Author Topic: Gopeshwar: Historical City - गोपेश्वर: एक ऎतिहासिक नगर  (Read 19939 times)

पंकज सिंह महर

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गीत एवं नृत्य


सामुदायिक जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग गीत एवं नृत्य हैं जिनकी जड़ें कृषि, प्रकृति तथा धर्म से गहरी जुड़ी हैं।
जाग्गर का आयोजन गांवों में होता है और अब ये शहरी क्षेत्रों में उतने सामान्य नहीं रह गये हैं। इन अवसरों के दौरान स्थानीय देवी- देवताओं का आह्वान, नृत्य एवं गीत द्वारा किया जाता है और इसका समापन प्राय: भीड़ के कुछ पात्रों को देवी-देवताओं द्वारा वशीभूत कर लेने के बाद होता है। महाभारत की कुछ घटनाओं को पांडव नृत्य के रूप में पेश किया जाता है।

लोक गीत नंदा देवी की प्रशंसा में गाये जाते हैं या फिर जीतू बगदेवाल या किसी नायक या नायिका की कथा पर आधारित रहते हैं।    नंदा देवी की प्रशंसा में गाये जाने वाले गीतों की तरह ही ये गीत भी जीतू बगदेवाल या किसी नायक या नायिका की कथा पर आधारित रहते हैं।
      एक खास जाति औजी द्वारा ढोल एवं दमाऊं बजाकर गीत एवं नृत्य का साथ दिया जाता है।

बोल-चाल की भाषाएं

गढ़वाली, हिंदी भोटिया बोली तथा थोड़ी-बहुत अंग्रेजी।

पंकज सिंह महर

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वास्तुकला

प्राचीन वास्तुकला के कलात्मक स्वरूप का प्रमुख उदाहरण गोपीनाथ मंदिर है। कत्यूरी वंश के दौरान नागर शैली में निर्मित यह प्रभावकारी मंदिर स्थानीय पत्थरों के बड़े टुकड़ों से निर्मित है। यह इनके निर्माण कर्त्ताओं की निपुण हस्तकला के कौशल एवं दृष्टि केंद्रित पर श्रद्घांजलि है। मंदिर के पीछे 60 फीट गहरे एक प्राचीन कुएं के अवशेष भी यहां मिले हैं। मंदिर नीचे की जमीन पर स्थित है तथा इसके आस-पास घर बनाते समय खुदाई करने पर यह प्राचीन नाली प्रणाली का पता चला, जिसके जरिये इस नीचे की जमीन से पानी बहकर खेतों में जाता था। पास का वैतरणी कुंड भी वास्तुकला एवं अभियांत्रिकी का एक अद्भुत मिश्रण है। इस जलाशय में पानी तीन धारीओं से आता है, जो सुंदर रूप से निर्मित मुहानों द्वारा कुण्ड में गिरता है, जो भूमि के नीचे एक उत्तम पत्थर के पाईप के द्वारा संभव होता है। माना जाता है कि जलाशय से पानी का स्रोत दूर है।
       इन विशाल भवनों के पीछे वास्तव में राज्य का संरक्षण एवं साधन रहा था। सामान्य घरों का निर्माण पत्थरों एवं गिलावों (मिट्टी) से हुआ था, जिनकी छतें स्लेट के टुकड़ों से बनी थीं।  इन छोटे दो मंजिले घरों की बाल्कनी, दरवाजों एवं खिड़कियों में लकड़ी का इस्तेमाल हुआ जो रूप प्रचुर मात्रा में है। निचले तल पर मवेशियों या उनके चारें को रखा जाता था। संपन्न घरों के प्रवेश द्वार या खोली में तथा बाल्कनी को उठाये ब्रेकेटों पर भी लकड़ी की कुछ उत्तम नक्काशी होती थी।  इसके विपरीत आज के घरों का निर्माण उत्तरी-भारत के मैदानी क्षेत्रों की तरह सीमेंट एवं कंक्रीट से होता है।

पंकज सिंह महर

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गोपेश्वर से केदारनाथ पर्वत के दर्शन


पंकज सिंह महर

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चमोली तथा गोपेश्वर के मूलवासी भोटिया हैं। बाद में मैदानों से आकर भी लोग यहां बस गये। ब्राह्मणों का आगमन बंगाल, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा गुजरात से हुआ तो क्षत्रिय राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश से यहां आये। यह आव्रजन पीढ़ियों पहले हुआ तथा इन लोगों ने आपस में विवाह संबंध रचाकर यहां के सामाजिक ताने-बाने का एक भाग बन गये जो शेष उत्तराखंड में भी फैला।

      सर्वप्रथम आने-वाले लोग गोपीनाथ मंदिर से संबद्ध थे। केरल के नबूद्रि ब्राह्मण रावल के अलावा, रावल के पुजारी सहायक भट्ट भी केरल से ही आये तथा गोपेश्वर के प्रारंभिक वासी हो गये। उनके साथ मंदिर के सेवक जैसे भंडारी जो भंडार की देखभाल करते थे, लेखवार जो लेखा कार्य करते थे, मंदिर की सफाई करने वाले तथा खाना पकाने वाले आदि भी आये। गोपेश्वर के आज के वासी उन प्रारंभिक आव्रजकों की संतानें ही हैं।

       भट्टों ने पूजा कार्य का अधिकार तिवारियों से बांटा और उन्हें कुछ भूमि दे दी। यह आवश्यक हो गया था, क्योंकि जन्म एवं मृत्यु के अवसरों पर (मृत एवं जातक-सूतक) भट्टों को मंदिर में पूजा कार्य की अनुमति नहीं होती थी। इन दिनों में तिवारी ही वह कार्य संभालते थे। आज बारी-बारी से रोस्टर प्रणाली द्वारा भट्ट एवं तिवारी मंदिर में कार्य करते हैं। प्रथम पीढ़ी से आज परिवार कई गुना बढ़ गये हैं तथा असंतोष दूर करने के लिये जिम्मेदारियों को बांटना आवश्यक हो गया है। पीढ़ियों से भट्टों एवं तिवारियों के सबसे बड़े पुत्र को पूजा का उत्तराधिकार मिलता आया है। ऐसा नहीं है कि परिवार के पुरूष सदस्य अपने परिवार के पेशों को जारी रखना चाहते हों। शिक्षा प्राप्त कर वे अन्य सरकारी नौकरियों में चले जाते हैं या मैदानों में जाकर अधिक लुभावने आजीविका कार्य पाने की चेष्टा करते हैं।
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पंकज सिंह महर

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वास्तव में आज गढ़वाल में अन्य जगहों की तरह ही खेती करने तथा मवेशी पालने का कार्य महिलायें ही करती हैं जबकि पुरूष वर्ग मैदानों में जाकर कार्यकर रूपये घर भेजते हैं तथा हर वर्ष में एक या दो बार ही घर आते हैं।
हाल के 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक गोपीनाथ मंदिर में देवदासियों की परंपरा का पालन होता आया है। प्रथानुसार कुछ जातियों के परिवारों में सबसे बड़ी लड़की को मंदिर को सौंप दिया जाता था। आठ या नौ वर्ष की अवस्था होने पर उन्हें कला में प्रशिक्षित किया जाता था। मंदिर ही उनके विवाह का उत्तरदायित्व संभालता था। यह प्रथा 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक कायम रही तथा वर्ष 1971 में लकवे से अंतिम रावल रामा स्वामी ऐय्यर की मृत्यु के बाद बंद हो हुई। इसके विरूद्घ जन-भावना के कारण ही इसे थाम दिया गया।

पंकज सिंह महर

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परंपरागत परिधान

परंपरागत रूप से ऊन का इस्तेमाल कपड़ों के रूप में व्यापक रहा है। गोपेश्वर से 10 किलोमीटर दूर चमोली ऊन रंगने तथा ऊनी कपड़े बनाने का केंद्र था, जहां ऊनी कपड़ों का उत्पादन एवं पंकी, लोई, कंबल तथा शाल आदि जैसे परंपरागत परिधानों का उत्पादन होता था। गोपेश्वर से 14 किलोमीटर दूर चिंका नाम का गांव इन परंपरागत भोटिया हस्तकला का केंद्र है। अत्यधिक ठंड से बचने के लिये संपूर्ण शरीर को ढकने वाला ऊन से पूरी तरह बना कंबल सरीखा वस्त्र ‘लावा’ परंपरा से पहना जाता रहा। पुरूष सामान्यत: कुर्त्ता-पायजामा के ऊपर ऊनी जैकेट या कोट एवं सिर पर टोपी धारण करते थे। पंडित एवं पुरोहित मर्दानी धोती पहनते थे। महिलाएं एक साड़ीनुमा लंबे कपड़े का टुकड़ा धोती के रूप में पहनती तथा एक पगड़ी धारण करती जो खेतों में काम करते समय उनके कमर के चारों ओर लिपटा रहकर उनकी पीठ की रक्षा करता तथा इसके ऊपर एक ब्लाऊज पहनती हैं। परिधान एक सिर ढंकने के साफे से पूर्ण हो जाता।
       परंपरागत जेवर सोने के बने होते थे। जिनमें बुलाक (नाक की बाली जो दो नथुनों के बीच पहनी जाती है, जो चिबुक तक झूलता रहता), नथुनी (गोलाकार नाक की बाली), गलाद (गले का हार), एक हंसुली (गले के इर्द-गिर्द पहना जाने वाला चांदी का जेवर) तथा एक धागुला होता, जिसे पुरूष एवं महिलाएं दोनों धारण करते, शामिल हैं।




पंकज सिंह महर

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जोत भूमि सीमित है, यद्यपि भूमि उपजाऊ हैं। कृषि मौसम की कम अवधि, निम्न तापमान, अधिक ऊंचाई, भूमि के छोटे टुकड़े, मिट्टी क्षय की लगातार समस्या आदि कृषि को प्रभावित करने वाले तत्व हैं। ऊन एवं मांस के लिये भेड़ पालना, ऊनी कपड़ों की कताई, बुनाई तथा अन्य घरेलू उद्योगों से कृषि आय की कमी को पूरा किया जाता है।  इस क्षेत्र में खेती, पहाड़ियों के किनारे की ढलान पर सीड़ीनूमा खेत बनाकर की जाती है। गेहूं, चावल, मड़ुआ तथा झिंगोरा की परंपरागत फसलों के अलावा कौनी एवं जौ जैसे अन्य अन्न भी पैदा किये जाते हैं।
       परंपरा से गांव की अर्थव्यवस्था आत्म-निर्भर रही है। समुदाय में काम का बंटवारा होता था तथा वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान विनिमय प्रणाली के अंतर्गत होता था। प्रत्येक गांव में अनिवार्य सेवा की जातियां रहती थीं, जैसे– लोहार, नाई, औजी (ढ़ोल बजाने वाला), पंडित, बदाई (चमार) जो मृत मवेशियों को उठा ले जाते तथा जूते बनाते थे एवं बड़ियों- जो बीजों से तेल निकालती। गांव वासी इसका भरसक प्रयास करते कि ये सेवादार गांव में ही रहें। यहां तक कि किसी खास सेवादार के नहीं होने पर अन्य गांवों से जमीन का घूस देकर उन्हें अपने गांव ले आते। ग्राम समुदायों के बीच ऐसे संबंध पीढ़ियों तक चलते रहते तथा आज भी जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी परिवर्तन हुआ है, परिवारों के बीच ऐसे संबंध कायम हैं।

पंकज सिंह महर

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प्रखंड विकास कार्यालय के निकट चमोली में स्थित यह मंदिर चमोली के ग्राम देवता को समर्पित है। कहा जाता है कि देवता के नाम पर ही चमोली का नाम पड़ा जो इस स्थल पर सदियों पहले भूमि से उदित हुए। मंदिर के पुजारी आनंद सिंह के अनुसार वर्ष 1946-47 में चमोली के अनुमंडलाधिकारी वाई एस भंडारी द्वारा मंदिर का निर्माण कराया गया। इस षट्कोणीय मंदिर के अंदर प्राचीन प्रतिमा है।


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ऎतिहासिक त्रिशूल


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भीम झरना, गोपेश्वर

 

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