अब भी तड़पन बाकी है
अपनी बारी का इन्तजार तो करना होगा
देर सवेर ही सही तुम्हे मुझे अलविदा कहना होगा
तेरे दर से रुक्सत होने का मन कब किसको होता है
ताकता रहता है वो बंद दरवाजा कब खुलता है
हमेशा होता है जैसा वैसा अक्सर होता क्यों नहीं
मंजिल का पता है फिर भी मन में भटकन क्यों है
सफर ऐसा चढ़ा है कि मुकाम से पहले छूट जाएगा
खाली पड़ा है सब फिर भरने की कोशिश करता क्यों है
अपने को समझाने में सारी उम्र बस यूँ ही गुजार देता है
समझता है सब कुछ पर असमझा ही बना रहता है
बिना सिर पैर की बातों का अब जिक्र करता कौन है
तुम बस अब एक कोने हो उस कोने आ बैठता कौन है
इस शहर को याद करने में मै अपने गाँव का रस्ता भुला
याद आया वो भुला रस्ता जब थोड़ी चढ़न में सीना फुला
किसे पता था उस पल सब कुछ मेरा यूँ ही बदल जाएगा
खुला आसमान आठ बाई दस के कमरे में कैद हो जायेगा
खेल को कल्पना के इस बिंदु से आगे तो बढ़ाना ही था
मंजिल मेरी पीछे छोटी बरसों पहले,अब भी तड़पन बाकी है
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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