यहां के लोगों का पारम्परिक पेशा पशुपालन तथा खेती था लेकिन तब भी खेती आसपास के गांवो में होती थी, जैसे कि आज भी। धान, चावल, मकई, गेहूं, भृंगोरा, चावल, आलु एवं उड़द आदि की परम्परागत खेती होती थी जो आज भी उगाये जाते हैं।
वास्तव में, बासमती चावल की खेती तपोवन में, जो यहां से दो किलोमीटर दूर है, इस क्षेत्र में प्रसिद्द है और ऐसा कहा जाता है कि मुनि की रेती तक इस चावल की खुशबु आती थी। उन दिनों यह प्राचीन शत्रुघ्न मंदिर में प्रसाद की तरह चढ़ाया जाता था।
लेकिन खेती व्यवसाय से अधिक यहां के अधिकांश निवासी, मुनि की रेती में साधना तथा आश्रम में शांति की खोज में आने वाले लोगों की सेवा से अपना आजीविका कमाते हैं। यह परम्परा आज भी चली आ रही है और इस बात से प्रमाणित होता है कि यहां की लगभग 80 प्रतिशत आबादी आश्रमों में काम करती है।
हिमालय के पहाड़ी लोगों में एक सामान्य बात है कि महिलाएं पारम्परिक पोशाक घाघरा तथा अंगरीस जबकि पुरुष कुर्त्ता तथा धोती एवं गढ़वाली टोपी पहनते हैं।
जाड़े की ढंडक से बचने के लिए वे गर्म कम्बल या लम्बा शॉल ओढ़ते हैं। अब सामान्य रुप से उत्तरी भारतियों की तरह महिलाएं साड़ी तथा सलवार-कमीज तथा पुरुष शर्ट तथा पेंट पहनते हैं।