Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 234556 times)

devbhumi

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वो हात  खाली रह गये

मन उथल-पुथल तब हो जाता
बिन बोले करीब से दूर तू चला जाता
सोचता हूँ बैठे अकेले जब तेरे बारे में
तू झट दौड़ के समीप हो जाता

निराशा आशा के गर्त समंदर में
अक्सर दोनों में युद्ध क्यों चलता रहता
वो वियोग वो दर्द  उस तिलमिलाहट से
अब तू  क्यों इतना उचट सा जाता

अपनों से अपनी बातें कहने में भी अब
मीलों और सदियों की दुरी वो क्यों पाता
आधुनिकता विकास लगी दौड़ ऐसी
आपस में अपना यूँ मुख क्यों तकती

छोटी-छोटी बातों में मेरे हिर्दय तुम
अब सुख अपना खोजना हम भूल गये
देख लिये हैं  दूर कहीं हमने बड़े सपने
वंहा से वापस लौट आना हम भूल गये

अपनों से मिलने ध्यानी अब वक्ता तो लगता है
मौसम कैसा भी हो मगर बस चलना तो पड़ता है
अपने 'विवादों को हम सुलझाते उलझाते रह गये
पीछे मोड़ देखा  वो हात  खाली रह गये

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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ग्रीष्म  के कहर से

ग्रीष्म  के कहर से लगता है अब
चिड़ियों ने चहचहाना छोड़ दिया
ऐसी बरस रही है आग गगन से
मैंने भी बाहर आना छोड़ दिया

बहती थी शीतल गाती थी कोयल
बैठ कर मेरे आँगन के उस पेड़ पर
अब ना रहा आँगन ना ही वो पेड़ भी
कोयल ने भी आ गाना छोड़ दिया

चारों प्रहर अब उष्ण  का असर
इस बार की गर्मी से हालत नरम
भावों में मोती काँहा से पिरो लाऊँ
जहाँ जाऊं वहां  नीरस की दौड़ है

साँसे है गुमसुम मौसम कि रुनझुन
हवा ने भी देखो अब बहना छोड़ दिया
जलते जंगल और रोते वातानुकूलित
जब इनमे अपना सुख खोज लिया

ना जाने किधर ले जायेगी वसुंधरा 
झर झर के कब अब बहेंगे निरझर
बरखा की धुन सुनने दिल बेकरार
सावन दूर  इसलिए मन  उदास है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ये  ज़िंदगी तेरे लिये 

तुम ने बताया भी नहीं और मैंने सब जान लिया
आँखों में उमड़े तेरे अहसासों को यूँ पहचान लिया

आधी-अधूरी जैसे भी थी वो कहानी तो थी मेरी ही 
जिक्र मेरे जब भी आया तूने दिल क्यों थाम लिया

हज़ारों काम थे पड़े मेरे तेरे लिए मैंने सब छोड़ दिये
रोना नहीं था चुपके मुझे सब कोरे पन्ने उतार दिये

दो घड़ी की चाहत मेरी जमाने ने बना दी आफत तेरी
उम्र गुजर गयी अब वो तेरी चाहत निभाने को मेरी

जब आ जाती दुनिया घूम कर हवा समाने जब मेरे
तब सोचता हूँ बैठे गुज़रे ज़माने क्यूँ लौट आते नहीं

इस ज़िंदगी में सब नसीब के हाथों क्यों लिखा बिका
हम जैसे फकीरों को सर पर भी तेरा थोड़ा हात फिरा

ये  ज़िंदगी तुझे ढूंढते ढूंढते मैं  कहाँ कहाँ ना गया
फिर भी तेरा दीदार ना हुआ हसरत तरसती ही रही

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अपने से ही

जब ज्याद की सोचता हूँ मैं
कम ही हाथ आता है मेरे
कम ही हाथ  आता है

जब अकेले होता हूँ मैं
वो ग़म साथ चला आता है मेरे
वो ग़म साथ चला आता है

फिर भी मिटती नहीं ऐ आस मेरी
पगों से सनी धूल ऐ बताती है
रोज सवेरे उठते ही नये स्वप्न संग
वो खूब ललचाती वो मचलाती है

धूल फाकने को चला जाता हूँ
दोपहरी  लथपथ  हो आता  हूँ
ढूंढती रहती है  पथ मंजिल का
पेड़ों की छाँव में ही सकुन पाता हूँ

अंधेर छाते ही गुम हो जाती है
थक हार जब  शाम लौट आती है
रात के अँधेरे बैठी देहली फिर 
इन्तजार नये स्वप्न का करती है

हाथ कुछ नहीं आता है
वो स्वप्न फिर टूट फुट सा जाता है
निराशा संग आशा के पलंग पर
फिर एक बार मैं सो जाता हूँ 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बहुत कम शब्द हैं

बहुत कम शब्द हैं
पिता के लिए
बहुत ढूंढने में लगे
पिता के लिए

पिता शब्द की
कोई परिभाषा नहीं है
अपनों में खोया है वो कहीं

गुमसुम सी मूरत है
ना जाने कैसी  सूरत है
ठीक से  देखा नहीं

रहता है साथ
धीरज दिलाता है
सुरक्षा विशवास जगाता है

कैसे बेचैनी है
कैसा वो समंदर है
सुख दुःख बस अंदर है

टोह लगाने में उसकी
मै असमर्थ हुआ
पिता बना तब महसूस हुआ

बहुत कम शब्द हैं

बालकृष्ण डी ध्यानी
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गरीबी

अब कोई आता नहीं
अब कोई जाता नहीं
देखा गरीबी का मौसम जब से
वो आता है पर जाता नहीं

गर्मी बन वो झुलसाएगी 
बरखा बन वो भीग जाएगी
बसंत के मौसम में वो
पतझड़ सी गुजर जाएगी
 
दिल रखना इतना भरोसा
अपने पर से भरोसा ना खोना
दुःख का लगाकर बिछोना
तू सुख की नींद  सो जाना

अकेला है सफर जाना
हमसफ़र का ना कर बहाना
अकेले चल कर अभी तुझे
ऐ गरीबी बहुत दूर तुझे जाना 

अब तक ऐसा शहर नहीं बसा
जिसमे में मैं अकेला नहीं छला
चुपचाप तमाशाई दुनिया ने
ऐ गरीबी तुझे तुझसे किया जुदा

आसमान में उजले तारे वो
गर्दिश में आपने सितारे हों 
टिमटिमाना ना ही हम भूलेंगे
ऐ गरीबी तेरे संग झूलेंगे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बेबस

मन जब असहाय होता है
बेसहारा बेबस लाचार सा वो रोता है

अपने से विवश हो कर वो
अपने को ही अपने में खोता है

मजबूरी के बुने उधेड़बुन रिश्तों में
असमर्थता की उभरी तख्ती लटकती है   

कमजोर है कहना है उन लकीरों का
दुर्बलता जब घूंट ब घूंट खुद उबलती है

मस्तक पीटता है अपने आप से खीजता है
अपना होना उस पल जब ना होने सा रिस्ता है

बहुत जोर से चीखती रही वो चिल्लाती  रही
अंतर्मन के शून्य में फिर कहीं वो खो जाती रही

चेहरे पर अपने होने का वो बस भाव छोड़ जाती है
बेबस होकर अकेले अपने में जब वो लौट आती है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मैं हंगामी पंछी

उड़ने लगे हैं पंछी
छोड़ अपनी डाला को
आशियाना नया बसाने
ना जाने किस डाला पर

स्वार्थों ने मुझे भी
अब स्वार्थी बना डाला
थोड़ी सुविधा दिखी उस पेड़
असुविधा पेड़ छुड़ा डाला

हंगामी पंछी बन आता हूँ लौटकर
असुविधा हो जब सुविधा पेड़ पर
दो पल बैठक लगा अपनों के संग
उड़ जाता हूँ फिर सुविधा पेड़ पर

मैं हंगामी पंछी

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जब महसूस हुआ

अंदर ही अंदर कितना मै परेशान रहा
कितनी सदियाँ बीती मै बस हैरान रहा

मालुम होता रहा अपने से दूर हूँ मै
भावनाओं का जब बहता उफान रहा

कैसे समेटों उबलती उत्तेजनाओं को मै
प्रत्याक्ष खड़ा था मै उससे अनजाना रहा

स्पर्श होती रही वो मुझे हवा बन बनकर
उसे छूने जीवनभर मै बस बेकरार रहा

संवेदनाओं की बहती बस नदी हो तुम
विशाल सागर में अपना अस्तित्व खोता रहा

बड़े आकर की खूब मैंने भी रेखायें खींची
आंखें बंद की और उसमे मैं उलझता रहा

काफ़ी थकान बाद जब महसूस हुआ
जो कुछ इकठा किया सब बेकार रहा

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धूल हूँ मैं

हूँ म ...
धूल उड़ती रही चेहरे पे
वो मुझ से मिलती रही चेहरे पे
पतझड़ कभी
कभी बहार बन
चिपचिपाती हुई बौछर बन
भीगे ल्हमों को
खुद में समेटे हुये...समेटे हुये

आँखों से अडी
थोड़ी अड़चन हुई
चेहरे पर थोड़ी सी सरकन हुई
सरसराती हुई वो चली जा रही
मिलूंगी ना मिलूंगी
बस बलखा रही..बलखा रही

पूछ ने कोशिश
मैंने भी की थी
कोशिश मेरी नाकाम रही
बैठे बैठे जब उसे समझने लगा
अपने को और परखने लगा
धूल बिछकर
मुझ से बतियाने लगी..बतियाने लगी

हवा के संग मैं उडी जा रही
किस्मत है वो मेरी
वो मुझे मुझ से दूर ले जा रही
मदमस्त हो
उसके सहारे मैं उडी जा रही
ना जाने किस पथ
किस चेहरे पे टकरा रही..टकरा रही

धूल हूँ फूल खिलना तुझे
काँटों को भी सहलाना तुझे
हर एक की यहां अहमियत है
बस इतना ही समझाना तुझे
बाकी सब तुझ पर निर्भर है
धूल हूँ क्षण में उड़ जाऊँगी
तेरे नहीं तो किसी और के काम आऊंगी
..काम आऊंगी

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