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Author Topic: Uttarakhand now one Decade Old- दस साल का हुआ उत्तराखण्ड, आइये करें आंकलन  (Read 28312 times)

VK Joshi

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सर्वप्रथम उत्तराखंड राज्य की दसवीं सालगिरह पर सबको हार्दिक बधाई. अब बात करना चाहता हूँ कुछ मुद्दों की. किसी भी राज्य या देश का विकास हमारे मकान बनाने जैसा हीं होता-अर्थात यदि पैसा हो तो रात भर में ही मकान खड़ा हो जाये! राज्य के विकास के लिए दस साल का समय कुछ भी नही. जब अपना देश ६० वर्ष में विकसित नहीं हो पाया तो अपने राज्य कि क्या कहूँ! दूसरी बात विकास का अर्थ हमारे नेता और उनसे जुड़े लोग मानते हैं निर्माण. पर्वतीय क्षेत्र में निर्माण का अर्थ अक्सर हो जाता है अनर्थ-जैसा इस बार की बरसात में हुआ. तीन वर्ष पूर्व खैरना मार्ग से अल्मोड़ा जाते हुए मैने देखा था उस पर हो रहे वृहद निर्माण को-तभी लगा कि यह मार्ग शायद अब ना बच पाए. उसका कारण यह है कि वह पूरा पहाड़ मुलायम चट्टानों का बना है. वर्षा होने पर पानी अंदर समा गया. ढलानों का स्थायित्व अंधाधुंध निर्माण से कमजोर पड़ चुका था-बाकी काम पानी ने कर दिया. सरकार और लोगों का यह मानना कि हम इन्जीनियरिंग की मदद से प्रकृति को काबू कर सकते हैं कुछ हद तक गलत है. खैर मैं इस पर अधिक न कह कर मात्र इतना कहना चाहता हूँ निर्माण करने के पूर्व पिछले सौ वर्ष का भूस्खलन का इतिहास एवं भूकंप का इतिहास क्षेत्र विशेष का जानना आवश्यक होता है. इसके बावजूद भी प्रकृति अनेक बार दगा दे जाती है. अक्सर निर्माण लोगों की मांग पर/वोटों के लिए किया जाता है. पर ऐसा करने के पूर्व यह देखना जरूरी है कि क्या वह निर्माण स्थायी होगा, या उस से और जोखिम हो सकता है!
मात्र बिल्डिंग, रोड के निर्माण से ही विकास नहीं होता. विकास के लिए सर्वांगीण विकास जरूरी है-जिसमे शिक्षा, स्वास्थ्य का अपना अलग महत्व है. उस दिशा में राज्य में/जिले में/ पंचायत में क्या और कितना काम हुआ यह जानना आवश्यक होता है. मात्र नेताओं की बेईमानी गिनाने से कोई लाभ नहीं. क्यों न अगले चुनाव में ईमानदार लोग चुने जाएँ और कैसे इस पर विचार करना चाहिए.  हम हमेशा से प्लेन्स से प्रभावित रहे हैं-वहाँ का जैसा निर्माण कर अपनी नीवों को कच्चा करते हैं, वहाँ के पहनावे रहन-सहन की कॉपी कर अपने को हम विकसित समझ लेते हैं. रही बात पलायन की तो वह तो प्राकृतिक आपदा ग्रस्त सभी राज्यों से होता है. उसके अलावा रोजी रोटी के चक्कर में इंसान कहाँ नहीं जाता! पर जैसे हिमाचल में किया गया कि पुराने लोग वापस अपने घर आ जाएँ उसका इंतजाम किया गया. कुछ ऐसा ही अपने वहाँ भी हो सकता था. इन पंक्तियों को लिखने वाल मैं, इस फोरम को चलाने वाले सभी तो घर से बाहर हैं और अब तो जो बाहर थे उनके बच्चे विदेशों में हैं....इसका शायद कोई अंत या समाधान नहीं!

विनोद सिंह गढ़िया

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शिक्षा में सुधार का सपना नहीं हुआ साकार
Story Update : Tuesday, November 09, 2010    12:01 AM
 
बागेश्वर। राज्य निर्माण के वक्त लोगों ने शिक्षा व्यवस्था में सुधार का सपना देखा था लेकिन राज्य बनने के दस साल बाद भी राज्य की शिक्षा व्यवस्था बदहाल है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता॒ लगातार गिर रही है। प्राथमिक से लेकर इंटर कालेजों तक शिक्षकों के सैकड़ों पद खाली चल रहे हैं। प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों के ८६१॒पद खाली हैं। स्थिति यह है कि ४८२॒प्राथमिक स्कूल एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। इंटर कालेजों में प्रवक्ताओं के ५५०॒तथा एलटी संवर्ग में ४४७॒पद रिक्त चल रहे हैं।
सरकार प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए॒तमाम दावे करती रही है लेकिन सुधार के बजाय स्थिति लगातार खराब हो रही है। जिले में स्थित कुल १४३१॒प्राथमिक स्कूलों में प्रधानाध्यापकों के ९८३॒पद स्वीकृत हैं। इनमें से ८४२॒कार्यरत हैं और १४१॒पद रिक्त चल रहे हैं। सहायक अध्यापकों के १७२०॒पदों में से २८५॒खाली चल रहे हैं। जूनियर हाईस्कूलों में शिक्षकों के कुल ८१२॒में से ६६२॒कार्यरत हैं और १५०॒पद खाली चल रहे हैं।
राजकीय हाईस्कूल और इंटर कालेजों में एलटी संवर्ग में २१०१॒पद सृजित हैं। इनमें से १६५४॒पदों पर शिक्षक कार्यरत हैं और ४४७॒पद रिक्त पड़े हैं। प्रवक्ताओं के सृजित ११६६॒पदों में से ६१६॒कार्यरत हैं और ५५०॒पद रिक्त पड़े हैं। खासकर ग्रामीण इलाकों में स्थित स्कूलों में स्थिति अधिक खराब है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है जिससे इन स्कूलों में छात्र संख्या लगातार घटती जा रही है। राज्य गठन के बाद सूबे की सरकारें ऐसी नीति लागू नहीं कर सकी हैं जिससे शिक्षा के स्तर में सुधार आ सके। शिक्षा के मद में अरबों खर्च होने के बाद भी लोगों का रुझान प्राइवेट स्कूलों की तरफ बना हुआ है।
बागेश्वर जिले में इंटर तथा माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है। ९९४॒शिक्षकों के सापेक्ष ६०२ शिक्षक तैनात हैं। एलटी वर्ग के पुरष॒शाखा में ६०९॒पदों के सापेक्ष ४१३॒शिक्षक तैनात हैं। महिला वर्ग में ५७॒के सापेक्ष ४०॒पदों पर तैनाती हुई है। प्रवक्ता के पुरुष शाखा में ३००॒के सापेक्ष १४१,॒महिला में २८॒के सापेक्ष आठ पदों पर शिक्षक तैनात हैं। जूनियर वर्ग में प्रधानाध्यापकों के ४१॒पदों के सापेक्ष ३१॒पदों पर तैनाती है। सहायक अध्यापकों के ३९५॒पदों के सापेक्ष ३७३॒पदों पर तैनाती है। प्राथमिक वर्ग के ६०४॒स्वीकृत पदों के सापेक्ष ३३१ शिक्षक तैनात हैं जबकि प्रधानाध्यापकों के ४६२ पदों के सापेक्ष ४४० पदों पर शिक्षक तैनात हैं। २३८ विद्यालय एकल शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। अपर जिला शिक्षा अधिकारी मदन सिंह ने बताया कि रिक्त पदों की सूचना उच्चाधिकारियों को पहले दे दी गई है।
 

http://www.amarujala.com/city/Bagrswar/Bagrswar-6454-114.html


Charu Tiwari

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उत्तराखंड के एक लोकोक्ति प्रचलित है- भलि छे सुवा भली छे, भलि बतौनि भलि हे, जस छे सुवा उसि छे। इसका अर्थ है सुन्दरी की प्रसंशा करते हुये हमेशा कहा जाता रहा कि तू बहुत अच्छी है, सभी बताते हैं वह अच्छी है, लेकिन अपनी जैसी ही है। यह बात उत्तराखंड राज्य क दस वर्ष पूरे होने पर सटीक बैठती है। वह वैसा ही जैसा है। पिछले कुछ सालों में एक उम्मीद जग रही थी कि आने वाले दिनों में शहीदों ने जिस राज्य का सपना देखा था शायद वह समय के साथ साकार हो जायेगा। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में भाजपा-उकzांद गंठबंधन सरकार ने इस राज्य को भzष्टाचार और लूट का जो नया उपनिवेश बनाया है उससे अब लोगों की रही-सही उम्मीदें भ्ी टूट गयी है। तमाम सवाल न केवल अपनी जगह खड़े हैं, बल्कि और भयानक रूप से जनता के सामने खड़े हो गये हैं। इस इस साल की जब लोग समीक्षा कर रहे हैं तब प्रदेश भारी प्राकृतिक आपदा की मार से उबरने की छटपटाहट में है। इस आपदा ने यह बताया कि इन दस वर्षों में अनियोजित विकास और मुनापफाखोरों में हाथों में अपनी जल, जंगल और जमीनें सौंपकर राज्य के नीति नियंताओं ने मानवजनित आपद का रास्ता तैयार किया है।सही मायने में राज्य का यह पहला दशक हमें डराता है। आकंाक्षायें की बात तो छोड़िये अब यह पहाड़ के अस्तित्व को नस्तनाबूत करन का दशक रहा है।
   
असल में राज्य के लोगों की आकांक्षाओं का यह राज्य बना ही नहीं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन को वर्ष 1994 का आंदोलन मानना सबसे बड़ी भूल है। इस आंदोलन से हम लोगों की आकांक्षाओं को नहीं समझ सकते। इसे समझने के लिये हमें उन मूल बातों की ओर जाना होगा जहां से राज्य की बात शुरू हुयी थी। आजादी के अंादोलन के समय से ही यहां के लोगों में प्राकृतिक संसाध्नों पर हक की बात को प्रमुखता से उठाया था। राष्टीय आंदोलन मे यहां के लोगों की भागीदारी इसी रूप में हुयी। सालम, सल्ट, तिलाड़ी की कzान्तिया इसी आकांक्षाओं का प्रतीक थी। आजादी के बाद भी जंगलात कानून अंगzजों के समय के रहे। लोगों को लगा कि अब भी उनके हक उनसे छीने जा रहे हैं। सत्तर के दशक में इसके प्रतिकार के रूप में जनता आगे आयी। पहाड़ के तमाम जंगल तीस साला एगzीमेंट पर स्टार पेपर मिल और बिजौरिया को सौंपे जाने लगे इससे लोगों में असंतोष उभरा। आंदोलनों का नया सिलसिला चला। वन बचाओ, चिपको, नशा नहीं दो रोजगार, तराई में भूमिहीनों को जमीन दिलाने का आंदोलन और वन अधिनियम के खिलापफ आंदोलन जनआकांक्षाओं के पड़ाव रहे हैं। बाद में लोगों ने इन तमाम समस्याओं का समाधान अलग राज्य के रूप में देखा। तीस साल तक अनवरत चले आंदोलन में जनाकांक्षायें इन्हीं मुद~दों में इर्द-गिर्द रही। वर्ष 1994 में जब आंदोलन चला तो यह जनाकांक्षाओं के बजाय भावनात्मक रूप में तब्दील हो गया। इस आंदोलन में एक अलग प्रयाासनिक टुकड़े की मांग प्रभावी हो गयी। यही कारण के 42 शहादतों के बाद भी राज्य छह साल बाद मिला। इससे स्पष्ट होता है कि सत्ता में बैठे लोगों ने कभी भी जनता की भावनाओं को महत्व नही दिया। दुर्भाग्य से जब राज्य बना तो वह बारी-बारी से दो पहाड़ और राज्य विरोधी ताकतों के हाथों में चला गया। इससे इस बात पर कोई पफर्क नहीं पड़ा कि हम उत्तर प्रदेश में हैं अपने राज्य में। पिछले दस साल की उठाकर देख लीजिये पहाड़ तेजी के साथ बिकने लगा है। सत्तर के दशक में बिजौरिया को जंगल बेचे जा रहे थे तब उत्तर प्रदेश में बैठे हुक्मरान इसके बिचौलिये थे अब थापर और जेपी को नदियां बेच जा रही हैं, उसको बेचने वाले अपने ही भगत, नारायण, खंडूडी और निशंक हैं। मुझे सबसे बुनियादी कारण यही लगता है कि हम अब भी जनाकंाक्षाओं को परिभाषित नहीं कर पा रहे हैं जिसके मूल में यहां के संसाधनों पर स्थानीय ोगों के अधिकार की भावना निहित है।

   भzष्टाचार उत्तराखंड का ही मसला नहीं है। यह एक राष्टव्यापी बात है। लेकिन उत्तराखंड में भzष्टाचार इतने बड़े पैमाने पर होगा यह किसी के आभास नहीं था। राज्य बनते ही जैसे इसे लूट का एशगाह बना दिया गया। उससे लोगों की उम्मीदें टूटी हैं। पहली अंतरिम सरकार भाजपा की बनी। उसने देहरादून में निर्माण कार्यो की झड़ी लगा दी। उसके पीछे भारी पैसा राजनीतिज्ञों और अपफसरों की जेब भरने की नीयत रही। पहनी चुनी कांगzेस जिसकी अगुआई विकास पुरुष कर रहे थे उन्होंने सरकारी और गैर सरकारी तौर पर इसे सामाजिक मान्यता दे दी। लालबत्तियों से लेकर मुख्यमंत्राी राहत कोष के दुरपयोग का जो रास्ता तैयार हुआ वह आज तक जारी रहा। कांगzेस के जमाने में भाजपा जिन 56 घोटालों की बात करती थी उसके जमाने में यह इतनी बढ़ी कि रिषिकेश के जमीन घोटाले और जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये। सही तरह से राज्ये के घोटाों की जांच हो जाये तो यहां कई कोड़ा सामने आयेंगे। सत्तारूढ़ भाजपा पर लगे सारे आरोप इसलिये भी सही साबित हो रहे हैं, क्योकि जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन पर कोर्ट के पफैसले के एक दिन पहले उसने सभी परियोजनाओं के आवंटन को यह कहकर रद~द कर दिया कि खंडूडी सरकार के समय में विज्ञापन गलत था। खंडूडी ने इसका खंडन भी किया। इस समय उत्तराखंड देश के सबसे भzष्टतम राज्यों में से एक है। लोग हैरत में हैं। भाजपा एक क्षेत्राीय राजनीतिक पार्टी के सहयोग से सरकार चला रही है। वह राजनीतिक पार्टी जिसने सपने जगाने का काम किया था। उस पार्टी के शीर्ष नेताओं को जिस तरह मौजूद मुख्यमंत्राी ने सत्ता से ज्यादा संसाधनों से लैस किया है उससे इस राज्य में भzष्टाचार के कोढ़ में खाज का काम किया है। भzष्टाचार में आकंठ डूबी इस सरकार की संवेदनहीनता को इसी बात से समझा जा सकता है कि जहां एक ओर आपदा प्रभावित लोग अभी भी रोजमर्रा की जरूरतों कें लिये तरस रहे हैं वहीं मुख्यमंत्राी मीडिया और विपक्ष को मैनेज करने में लगे हैं। इन दस सालों में मैनेज करने की इस राजनीति ने राय को गर्त में डाल दिया।

   इन इस वर्षों में राजधनी का मुद~दा भाजपा और कzांगzेस के लिये महत्वपूर्ण नहीं रहा है। वे हमेशा गैरसैंण को स्थाई राजधनी बनाने के खिलापफ रहे हैं। जब राज्य बना तो अंतरिम सरकार भाजपा की बनी। उस समय केन्दz और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की ही सरकार थी। यदि वह चाहते तो स्थायी राजधनी की घोषणा कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि राजधनी के सवाल को उलझाने के लिये राजधनी स्थल चयन के लिये दीक्षित आयोग का गठन कर दिया। कांगzस के शासन में इस आयोग का कार्यकाल बढ़ा दिया गया। इसे नौ वर्षो में 11 बार बढ़ाया गया। बाद में जो रिपोर्ट विधानसभा पटल पर रखी गयी वह मूल रिपोर्ट नहीं, बल्कि एनेक्सर था। इसका विरोध भी हुआ। अभी तक यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुयी। बताया जाता है कि इस रिपोर्ट में भी गैरसैंण के पक्ष में सबसे अधिक मत हैं। सरकार इसे छुपाना चाहती हे। दुर्भाग्य से जिस उकzांद ने गैरसैण को रजधानी बनाने की कसमें खायीं थी वह आज सत्ता सुख भोगने के लिये भाजपा के साथ गलबहियां कर रही है। इसलिये अभी देहरादून में सारे निर्माण कार्य हो रहे हैं। मुख्यमंत्राी और राज्यपाल के भवन बन गये हैं। विधयक निवास तो पहले ही बन गया था। राष्टीय पार्टियां स्थायी राजधनी देहरादून बनाने के लिये पूरी तरह लगी है। उकzंाद अब उनके साथ है। इसलिये पिफलहाल तो यह मामला सुलझता नहीं लग रहा है।

   वैसे पूरा हिमालय बहुत बाद में बना पहाड़ है। मध्य हिमालय तो बहुत नाजुक है। यहं आने वाली प्राकृतिक आपदाये और भूस्खलन कोई नई बात नहीं है। इसके लिये समय-समय पर विभिन्न रिपोर्टो ने चेताया भी है। जैसा कि आपने आंकड़ा दिया है कि 6800 गांवों को अपादा की संवेदनशीलता को देखते हुये खाली करने की जरूरत है। सरकारों के लिये यह प्राथमिकता कभी नहीं रही। उत्तराखंड देश का एकमात्रा राज्य है जहां आपदा का अलग मंत्राालय और विभाग है। इसमें प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। असल में नीति-नियंताओं को अभी पहाड़ की समझ नहीं है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में वे ऐसी किसी रिपोर्ट को महत्व नहीं देते हैं जिससे मानवहानि और भूगर्भीय खतरों की हानि होती है। यह बात बिल्कुल सही है कि आपदाओं से निपटने में सरकार बुरी तरह विपफल रही है। मेरी समझ से पिछले दिनों राज्य में जो आपद आयी वह प्राकृतिक कम मानवजनित ज्यादा है। इसमें सरकार की नीतियां सबसे ज्यादा दोषी हैं। आजादी के बाद पहाड़ में विकास का कोई ऐसा ढ़ाचा विकसित नहीं हुआ जो ऐसी आपदाओं को रोकने में कामयाब हो सके। 1
9 अगस्त को सुमगढ़ में शिशु मंदिर के 18 बच्चों की मौत का कारण सौंग में सरयू पर बने रही जलविद्युत परियोजना की सुरंग रही है। इसके विरोध् में गzामीणों ने लंबा आंदोलन चलाया था लेकिन जनप्रतिनिध् िकंपनी के पक्ष में खड़े हो गये। भूगर्भीय सर्वेक्षण में कपकोट के जिन 20 गांवों को आपदा संवेदनशील चिन्हित किया गया था उसमें सुमगढ़ नहीं था। उसका सबसे कड़ा कारण यह था कि यदि यह गांव उसमें शामिल होता तो बांध् के लिये गांव के पास से सुरंग नहीं बनती। इस हादसे यह सबसे बड़ा कारण था। अल्मोड़ा, उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ जैसे संवेदनशील जिलों के अतिरिक्त तराई में प्रतिवर्ष आने वाली प्राकृतिक आपदाओं और उनसे प्रभावित होने वाले परिवारों के लिये सरकार के पास कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार ने अभी तक कोई ऐसा भौगोलिक और भूगर्भीय आधर तैयार नहीं किया है जिससे लोगों के मकान और सरकारी भवनों को बनाने के जमीन का सही चयन हो सके। यही कारण है कि इस बार की आपदा में सबसे ज्यादा नुकसान सरकारी भवनों और गांव-शहर के कमजोर वर्गाे को हुआ है। सरकार  को भूगर्भीय खतरों के निशाने पर रहे गांवों के पुनर्वास की कभी चिन्ता नहीं रही। आपदा के नाम पर राज्य सरकार जहां एक ओर भारी पैसे की मांग केन्दz सरकार से कर हरी है, वहीं मुख्यमंत्राी लाखों रुपये के विज्ञापनों के माध्यम से अपनी उपलब्ध्यिों को बताने मे लगे हैं।

   असल में उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे यहां से होता पलायन मुख्य रहा है। आजादी के बाद लोग रोटी-रोजी के लिये यहां से बाहर निकलने लगे। सरकार के विकास और युवाओं को रोजगार से जोड़ने के तमाम दावे खोखले साबित होते रहे हैं। लोगों को लगता था कि अपना ाज्य होगा तो यहां की परिस्थितियों के अनुरूप नीतियां बनेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आपको यह जानकर आश्र्चय होगा कि ‘पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती’ मुहावरा इन दस सालों में और भयावह रूप से हमारे सामने आया है। सिपर्फ सरकारी आंकड़ों को ही देखें तो आजादी के 63 सालों में यहां ये लगभग 43 लाख लोगों ने स्थायी रूप से अपना घर छोड़ा। राय बनने के दस सालों में में ही लगभग 23 लाख लोग स्थायी रूप से पहाड़ छोड़ चुके हैं। पौने दो लाख घरों में ताले पड़ चुके हैं इससे आप राज्य बनने के बाद सरकारों की नाकामी को समझ सकते हैं। परिसीमन पर पहाड़ के दस पर्वतीय जिलों से छह विधनसभा सीटों का तीन मैदानी जिलों में समाहित होना इस बात को प्रमाणित करता है कि राज्य के गzामीण क्षेत्राों में जनसंख्या लगातार घट रही है। रोजगार सृजन तो इन दसों में नहीं हुआ, लेकिन भारी संख्या में नौकरियों में कटौती हुयी। उद्यान विभाग मे पदों पर रोक लगी। राज्य में पफार्मासिस्टों की भारी कमी है। अठारह सौ पद रिक्त होने के बाद भ प्रशिक्षित पफार्मासिस्टों को नौकरी पर नहीं रखा जा रहा है। पिछले दिनों सरकार ने लंबे समय से लंबित पड़े शिक्षकों की भर्ती को बहा किया लेकिन इनमें जो शर्ते रखी गयी हैं वे प्रशिक्षित बेरोजगारों को और मुश्किल में डालने वाली हैं। अब बीएड, डीपीएड और अन्य प्रशिक्षण प्राप्त लोगों को प्रवेश परीक्षा देनी होगी। वन विभाग में वर्षो से हजारों श्रमिक दैनिक वेतन पर काम कर रहे हैं, उन्हें स्थायी करने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ है। सरकारों ने कहा कि तराई में सिडकुल स्थापित कर राय के सत्तर प्रतिशत लोगों को रोजगार देंगे, लेकिन वहां जिस तरह पूंजीपतियों के हितों के लिये ठेकेदारी प्रथा पर काम किया जा रहा है सरकारों की मंशा को सापफ करता है।

   सिडकुल में श्रम कानून की ध्ज्जियां उड़ना नई बात नहीं है। उत्तर प्रदेश के समय में उत्तराखंड में उद्योग लगाने के नाम पर काशीपुर, रुदzपुर, खटीमा और भीमताल को ओद्यौगिक विकास के लिये चुना गया। इन उद्योगों को लगाने के लिये सरकार ने जो नीति अपनाई वह यहां के लोगों के लिये अभिशाप शाबित हुयी। सब्सिडी पर उद्योगपतियों को बुलाकर लोगों को सोना उगलने वाली जमीन औने-पौने दामों पर उद्योपतियों के हवाले की गयी। ये उद्योग पांच-छह साल में सब्सिडी डकार कर अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर चलते बने। युवाओं को रोजगार तो दूर भीमताल जैसे जगहों में भू-उपयोग बदलकर उसमें एयासी के अड~डे बना दिये गये। काशीपुर मे अस्सी प्रतिशत उद्योग बंद हुये जो अस्सी के दशक में स्थापित किये गये थे। राज्य बनने के बाद सिडकुल के स्थापित करने के लिये सरकार ने जिस तरह की जनविरोध्ी और श्रमिक विरोध् तरीकों का इस्तेमाल शुरू से किया उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। यहां सब्सिड़ी पर लगे उद्योग एक तरपफ तो भागने की तैयारी में हैं दूसरी ओर श्रमिकों के शोषण का यह नया टापू बन गया है। वर्ष 1987 में स्थापित और मुनापफा कमाने वाली होंडा में श्रमिकों के खिलापफ लिया गया पफैसला तो है ही भास्कर और अन्य कंपनियों ने भी श्रमिक शोषण में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। यहां श्रमिक कानूनों का उल्लंघन इस बात से साबित होता है विभिन्न उद्योगों में अब तक 133 श्रमिक अपने हाथ-पांव गंवा चुके हैं। उन्हें सरकार या प्रबंधन की ओर से न तो मुआवजा मिला और न उनके पुनर्वास की कोई व्यवस्था है। हर सरकार कहती है कि यहंा स्थानीय लोगों को सत्तर प्रतिशत आरक्षण दिया गया है लेकिन यह झूठ है। उदाहरण के लिये टाटा मोटर्स को लें। इस कंपनी के यहां 86 वेंडर हैं। इनमें श्रमिकों का ठेके पर रखा जाता है। किसी प्रकार की दुर्घटना होने पर कोई क्लेम नहीं हो पाता है। ठेका प्रथा होने से खतरनाक श्रेणी में आने वाले उद्योगों में भी अप्रशिक्षित लोग काम करते हैं, इससे अक्सर दुर्घटनायें होती हैं। श्रमिकों का कम वेतन और उनसे बहुत अध्कि कम लिये जाने की बात आम हो गयी है। श्रमिक शोषण के खिलापफ जब भी कोई आवाज उठती है, सरकार उन्हें माओवादी कहकर राष्टदzोह की धाराओं में अन्दर करने में भी कोई कसर नहीं करती। अब सरकार और कंपनी मालिकों के लिये श्रमिक कानून बहुत मायने नहीं रखते हैं।

   जब से राज्य बना है इसके विकास की जगह नेता इसी बात पर लगे रहे कि किस रास्ते से वह सबसे अध्कि पैसा कमा सकते हैं। उद्योगों के लिये जमीनें दिलवाने या किसी रूप में उस पर साझीदारी रखने के बहुत सारे मामले राज्य में हैं। पिछले दिनों +षिकेश में भूमि घोटाले ने उद्योगों की जमीन का बेशर्मी के साथ भू-उपयोग बदलने का मामला सामने आया। इसमें भाजपा-कांगzेस दोनों दलों के नेताओं की संलिप्तता रही है। राजनीतिक पार्टियां इस दलदल में कितनी अंदर तक ध्ंसी हैं इसका पता इस बात से चलता है कि विधयक-मंत्रिायों की बात तो छोड़िये मुख्यमंत्राी और विपक्ष के नेता भी इसमें शामिल हैं। यह उत्तराखंड में उद्योगों के नाम पर जमीनों पर राजनीतिज्ञों की संलिप्तता सापफ करती है।

   उत्तराखंड में विनाशकारी विकास के माWडल और दैयात्याकार बांधें से पहाड़ दरक रहे हैं। जैसा मैंने पहले भी कहा प्राकृतिक संसाधनों को मुनापफाखोरों के हाथों सौंपा जा रहा है। बांधों के संदर्भ में यह बात और खतरनाक तरीेके से सामने आय है। पहाड में इस समय विभिन्न नदियों में 558 बांध प्रस्तावित हैं। इन बांधों में से पंदzह सौ किलोमीटर सुरगें निकलनी हैं। यदि ऐसा होता है तो यहां की 28 लाख की आबादी इन सुरंगों के उपर होगी। चमोली जनपद के अलखनन्दा पर बनी बांध परियोजनाओं ने वहां की आबादी को आतंकित कर रखा है। बिष्णुगाड़ परियोजना से निकलने वाली सुरंग की लंबाई ग्यारह किलोमीटर है। जहां यह सुरंग समाप्त होती है वहां चाई गांव के नीचे बने पावरहाउस ऐ चाईं गांव धंस गया है। चमोली जनपद में बांधें की सुरंगों के कारण अभी तक छह गांव नस्तनाबूत हो चुके हैं। 38 गांव ऐसे हैं जिन्हे भारी खतरा है। तपोवन-बिष्णुगाड़ परियोजना से ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक शहर जोशीमठ खतरे में है। इसके नीचे से निकल रही सुरंग से पानी रिसने से लोग दहशत में हैं। इस परियोजना के बारे में पर्यावरणीय खतरों को भी सरकार ने दरकिनार कर दिया। इस घाटी में ऐसे ही पांच और बांध् बन हैं। श्रीनगर में बन रहे बांध् की उंचाई और झील की लंबई बढ़ने से कई तरह के खतरे पैदा हो गये हैं। यहां लोगों की आस्था का धरी देवी मंदिर डुबाने की साजिश हो गयी है। बागेश्वर जनपद में सरयू नदी पर सौंग में बनने वाली बांध की सुरंग ने सुमगढ़ के एक स्कूल के 18 बच्चों का मौत की नींद सुला दिया। इस तरह के खतरों को सरकार नहीं देखती। उसे बस जेपी और थापर के मुनापफे की चिन्ता ै। जहां तक प्रो. जीडी अगzवाल के आंदोलन का सवाल है, वह विश्व हिन्दू परिषद के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं। गंगा सिपर्फ आमचन के यिे नहीं है। गंगा को आस्था के नाम पर बचाने की मूर्खतापूर्ण बातें पहाड़ के लिये खतरनाक हैं।

लोहारीनागपाला परियोजना को सरकार  यदि आस्था के सवाल पर बंद किया है तो यह जनविरोधी पफैसला है। सरकार को इस बात को स्पष्ट करना चाहिये। यह इसलिये जरूरी है क्योंकि लोहारी नागपाला बांध् बनने से वहां भूगर्भीय और पर्यावरणीय खतरे बढ़े हैं। इससे प्रभावित 19 गांव भूस्खलन और निर्माण कार्य से होने वाले ध्माकों से खतरे में हैं। यहां घरों में दरारें आ गयी हैं। गंगा को 113 किलोमीटर तक पवित्रा रखने का अभियान पहाड़ के चालीस साल से चल रहे बांध् विरोध् आंदोलन को कमजोर करने की साजिश है। हमारा मानना है कि गंगा का अस्तित्व तभी है जबलोग रहेंगे। गांवों को खत्म होने और गंगा को बचाने की मूर्खता प्रो. अगzवाल ही कर सकते हैं। पहाड़ की सभी नदियां गंगा हैं। सभी नदियों पर बनने वाले बांध् बंद होने चाहिये। रन आफ दि रीवर और छोटे बंाधें के नाम पर यह छलावा जल्दी बंद होना चाहिये। असल में ए िमपदंड बना दिया गया ै कि टिहरी बांध् बड़ा है बांकी सब छोटे हैंं। वास्तव में उत्तराखंड में बन रहे सभी बांध बड़े और खतरनाक हैं। बिजली प्रदेश बनाने की राजनीति लोगों का डुबाने और मुनापफाखोरों के काम आ रही है।

jagmohan singh jayara

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"दस साल का उत्तराखंड"

पहाड़ के विकास के लिए,
उत्तराखंड है काफी,
राजधानी के बारे में,
मांग रहे नेता माफी.

राजधानी के पक्ष में,
आज है नेता कौन,
हाथ हो या फूल हो,
पूरी जमात है मौन.

पलायन तनिक नहीं रूका,
खाक हुए सबके सपने,
वे तो आज कर रहे,
सपने पूरे अपने.

सूनापन है छा गया,
जहाँ हमारे गाँव,
देख दुर्दशा आज  उनकी,
ठिठकते हैं पाँव.

पहाड़ छूटा हाथ से,
मन में पीड़ा और प्रवास,
राज्य बन गया लौटेंगे,
यही थी मन में आस.

दस साल  का हो गया,
अपना उत्तराखंड,
इस बरसात में दे गई,
प्रकृति पर्वतजनों को दंड.
 
राजधानी कहाँ हो,
सोचकर देना वोट,
ये है हथियार आपका,
मारो इसकी चोट.

हाथ पिलाएगा व्हिस्की,
फूल पिलाएगा रम,
आँख मूँदकर वोट देंगे,
फिर भी पर्वतजन हम.

राज्य स्थापना के लिए,
दिया जिन्होंने बलिदान,
दुखी होंगे वे स्वर्ग में,
आज हकीकत को जान.

ये सच्ची  बात है,
कह रहा कवि "जिज्ञासु",
सपने साकार नहीं हुए,
आँखों में सबके आंसू. 

रचना: जगमोहन सिंह  जयाड़ा "जिज्ञासु"
(९.११.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम  पर प्रकाशित)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोशी जी और चारू दा के विस्तृति विचार के लिए धन्यवाद!

मै आप दोनों के विचार से पूरी तरह से सहमत हूँ! हलाकि समय के अभाव के कारण मै अपनी पूरी बात अभी तक विस्तृत में नहीं लिख पाया हूँ!

मेरापहाड़ पोर्टल सबसे पहले उन अमर शहीदों को भी आज नमन करता है, जिन्होंने राज्य के निर्माण में अहम् भूमिका निभायी और अपने प्राण निछावर किये ! मुझे लगता उन अमार शहीदों की आत्मा को शान्ति नहीं मिलते होगी जिस प्रकार अभी तक राज्य में विकास कार्य हुवा है और मुजफ्फर नगर काण्ड के दोषी अभी तक स्वतंत्र घूम रहे है!

मै अपनी बात और अभी तक के विकास और आगे क्या होना चाहिए, थोडा सा अपने अल्प से आगे लिखूंगा !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This is the views of Mr Vivek Joshi from facebook community of merapahad
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Vivek Joshi November 9 at 1:55pm Report
Hi ,
I feel a lot of development has come through in last 10 years.. think as CM and our past chief ministers have ( of all parties ) have started on main things that bring about development.Please explain for your self the positive effects of the point's I am mentioning below:

1. infrastructure - roads have been build...

2. Unemployment - few SIDCUL's have been opened up..apart from employment the industry will also start paying taxes to state after initial period is over.

3. Tourism - it has grown over last few years. many concessions are there for people to go into this line..

4. Power- we shall be power surplus in coming years after the under construction projects are commissioned...

there are many fronts where work has started showing..I can keep on writing.It depends from where one is seeing & what one wants to achieve..
all the best
vivek

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Anil Arya November 9 at 9:50pm Report
Dear Mr. Mehta, Thanks for your invitation in this great debate on a great occassion. As my registration is pending for approval by the admins of your forum, I am unable to participate in the debate, though I am very eager. You are requested to approve my registration request. In the meantime, please paste my following message in your portal on my behalf. Thanks and regards, Anil..:))

उत्तराखंड के 10 वे स्थापना दिवस पर सभी उत्तरखंडीयो को मेरी हार्दिक शुभकामनायै.शहीदो को मेरा नमन और साथ ही श्री G.B. पंत जी और श्री H.N. बहुगुना जी को भी मेरा नमन्. क्योंकि आप हमारे प्रदेश्, देश और विदेश की पहचान है. हमारा रज्य एक धर्मिक राज्य के रूप मैं भी जाना जाता है. साथियो मैं सरकारी आकडो मैं बिस्वास नही करता. ये तो एक ट्रिक है. उदाहरण के तौर पर एक बेरोजगार की अगर नौकरी लगती है तो एक दिन मैं उसकि प्रगति अनंत आंकी जायेगी. दस साल का बच्चा नही है उत्तराखंड्. ये तो उत्तर प्रदेश के सौतेले ब्यवहार से तमाम प्र्यासो से अलग राज्य बनाय गया है. लेकिन अब अपने राज्य मैं भी सौतेला ब्यवहार हो रहा है. तीन जिले विकास कर रहे है. दस जिले ज्यो के त्यो है. मेरी चिंता उन जिलो के लिये बड गयी है जो कि कयी कारणो से उपेक्सित किये जा रहे है.

With best regards, @ Anil Arya, Dehradun, .. with a request, please join and spread awareness in Uttarakhand to make a better state to live and love.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Uttarakhand unveils 80,000-job bonanza
« Reply #57 on: November 09, 2010, 11:42:16 PM »
CM announcement on formation day. Let us see in time to come--------------------------------------------------------------------

Uttarakhand unveils 80,000-job bonanza
Dehradun: Uttarakhand Chief Minister Ramesh   Pokhriyal Nishank today announced a series of sops, including the   promise of a whopping 83,700 new jobs within the next one year. 
"The new jobs include 33,700 openings in government sector and   the remaining 50,000 in the private sector," Nishank said at a function,   marking the completion of the first decade of the formation of   Uttarakhand. 
In another significant announcement, Nishank said education in the state would be free up to the graduation level. 
Nishank also announced a series of sops for the BPL families and   said that they would now get wheat and rice at Rs 2 and Rs 3 per kg   respectively. 
These families will get 20 kg of wheat and 15 kg of rice every   month. Nearly 16 to 17 per cent of the population of the state (about   8.4 million) would be benefited, he said. In addition to the concession   to BPL families, APL families would also get a discount of Rs 2.60 and   Rs 2.45 a kg in the prices of wheat and rice respectively, which Nishank   said, would be lesser than what the BPL families had been paying so   far. 
The government would also provide a special incentive of Rs 10,000 for the marriage of all girls in the BPL category, he said. 
Launching a new "Ashirvad Yojna" for poor children, Nishank said   the government has tied up with major industrial houses like Hindujas to   provide technical education of national and international standards. 
Every year 1,000 children will be selected from the state under the scheme. 
Out of the 33,700 jobs promised in government sector, 12,000   would be in class III category, 4000 in police department, another 4000   teachers, 490 instructors of various ITIs, he said

http://www.financialexpress.com/news/uttarakhand-unveils-80-000job-bonanza/708714/


drmanjutiwari123

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साल दस उत्तराखंड की स्थापना के

खुशी का अवसर आया रे
उत्तराखंड आया रे,
पूरे हुए साल दस उत्तराखंड की स्थापना को,
उल्लास सभी में छाया रे।
लेकिन क्या यह खुशी मनाने का अवसर है !
नहीं, बिल्कुल नहीं,
यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि
सरदार भगतसिंह के शब्दों में-
गोरे अंग्रेज़ भारत से चले जाएंगे,
और काले अंग्रेज़ भारत में आ जाएंगे,
क्या हमारी देवभूमि के कोने-कोने के लोगों की,
आकाक्षाएं पूरी हो पाई हैं ?
क्या मनीओर्डर पर चलनेवाली व्यवस्था में कुछ अंतर आया है?
यदि है इसका उत्तर "हां", तब तो यह खुशी ठीक है,
नहीं तो उत्तराखंड की स्थापना पर इतराने, इठलाने,
या प्रसन्नता व्यक्त करने की ज़रूरत नहीं है,
अभी तो समय है- मेहनत करके,
उत्तराखंड आंदोलन में शहीद हुए,
आंदोलनकारियों के सपनों को पूरा करने का,
वह सपना जो उन्होंने देखा था।

Dr. Manju Tiwari
D.Lit

 

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