Author Topic: Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये  (Read 29172 times)

Brijendra Negi

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प्रवासी तैयार कन्ना छौं हम

‘ए’ से अल्लु, ‘बी’ से बीड़ी, ‘सी’ से सीटी,
‘डी’ से डबल रवटि सिखाणा छौं,
पहाड़ूँ मा पब्लिक स्कूल चलाणा छौं हम।
 
जुत्तों पर कालि पौलिस कि जग्गा,
मुसंगर्रा (क्वेला) घुसाणा छौं,
नौन्यालूँ मा नै खोज कराणा छौं हम।

गालुन्द लाल-पीलि टाई,
ज्यूडु सि बोटिकि लटकाणा छौं,
ऊंथै आधुनिक बणाणा छौं हम।

बौंफर कु जग्गा टाई पर,
नकप्वड़ी फुंजाणा छौं,
ऊंथै थै विकसित कन्ना छौं हम।

एम-एन (M-N) कि जग्गा यम-यन्न
उच्चारण कराणा छौं,
ऊंमा गिर्वलि खिचड़ी पक्वाणा छौं हम।

काचि-पाकी हिन्दी-अंग्रेजी सिखाकि,
भांडा मुंज्याणा खुण,
वूंकी नै खेप तैयार कना छौं हम।

पहाड़ूँ मा बचीं-खुची नै पीढ़ी मा भी 
प्रवासी तैयार कन्ना छौं हम
पहाड़ूँ मा पब्लिक स्कूल चलाणा छौं हम।
  ...

Brijendra Negi

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घर-परिवार खंड-खंड हून्द गै

घैणी काली-काली लट
घुंघरलि छड़छड़ी लट
कटीं-छटीं बिखरीं लट
उड़र्दि इनै-उनै लट।
 
कभी छै ये लड़बड़ी भिटुली
बन्धेदि छै जब एक धोंपेली
बणिदी कभी द्वी चुंफुली
दैणी-बैं द्वी भैंणी-सहेली। 

फूंदा-रिबन बांधी-सजै कि
खूब हिलदी छै बल खैकि
अब हर बंधन मुक्त ह्वेकि
उड़णी छै उन्मुक्त निझर्कि।

कटेन्दि छै, अब छटेन्दि छै
रोज नै-नै रूप सजेन्दि छै
बन-बनिका रंग रंगाकि
लट-लट बिखरेन्दि छै।

जन्न-जन्न बंधन मुक्त हून्द गै
सयुंक्त परिवार लुप्त हून्द गै
जन्न-जन्न त्यारा बट खुल्द गै
घर-परिवार खंड-खंड हून्द गै।
         ...

Brijendra Negi

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मै निशब्द हूँ                  

                    (7)
व्यक्ति के   आचरण  में
नित उपजती मलिनता से
             स्तब्ध हूँ
          मै निशब्द हूँ।

मलिनता  के आचरण में
 नित घटती  मानवता से
             स्तब्ध हूँ
          मै निशब्द हूँ।

                ( 8 )

व्यक्ति  की  तृष्णा  में
नित बढ़ती मादकता से
            स्तब्ध हूँ
         मै निशब्द हूँ।

मादकता  की  तृष्णा में
नित  बढ़ते  अपराध  से
             स्तब्ध हूँ
          मै निशब्द हूँ।

          क्रमश......

Brijendra Negi

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(हास्य भी )

छन्द

छन्द-छन्द कविता बणद, छन्द-छन्द मकरंद
सुणदी इत्गा कक्षा मा, ब्वल्ण बैठ मतिमंद
छन्द-छन्द का चक्कर मा, भारी हुईं कुछन्द
छन्द नी यख खुद कु, कनखै ल्यखणी छन्द।


रस

कविता थै पढ़ण मा, आंद तभी रौंस
जब व्वग्णी ह्वे वेमा, क्वी भी रस की धार
सुणदी इत्गा कक्षा मा, ब्वल्ण बैठ मतिमंद
रस निचट्ट नि-रस छीं, फिर कनखै व्वगण रस धार।
 

अलंकार

कविता की शोभा, बढ़ान्दा छीं अलंकार
सुणदी इत्गा कक्षा मा, ब्वल्ण बैठ मतिमंद
निश्चित कविता कि, शोभा बढ़ान्दा अलंकार
हम त कविता अलंकार, देखि की ह्वेग्यो जलंकार। 

Brijendra Negi

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हे ग्राम देवता नमस्कार

हे ग्राम देवता नमस्कार
कुछ तो कर चमत्कार
यूं अकेले बैठा तू किसको रहा निहार
किस की प्रतीक्षा मे खुला हुआ ये द्वार
जब तेरे सारे भक्त यहाँ से छोड़ चले आगार
हूँ अकेला आता मै तेरे दर पर बार-बार
करता हूँ पूजा-अर्चना तेरी विभिन्न प्रकार
याचना मेरी एक ही होती इतना हो प्रसार
खंडहर घर-गौशालाएँ गाँव में पुनः लें आकार
बंजर खेतों में लौटे फसलों की बहार
फिर से हों टूटे खलियान सर-धज कर तैयार
सूने पनघट पथ पर गूंजे पायल की झनकार
खोये सपने सभी जीवन के यहीं हों साकार
ताकि प्रवासी लौट चलें अपने-अपने द्वार
नवजीवन की गाँव में पुनः बहे बयार
हे ग्राम देवता नमस्कार
कुछ तो कर चमत्कार।

Brijendra Negi

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मद मिटने दो

तिमिर चीरते अरुणोदय की 
स्वर्ण किरण अवतरित हुई है।
उषा काल की मधुर वेला पर
नई उमंग संग लाई है।
अंतःमन के कपटपट खोल
अंतरतम मे प्रविष्ट होने दो।
जैसे अवनी से तिमिर हटा है
वैसे मन का मद मिटने दो।

Brijendra Negi

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मै निशब्द हूँ

          (9)

व्यक्ति के व्यवसाय   में
नित उपजते  छद्म  से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

छद्म  के  व्यवसाय  में
नित बढ़ती लोलुपता से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

        (10)

व्यक्ति  के  आवरण  में
नित बढ़ती निर्लज्जता से
            स्तब्ध हूँ
         मै निशब्द हूँ।

निर्लज्जता के आवरण में
नित   बढ़ते  अपराध से
             स्तब्ध हूँ
          मै निशब्द हूँ।

          क्रमश......

Brijendra Negi

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प्रतिक्रिया

पहली बार गाँव में जब
टेपरिकॉर्डर आया था।
दादी माँ की आवाज को
रिकॉर्ड कर सुनाया था।
तब दादी माँ ने प्रतिक्रिया
कुछ इस तरह सुनाई थी। 
खट-पट कर होती रिकॉर्ड
घर्र-घर्र कर सुनाई देती है।
कभी अटकती, कभी उलझती
उलट-पलट कर चलती है।
इस कैसिट का जीवन तो
हमसे मिलता-जुलता है।
औरो को सुख जीवन देने 
खुद को घिसते रहते हैं।
कभी अटकते, कभी भटकते
दुख दर्द सब भुलाते हैं।
मानव-पशु के भरण-पोषण में
कैसिट रील की तरह घूमते हैं।

Brijendra Negi

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चूल्हा जलाना आसान नहीं है

चूल्हा जलाने के लिये वह
आग मांगने जाती थी।
दो-चार अंगारे लाकर
फिर चूल्हा सुलगाती थी।
फूंकनी से फूक मारते-मारते
फेफड़े अपने हिला देती थी।
धुयेँ राख़ के तृण-कण उड़ते
आँख से अश्रुजल बहाती थी।
राख़ का लेपन करते वर्तन
हाथ कई बार जला देती थी।
राख़ से बर्तन मांजते-मांजते
हाथों में कालिख भर जाती थी।
इसीलिए हर वक्त कहती थी
चूल्हा जलाना आसान नहीं है।

आज परिष्कृत ईंधन से
धुंआ-रहित चूल्हे जलते हैं।
आग-अंगारे-फूंकनी नहीं
सिर्फ लाइटर खटकते हैं।
विशेष निर्मित साबुन से
सारे बर्तन धुलते है।
फिर भी हाथों की सुंदरता न बिगड़े
दिन-रात चिंतित रहती है।
इसीलिए हर वक्त कहती है
चूल्हा जलाना आसान नहीं है।

Brijendra Negi

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कालिख च यख


द्वी-बेलि क बाना प्रवासी हूँ,
पुटिगी नि भ्वरेंदि छै वख।
नौकरि क्वी मीली नीचा,
भांडा मुंज्याण प्वड़िन यख।
वख मेनत-मजुरी कठिन छै,
बेगारि कन्नु छौ यख।
वख द्वी-बेलि कटिणी मुश्किल छै,
झुट्ठा-पिठ्ठा ल बेलि कटणु छौ यख।
वख अन्न कु तरस्णु छा,
अन्न की छर्का छीं यख।
अन्न वख भी दूर छा,
अन्न हून्द भी दूर च यख।
वख नै रस्ता नि खुज्या मिल,
रस्ता बिगड़दा-बिरड़दा छीं यख।
वख कि मेनत मा छाला छा,
द्विया हथू मा कालिख च यख।

 

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