ।15।

नग्न नगर हुए भग्न भवन
खंडित मंदिर, मूर्ति, चमन,
छीन लिया मानव तेरा
चिर संचित वैभव-सुख-धन। ।16।

Brijendra Negi

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उत्तराखंड त्रासदी
(16-17 जून 2013)


मानव प्यासे रह गये
बारिश में इस बार,
बूंद-बूंद को तरस गये
सूखे कंठ हजार । ।17।


पानी बिन बेटा मर गया
तड़फ-तड़फ कर गोदी में,
बूंद-बूंद को तरस गया
इतनी भारी बारिस में। ।18।


पाँच दिन माँ की लाश को
ढोया पर्वत खाई में,
अग्नि दान दे न पाया
अंततः बहाई जलधारा में। ।19।


बेटे-बेटी-पत्नी छिन गई
पति-माँ-बाप किसी के,
पोते-पोती, सगे-संबन्धी
घाटी में समाए फिसल के। ।20।


कोई भूखे-प्यासे मर गए
कोई बह गए जलधारा में,
जूतों से पानी पीकर भी
असमर्थ प्यास बुझाने में। ।21।


क्रमश.............. 

Brijendra Negi

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उत्तराखंड त्रासदी
(16-17 जून 2013)


दर पर मांगी मन्नत से
गोदी में जो दो फूल खिले,
दर पर हाजिर होते ही
क्रूर काल ने लील लिए। ।22।


माँ-बाप के संग  गए जो
बच्चे, देवदर्शन को ,
गुमसुम अकेले रह गए वे 
बच गए जो सौ-भाग्य से। ।23।


घर-परिवार उजड़ गए
सूनी होगई असमय मांगे,
कुदरत की इस आपदा में
दो रोटी भी किससे मांगे। ।24।


शेष अवशेष न शेष अब
जीवन की करुण कथा बिखरी,
केदार घाटी की दारुण गुहार
घायलों की साँसों में सिहरी। ।25।


क्या विध्वंश की ओर है 
मालिक का संकेत,
हे क्रूर निष्ठुर, निठुर
मानव अब तो चेत। ।26।


क्रमश............

Brijendra Negi

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उत्तराखंड त्रासदी
(16-17 जून 2013)



कोई कहे देव रुष्ठ हैं
कोई कहे प्रकृति,
मैं कहूँ मानव पोषित-
थी यह विकट विपप्ति। ।27।


अपनी निरंकुश लेखनी से 
लिखकर कथा विनाश की,
फिर कैसे संभव है उसमें
पीड़ामुक्त प्रस्तावना की। ।28।


देवभूमि की महाप्रलय में
शव अक्षत-विक्षत पड़े हैं,
खंड-मंड हो गए भवन पर
शिव आज भी वहीं खड़े हैं। ।29।


इतना रौद्र रूप क्यों लिया
इस पर मंथन जरूरी है,
क्यों मानव के जीवन के
भक्षण को प्रकृति भूखी है। ।30।


इस शदी की ये त्रासदी
पल-पल सजग करेगी,
हर कुकृत्य से पहले मानस को
चिंतन को मजबूर करेगी। ।31।
         ....

Brijendra Negi

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मेरे गाँव की पहचान


टेड़ी-मेड़ी पगडंडिया,
घने पेड़ों की छाँव
पत्थरों के मकान
मेरे गाँव की पहचान।

 
मकानों के आँगन में
बच्चों की किलकारियाँ,
आँखों को चीरता
रसोइयों का धुंवा।


हरे-भरे खेत
लहलहाती फसल,
मखमली घास के
हरे-भरे बुग्याल।


विभिन्न फूलों की मधुर सुगंध     
मंद-मंद बहती शीतल पवन,
पनघट से गूँजती
पायल की रुनझुन।


बैलों के गले की
घंटियों की गुण-मुण,
खेतों से उठती हुई
हलधर की गूंज।


जंगल में घसेरियों की
चहकने की धुन,
संग में दराती के
छुणकियों की छुन-छुन।


आनंदित तन-मन
झूमता मस्त-मगन,
प्रकृति के सानिध्य में
रमता था  मन।


आज पलायन की प्रवृति से
ग्रस्त है मेरा गाँव,
रूठी हुई प्रकृति से
मिलती नहीं अब छाँव।


टूटी-फूटी पगडंडिया
निर्जन, सुनसान,
धुंवा रहित मकान
खंडहर वीरान।
 

सूखे बंजर खेत
काँटो के भेंट,
विरक्त और उदासीन
फूलों की मुस्कान।


धीरे-धीरे गाँव का
गुम होता नामो-निशान,
मिटता हुआ जीवन
मेरे गाँव की पहचान।
    .....

 

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