शहरों में आज कल लोग अपनी बिरादरी, गाँव के लोगों से मेल जोल कम रखते हैं और अपने ऑफिस या पड़ोसियों से ज्यादा मिल जोल रहता है . अगर लोग अपने बच्चों को अपनी बिरादरी और गाँव, रिश्तेदारों के शम्पर्क में ज्यादा रखे तो अपनी संस्कृति और भाषा को बढ़ावा मिल सकता है..
आज अधिकतर लोग गढ़वाली पूरी समझ लेते हैं लेकिन बोलने में झिझकते है...कोई भी ब्यक्ति अगर किसी भाषा को पूरा समझ सकता है तो बोल भी सकता है, जिनसे कि हम लोग अंग्रेजी हरयाणवी पंजाबी समझ लेते हैं और अक्षर बोलते भी है... खासकर हरयाणवी और पंजाबी भी कई गढ़वालियों को बोलते सुना जा सकता है तो गढ़वाली क्यों नहीं....
अगर यही झिझक हमारे लोगों के अन्दर से हट जाये तो भाषा अपने आप उन्नति करेगी. और झिजक को हटाने के लिए हमें अपने नई पीढ़ी को गढ़वाली फिल्म्स, कवितायेँ गीत, इत्यादि की तरफ ले जाना होगा. और ये तभी हो सकता जब हम अपनी भाषा बोलने में कोई झिझक नहीं करेंगें !
लोग वेदेशों में रहकर जाप्निज,रसियन और स्पेनिस सीख सकते हैं और कभी किसी उत्तराखंडी से मुलाक़ात होती है तो उससे वो अंग्रेजी में बात करना शुरू हो जाते हैं चाहे अंग्रेजी आये या नहीं आते हुए भी उल्टा सीधा बोलते है लेकिन ये जानने के बाबजूद भी की सामने वाला उत्तराखंड से बिलोंग करता है तो भी अंग्रेजी फेंकते है,जबकि उत्तराखंडी भाषा उनको आती है!