उत्तराखण्ड एक परिचय
प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसी पुण्यवत्सला भूमि उत्तराखण्ड अनादिकाल से देवगण, ऋषियों एवं तपस्वियों
के लिए निवास स्थल एवं तपोभूमि रही है यह भूमि राजा भरत की जन्मस्थली भी रही है कुमाऊं शब्द कूमा±चल (कूर्मा
+ अंचल, कूZ-कच्छप, अचल-पर्वत) का तात्पर्य होता है। कच्छप पर्वत। स्कन्ध पूराण के अनुसार भगवान विष्णु ने
चम्पावत के निकट काली नदी में कच्छप का रूप धारण किया था, जिससे इस प्रदेश का नाम कूमा±चल या कुमाऊं
पड़ा। पौराणिक ग्रन्थों में इस भू-भाग को उत्तराखण्ड या केदारखण्ड के नाम से उद्धत किया गया है।
कुमाऊंनी भाषा में कुमायूं शब्द को कुमू कहा जाता है। कुमाऊं शब्द पहले चम्पावत के आस-पास के क्षेत्र के लिए प्रयोग होता
था। बाद में पूरे क्षेत्र को कुमायूं कहा जाने लगा।
गढ़वाल नामकरण का कारण स्पष्ट नहीं है। कुछ लोगों का मानना है कि गढ़वाल में 52 गढ़ थे। गढ़ों की अधिकता के कारण
इस क्षेत्र को गढ़वाल कहा गया। उत्तराखण्ड में क्षेत्रों के नाम ताल, कोट, हाट, घाट आदि के आधार पर पड़े हैं। कुछ लोग इस कारण
से इस तथ्य आदि के आधार पर पड़े हैं। कुछ लोक इस कारण से इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार प्राचीन
भारत के पहाड़ी गणराज्यों में गणेश्वर भी एक गणराज्य था। गढ़देश मूलत: गणेश्वर रहा होगा। गढ़वाल के साहित्यकार मौलाराम रचित ग्रन्थों में भी गढ़राज्य व गणराज्य का उल्लेख है।
उत्तराखण्ड का ऐतिहासिक सर्वेक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि अल्मोड़ा के चन्द राजवंश से पूर्व इस क्षेत्र में कत्यूरी नामक
एक विशाल राज्य था, जिसके अन्तर्गत आधुनिक कुमायूं, गढ़वाल, रूहेलखण्ड और पश्चिमी नेपाल का डोरीगढ़ सम्मिलित थे। इस राज्य का केन्द्र आधुनिक अल्मोड़ा जिले की कत्यूरघाटी में बैजनाथ के समीप स्थित कार्तिकेयपुर नाम का नगर था। कत्यूरी-युग के अन्तर्गत कुमायूं-गढ़वाल पर निम्न सात राजवंशों ने शासन किया।
खर्परदेव का वंश - बसन्तनदेव के पुत्र के पश्चात बागेश्वर लेख में खर्परदेव के वंशजों का दानलेख उत्कीर्ण है। इस अवधि में कन्नौज
के राजा यशोववर्मा ने हिमालय के देवदारू वनों तक विजय का दावा किया है। राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर नरेश ललितादित्य
मुक्तापीड केदारमण्डल (गढ़वाल) में गया था उसे काली नदी तक शासन करने का श्रेय दिया गया है। सम्भवत: इन आक्रमणों से राजवंश में परिवर्तन हुआ और खर्परदेव ने गद्दी पर अधिकार कर लिया। खर्परदेव के पश्चात् उसकी रानी कल्याणदेवी का पुत्र कल्याणराज गद्दी पर बैठा। कल्याणराज और महारानी लद्धादेवी का पुत्र त्रिभुवनराज इस वंश का अन्तिम ज्ञान राजा माना जाता है। बागेश्वर लेख के अनुसार राजा त्रिभुवनराज ने एक किरात के पुत्र के साथ सन्धि की और सन्धि के साक्षी के रूप में दोनों ने व्याघ्रेश्वर देवता के निमित्त भूमि प्रदान की। किरातपुत्र के लिये कोई राजकीय उपाधियां प्रयुक्त नहीं हैं। फिर भी परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर त्रिभुवनराज ने जिसके साथ सन्धि की हो, वह किरातपुत्र राजपरिवार से सम्बन्धित होना चाहिए। ग्वालियर लेख के अनुसार कन्नौज के प्रतिहार राजा नागभट द्वितीय (815-833 ई.) ने किरातों के एक पहाड़ी दुर्ग को बलपूर्वक छीन लिया था जो सम्भवत: आधुनिक पश्चिमी नेपाल में रहा होगा। अस्कोट के आधुनिक वनरौत इन्हीं किरातों के वंशज रहे होंगे। बंगाल के पाल राजा देवपाल के नालन्दा शिलालेख के अनुसार, उसके पिता धर्मपाल को गढ़वाल में केदारनाथ तक अपनी सेना ले जाने और वहां धार्मिक अनुष्ठान करने का श्रेय दिया गया है। इस अभियान के बाद पुन: कार्तिकेयपुर में परिवर्तन हुआ।
निम्बर का वंश - बागेश्वर शिलालेख के अनुसार त्रिभुवनराज के पश्चात् एक नया राजवंश सत्तारूढ़ हुआ जिसके प्रथम व्यक्ति निम्बर
के लिए उसके पौत्र ललितशूर के ताम्रपत्रों और प्रपौत्र भूदेव के शिलालेख में राजकीय उपाधियां प्रयुक्त नहीं हैं। निम्बर को अपने बाहुबल पर `शक्तिशाली शत्रुओं को परास्त करने का श्रेय दिया गया है और उसकी पत्नी नाथूदेवी को राज्ञी महादेवी सम्बोधित किया गया है। निम्बर का पुत्र इष्टगण इस वंश का पहला स्वतन्त्र शासक रहा होगा, क्योंकि उनके लिए अभिलेखों में परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर शब्द प्रयोग किया गया है। इष्टगण और रानी वेगदेवी के पुत्र ललितशूर के 21वें और 22वें राज्यवर्ष के दो ताम्रपत्र पाण्डुकेश्वर में सुरिZक्षत हैं। कन्नौज के प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल के द्वितीय राज्यवर्ष (887 ई.) के लेख से इनकी लिपि प्राचीन है। अत: ये नवीं शताब्दी के मध्यभाग के लगभग लिखे गये होंगे। ललितशूर के 21वें राज्यवर्ष में प्रसारित ताम्रपत्र में दान के दिन का उल्लेख मिलता है - तीन गते माघ को उत्तरायणी के अवसर पर यह दान दिया गया था। ज्योतिष गणना के आधार पर नवी शताब्दी में तीन माघ को उत्तरायण संक्रान्ति 22 दिसम्बर, 853 ई. को ज्ञात होती है।
सलोणादित्य का वंश - पाण्डुकेश्वर तथा बागेश्वर ताम्रपत्रों के अनुसार निम्बर वंश के पश्चात सलोणादित्य के पुत्र इच्छटदेव ने नए
राजवंश की स्थापना की सुभिक्षराज के पाण्डुकेश्वर लेख में उसके लिए भुवन-विख्यात-दुर्मदाराति-सीमन्तिनी-वैधव्यदीक्षादान-दक्षेक
गुरू: का विश्लेषण प्रयुक्त है। कुमायूं-गढ़वाल से प्राप्त किसी भी राजा के लिए अभी तक ऐसा विश्लेषण नहीं मिला है।
पाल वंश - बैजनाथ अभिलेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में लखनपाल, त्रिभुवनपाल, रूद्रपाल, उदयपाल, चरूनपाल, महीपाल, अनन्तपाल, आदि पाल नामधारी राजाओं ने कत्यूर में शासन किया। तेरहवीं सदी में पाल कत्यूर छोड़कर अस्कोट के समीप ऊकू चले गए।
क्राचल्लदेव और अशोकचल्ल - एटकिंसन के अनुसार नेपाली विजेता अशोकचल्ल के गोपेश्वर लेख की तिथि 1191 ई. है, लेकिन
गोपेश्वर के त्रिशूल पर अंकित अशोकचल्ल की दिग्विजय सूचक लेख में कोई तिथि दी गई नहीं है। इसके विपरीत अशोकचल्ल के बोधगया से प्राप्त एक लेख में परिनिर्वाण संवत् 1813 का उल्लेख है। सिंहली परम्परा के अनुसार 554 ई. से परिनिर्वाण संवत् प्रारम्भ हुआ अत: अशोकचल्ल की तिथि 1268 ई. माननी पड़ेगी। तेरहवीं सदी में नेपाल में बौद्ध धर्मानुयायी मल्ल राजवंश का अभ्युदय हुआ। बागेश्वर लेख के अनुसार 1223 ई. में क्राचल्लदेव ने कार्तिकेयपुर (कत्यूर) के शासकों को परास्त कर दिया जो स्वयं दुलू का राजा था। दुलू और जुमला से मल्ल राजवंश के अनेक लेख मिले हैं। जिनसे ज्ञात होता है कि तेरहवीं से पन्द्रहवीं सदी तक कुमायूं गढ़वाल और पश्चिमी तिब्बत में कैलाश मानसरोवर तक मल्लों का प्रभुत्व था। इसी मल्ल राजवंश को कुमायूं-गढ़वाल की लोकगाथाओं में कत्यूरी राज्य कहा जाता है। इस साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अशोकचल्ल था। गढ़वाल में गोपेश्वर से मिल प्रमाणानुसार, सपादलक्ष से तात्पर्य शिवालिक (सहारनपुर-बिजनौर) और खषदेश से तात्पर्य कुमायूं-गढ़वाल से रहा होगा। इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजपूतकालीन अभिलेखों में विर्णत खष-शब्द कुमायूं-गढ़वाल में शासन करने वाले कार्तिकेयपुर के राजाओं के लिए प्रयुक्त हुआ है।
आसन्तिदेव का वंश - पर्वतीय लोकगाथाओं तथा अस्कोट, डोटी और पालीपछाऊं के राजघरानों की वंशावली के अनुसार आसन्तिदेव
ने जोशीमठ से आकर कत्यूर पर अधिकार किया। जोशीमठ से प्राप्त गुरूपादुक नामक हस्तलिखित ग्रन्थ में आसन्तिदेव के पूर्वजों में
अग्निवराई, फीणवराई, सुवतीवराई, केशवराई और बगडवराई के नाम क्रमश: दिए हुए हैं। जिन्होंने जोशीमठ से आसन्तिदेव ने राजधानी जोशीमठ से हटाकर कत्यूर में रणचूलाकोट में स्थापित की। उसके पश्चात् कत्यूर में वासंजीराई, गोराराई, सांवलाराई, इलयणदेव, तीलणदेव, प्रीतमदेव, धामदेव और ब्रह्मदेव ने क्रमश: शासन किया। सभी परम्पराएं इससे एकमत हैं कि कत्यूरियों का विशाल साम्राज्य ब्रह्मदेव के अत्याचारी शासन के कारण समाप्त हुआ। एक लोकगाथा में चम्पावत के चन्दवंशीय राजा विक्रमचन्द द्वारा ब्रह्मदेव के माल-भाबर में उलझे रहने के समय लखनपुर पर आक्रमण का वर्णन मिलता है। विक्रमचन्द ने 1423 से 1437 ई. तक शासन किया। अत: ब्रह्मदेव का भी यही समय माना जाना चाहिए। विक्रमचन्द अन्त में परास्त हुआ और उसे ब्रह्मदेव की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार कत्यूरी राजसत्ता का पतन पन्द्रहवीं सदी के प्रारम्भ में मानना पड़ेगा।
रानीबाग में प्रचलित जियारानी की गाथा के अनुसार ब्रह्मदेव कत्यूरी राजा पिथौराशाही का भतीजा था और उसने अपने बूढ़े
चाचा का विवाह हरिद्वार के समीप मायापुरहाट के राजा अमरदेव पूण्डीर की लड़की मोलादेवी के साथ कराया था। उस समय तुको± के
आक्रमण में मोलादेवी कैद कर ली गई थी। 1398 ई. में समकन्द के शहंशाह तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया। मलफजात-ए-तैमूरी और मफरनाम से ज्ञात होता है कि शिवालिक के राजा बहरूज के नेतृत्व में पर्वतीय शासकों ने तैमूर का सामना किया था। बहरूज का संस्कृत रूपान्तर ब्रह्मदेव होता है। अत: ब्रह्मदेव का सम्भावित समय 1398 से 1424 ई. तक माना जा सकता है। इस अवधि में कुछ समय उसने धामदेव के साथ सम्मिलित शासन किया और कुछ समय स्वतन्त्र शासक के रूप में ब्रह्मदेव के पश्चात भी इस वंश की कुछ शाखाएं विद्यमान थी। रामायणप्रदीप के अनुसार सोलहवीं सदी के मध्य में अजयपाल कत्यूरियों का सोने का सिंहासन छीनकर श्रीनगर ले आया था। डोटी और अस्कोट के रजवार भी सोलहवीं सदी तक अपनी सत्ता बनाए हुए थे।
गढ़वाल में परमार राजवंश - परमार वंश की स्थापना राजा कनकपाल ने लगभग 885 ई. में चांदपुरगढ़ (चमोली) में की थी। इस वंश
के राजा अजयपाल ने चांदपुरगढ़ से अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ और फिर श्रीनगर (1517) में स्थापित की। किंवदन्ती है कि दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी (1451-88) ने परमार नरेश बलभद्रपाल को शाह की उपाधि देकर सम्मानित किया। इसी कारण परमार नरेश शाह कहलाने लगे। परमार वंश में उस समय वर्तमान हिमाचल प्रदेश के योग-योग, मन्थन, रंवाईगढ़ आदि क्षेत्र भी सम्मिलित थे। बाद में शासकों कर्णवती, मानशाह, महीपतिशाह, बहादुरचन्द ने तिब्बती हमलों का सफलतापूर्वक सामना किया।
14 मई 1803 में गोरखों से पराजित होकर परमार वंशी शासक अपना राज्य खो बैठे। 1814 में अंग्रेजों के हाथों गोरखों के
परिणामस्वरूप गढ़वाल स्वतन्त्र हो गया लेकिन अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना
राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। इसके बाद गढ़वाल नरेश ने अपनी राजधानी टिहरी गढ़वाल पर राज्य में स्थापित की। टिहरी राज्य पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।
कुमाऊं में चन्द राजवंश का उदय - कत्यूरी राजवंश के पतन के बाद लगभग 700 ई. में कुमाऊं में इस राजवंश की नींव पड़ी इसके
प्रथम शासक सोमचन्द माने जाते हैं। कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने चम्पावत को अपनी राजधानी बनाया। वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र इनके अधीन थे। 1563 में राजा बलदेव कल्याण चन्द ने अपनी राजधानी को अल्मोड़ा में स्थानान्तरित कर दिया। 1790 में गोरखा आक्रान्ताओं ने चन्द शासन का अन्त कर दिया।
गोरखों का प्रभुत्व - गोरखों ने 1790 में कुमाऊं पर व 1803 में गढ़वाल पर अधिकार कर लिया था। युद्ध में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह-देहरादून के खुडबुडा में मारे गये। इस प्रकार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड पर गोरखों ने अधिकार कर लिया। कुमाऊं पर यह गोरखा शासन 25 वर्ष तथा गढ़वाल पर 12 वर्ष तक रहा। उनके शासनकाल में उत्तराखण्ड की जनता को अत्याचार, अन्याय और दमन झेलना पड़ा। इस अत्याचारी शासनकाल को गोरख्याणी अथवा गोंरख्याली की संज्ञा दी जाती है।
अंग्रेजी प्रशासन - 1803 में गोरखों ने गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह की खुडबुडा के मैदान में पराजित कर हत्या कर दी और गढ़वाल पर
अधिकार कर लिया। प्रद्युम्नशाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से मदद मांगी, अंग्रेजों की मदद से गढ़वाल नरेश सुर्दशन शाह युद्ध व्यय की निर्धारित राशि सात लाख रू0 न दे सका। अत: समझौते के स्वरूप आधा राज्य अंग्रेजों को दे दिया। अंग्रेजों ने कुमाऊं को भी 27अप्रैल 1815 को गोरखों से जीत लिया सम्पूर्ण कुमाऊं और आधे गढ़वाल पर अधिकार करने के पश्चात् अंग्रेजों ने 3 मई, 1815 में कर्नल एडवर्ड गार्डनर को यहां का प्रथम कमिश्नर और एजेन्ट गर्वनर जनरल नियुक्त किया।
अंग्रेजी राज के आरम्भ में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड क्षेत्र दो राजनीतिक प्रशासनिक इकाइयों में गठित हो गया - कुमाऊं जनपद और
टिहरी राज्य। 1840 ई. में प्रशासनिक सुविधा के लिए कुमाऊं के गढ़वाल परगने को गढ़वाल जनपद बना दिया। कालान्तर में कुमाऊं
जनपद को भी अल्मोड़ा और नैनीताल दो जनपदों में बांट दिया। यह व्यवस्था स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बनी रही। तब कुमाऊं में नैनीताल,
अल्मोड़ा के साथ गढ़वाल भी शामिल था।
सन् 1816 में अंग्रेजों व गोरखों के मध्य संगौली की सन्धि हुई। सन्धि के अनुसार टिहरी रियासत को छोड़कर पूरे उत्तराखण्ड
को नॉन रेगुलेशन प्रान्त बनाकर उत्तर-पूर्वी प्रान्त का भाग बना दिया। सन्धि के अनुसार सुदर्शनशाह को टिहरी रियासत का राजा बनाया गया। टिहरी राज्य की सत्ता सुदर्शनशाह को मिलने के बाद कुमाऊं की सत्ता पुराने राजवंशों के लोगों को सौंपने की मांग उठी। इस मांग को अंग्रेजी शासकों ने दबा दिया। सारे देश में अंग्रेजी शासन का विरोध हुआ। इस विरोध का असर उत्तराखण्ड क्षेत्र में भी हुआ। स्वतन्त्रता आन्दोलन में यहां के सैकड़ों लोग सक्रिय हुए व जेल गए।
Courtsy: अमर साह, रोपवे, कु.म.वि.नि.लिसंस्थापक,पिनक ग्रुप, नैनीताल (श्री नन्दा स्मारिका 2010)