Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 234500 times)

devbhumi

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हैं यूँ ही

इत्तेफाक है ,दर्द है
बस हकीकत ही यही

आंखें हैं ,नम है वो
वजह कोई अपना ही सही

किस्मत है, लकीरें हैं
यकीन इन पे करना  की नहीं

बदल सकते हैं. लोग यंहा
फिर किस्मत क्यों नहीं

ख़ामोशियों है सिलसिले हैं
कारवाँ सदा बढ़ता ही रहा

ना खबर उनकी,ना फ़िक्र हमारी
ज़िंदगी  राह चलती ही चली

मंज़िलों है , गुमराह रास्ते हैं
हर किसी से राह पूछना अच्छा नहीं

कितनी सुलझी हो वो बातें
मै उन मे यूँ  उलझता ही नहीं

चाँद तुम्हे ,आवारा क्यों मुझे
बस लोग ये कहते हैं यूँ ही

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बस आगे बढ़ते रहना

अपनी ही मस्ती में चला था
ना मंजिल थी ना कारवाँ था 

जिंदगी धीरे धीरे चल रही थी
हर सांस जो खत्म हो  रही थी

चंद  दिन रातों का शौक था ये
जो मेरे जहन  में पल रहा  था

समझ कर  ना समझ बन रहा था
अकेले में अपने से ऐंठ रहा था

कविता बढते कदम देख कर
वो मुझे बहुत अच्छी लग रही थी

मुश्किलो को देख हिम्मत न छोडना
अंत होते होते वो मुझ से कह रही थी

लोग कहेगे बहुत कुछ तुझे पर
अपने  सफर  पर सदा अग्रसर रहना

बस आगे बढ़ते रहना

बालकृष्ण डी ध्यानी
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चुरा लिए हैं

चुरा लिए हैं
कुछ शब्द मैंने
जिंदगी की , खुली किताब से
सुबह नींद से जागा जब मैं
नये सोच नये अंदाज से

शिकायते परेशानी
ने जब मुझको जकड़ा है
वजूद की आग में
दिल जोर से जब धड़का है

चुरा लिए हैं
कुछ शब्द मैंने
जिंदगी की खुली किताब से

सांसों ने साँसों संग
फिर एक माला  जोड़ी है
नये पल नये दिन लिये
वो फिर से दौड़ी हैं

चुरा लिए हैं
कुछ शब्द मैंने
जिंदगी की खुली किताब से

फड़फड़ाये परवाज मेरे
अब आकाश उड़ने  वाले हैं 
खयालों के गुच्छे जो बिखरे
उन्हें संवारने  वाले हैं 

चुरा लिए हैं
कुछ शब्द मैंने
जिंदगी की खुली किताब से

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अकेले में

अकेले में
अकेले संग जब मै बतियाता हूँ
तब ही उसी पल मै
तुम्हरे समीप खड़ा हो पाता हूँ
अकेले में

ना ही कोई लालसा है
ना ही  कोई उम्मीद बाकी है
दो आंखें बस तुम्हे 
फिर भी ना जाने क्यों ढूंढती हैं
अकेले में

जब तुम ना दिखती हो
मन व्यथित सा रहता है
शब्द अंतर्मन में तरसता है
खाली पन्नों में उतार कर भी
वो तुम्हारी  कमी महसूस करता है
अकेले में

तुम्हारे संग
छुना चाहता हैं वो
ना जाने कितनी ऊंचाईयां
पलक को तोड़ लाने को
मचलती उन में कई गहराईयां
अकेले में

अब बस एक शुन्य है
उस अहंकार के विलीन होने का
स्मृति भी खोने लगी है अब
फिर  भी डर है मुझे तुम्हे खोने का
अकेले में

एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है
जो कभी समाप्त होती नहीं
आखरी सांस  भी ना जाने क्यों
उम्रभर की प्यास बुझा पाती नहीं
अकेले में

बालकृष्ण डी ध्यानी
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सुवा  मेरी

अब की बारी आलि
आलि कि  ना आलि तू
मिथे  तू बता देई
नानि नानि  छुईयों मा
इन ना रूस  सुवा
छुछी मानी जा 
(मानी जा  मानी जा )
छुछी तू मानी जा 
छुई मेर मानी जा
(सुवा  मेरी सुवा )  ..... २

देख  दूर पौर डलियो
बुरांस फुल्यां  छन
हिलमिल  कि
पत्तों  दगडी कन  मिस्या छन
चल हम दुईया
ऊनि  हि  मिसी  जौला
छोड़ ये गुसा थे
चल झट दौड़ी जोला
अब त मानी जा  छुछी
(सुवा  मेरी सुवा )  ..... २

देख  भंडया गुसा
सरीर को ठिक नि छ 
उजळी  मयाली मुखडी मा
कन  ऎंठ  छन  ये रेघा ठिक नि छ
इन रेठया  रेघों  थे
अप्डी हैंसी से मीसा
अब त मेर बात मानी जा छुछी
छुछी यन  ना मैसे  रुसा
(सुवा  मेरी सुवा )  ..... २

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो पहाड़ी चेहरा

देख कर वो पहाड़ी चेहरा
करने लगा दिल देखो कितना बखेड़ा

पहलू में मेरे इठलाती  वो
मेरे दिल धड़कन को धड़काती वो
दिन सुबह शाम ना इसे  कुछ काम
देखा जब से मैंने हंसता वो पहाड़ी चेहरा

हर पल, पल मेरे अब साथ वो
यकीन  की मेरी अब शुरुआत वो
इबारत मै उस पर लिखने चला हूँ
कैसे कहूं मै उस पे कितना जुड़ा  हूँ

इश्क़ मुझे वो सिखलाती  जाती
अटखेलियां ले वो  आती जाती
जादू  मुझ पे वो उस क्षण  कर जाए
अँखियों से जब वो हंसती जाती

गंगा किनारे बैठे बैठे
बोल बन मेरे  दिल उतरती जाती
गीत बन मन का  रोज  इस पार से
मुझे उस पार वो लेकर  जाती

अक्षर बन उकेरों तुमको
हर हसीन पलों में समेटो  तुमको
बन जाए अगर  तेरी छवि जो
आँखों से उतारकर दिल सहेजों उसको

वो पहाड़ी चेहरा  .......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो लौ अब भी तड़पती है

वो तड़पती  है
लौ दिये की जब फड़फड़ती  है
प्रवास करते  उँगलियों पर
जब वो थिरकती है
वो तब कहती है

अग्नि चाहे दीपक की हो
चिराग, मोमबत्ती की वो लौ  हो
कार्य उसका जलना प्रकाश देना
मूल्य उसका कुछ भी ना लेना
वो मचलती है

एक क्लिक पर
अब सब मिल दुनिया  देखें
जब ना थे ये सब कुछ
उन आहत बाणों को झेले
वो अखरती है

कवच भी तुम लो
कुण्डल भी तुम ले लो
रह रह कर भुजा फड़कती है
धर्म की लौ ललकती है
वो धड़कती है

हर युग  में युद्ध है
भांति भांति की धुंधली लौ
अब  भी देखो लपलपाती है
नींद के पास चक्कर काटकर
वो झकझोरती  है

वो लौ अब भी तड़पती है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बचपन की महकती यादों पर

बचपन की महकती यादों पर
अब बुढ़ापे  का चश्मा है चढ़ा हुआ
शुक्रवार के आते आते  ही
अनुभव हुआ ऐसे
जैसे रविवार हो आने लगा
एक लंबा सा वो
नीला रूमाल आसमानी 
दूर चाँद  रौशनी आंगन मेरी शैतानी
मिट्टी सोंधी खुशबू से सनी वो पेशानी
गांव छोड़ कर भागी वो मेरी जवानी
एक कर वो याद आने लगे
आकर मुझे अब रिझाने सताने लगा
कोने में रखे  एक  बक्से में से
कुछ मुरझे खुशबूदार फूल
फिर से लहलहाने लगे
चांद को देखते टक टकी बाँध हम
तारा  टूट  उसे छूने  जाने लगे
अचंभित देख मुझे
हौले से रात  फिर मुस्काने लगी
बीते पलों के गीत फिर गाने लगी 
कुछ देर बाद
तपती धूप, सूरज की गर्मी
कहर बरसाने लगी
वो मेहनत के दिन याद आने लगे 
उसी पेड़ के नीचे फिर थक बैठा मै
सात रंगों का इंद्रधनुष को फिर रंग ने लगा 
अचानक काले  बादल छाने लगे
बरसात आँखों से अकेले फिर बहने लगी
वो पोटली हंसी वो डिबिया भी बंद है
जिंदगी बचे दिन चंद शेष हैं
जादू खत्म मुस्कुराहट गुम  है
बचपन की महकती यादों पर

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अपनी पहचान

अपनी पहचान बस अब छुपाते  हैं लोग
जब अपनों से थोड़े से ही जब बड़े हो जाते हैं लोग

क्या क्या  नहीं  कर जाते हैं लोग
समाने  होते हैं फिर भी खुद से ही लुप्त हो जाते हैं लोग

आवज लगान भी अब  फिजुल सा दर्द उभरता है
जब अपना  अनसुना कर भीड़ में कंही गुम  होता  है

पसीने  में अब तरबतर  हो जाता है  अब जिस्म मेरा
अखरता है उन्हें खूब अब उन्हें वो भूल जाना  मेरा 

अब भी पास  ही बिछी मेरी वो खाली चारपाई है
पहचानत  कोई नहीं मुझे बस वो मेरी तन्हाई है

कभी हम भी मशहुर हुये  थी किसी जमाने में ध्यानी
ये रोग  भी हमे भी लगा था उसी गुजरे जमाने में

ख़ाक छानते हैं अब हम खुद से बहुत पछताते हैं
अपनी पहचान अब हम खुद से ही अब छुपाते है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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उस कोरे पन्ने पर लिख जाती हो तुम

भावों विचारों में तुम
सम्बंधों परिस्थितियों में  मैं
तेरे लिए खोया हुआ
मैं खोया हुआ

सुख दुःख क्लेश अनुभव हुआ  मुझे
आनंद यथार्थ स्वरूप  मिला मुझे
संसार के सभी सुखों ने  मुँह मोड़ लिया
तभी तेरे  हे शब्द  साक्षत्कार हुआ मुझे

हर कोने के हिस्से में तुम
खिड़की दरवाजों गलियारों  में  मै
तेरे लिए खोया हुआ
मैं खोया हुआ

हृदय को मेरे उन्नत करेगी
मैं जंहा चलों मेरे साथ साथ बहेगी
बनकर हवा मेरे स्वास संग
हे कविता  बस  तो बहेगी ,  बस  तो बहेगी

आकाश भूमि पाताल में तुम
अपने आप से ही मैं
तेरे लिए खोया हुआ
मैं खोया हुआ

मेरे साधारण बोली का अन्तर है तू
इस हृदय  के उदगारों का सागर है तू
सृष्टि की अपार संपदा की स्वमिनी तुम
अलंकार रूपक की गामिनी हो तुम 

अपने ही आप बन जाती हो तुम
शब्दों शब्दों में सजकर उतर आती हो तुम
लिखना नहीं आता कुछ भी  मुझे
आकर उस कोरे पन्ने पर लिख जाती हो तुम

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