Author Topic: Election 2012 in Uttarakhand Vs Development-उत्तराखंड में चुनाव २०११ बनाम विकास  (Read 42888 times)

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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Dear Friends.......

It is obvious that these two national Parties BJP and Congress have been failed to develop the hill areas of Uttarakhand. These parties aim is only to win the election.

Now a days DON politics is prevaling in Uttarakhand. Polticians are using all tools for winning in election. Gone were days, election in hills used to over peacefully. This is a very bad sign for the people there.


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हलिया

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इस सरकार को इसी 108 में बिठा के ओके टाटा बाई-बाई करने का टैम आ रहा है.


Just have look reply and then reply
 


Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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The development is only on paper and not on ground level.  This only a publicity stunt.




एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Go through the news below.

उत्तराखंड का नेशनल शूटर टमाटर की खेती करने को मजबूर


 देहरादून | राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शूटिंग रेंज में पदकों की झड़ी लगाने वाले पंकज चौहान की आजीविका अब खेती पर ही टिकी है। राज्य गठन के दस साल बाद भी न तो प्रदेश की कोई स्पष्ट खेल नीति बन पाई है और न ग्रामीण क्षेत्रों की खेल प्रतिभाओं को उभारने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाया गया है। नतीजा, यह कि राष्ट्रीय निशानेबाजी में 13 स्वर्ण, 12 रजत व 4 कांस्य पदक जीतने वाले पंकज चौहान जैसे खिलाड़ी की प्रतिभा दम तोड़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की खेल प्रतिभाओं को बेहतर मंच देने के सरकारी दावों की हकीकत जाननी हो, तो जौनसार-बावर क्षेत्र की दुर्गम तहसील त्यूणी के बृनाड़ गांव चले आइए। राष्ट्रीय स्तर की शूटिंग रेंज में पदकों की झड़ी लगाने वाला निशानेबाज यहां टमाटर की खेती करता दिखाई देगा। खेती उनका शौक नहीं, बल्कि मजबूरी है। पंकज ने वर्ष 1997 से 2002 तक विभिन्न राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग ले कई पदक जीते। अक्टूबर 1997 में जीवी मावलंकर शूटिंग चैंपियनशिप में कांस्य पदक और स्टैंडर्ड पिस्टल जूनियर वर्ग प्रतियोगिता में रजत पदक भी जीता। 1998 में 41वीं राष्ट्रीय निशानेबाजी स्पर्धा में पंकज ने 4 स्वर्ण पदक और अहमदाबाद में हुई छठी ऑल इंडिया जेबीजी शूटिंग चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता। राणा इंस्टीट्यूट चैंपियनशिप के सीनियर वर्ग की एयर पिस्टल में पंकज ने प्रथम स्थान हासिल किया, जबकि इसी साल मद्रास में एनआर स्टैंडर्ड पिस्टल प्रतियोगिता में अंतरराष्ट्रीय शूटर जसपाल राणा के रिकॉर्ड की बराबरी भी की। यह उनकी यादगार उपलब्धि है। छात्र जीवन में वॉलीबॉल के अच्छे खिलाड़ी रहे बताते हैं कि 1996 में अंतराष्ट्रीय शूटर जसपाल राणा से हुई एक मुलाकात ने उन्हें शूटिंग के लिए प्रेरित किया। मध्यवर्गीय परिवार का होने के कारण उनके लिए यह राह आसान नहीं थी। वर्ष 1998 में आइटीबीपी से नौकरी का प्रस्ताव आया। मगर, योग्यता के अनुरूप पद नहीं मिलने पर प्रस्ताव ठुकरा दिया। अब खेती के सहारे रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। बकौल पंकज यह सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में छिपी सभी खेल प्रतिभाओं की दास्तां है। जिस राज्य में दस साल बाद भी खेल नीति न बन पाई हो, वहां एक खिलाड़ी के लिए टमाटर उगाने की मजबूरी आश्चर्य की बात नहीं।
http://dostana.india16.com/hindi/sports-news_124783.html

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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This is the development in Uttarakhand.

Our Sports talent is passing through such situation in Uttarakhand. In another hand, Govt is busy in highlighting its so called achievment.

It is totally shocking.



Go through the news below.

उत्तराखंड का नेशनल शूटर टमाटर की खेती करने को मजबूर


 देहरादून | राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शूटिंग रेंज में पदकों की झड़ी लगाने वाले पंकज चौहान की आजीविका अब खेती पर ही टिकी है। राज्य गठन के दस साल बाद भी न तो प्रदेश की कोई स्पष्ट खेल नीति बन पाई है और न ग्रामीण क्षेत्रों की खेल प्रतिभाओं को उभारने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाया गया है। नतीजा, यह कि राष्ट्रीय निशानेबाजी में 13 स्वर्ण, 12 रजत व 4 कांस्य पदक जीतने वाले पंकज चौहान जैसे खिलाड़ी की प्रतिभा दम तोड़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की खेल प्रतिभाओं को बेहतर मंच देने के सरकारी दावों की हकीकत जाननी हो, तो जौनसार-बावर क्षेत्र की दुर्गम तहसील त्यूणी के बृनाड़ गांव चले आइए। राष्ट्रीय स्तर की शूटिंग रेंज में पदकों की झड़ी लगाने वाला निशानेबाज यहां टमाटर की खेती करता दिखाई देगा। खेती उनका शौक नहीं, बल्कि मजबूरी है। पंकज ने वर्ष 1997 से 2002 तक विभिन्न राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग ले कई पदक जीते। अक्टूबर 1997 में जीवी मावलंकर शूटिंग चैंपियनशिप में कांस्य पदक और स्टैंडर्ड पिस्टल जूनियर वर्ग प्रतियोगिता में रजत पदक भी जीता। 1998 में 41वीं राष्ट्रीय निशानेबाजी स्पर्धा में पंकज ने 4 स्वर्ण पदक और अहमदाबाद में हुई छठी ऑल इंडिया जेबीजी शूटिंग चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता। राणा इंस्टीट्यूट चैंपियनशिप के सीनियर वर्ग की एयर पिस्टल में पंकज ने प्रथम स्थान हासिल किया, जबकि इसी साल मद्रास में एनआर स्टैंडर्ड पिस्टल प्रतियोगिता में अंतरराष्ट्रीय शूटर जसपाल राणा के रिकॉर्ड की बराबरी भी की। यह उनकी यादगार उपलब्धि है। छात्र जीवन में वॉलीबॉल के अच्छे खिलाड़ी रहे बताते हैं कि 1996 में अंतराष्ट्रीय शूटर जसपाल राणा से हुई एक मुलाकात ने उन्हें शूटिंग के लिए प्रेरित किया। मध्यवर्गीय परिवार का होने के कारण उनके लिए यह राह आसान नहीं थी। वर्ष 1998 में आइटीबीपी से नौकरी का प्रस्ताव आया। मगर, योग्यता के अनुरूप पद नहीं मिलने पर प्रस्ताव ठुकरा दिया। अब खेती के सहारे रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। बकौल पंकज यह सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में छिपी सभी खेल प्रतिभाओं की दास्तां है। जिस राज्य में दस साल बाद भी खेल नीति न बन पाई हो, वहां एक खिलाड़ी के लिए टमाटर उगाने की मजबूरी आश्चर्य की बात नहीं।
http://dostana.india16.com/hindi/sports-news_124783.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 पत्रकार शंकर भाटिया ने उठाया 'उत्‍तराखंड के सुलगते सवाल'       दस साल पहले उत्तराखंड जिन सवालों के समाधान की तलाश में वजूद में आया था, आज वे सभी सवाल फिर खतरनाक ढंग से उसका पीछा कर रहे हैं। विकास के पैमाने पर मैदान और पहाड़ के बीच की खाई पहले की अपेक्षा गहरी हुई है। पहाड़ पहले भी उत्तर प्रदेश में रहते हुए आर्थिक गतिविधियों से कटा हुआ एक उपेक्षित क्षेत्र था, और आज भी जब एक राज्य के रूप में उत्तराखंड दस साल की यात्रा पूरी कर चुका है।
राज्य की सारी आर्थिक गतिविधियां देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर के मैदानी भू-भाग में सिमट कर रह गई हैं। उत्तराखंड के भीतर पैदा हो रहे इस असंतुलन से मुख्यधारा की राजनीति में किसी तरह की कोई चिंता या हरकत नहीं दिखती। यही वे दस साल हैं जब राज्य के पर्वतीय क्षेत्र से खतरनाक रूप में रोजी-रोटी की तलाश में लोगों ने बड़ी तेजी से मैदान की ओर रुख किया है। शायद अब तक का यह सबसे ज्यादा पलायन भी है। विस्थापन इस समस्या को और गंभीर बना रहा है। हाइडो पॉवर प्रोजेक्टस से करीब पचास लाख की आबादी विस्थापन की चपेट में है।
जो सवाल दस साल पहले लखनऊ में बैठी सरकार से पूछे जा रहे थे, आज वहीं सवाल देहरादून में बैठे सत्ता के मठाधीशों से किए जा रहे हैं। मुख्यधारा का मीडिया इन सवालों पर गंभीर नहीं है, और उसमें कभी कुछ दिखता है भी तो वह चलताऊ किस्म का ही होता है। मीडिया का कारोबारी मॉडल उसे इसकी इजाजत भी नहीं देता। अखबार पर्वतीय क्षेत्र को कवर करते हैं भी तो वह सिर्फ इसलिए कि उसे सरकारी विज्ञापन समेटने होते हैं। वरना देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर ही कारोबारी लिहाज से उसके लिए मुफीद बैठता हैं। अब इस सबके प्रतिकार में कई तरह की आवाजें उठ रही हैं। कोई समग्रता में उत्तराखंड के सवालों को समझने की कोशिश कर रहा है तो कुछ ऐसे भी हैं जो जबरन उत्तराखंड का हिस्सा बनाए गए हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों को फिर यूपी में मिलाने की बात कर रहे हैं।
एक तीसरी धारा भी है जो यूपी के बिजनौर और सहारनपुर को उत्तराखंड का हिस्सा बनाने की मांग उठा रहा है। इन्हीं सब सवालों को केन्द्र में रखते हुए पत्रकार शंकर भाटिया 'उत्तराखंड के सुलगते सवाल' नाम से एक बेहतरीन किताब के साथ समग्रता में इस बहस को आगे बढ़ा रहे हैं। भाटिया अपनी किताब में बताते हैं कि कैसे उत्तराखंड की परिसम्मपतियों पर अभी भी उत्तर प्रदेश कब्जा जमाए बैठा है, और यह भी कि उत्तराखंड के राजनेता अपने-अपने स्वार्थों के लिए बेशर्मी पर उतर आए हैं। जिन सवालों के लिए अलग राज्य की लड़ाई लड़ी गई, वे आज और भयावहता के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। जिस राज्य के निर्माण के लिए चालीस से अधिक लोगों ने शहादत दी, उस राज्य की दस साला तस्वीर को जानने-समझने के लिए पत्रकारीय दृष्टि से लिखी गई यह एक बेहतरीन किताब है।
भाटिया लिखते हैं- ' लखनऊ पर आरोप लगाया जाता था कि वहां के शासकों के लिए पहाड़ सिर्फ सैर सपाटे के साधन हैं, लखनऊ पहुंचकर वे पहाड़ को भूल जाते हैं। ये आरोप सच भी थे। लेकिन क्या आज के उत्तराखंड में पहाड़ की मौजूदा सच्चाई इस बात की प्रमाण नहीं है कि लखनऊ से अधिक निर्मोही तो देहरादून में बैठे शासक हैं? देश के आजाद होने के 53 सालों में जब तक कि उत्तराखंड वजूद में नहीं आया था, तब तक मैदान और पहाड़ के बीच विकास का अंतर मौजूद था, लेकिन तुलनात्मक रूप से देखें तो यह अंतर काफी कम था। उत्तराखंड बनने के बाद इन दस सालों में पहाड़ और मैदान के बीच विकास की खाई कई गुना चौड़ी क्यों हो गई? इस विभेदकारी विकास के लिए कौन जिम्मेदार है?'
इस तरह भाटिया सवालिया लहजे में उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन के केन्द्र में रहने वाले सवालों के साथ भाजपा-कांग्रेस और कुछ हदतक क्षेत्रीय दल यूकेडी के नेताओं की नाकामी पर गंभीर प्रश्न खड़े करते हैं। साथ में उत्तराखंड के विकास के उन दावों की भी पोल खोलते हैं जिनमें कहा जाता है कि यह राज्य अभूतपूर्व गति से आगे बढ़ रहा है।
 
देहरादून से दीपक आजाद की रिपोर्ट.
 
http://bhadas4media.com/book-story/11404-2011-06-03-06-03-37.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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  •       Harendra S Madeti Again back to next Assembly elections in Uttarakhand. I sometimes feel that Uttarakhand could also produce leaders like Thakres of Maharashtra, Jayalalitha and Karunanidhi of Tamilnadu and Mamta Banerjee of West Bengal. It would be worthwhile to point out here that these leaders are well known throughout India. On the other hand we in Uttarakhanad do not have even a single leader of their stature known throughout the country and at the same time so much loved by the of people of their home State. Why is it so? The reason is known to everybody. They care for the people of their State first and foremost. They don’t have any agenda assigned to them by any other authority to implement at the cost of the interests of their home State people. But alas! Our leaders of Uttarakhand have no agenda for the welfare of the people of Uttarakhand. They have only one agenda and that is, to please their central leadership and by implication and to an extent implement the agenda set out by the developed countries of the world.
     http://www.facebook.com/?sk=inbox&ref=mb#!/home.php?sk=group_162988117059745&notif_t=group_activity   Merapahad community facebook.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This is the story of development in Uttarakhand. People are forced to come on road for their demand.
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आमरण अनशन पर बैठे ग्रामीणों का स्वास्थ्य गिराJun 06, 06:33 pmबताएं


गोपेश्वर, जागरण कार्यालय: विस्थापन की मांग को लेकर ग्रामीणों का आमरण अनशन पर बैठे ग्रामीणों के स्वास्थ्य में भारी गिरावट आ गई है।

गौरतलब है कि चमोली जिले में आपदा से पीड़ित परिवारों को विस्थापन का मामला शासन प्रशासन स्तर पर अधर में लटका हुआ है। जिससे पीड़ित 16 मई से जिलाधिकारी कार्यालय पर आंदोलन कर रहे है। जिलाधिकारी कार्यालय पर आमरण अनशन कर रहे 14 ग्रामीणों की स्वास्थ्य में भारी गिरावट आई है।

क्या है मांगे-

-26 अगस्त 2006 को हुई प्राकृतिक आपदा से 1187 प्रभावित परिवारों का किया जाय विस्थापन

-वर्ष 2009 में प्रशासन से ग्राम सरतोली में 22, नारंगी में 51,नैथोली में12, लासी में 17, सैंना में 11, भरसैंजी 19, नौसारी में 5, कोलधार में 18 परिवारों को दी जा चुकी है भूमि, भवन बनाने के लिए मिले धन

-अन्य पीड़ितों के लिए भूमि चयन प्रक्रिया जल्द शुरू की जाय

आंदोलन की रूपरेखा-

-16 मई से शुरू किया था जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना

-31 मई से 12 लोग बैठे थे जिलाधिकारी कार्यालय पर आमरण अनशन पर

-पुलिस ने तीन जून को तीन आंदोलनकारियों को जबरन उठाकर जिला चिकित्सालय में कराया था भर्ती

(Dainik Jagran)


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The situation of people in villagers areas is deplorable. Why there is agitattion in street to street. Their voice is not reaching to the Govt ruling from Dehradoon.

Govt is busy in Mission 2012 not the development.


 

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