Ethnic Food of Uttrakhand
दालों का फाणा/चैंसा
डा. बलबीर सिंह रावत
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पर्वतीय लोगों को एक ही तरह खाने से जल्दी ही "विखलाण " पड़ जाती है तो उन्होंने उन्ही दानो से दाल के अलावा दुसरे अलग ही स्वाद की डिशें खोज निकालीं . फाणा और चैंसा, दालों के ऐसे विकल्प हैं जो चावलों, झंगोरे और कौणी के भात के साथ अलग ही स्वाद देते हैं। अगर इस की सही रेसिपी की ढूंढ की जाय और उस पर किसी अच्छे किचेन में , प्रवीन रसोइयों द्वारा नाना तरह के , घटक अनुपातों के मिश्रणों का परीक्षण हो और विभिन्न उम्र, शिक्षा और लिंग के , कम से कम २५ के दलों द्वारा स्वाद परीक्षण से हर व्यक्ति द्वारा तुलनात्मक, १ से १० के पैमाने से अंकन हो और जो अनुपात सर्व प्रिय सिद्ध होता है , उसका मानकी करण करके उपयोग में लाया जाय तो, यह दोनों पदार्थ देश विदेश में लोकप्रिय हो सकते हैं।
फाणा बनाने के लिए भिगोई छिलकेदार दाल पीसी जाती है। ( बिना छिलके वाली डालें भी ली जाती हैं ). फाणे के लिए दाल को भिगोया जाता है. साबुत दाल रात भर और दली दाल ३-४ घण्टे . उड़द की और मूंग की छिलकों वाली दली दाले ली जा सकती हैं ,मसूर, गहथ (कुलिथ ) साबुत, तथा चना , मटर बिना छिलके वाली दली दालें ली जा सकती हैं।
दालों में वसा कम होता है किन्तु प्रोटीन 20-25 %)(काफी होता है। फाइबर , लवण व विटामिन्स भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। गहथ (कुल्थी, कुल्थिकलाई, कोलू, हडथि , हरुले ) (वैज्ञानिक नाम माइक्रोटाइलोमा युनिफ्लोरम ) का फाणु अधिक लोकप्रिय है और गहथ में ऊर्जा (321, ecals),, लवण (3gm) , प्रोटीन (22gm) , विटामिन्स, फाइबर (5gm), कर्बोहाइद्रेट्स (57gm),फोस्फोरस (311mgm) , कैल्सियम (287mgm), लोहा (7 mgm ) होता है
कुछ दाले अकेले ही ठीक रहती हैं जैसे उड़द, गहथ, और कुछ के अपने साथी होते हैं जैसे मलका की दाल मूंग, चने और मटर के साथ खप जाती है। जिन्हें गहथ का फाणा ज्यादा ठरठरा लगता है वे उसमे उड़द मिला कर बना सकते हैं।
भीगी दाल को सिल में बट्टे से पीसने पर, और मिक्सी में पीसने पर फाणे के स्वाद में बड़ा अंतर होता है. सिल वाला अधिक स्वादिष्ट होता है क्योकि सिल में दाल के कण चपटे रहते हैं और मिक्सी में गोल। . सिल में दाल के कणों का आकार नियंत्रित करना आसान होता है , लेकिन मिक्सी में , उसकी तेज गति के कारण मुश्किल . अगर सिल उपलब्ध न हो तो मिक्सी में पाहिले धीमी गति से, और फिर मद्धम गति से ही, पानी की समुचित मात्रा के साथ पीसना चाहिए। पिसे पीठे में कुछ खुरदरापन, याने दाल के कण थोड़ा सा खुरदरे रहने ठीक रहता है। तेज गति से कण इतने बारीक हो जाते हैं की फिर इस से फाणा नहीं दाल का रस बन जाता है.
फाणे का स्वाद उसमे पड़े मसालों पर बहुत निर्भर करता है , धनिया, जीरा पिसा हुआ, काली मिर्च , लॉन्ग कुटी हुई, लह्सुन की सोलियाँ कुचली हुई, तथा प्याज कटा हुआ, हल्का भुना हुआ, प्राय हर तरह के फाणों में उपयोग में लाया जाता है. हींग को कुछ लोग घोल कर , जब फाना अधपका होता है , तब डालते हैं, कुछ लोग प्याज भुन जाने पर , जब मसाले डालते हैं, तो उसक साथ ही हींग के बारीक कण,डाल कर, तुरन्त पिसी दाल का घोल डाल देते है . एक अवधारणा है की लोहे की कढ़ाही का फाणा अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है, हो सकता है कि इसमें , दाल, मसालों के अम्ल से कुछ लौह घुल कर , जैविक रूप में फाणे में आ जाता है. शायद इसी कारण, अलुमीनिय और स्टील की कढ़ाई के मुकाबले लोहे की कढाई का फाणा अधिक गहरे रंग का और अधिक स्वादिष्ट लगता है. कढ़ाई के चहरों और जमी गाढी कोरनी के लिए तो संघर्ष करना पड़ता है की किसके भाग्य में आयेगी ( गाँव में सब से छोटी ब्वारी के लिए छोड़ा जता था, कढाई माजने के प्रोत्साहन के रूप में ). तो आप कही भी हों फाणा अवश्य खायं और खिलायें , तभी तो यह प्रसिद्धि पायेगा ?
चैंसा, कोरी दाल,( सिल में बढ़िया पिसती है ) को पीस कर छोटे कण दार बनाया जाता है, और कोरा ही मसालों में मिलाकर तब पानी दाल कर बनाया जाता है, बाकी विधि एक सी है .
dr.bsrawat28@gmail.com
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