Author Topic: Delicious Recepies Of Uttarakhand - उत्तराखंड के पकवान  (Read 181327 times)

Bhishma Kukreti

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Ethnic Food of Uttrakhand                                       

                                         दालों का फाणा/चैंसा 
                                                 डा. बलबीर सिंह रावत
 [Food of Garhwal, Food of Kumaon, food of Hardwar, Food of Dehradun, Ethnic Food of Uttarkashi ;Ethnic Food of Gangotri;Ethnic Food of Yamnotri;Ethnic Food of Chamoli Garhwal ;Ethnic Food of Tihri Garhwal ;Ethnic Food of Rudraprayag ;Ethnic Food of Pauri Garhwal;Ethnic Food of Pithauragarh ;Ethnic Food of Bageshwar;Ethnic Food of Jageshwar;Ethnic Food of Champawat;Ethnic Food of Almora ;Ethnic Food of Nainital;Ethnic Food of Udham Singh Nagar series ]
पर्वतीय लोगों को एक ही तरह  खाने से जल्दी ही "विखलाण " पड़ जाती है तो उन्होंने उन्ही दानो से दाल के अलावा दुसरे अलग ही स्वाद की डिशें खोज निकालीं . फाणा  और चैंसा, दालों के ऐसे विकल्प हैं  जो चावलों, झंगोरे और कौणी के भात के साथ अलग ही स्वाद देते हैं। अगर इस की सही रेसिपी की ढूंढ की जाय और उस पर किसी अच्छे किचेन में , प्रवीन रसोइयों द्वारा  नाना तरह के , घटक अनुपातों के मिश्रणों का परीक्षण हो और विभिन्न उम्र, शिक्षा और लिंग के , कम से कम २५  के  दलों द्वारा स्वाद परीक्षण से हर व्यक्ति द्वारा तुलनात्मक, १ से १० के पैमाने से अंकन हो और जो अनुपात सर्व प्रिय सिद्ध होता है , उसका मानकी करण  करके उपयोग में लाया जाय तो, यह दोनों पदार्थ देश विदेश में लोकप्रिय हो सकते हैं।
फाणा बनाने के लिए भिगोई छिलकेदार  दाल पीसी जाती है। ( बिना छिलके वाली डालें भी ली जाती हैं ). फाणे के लिए दाल को भिगोया जाता है. साबुत दाल रात भर और दली दाल  ३-४ घण्टे . उड़द की और मूंग की  छिलकों वाली दली  दाले ली जा सकती हैं ,मसूर, गहथ (कुलिथ ) साबुत, तथा चना , मटर बिना छिलके वाली दली दालें ली जा सकती हैं।
  दालों में वसा कम होता है किन्तु प्रोटीन 20-25 %)(काफी होता है। फाइबर  , लवण  व विटामिन्स भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। गहथ (कुल्थी, कुल्थिकलाई, कोलू, हडथि , हरुले ) (वैज्ञानिक नाम माइक्रोटाइलोमा युनिफ्लोरम ) का फाणु अधिक लोकप्रिय है और गहथ में ऊर्जा (321, ecals),, लवण (3gm) , प्रोटीन (22gm) , विटामिन्स, फाइबर (5gm), कर्बोहाइद्रेट्स  (57gm),फोस्फोरस (311mgm) , कैल्सियम (287mgm), लोहा (7 mgm ) होता है
कुछ दाले अकेले ही ठीक रहती हैं जैसे उड़द, गहथ, और कुछ के अपने साथी होते हैं जैसे मलका की दाल  मूंग, चने और मटर के साथ खप जाती है।  जिन्हें गहथ का फाणा ज्यादा ठरठरा लगता है वे उसमे उड़द मिला कर बना सकते हैं।
भीगी दाल को सिल में बट्टे से पीसने पर, और मिक्सी में पीसने पर फाणे के स्वाद में बड़ा अंतर होता है. सिल वाला अधिक स्वादिष्ट होता है क्योकि सिल में दाल के कण चपटे रहते हैं और मिक्सी में गोल। . सिल में दाल के कणों का आकार नियंत्रित करना आसान होता है , लेकिन मिक्सी में , उसकी तेज गति के कारण मुश्किल . अगर सिल उपलब्ध न हो तो  मिक्सी में पाहिले धीमी गति से, और फिर मद्धम गति से ही, पानी की समुचित मात्रा के साथ  पीसना चाहिए। पिसे पीठे में कुछ खुरदरापन, याने दाल के कण थोड़ा सा खुरदरे रहने ठीक रहता है। तेज गति से कण इतने बारीक हो जाते हैं की फिर इस से फाणा नहीं दाल का रस बन जाता है.
फाणे का स्वाद उसमे पड़े मसालों पर बहुत निर्भर करता है , धनिया, जीरा  पिसा हुआ, काली मिर्च , लॉन्ग कुटी हुई, लह्सुन की सोलियाँ कुचली हुई, तथा प्याज कटा हुआ, हल्का भुना हुआ, प्राय हर तरह के फाणों में उपयोग में लाया जाता है. हींग को कुछ लोग घोल कर , जब  फाना अधपका होता है , तब डालते हैं, कुछ लोग प्याज भुन जाने पर , जब मसाले डालते हैं, तो उसक साथ ही हींग  के बारीक कण,डाल कर, तुरन्त पिसी दाल का घोल  डाल देते है . एक अवधारणा है की लोहे की कढ़ाही  का फाणा अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है, हो सकता है कि इसमें , दाल, मसालों के अम्ल से कुछ लौह घुल कर , जैविक रूप में फाणे में आ जाता है. शायद इसी कारण, अलुमीनिय और स्टील की कढ़ाई के  मुकाबले लोहे की कढाई का फाणा अधिक गहरे रंग का और अधिक स्वादिष्ट लगता है. कढ़ाई के चहरों और जमी गाढी कोरनी के लिए तो संघर्ष करना पड़ता है की किसके भाग्य में आयेगी ( गाँव में सब से छोटी ब्वारी के लिए छोड़ा जता था, कढाई माजने  के प्रोत्साहन के रूप में ). तो आप कही भी हों फाणा अवश्य खायं और खिलायें , तभी तो यह प्रसिद्धि पायेगा ?
चैंसा, कोरी दाल,( सिल में  बढ़िया पिसती है ) को पीस कर छोटे कण दार बनाया जाता है, और कोरा ही मसालों में मिलाकर तब पानी दाल कर बनाया जाता है,  बाकी विधि एक सी है .
dr.bsrawat28@gmail.com                                   

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Bhishma Kukreti

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बाड़ी , एक त्वरित भोजन
                                          डा. बलबीर सिंह  रावत
पर्वतीय भोजन में मंडुये का बड़ा महत्व रहा है. मंडुआ खरीफ में पैदा होने वाला अनाज है , यह गोल, गहरे भूरे रंग का दाना है , जिसे पीस कर उपयोग में लाया जाता है. इसके आटे  से चाहे शुद्ध मंडुए की रोटी बना लो, या गेहूं/जो के आटे के साथ मिला कर ढबडी रोटी बना लो या फिर , गेहू के आटे की रोटी बेल कर उसके बीच  में मंडुए के आटे  का गोला रख फिर से गोला बना कर लिस्स्वा रोटी बना लो . अगर घर में कुटा  हुआ  चावल, झंगोरा खत्म हो  गया हो या जल्दे हो तो तुरंत बाड़ी बना कर , रोटी और भात , दोनों के विकल्प के रूप में, दाल या फाणे / चेंसे, जो भी उपलब्ध हो , के साथ चाव से खा लो.
मंडुये में प्रोटीन (7.6gm ); वासा (1.5gm )  , कार्बोहाइड्रेट (88 gm ), कैल्सियम (370 mg ) , विटामिन A ( 0.48mg), थियामिन बी1(0.33mg) , रिबोफ्लेविन B 2 (0.11mg ), नियासिन (1.2mg ) और फाइबर (3g) होता है
बाडी बनाना एक लम्बे अभ्यास के बाद प्राप्त हुनर है, इसे  न तो अति गीला, और न ही अति सख्त होना चाहिए, इसमें कोई भी किसी भी आकार की गुठलियाँ( गुर्मुलियाँ) कतई नहीं होनी चाहिये. और इसके गोले इतने बड़े होने चाहिएं की एक गरम गरम गोले को दाल / फाने से लपेट कर तुरंत मुहं में रख कर निगला जा सके। बाडी चबाया नहीं जाता, यह निगला जाता है. त्वरित भोजन जो ठहरा , असली फ़ास्ट फ़ूड।
बाड़ी बनाने की सही विधि जानने के लिए या तो किसी जानकार से सीखना पड़ता है या मार्गदर्शन ले कर कुछ अभ्यास करना पड़ता है।  पाहिले सारी सामग्री इकठ्ठा करनी होती है, जैसे सही आकार की कढाई ,, एक दबला जो या तो सवा/डेढ़ इंच व्यास की लकड़ी से दो फीट लंबा हो, न हो तो लकड़ी के बेलन से भी काम चलाया जा सकता है,या फिर स्टील की मोटी करछी, मंडुये का छाना हुआ आटा  ( मोटा पिसा हुआ ठीक रहता है ) प्रति व्यक्ति १५० ग्राम के हिसाब से, कढाई पकड़ने के लिये ओवन ग्लब या कई तहों में मोड़ा हुआ मोटे कपडे का हन्बेड़ा। कढाई में, प्रति व्यक्ति २०० एम् एल के हिसाब से पानी खौलाइये, जब उबलना शुरू होने वाला हो तो कुछ आटा उसके ऊपर बुरकिये., आटा  एक पतली तह में फ़ैल जाएगा और जैसे ही इस परत को फाड़ कर बुलबुले उठने लगें , तुरन्त आंच धीमी कर दीजिये और एक हाथ से आट़ा  धीरे धीरे डालते रहिये दुसरे से घुमाते राहिये. जब सारा आटा डल जाय , तुरंत कढाई को मजबूती से पकड़ कर खूब जोर जोर से घोटिये, ताकि बाडी समरस हो जाय और उसमे कोरे आटे  की कोए गुठली न रह जांय , इसी लिए लकडी का दबला सबसे उपयुक्त होता है। बाडी तभी बनाना चाहिए जब खाने वाले तैयार हों, बना कर रखने पर इसका स्वाद में अंतर आने लगता है .
परोसने के लिए , कभी बनाने वाली गृहणी एक कटोरे में पानी ले कर पूरी हथेली गीली करके गरम गरम बाडी के पिंड बना कर परोसती थीं , बाद में पानी में डुबोई करछी से पिंडे बनाए जाते रहे, अब आइस क्रीम स्कूप से काम लिया जाता है जो एक ही आकार के गोले बना सकता है , इन्ही गोलों को जब रागी बॉल्स कहते हैं तब यह पांच सितारी भोजन बनने की क्षमता रखता है।
कुछ लोग आटे को भून कर बाडी बनाना पसंद करते हैं , तो कई जगहों पर मीठा बाडी भी बनाता है. मंडुए का मीठा सत्तू भी बनाया जाता है , जिसे उबलते पाने में मिला कर बाडी बना कर शौक से खाया जाता है।
                          मंडुआ के आटे से बच्चों के भोजन
बच्चों के लिए मंडूये के आटे से कई व्यंजन  बनते हैं
  मंडुये से रोटी , डोसा , खिचड़ी, केक , पराठे ,    बनाये जाते हैं                       
 dr.bsrawat28@gmail.com                   ,  .                   

Bhishma Kukreti

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 बड़ियाँ : एक प्राचीन खाद्य वस्तु
                                                  डा. बलबीर सिंह रावत
मानुष ने अपने बुद्धि कौशल से प्रकृतिदत्त पदार्थों को हर मौसम में उपयोग करने के लिए, सुरक्षित रखने के लिए कई विधियां ढूढ़ निकालीं , इसलिए की उसे अपने भोजन के लिए आसानी से बेमौसमी वस्तुएं भी भे उपलभ होती रहें .  ऊष्ण प्रदेशों में , जहाँ खाद्द्य  सामग्रियों को साल भर के लिए सुरखित रखने के लिए आज कल के शीत भण्डार और घरेलू फ्रिज नहीं थे, तब  पदार्थों को सुखा कर ही रखा जाता था.  दालों  से और उनके पीठे में साक- सब्जियों को मिला कर  बड़ियाँ बनाना भी  इसी श्रृंखला का सुखाया हुआ खाद्य पदार्थ है.जो सब्जी और फल , इस काम के लिए उपयुक्त पाए गए वे हैं, भुजेला (पेठा) और पिंडालू (अरबी ) के पत्तों के डंठल जिन्हें नाल कहते हैं और  हरी मेथी।  उड़द के साथ भुजेला और गहथ के साथ नाल  तःथा मेथी का मेल खपता है।  बड़ी बनाने के लिए साबुत दाल को भीगने के लिए रात भर रखना होता है। भीगी उड़द को छलनी में मसल कर   उसके छिलके उतारने होते हैं, छलनी को पानी भरे गहरे बर्तन में डुबो कर जब छिलके तैर कर ऊपर आते हैं तो इन्हें हटा लिया जाता है. कुछ छिलके रह जाय तो कोइ हर्ज नहीं,  गहत के छिलके नहीं उतारे जाते।  इस भिगोई, साफ़ की गयी दाल को सिल में बारीक पीसा जाता है, जब तक वह महीन, एक रस न हो जाय. ध्यान रखना होता है की यह मसेटा जितना सख्त हो सके उतना रहे। अब इसे किसी परात में लेकर उसमें मसाले , जैसे भुना साबुत जीरा, काली मिर्च, पिसा धनिया, अदरख की सोंठ ,दालचीनी , मोटी इलायची के साबुत बीज  और कोरा हुआ ( रेंदा किया हुआ ) भुजेले का गूदा। इन सब को मिला कर पूरे मसेटे को खूब फेंटा जाता है. फेटने से इसमें हवा के बुलबुले समाते हैं, और बड़ी  सूखने पर भी फूली हुई रहती है। इसे सही तरह से पूरा  फेंटने पर ही इसका  ठीक से पकने का गुण निर्भर करता है। अब इस मिक्सचर के छोटे छोटे गोले, एक दुसरे से अलग किसी साफ़ कपडे के ऊपर, या साफ़ टिन की चादर के ऊपर,या मकानों की छत केसाफ़ से धुले पठालों के ऊपर डाले जातें हैं  और तब सुखाने के लिए धूप में रखे जाते हैं। चूंकि भुजेले पहाड़ों में अक्टूबर में ही उपलब्ध होते हैं तो धुप में गर्मी कुछ कम हो जाती है, इलिए २-३ दिन में ही सूख पाते है। सूखने पर इन बड़ियों को किसी ढक्कन दार बड़े बर्तन में सुरक्षित रखा जाता है. गहथ की बड़ी में मसाले कम डाले जाते हैं और नाल के या हरी मेथी के  छोटे छोटे टुकड़े कर के डालना ठीक रहता है।
उपरोक्त विधि, परचलित विधियों में से एक है, और केवल  घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनायी गयी है . चूंकि  कई मैदानी इलाकों में बड़ी बनाना और बेचना एक बहुप्रचलित कुटीर उद्द्योग है, तो उत्तराखंड में भी इस हुनर को  संवार कर, जितना हो सके उतना इसका मशीनी करण करके, जैसे दाल पीसने के लिए, फेंटने के लिए, और एक आकार की गोलिया बनाने के लिए, और विधियों के परीक्षण, सुधार और मानकी करण  करके,लिज्जत पापड स्तर का बड़ी उद्द्योग गाँव गाँव में  शुरू किया जा सकता है.
बड़ी का साग -बड़ियों का केवल बड़ियों का साग भी बनाया जा सकता है तो अन्य भोज्य पदार्थों जैसे आलू, हरी सब्जियों के साथ मिलकर भी बड़ियों का साग बनाया जाता है।
आलू बड़ियों  का साग
बड़ियाँ -आधा कप
आलू -मध्यम कटे दो आलू
टमाटर  -दो टमाटर कटे  हुए
तेल या घी - चार चमच
छौंके के लिए कुछ दाने जीरे, राय व जख्या
बारीक कटा  प्याज, लहसुन , अदरक , हरा धनिया , एक कटी हरी मिर्च
मसाले - एक चमच धनिया पौडर, एक चमच  लाल मिर्च पौडर, गर्म मसाला अपने स्वास्थ्य , अपने सहूलियत या स्वाद के हिसाब से। नमक स्वादानुसार
बड़ियों को कुछ देर भीगा दें और फिर उनका पानी निचोड़ दे
कढाई को आंच में चढ़ाएं , गर्म कडाही में तेल या घी गर्म करें फिर गर्म तेल में जख्या, राय और जीरा लाल होने तक भूने ,अब कटे प्याज , लहसुन और अदरक डालें और थोड़ा भुने , फिर बड़ियों को भूने, इसके बाद आलू डालें , कटे टमाटर व नमक सहित  मसाले भी डालें और कुछ देर तक भूने,कटी हरी मिर्च भी डालें। भूनने के बाद पानी डालें और ढक क दें और पकने तक बर्नर पर रखें . जब साग पक जाय तो कटा हरा धनिया छिडक दें। गरमा गर्म परोसें   
,dr.bsrawat28@gmaol.com   

Bhishma Kukreti

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  सादा या लुण्या (नमकीन ) बाड़ी

                                    Non -Salty or  Salty Badi (Finger Millet Badi )

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                                    सर्यूळ   - भीष्म कुकरेती

(क्वाद /क्वादु /कोदो (Finger Mille, Eleusine coracana) का बारा मा कुछ वैज्ञानिक बुल्दन बल कोदु क जन्मा हिन्दुस्तान मा इ होय त कुछ बुल्दन असल मा कोदु का जन्म अफ्रीका मा ह्वे छौ अर फिर भारत ऐ।  कोदु एक अति पोषक तत्वयुक्त अनाज च जैमा कैल्सियम , लोहा, फाइबर , कार्बोहाइड्रेट्स, एमिनो एसिड्स , फाईटिक एसिड , विटामिन A , B1  , B2 B3 अर फाइबर  हूदन । ) ये अनाज मा कोलेस्ट्रौल नि हूंद ।
 गढ़वाल -कुमाऊं मा कोदु एक महत्वपूर्ण अनाज छौ अर कोदाअ भौत सा उपयोग छा । एक उपयोग छौ बाड़ी।

                                        सादा बाड़ी बणाणो विधि
2 कप चून  (क्वादो आटु )
                                 कढ़ाई या पैन मा द्वी कप पाणि गरम  कारो अर फ़िर ये खिड़खिड़ो याने उबऴदो पाणि मा चून डाळो अर बेलण या दबळ  से तेजी से घुटद जावो कि जां से डुबक (Lumps ) नि रै जावन । तकरीबन आठ या दस मिनट तक घ्वाटो अर जब बाड़ी बणि गे त उतारि दयावो । बाड़ी दाळ , फाणु आदि मा डुबै गरमागरम खावो अर स्वस्थ रावो ।   
 
                                      लुण्या (नमकीन ) बाड़ी बणाणो विधि
  सामग्री -
2 कप चून
पाँव चमच दही (चाहो तो )
चमच भर जीरू /जख्या
अधा चमच लाल मर्चौ चुरा
पाव चमच हींग 
कटीं हरी मर्च   (अपण हिसाब से )
  तेल
हौरु  धण्या
स्वादानुसार लूण   
                   
 कढ़ाई या पैन मा द्वी कप पाणि अर दही   गरम  कारो । दही आप की मर्जी च डाळो या नि डाळो
अब गरम पाणि मा  जीरो , मर्चौ चूरा , हींग चूरा , कटीं मर्च , लूण डाळो अर  खिड़खिड़ो कारो ।   
अब गरम पाणि मा चून डाळो अर बेलण या दबळ  से तेजी से घुटद जावो कि जां से डुबक (Lumps ) नि रै जावन । तकरीबन आठ या दस मिनट तक घ्वाटो अर जब बाड़ी बणि गे त उतारि दयावो । तेल-जीरो या जख्या   कु छौंका द्यावो । गरमा गरम खावो ।
Reference for Nutrients in Kodo/Finger Millet-

Pragya Singh, Rita Singh Raghuvanshi,2012, Finger Millet for Food and Nutritional  Security, African Journal of Food Science, Vo-6(4)

Bhishma Kukreti

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क्याड़/छिल्ल गाडद दैंका भोजन


((Kumaoni Food, Garhwali Food, Ethnic Food of Uttarakhand , Himalayan Food)
             सर्यूळ   - भीष्म कुकरेती
 
जब तलक दिया सळै  अर मट्टी तेल आम नि ह्वै छौ अर ज्यूड़ -डुडड़ों कु रिवाज छौ तब तलक भ्यूंळस क्याड़ /छिल्ल अर भगुलो क्याड़ पहाड़ों मा महत्व पूर्ण छौ ।
क्याड़ का वास्ता भ्यूंळ क बेंतूं अर भंगुलो डंडा तैं रौ पुटुक द्वी -तीन मैना तलक भिजाणो धरण पोड़द  । रौ  गदनम हूँदन । रौ मा पाणि बगदो ही हूण चएंद। जब क्याड़ों से स्योळ भैर आण लैक ह्वे जांदन  त सरा गां वाळ दगडी अपण अपण रौ से भिग्याँ क्याड़ भैर गाडिक स्योळ उतारदन अर स्योळ छ्पोड़ि साफ़ करे जांद ।  क्याड़ गाडणै  प्रक्रिया तकरीबन एक दिन की ह्वेइ जांद ।
कुछ गां वळ भाग्यशाली हूँदन जौंक रौ गाँ का पास हूँदन त सी लोग घौर ऐक खाणा खै लींदन पण जौंक रौ दूर ह्वावन त सी या त ड्यार बिटेन रुटि -भुजि लै सकदन पण अधिकतर पुरण जमन मा लोग गदन हि पिकनिक नुमा माहौल पैदा कौरिक खा णा बणान्दा छा ।
 सामुहिक खाणक मा ढुंगळ अर उड़दु दाळ तैं वरीयता मिल्दि छे ।
जौंक गदनम म्वाटो पाणि ह्वावो वो माछ मारिक माछुं सुरवा दगड़  ढुंगळ खांदा छा ।
उदयपुर -ढांगू का श्री कमलेश्वर प्रसाद माच मारणो तरीका बतैन -"मछ्वे हर किस्म का मीलल।जाळ ,फट्यळु ,ग्वाद,कारतूस,गैस(पेट्रोमेक्स),जेनरेटर,मैणु,काँटा,कुलतोड,हथकुळ,पतीली,घौण क्या नि हूँद।
कुछ लोग पत्तों पुटुक माछ धरिक आग मा फ्राई करदा छा अर लूण मर्च मिलैक रुटि याँ ढुंगळ दगड़ खांदा छा ।
अर जु ढुंगळ अर उड़दु दाळ या माछुं कु छंद नि आवो अर ड्यार बिटेन रुटि बणै ल्यां छन तो
भड़ायूँ प्याज
भड़ायूँ अल्लूउं   मा लूण मर्च डाळिक बि काम चलदो छौ
               माइक्रोवेव ओवन माँ पिंडाळु  पत्तों पत्यूड़ /गुंडळ
 
(Kumaoni Food, Garhwali Food, Ethnic Food of Uttarakhand , Himalayan Food)
             सर्यूळ   - भीष्म कुकरेती
 
 
  मीन मुंबई मा भौत सी बुडड़ी/अदबुडेड़ अर जवान जनान्युं तै पूछ बल क्या वो पिंडाळु  पत्तों पत्यूड़ /गुंडळ  बि बणाँदन ? तो तकरीबन सब्युं बुलण छौ बल पत्यूड़ /गुंडळ खाणो  ज्यू तो भौत बुल्यांदो पण इख मुंबई मा वो सुविधा नि छन जो गांवुंम पत्यूड़ /गुंडळ पकाणो छौ ।
असल मा सुविधा त मुंबई -दिल्ली मा बि छन पण हम प्रयोग नि करदां ।
 चलो आज तीन तरा से पिंडाळु  पत्तों पत्यूड़ /गुंडळ  बणाण सिखला 
                                पत्तों पत्यूड़ /गुंडळ  बणाणो सामग्री
१- पन्दरा बीस टहनी समेत पिंडाळु पत्ता
२-पिस्युं मसाला - धणिया , जीरू, मर्च , गरम मसाला , लूण
३- भेषण , ग्युं आटु
४-तेल 
५- हरी मर्च , साबुत भंगुल या साबुत धणिया अर जीरू
 
                            ब्यूंत (विधि )

चार बड़ा बड़ा पिंडाळु पत्ता अलग धौरि द्यावो   ।
पिंडाळु पत्तौं तैं बरीक काटिक फिर ध्वावो अर पाणि निटारि द्यावो ।
एक गैरि थाळी या परात मा कट्यां पत्ता धारो फिर ये मा भेषण अर थ्वड़ा सि आटु मिलावा, पिस्यां मसला-लूण  मिलावा अर पाणि दगड़  खूब फ्यांटो। ध्यान राखो कि लुगदी ना तो जादा गाड़ो हवावो ना ही पंदयर ह्वावो । एक द्वी हरी मर्च बि दगड़म बरीक काटी द्यावो ।
                              तवा   मा पत्यूड़ों केक बणाणो तरीका
 द्वी पिंडाळु पत्ता बिछाओ अर लुगदी तैं पत्ता मथि धारो । फिर  अळग बिटेन द्वी पत्ता धारो अर लुगदी तैं चारों तरफ से बांदी द्यावो । ध्यान दीणै बात च कि लुगदी भैर नि आण चयेंद ।
अब  लुगदी तैं स्टोव मा धर्युं तवा मा लुगदी (जो पत्तौं भीतर च ) तवा मा धारो अर ठंडी आंच मा पकण द्यावो । दस मिनट बाद फरकावो अर तवा मा पकावो । आधा या पौण घंटा तलक पकांद जावो । बीच बीच माँ फरकांद बि जावों । जब भैर का पत्ता जळण लगन तो समझो
पत्यूड़ पाकी ग्यायि । पक्युं केक तैं उतारि द्यावो ।
                              माइक्रोवेव ओवन मा   पत्युडो  केक बणाणो तरीका
 
 माइक्रोवेव मा  केक बणाण सरल च ।
वेसल पर तेल लगावो अर उख पुटुक लुगदी भौरि द्यावो अर कम से कम दस बारा मिनट तलक पकावो फिर फरकावो अर पांच मिनट तलक पकावो ।

                                  केक तैं कटण
                     
अब बारी च पत्यूड़ों/गुंडळो   केक काटणो  ।केक तैं बर्फी जन चाक़ू से काटो अर छवटा -छवटा टुकड़ा बणावो ।
                                     केकक  टुकड़ो तैं भुनण
 पेल कढ़ाई मा तेल गरम कारो , तेल मा धणिया या भंगुलो बीज भूनो अर   केक का टुकड़ा डाळो अर उनि भूनो जन भुजी भुणदन  ।
बस अब पत्यूड़ /गुंडळ तयार च । पण पत्यूड़ /गुंडळ ठंडो ही खाण निथर किंक्वाळी लग जांदी ।

Copyright Bhishma  Kukreti 21/8/2013 

Bhishma Kukreti

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  काचि  मुंगरी रुटि अर पटुड़ी 


(Kumaoni Food, Garhwali Food, Ethnic Food of Uttarakhand , Himalayan Food, Garhwali Cuisine, Kumaoni Cuisine, Garhwali cookery, Kumaoni cookery, Garhwali food preparation, Kumaoni food preparation, Garhwali food preparation, Ethnic food from Kumaon, Ethnic food from Garhwal ,)


                                    सर्यूळ   - भीष्म कुकरेती

 इन माने जांद बल मुंगरी मूल रूप से अमेरिकी अनाज च अर कोलम्बस द्वारा अमेरिकी खोज बाद ही भारत मा मुंगर्युं  खेति ह्वे । ऐतिहासिक अन्वेषण बथान्दन बल भारत की बारवीं -तेरवीं सदी क मूर्त्युं मा मुंगर्युं थ्वाथा ( भुट्टा ) चित्रित  मिल्दन अर इन लगाद कि मुंगरि भारत मा बि छे । गढ़वाल -कुमाऊं मा कब मुंगरी खेती ह्वाइ पता नी च । पण आज बि मुंगरी गढ़वाल -कुमाउंनी भोजन को एक अंग च ।
मुंगरी /मक्का /मकई (Zea  mays)
मुंगरी मा पोषक तत्व (100 grams ) इन छन -
कैलोरी -------365

,वसा ------------4.7 gm

कोलेस्ट्रोल -----0 mg

सोडियम ------35mg

पोटेसियम  ---287mg

सबि कार्बोहाइड्रेट   ------------74 gm

प्रोटीन ------------9 gm

कैल्सियम --------------0%

विटामिन B6-----------30%

मेगनीसियम -------------31%

विटामिन A /C/B 12---------0% या कम मात्रा
लौह ------------15%
 
मुंगरी से पाचन शक्ति बढ़दि ,कोलेस्ट्रोल कम हूंद , त्वचा कुण फैदामन्द च , गर्भावस्था मा फैदाकारी च।

          काचा मुंगर्युं दाणु भौत सा उपयोग छन जन कि रुटि /पटुड़ी, पऴयो या साग कुण आलण , सलाद या बुखण आदि ।

               रुटि या पटुड़ी बणाणो विधि
सामग्री
मुंगर्युं दाण (कथगा बणाण पर निर्भर करदो )
तीन रुट्युं कुण एक  कटीं हरी मर्च
कट्युं  धणिया
पिस्यां मसाला - धनिया , जीरू , मर्च ,
ग्राम मसाला -स्वादों हिसाब से
लूण -स्वादानुसार 
तेल अर जीरू छौंकणो बान
 
मुंगर्युं तैं सिलवट मा दरदरो पीसो अर फिर एक पिस्युं माल तैं थाळी मा धारो । अब मसाला अपण स्वादों हिसाबन , लूण अपण स्वादों हिसाबन डाळो अर खूब फ्यांटो ।
 स्टोव मा तवा धारो , कम से कम मात्रा मा तेल गरम कारो   अर फेंटा हुआ माल तैं कटोरी से धीरे धीरे तवा मा फैलावो । तुम तैं कथगा मोटि अर चौड़ी पटुड़ी बणाण वै हिसाब से मुंगरीक  लुगदी तैं   फैलावो ।  एक द्वी मिनट तलक पकण द्यावो  अर फरकावो । भूरा रंग आण तक पकान्द -फरकांद   जावो  । जब पकि जा त भीम उतारो ।
 धनिया पत्ता पटुड़ी मा बुबरावो । घ्यू , नौणि मा खाणै त   खावो। दूध -चाय दगड़ या ऊनि बि गरमागरम खावो अर रिश्तेदारों तैं खलावो।           
 

Copyright@ Bhishma Kukreti 28/8/2013

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Bhishma Kukreti

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             महाभारतीय कुलिंद जनपद में  भोजन,कृषि व कृषि , रसोई  यंत्र भाग -2

                        History of Gastronomy in Uttarakhand -6
 
                        उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --6 


                        आलेख :  भीष्म कुकरेती
   
                 उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में जौ  की खेती का  भारत में इतिहास

 

 इतिहासकार मानते हैं कि जौ का जन्म  भारत में नही हुआ बल्कि मेसोपोटामिया जौ का मूल स्थान है।  हड्डपा संस्कृति काल में भारत में जौ का प्रयोग हो   चुका था।  वैदिक काल  में जौ देव पूजा में भी काम आने  लगा था।
  मेहरगढ़ में जौ की खेती के सात से छह आठ हजार साल पहले के अवशेस मिले हैं। इसी काल में इरान में भी जौ की खेती के अवशेस मिले हैं अत:  सकता है कि भारत में जौ और गेंहू की खेती छ से सात हजार साल पहले  शुरू हो चुकी थी।
गुजरात में ग्रामीण सहकारी स्तर  पर जौ , गेंहू आदि की खेती के चार हजार साल पहले के प्रमाण मिले हैं।
चूँकि संस्कृति प्रसार  भी गति पूर्वक होता था तो कह सकते हैं कि महाभारत काल  (1400 BC )भारत में जौ की खेती होती थी ।
 महाभारत काल में उत्तराखंड में भी  की उसी भांति होती थी जैसे अन्य क्षेत्रों में होती थी।

                             
               गेंहू की खेती का उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में भारत में इतिहास
 
 गेंहू का मूल भी भारत में  बल्कि भूमध्य सागरीय क्षेत्र है।
ऋग्वेद या यजुर्वेद में गोधुम; शब्द नही मिलता है।
गोधुम ; का वर्णन यजुर्वेद संहिता और ब्राह्मण में अवश्य मिलता है।
इतिहासकार चमन लाल के अनुसार रंगपुर और प्रभास सोमनाथ (गुजरात ) में पूर्व  हडप्पा संस्कृति में जंगली गेंहू होने  के सूत्र मिले हैं।
पांच हजार साल पहले गेंहू का प्रयोग शुरू हुआ था।  उस समय के गेंहू  से   भूसे को निकालना सरल नही था. केवल भूनकर  ही भूसे को दाने से अलग किया जाता था.
महाभारत के समय गेंहू की खेती होनी शुरू हो गयी थी।

                    कोदा /मंडुये  की खेती का उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में भारत में इतिहास
 कोदा  (मंडुआ ) का जन्म पूर्वी अफ्रीका में भी मना जाता है।  और कुछ इतिहासकार हिमालय की पहाड़ियों में भी मंडुआ  का जन्म मानते हैं। जहां  तक Elusine coracana का संबंध है इसका जन्म पूर्वी अफ्रिका में माना जाता है।  Paspalum scrobiculatum (Koda Millet ) का जन्म स्थल  हिमालय को माना जाता है.  दक्षिण के कर्नाटक क्षेत्र को  भी रागी (फिंगर मिलेट ) का जन्म स्थल माना जाता है या कहें तो रागी की कृषि कर्नाटक में प्राचीन काल से होती थी।
 इसमें संदेह नही कि महाभारत काल में कोदा उत्तराखंड का महत्व पूर्ण भोजन रहा होगा

                             झंगोरा की खेती का उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में भारत में इतिहास

झंगोरा या सवैया मिलेट  भारत में में प्राचीन काल  में पाया गया है।  झंगोरा का जन्म स्थान भारतीय प्राय द्वीप  माना गया है।  यह  मान लेने में कोई हर्ज नही कि   महाभारत काल में उत्तराखंड में झंगोरा का प्रयोग हो चुका था। 

                                  कौणी  की खेती का उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में भारत में इतिहास

जंगली कौणी का कृषि करण भारत में ही हुआ और यह निश्चित है कि महाभारत काल में उत्तराखंड में कौणी  की खेती होती थी। 

                               भांग की खेती का उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में भारत में इतिहास


 भांग का जन्म मध्य एसिया बताया जाता है और तत्पश्चात सभी क्षेत्रों में फैली . चीन में आठ हजार साल पहले भाग के बीजों से तेल निकाला जाता था।  इतिहासकार कहते हैं कि भांग की खेती से ही कृषि का प्रारम्भ हुआ।  चीन की प्राचीन वैदिकी और भारत की प्राचीन वैदिकी में भांग का उल्लेख मिलता है। अत : यह माना जा सकता है कि महाभारत काल में भांग का उपयोग उत्तराखंड में रेशों , नशे व तेल के लिए होता था।

                        सिल्ल बट्ट से पिसाई होती थी
छ हजार साल पहले मानव गेंहू आदि पीसने की कला जान चुका था। 
  ऐसा लगता है कि महाभारत काल में अनाजों की पिसाई सिल्ल बट्ट से होती रही होगी।   चक्की का प्रयोग चिन्ह हरप्पा संस्कृति में मिलते हैं   तो हो सकता है कि महाभारत काल में चक्की भी उत्तराखंड मी आ चुकी होगी         
Reference-

Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
B.K G Rao, Development of Technologies During the  Iron Age in South India
V.D Mishra , 2006, Prelude Agriculture in North-Central India (Pragdhara ank 18)
Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India
Mahabharata
All Vedas
Inquiry into the conditions of lower classes of population
Lallan Ji Gopal (Editor), 2008,  History of Agriculture in India -1200AD
K.K Nautiyal History of Agriculture in Garhwal , an article in History of Agriculture in India -1200AD
Steven A .Webber and Dorien Q. Fuller,  2006, Millets and Their Role in Early Agriculture. paper Presented in 'First Farmers in Global Prospective' , Lucknow 

Copyright @ Bhishma  Kukreti 76/9/2013

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 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )

Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड के परिपेक्ष में तिल , भांग और सरसों की  कहानी


                                      उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --8
                                   History of Gastronomy in Uttarakhand -8
 
                   
                              आलेख :  भीष्म कुकरेती
        उत्तराखंड के इतिहास में महाभारतीय कालीन कुलिंद  परिवर्ती कुलिंद जनपद के भोज्य पदार्थ और कृषि के बारे में डा डबराल ने पाणिनि कालीन भारत के लेखक  डा अग्रवाल, अष्टाध्यायी , मखराम  सन्दर्भ देकर लिखा है कि उत्तराखंड में तिल व टिल -भात खूब प्रचलित था.
वास्तव में तिल मनुष्य का पुरानतम खाद्य पदार्थों में  भोज्य पदार्थ है.
  यद्यपि पहले   माना जाता था कि तिल का जन्म अफ्रीका में हुआ।  किन्तु दमानिया , जोशी  और ब्रैडीजियेन की खोंजों से सिद्ध हुआ कि तिल का जन्म भारत में हुआ।  भांग और तिल का पुराना इतिहास है।  किन्तु यह पता नही लग सक रहा है कि भांग का प्रयोग रेशे के लिए होता था कि तेल हेतु।
  तिल का कृषि करण पहले भारत में हुआ और फिर कांस्य युग के प्रथम भाग में मेसोपोटेमिया में तिल का कृषि करण   ज्ञान गया।
हडप्पा के अवशेषों में तिल के अवशेष मिले हैं। इसका अर्थ हुआ कि तिल का नामकरण व कृषिकरण 2600 BC  पहले हो चुका था।
पुरानी सभ्यता के अवशेषों से पता चलता है कि तिल और कोदा  झंगोरा या मिलेट गर्मियों में बोये जाते थे और तिल से तेल निकालने के लिए सिल्ल बट्ट या पत्थर के इमामदस्ता अथवा ओखली -मूसल (उर्ख्यळ - गंज्यळ )  प्रयोग होता रहा होगा।
संस्कृत में तिल का अर्थ है -मलहम , राजतिलक , और द्रविड़  में तिल  एल कहते हैं।

 इसी तरह भांग का कृषिकरण या प्रयोग भी मनुष्य सभ्यता के साथ ही हो चुका था।  भांग का मुख्य उपयोग रेशे के लिए किया जाता  था . भांग तिल से पहले  चुकी होगी।

सरसों का जिक्र बुद्ध की कथाओं में मिलता है। संस्कृत में सरसों का जिक्र पांच हजार साल पहले आता  है।  सरसों का औषधि प्रयोग  था। 
 अत: साफ़ है कि महाभारत और परवर्ती महाभारत काल के कुलिंद जनपद में भांग , तिल और सरसों की कृषि उत्तराखंड में हो चुकी थी।
Reference-

Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
B.K G Rao, Development of Technologies During the  Iron Age in South India
V.D Mishra , 2006, Prelude Agriculture in North-Central India (Pragdhara ank 18)
Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India
Mahabharata
All Vedas
Inquiry into the conditions of lower classes of population
Lallan Ji Gopal (Editor), 2008,  History of Agriculture in India -1200AD
K.K Nautiyal History of Agriculture in Garhwal , an article in History of Agriculture in India -1200AD
Steven A .Webber and Dorien Q. Fuller,  2006, Millets and Their Role in Early Agriculture. paper Presented in 'First Farmers in Global Prospective' , Lucknow 
Joshi A.B.1961, Sesamum, Indian central Oil Seeds Committee , Hyderabad
Drothea Bradigian, 2004, History and Lore of Sesame , Economic Botany vol. 58 Part-3
Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds



Copyright @ Bhishma  Kukreti  12  /9/2013

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 उत्तराखंड में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन इतिहास


                                     उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --9
                                        History of Gastronomy in Uttarakhand 9

 
                                      आलेख :  भीष्म कुकरेती

          उत्तराखंड में सन   सहत्तर तक पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम )   तम्बाकू पीने का प्रचलन  बहुत था ।  बीडी , सिगरेट और माचिस प्रचलित होने से  पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) का प्रचलन अब समाप्त हो गया है।
पतब्यड़ी का  अर्थ है पत्तों की चिलम या धूम्रवर्तिका।  बांज के दो पत्तों को बिछाकर तिकोन या शंकुनुमा मोड़ा जाता और यह आकार में बिलकुल चिलम  दिखता है।  फिर इसके निम्न तिकोन में एक छोटी सी गारी डाली जाती थी ।  फिर तम्बाकू से इस शंकु को भरा जाता है।  इसके ऊपर कबासलू  रुई या बुगुल   के  फूल चूर कर रखे जाते थे। फर अग्यलू  (चकमक पत्थर व लोहा रगड़ यंत्र ) से आग सुलगाई जाती थी।  फिर तम्बाकू के

           तम्बाकू और चिलम का प्रचलन वास्तव में सत्तरहवीं या अट्ठारहवीं सदी में हुआ होगा।  तब तक भारत में और उत्तराखंड में तम्बाकू पीने का प्रचलन नही था।
किन्तु धूम्रपान याने धुंये को पीने का रिवाज शायद महाभारत काल से पहले हो चुका था।
          संस्कृत के महान विद्वान् अग्रवाल 'पाणिनि कालीन भारत वर्ष' में लिखते हैं कि परवर्ती कुलिंद जनपद (400 BC ) उत्तराखंड आदि स्थानों में धूम्रवर्तिका बनती थी. जड़ी बूटी पीसकर , उसे धूप बत्ती रूप देकर   जलाकर सीधा धुंवा  सूंघा या नाक के रास्ते निगला जाता था। याने कि पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम )से औषधि धूम्र पान करने का रिवाज महभारत काल से पहले हो चुका होगा
भांग की डंठलों या तुअर (तोर ) की डंठलों में औषधि भरकर फिर आग लगाकर धूम्र पान करना एक   आम रिवाज था।  इन डंठलों में वही औषधि भरी जाती थी जो शीघ्र ज्वलित होती हो।   
उत्तराखंड में बहुत सी औषधियां मिलती थीं और इन औषधियों का प्रयोग धूम्र पान के लिए किया जाता था।
डा अग्रवाल लिखते हैं कि उत्तराखंड में भ्रमण करने वाले भिक्षुओं (साधू , विद्यार्थी ) में धूम्रवर्तिका का सेवन अति    प्रिय था।

   
                             
Reference-

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Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds



Copyright @ Bhishma  Kukreti  13 /9/2013

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 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )

( इस अध्याय में पिथोरागढ़ में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में अल्मोड़ा में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में नैनीताल जिले में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन; इस अध्याय में उधम सिंह नगर में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में पौड़ी  गढ़वाल में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में चमोली में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में रूद्र प्रयाग में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में टिहरी में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में हरिद्वार में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में उत्तरकाशी में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में देहरादून में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन);

Bhishma Kukreti

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 History aspects of Arrival of Arsa /Ariselu / Arisa in Uttarakhand

                              उत्तराखंड में अरसा प्रचलन या तो ओड़िसा से आया या आन्ध्र प्रदेश से हुआ !

                              उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --10

                                        History of Gastronomy in Uttarakhand 10

 
                                      आलेख :  भीष्म कुकरेती

 अरसा उत्तराखंड का एक लोक मिष्ठान है और  आज भी अरसा  बगैर शादी-व्याह ,  बेटी के लिए भेंट सोची ही नही जा सकती है। किन्तु अरसा का अन्वेषण उत्तराखंड में नही हुआ है।
संस्कृत में अर्श का अर्थ होता है -Damage , hemorrhoids नुकसान।  संस्कृत से लिया गया शब्द अरसा को हिंदी में समय या वक्त , देर को भी कहते हैं।  अत : अरसा उत्तरी भारत का मिष्ठान या वैदिक मिस्ठान नही है।
अरसा, अरिसेलु  शब्द तेलगु या द्रविड़ शब्द हैं ।
उडिया में अरसा को अरिसा  कहते हैं।
अरसा मिष्ठान  आंध्रा और उड़ीसा में एक  परम्परागत  धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग होने वाला मिष्ठान  है।
आन्ध्र में मकर संक्रांति  अरिसेलु /अरसा पकाए बगैर नही मनाई जाती है
उड़ीसा में जगन्नाथ पूजा में अरिसा /अरसा  भोगों में से एक भोजन है।
अरसा , अरिसा  या अरिसेलु एक ही जैसे विधि से पकाया जाता है। याने चावल के आटे (पीठ ) को गुड में पाक लगाकर फिर तेल में पकाना . तीनो स्थानों में चावल के आटे को पीठ कहते हैं।  उत्तराखंड में बाकी अनाजों के आटे को आटा कहते हैं।
                   ओड़िसा के पुरातन बुद्ध साहित्य में अरिसा या अरसा

प्राचीनतम विनय और अंगुतारा निकाय में उल्लेख है कि  गौतम बुद्ध को उनके ज्ञान प्राप्ति के सात दिन के बाद त्रापुसा (तापुसा ) और भाल्लिका (भाल्लिया ) दो बणिकों  ने बुद्ध भगवान को चावल -शहद भेंट में दिया था।  उड़ीसा के कट्टक जिले के अथागढ़ -बारम्बा के बुद्धिस्ट मानते हैं यह भेंट अरिसा पीठ याने अरसा ही था।
पश्चमी उड़ीसा में नुआखाइ (धन कटाई की बाद का धार्मिक अनुष्ठान ) में अरिस एक मुख्या पकवान होता है। उड़ीसा के सांस्कृतिक इतिहासकारों जैसे भागबाना साहू ने अरिसा को प्राचीनतम मिष्ठानो में माना है।
                     आंध्र प्रदेश में अरिसेलु का इतिहास

      आन्ध्र प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि आन्ध्र  प्रदेश वाले भोजन प्रिय होते हैं।  दक्षिण भारत में अधिकतर आधुनिक भोजन आंध्र  की देन  माना जाता है। 
चौदहवीं सदी के एक कवि की  'अरिसेलु नूने बोक्रेलुनु ' कविता का सन्दर्भ मिलता है (Prabhakara Smarika Vol -3 Page 322 )।

                        अरसा  का उत्तराखंड में आना 

  उत्तराखंड में अरसा का प्रचलन में उड़ीसा का हाथ है या आंध्र प्रदेश का इस प्रश्न के उत्तर हेतु हमे अंदाज  ही लगाना पड़ेगा  क्योंकि इस लेखक को उत्तराखंड में अरसे का प्रसार का कोई ऐतिहासिक विवरण अभी तक नही मिल पाया है। 
पहले सिद्धांत के अनुसार    अरसा का प्रवेश उत्तराखंड में सम्राट अशोक या उससे पहले उड़ीसा या आंध्र प्रदेश के बौद्ध विद्वानों , बौद्ध भिक्षुओं अथवा अशोक के किसी उड़ीसा निवासी राजनायिक के साथ हुआ। इसी समय उड़ीसा /उत्तरी आंध्र के साथ उत्तराखंड वासियों का सर्वाधिक सांस्कृतिक विनियम  हुआ।
यदि अशोक या उससे पहले अरसा का प्रवेश -प्रचलन उत्तराखंड में हुआ तो इसकी शुरुवात गोविषाण (उधम सिंह नगर ), कालसी , बिजनौर (मौर ध्वज ) क्षेत्र से हुआ होगा ।
 अरसा के प्रवेश में उड़ीसा का अधिक हाथ लगता है।
यदि अरसा उत्तराखंड में अशोक के पश्चात प्रचलित हुआ तो कोई उड़ीसा या आंध्र वासी उत्तराखंड में बसा होगा और उसने अरसा बनाना सिखाया होगा ।किन्तु यदि वह व्यक्ति आंध्र का होता तो वह  इसे अरिसेलु नाम  दिलवाता और उड़ीसा का होता तो अरिसा।  भाषाई बदलाव के हिसाब से उड़ीसा का संबंध/प्रभाव  उत्तराखंड में अरसा प्रचलन से अधिक लगता है।
 कोई उडिया या तेलगु भक्त उत्तराखंड भ्रमण पर आया हो और उसने अरसा बनाने की विधि सिखाई हो !
या कोई उत्तराखंड वासी जग्गनाथ मन्दिर गया हो और वंहा से अपने साथ अरसा बनाने की विधि अपने साथ लाया हो !
 लगता नही कि अरसा ब्रिटिश राज में आया हो।  कारण  सन 1900 के करीब अरसा उत्तरकाशी और टिहरी में भी उतना ही प्रसिद्ध था जितना कुमाओं और ब्रिटिश गढ़वाल में।
यह भी हो सकता है कि नेपाल के रास्ते अरसा प्रचलन आया हो किन्तु बहुत कम संभावना लगती है !
Reference-

Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
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Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India
Mahabharata
All Vedas
Inquiry into the conditions of lower classes of population
Lallan Ji Gopal (Editor), 2008,  History of Agriculture in India -1200AD
K.K Nautiyal History of Agriculture in Garhwal , an article in History of Agriculture in India -1200AD
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Joshi A.B.1961, Sesamum, Indian central Oil Seeds Committee , Hyderabad
Drothea Bradigian, 2004, History and Lore of Sesame , Economic Botany vol. 58 Part-3
Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds

Gopinath Mohanty et all, 2007, Tappasu Bhallika of Orissa : Their Historicity and Nativity

Copyright @ Bhishma  Kukreti  14 /9/2013

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