Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 76205 times)

dramanainital

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 171
  • Karma: +2/-0
hApPy HoLi.

मैं भी सैंय्या समझ गयी हूँ इंटरनेट का खेल,
इस होली भेजूँगी तुमको प्यार भरा “ई-मेल”.

अबीर, गुलाल के दो थैले, “अटैच” कर दूँगी,
इस होली बतला दूँगी मैं क्या है ये “फीमेल”.

मैं भी सैंय्या समझ गयी हूँ इंटरनेट का खेल........

“ट्विटर”, “फेसबुक”, पर अब मेरा, पता दर्ज है,
जान रहूँगी क्या करते रहते हो दिन भर खेल.

मैं भी सैंय्या समझ गयी हूँ इंटरनेट का खेल.........

“टाइमलाइन” और “वॉल” पे मैं, कर लूँगी कब्ज़ा,
तेरे “सिंगल” इस्टेटस का “फंडा” होगा “फेल”.

मैं भी सैंय्या समझ गयी हूँ इंटरनेट का खेल.............

“नोटीफिकेशन” और “मैसेज” पर पक्का पहरा होगा,
यूँ ही शायद पड़ जाए कुछ, तेरी नाक नकेल.

मैं भी सैंय्या समझ गयी हूँ इंटरनेट का खेल.............

हर्षवर्धन

dramanainital

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 171
  • Karma: +2/-0

Anoop Rawat "Garhwali Indian"

  • Newbie
  • *
  • Posts: 29
  • Karma: +0/-0
कभी सोचता हूँ दोस्तों मैं भी नेता बन जाऊं.
किसी का करूँ न करूँ अपना भला कर जाऊं.

आम रहकर कुछ कर पाऊँ या न कर पाऊं.
नेता बनकर मैं शायद बहुत कुछ कर जाऊं.

हाथ जोडू पहले मैं फिर ओरों से खूब जुड़वाऊं.
किसी भी तरह अपनी साफ छवि मैं दिखलाऊँ.

अपने पीछे पीछे घूमने वाले मैं चमचे बनाऊं.
अपनी जय जयकार तब रोज मैं भी करवाऊं.

ईमानदार रहकर मैं कुछ शायद न कमा पाऊं.
भ्रष्ट बनकर शायद विदेशों में खाता खुलवाऊं.

वादों की झड़ी लगाकर जनता को मैं रिझाऊं.
जीतने के बाद मैं भी अपनी शक्ल न दिखाऊं.

कभी इस दल में कभी उस दल में मैं भी जाऊं.
कोई टिकट न दें तो निर्दलीय ही मैं उतर जाऊं.

छोटे से घर में रहता हूँ मैं भी बंगला बनवाऊं.
काम काज के लिए तब मैं भी नौकर रखवाऊं.

लालबत्ती वाली गाड़ी तब मैं भी खूब घुमाऊँ.
बड़े - बड़े अफसरों से मैं भी सलामी करवाऊं.

कभी - कभी गरीबों में मैं भी कम्बल बट वाऊं.
और किसी भी तरह अपना वोट बैंक मैं जमाऊं.

कुर्ता पायजामा मैं पहनू टोपी ओरों को पहनाऊं.
कभी यहाँ तो कभी वहाँ मैं भी रैली खूब करवाऊं.

पर अंत में सोचता हूँ दोस्तों कैसे नेता बन पाऊं.
बनने के लिए पर मैं इतना रुपया कहां से लाऊं.

फिर सोचता हूँ दोस्तों मैं अपनी कलम ही चलाऊं.
खूब लिखूं इन सब पर मैं सबको बात समझाऊं.

सर्वाधिकार सुरक्षित © अनूप सिंह रावत
" गढ़वाली इंडियन " दिनांक -०२-०२-२०१२
ग्वीन मल्ला, बीरोंखाल, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
इंदिरापुरम, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)

dramanainital

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 171
  • Karma: +2/-0
कभी सोचता हूँ दोस्तों मैं भी नेता बन जाऊं.
किसी का करूँ न करूँ अपना भला कर जाऊं.

आम रहकर कुछ कर पाऊँ या न कर पाऊं.
नेता बनकर मैं शायद बहुत कुछ कर जाऊं.

हाथ जोडू पहले मैं फिर ओरों से खूब जुड़वाऊं.
किसी भी तरह अपनी साफ छवि मैं दिखलाऊँ.

अपने पीछे पीछे घूमने वाले मैं चमचे बनाऊं.
अपनी जय जयकार तब रोज मैं भी करवाऊं.

ईमानदार रहकर मैं कुछ शायद न कमा पाऊं.
भ्रष्ट बनकर शायद विदेशों में खाता खुलवाऊं.

वादों की झड़ी लगाकर जनता को मैं रिझाऊं.
जीतने के बाद मैं भी अपनी शक्ल न दिखाऊं.

कभी इस दल में कभी उस दल में मैं भी जाऊं.
कोई टिकट न दें तो निर्दलीय ही मैं उतर जाऊं.

छोटे से घर में रहता हूँ मैं भी बंगला बनवाऊं.
काम काज के लिए तब मैं भी नौकर रखवाऊं.

लालबत्ती वाली गाड़ी तब मैं भी खूब घुमाऊँ.
बड़े - बड़े अफसरों से मैं भी सलामी करवाऊं.

कभी - कभी गरीबों में मैं भी कम्बल बट वाऊं.
और किसी भी तरह अपना वोट बैंक मैं जमाऊं.

कुर्ता पायजामा मैं पहनू टोपी ओरों को पहनाऊं.
कभी यहाँ तो कभी वहाँ मैं भी रैली खूब करवाऊं.

पर अंत में सोचता हूँ दोस्तों कैसे नेता बन पाऊं.
बनने के लिए पर मैं इतना रुपया कहां से लाऊं.

फिर सोचता हूँ दोस्तों मैं अपनी कलम ही चलाऊं.
खूब लिखूं इन सब पर मैं सबको बात समझाऊं.

सर्वाधिकार सुरक्षित © अनूप सिंह रावत
" गढ़वाली इंडियन " दिनांक -०२-०२-२०१२
ग्वीन मल्ला, बीरोंखाल, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
इंदिरापुरम, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)

badhiyaa hai anup bhai.

Ajay Pandey

  • Jr. Member
  • **
  • Posts: 50
  • Karma: +2/-0
लेखन वह चिंतन की व्यथा गाथा
कागज पर कागज कलम पर कलम
करता जा रहा हूँ लेखन वह चिंतन
सब बन गए कूड़े के ढेर
ऐसा है लेखन की दुनिया में अंधेर
क्या कोई है ऐसा इंसान
जो करे सही मायने पर लेखन वह चिंतन की पहचान
यदि है कोई ऐसा इंसान
उसे में मानता हूँ भगवान्
नहीं तो सब बेकार है
लेखन चिंतन नाकाम है
क्योंकि किसी को नहीं इसकी पहचान है
दुनिया में इंसान नहीं सब हैवान हैं
तभी तो इस देश की यह पहचान है
देते हैं सभी दूसरों को दोष
सही अर्थो में अपनी नहीं पहचान है
कविताकार अजय पाण्डेय

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
कुछ पंक्तिया .. वैसे मै कविता कम ही लिखता हूँ!

छटपटाता पहाड़, ये दर्द से चीखता हुवा पहाड़ !
पलायान की मार से तडफता ये पहाड़ !
कभी दावानल से राख होते ये पहाड़!!
तो कभी प्रकृति के दंश झेलता ये पहाड़!
हाय पहाड़, तेरे माथे सुख कहाँ लिखा है रे पहाड़! ....

नेताओ के धोके के शिकार बना ये पहाड़!
तेरे आंसू कौन पोछे रे पहाड़ ...
छटपटाता पहाड़, ये दर्द से चीखता हुवा पहाड़ !..

एम् एस मेहता

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
  • Options
  • सुशील कुमार जोशी ़़़़़़़़़़़़़़़
     "भ्रम एक शीशे का घर "
     ़़़़़़़़़़़़़़़़
     
     हम जब शरीर नहीं होते हैं
     बस मन और शब्द होते हैं
     तब लगता था शायद ज्यादा
     सुंदर और शरीफ होते हैं
     आमने सामने होते हैं
     तो जल्दी समझ में आते हैं
     सायबर की दुनियाँ में
     पता नहीं कितने कितने
     भ्रम हम फैलाते हैं
     पर अपनी आदत से हम
     क्योंकी बाज नहीं आते हैं
     इसलिये अपने पैतरों में
     अपने आप ही फंस जाते हैं
     इशारों इशारो में रामायण
     गीता कुरान बाईबिल लोगों
     को ला ला कर दिखाते हैं
     मुँह खोलने की गलती
     जिस दिन कर जाते हैं
     अपने डी एन ऎ का
     फिंगरप्रिंट पब्लिक में
     ला कर बिखरा जाते हैं
     भ्रम के टूटते ही हम
     वो सब समझ जाते हैं
     जिसको समझने के लिये
     रोज रोज हम यहाँ आते हैं
     ऎसा भी ही नहीं है सब कुछ
     भले लोग कुछ बबूल के
     पेड़ भी अपने लिये लगाते हैं
     दूसरों को आम के ढेरियों
     पर लाकर लेकिन सुलाते हैं
     सौ बातों की एक बात
     अंत में समझ जाते हैं
     आखिर हम हैं तो वोही
     जो हम वहाँ थे वहाँ होंगे
     कोई कैसे कब तक बनेगा
     बेवकूफ हमसे यहाँ पर
     अगर हम अपनी बातों
     पर टाई एक लगाते हैं
     पर संस्कारों की पेंट
     पहनना ही भूल जाते हैं ।
     ़़़़़़़़़़़़़़़़़

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
From :Parashar Gaur सच
 
 सोच सोच कर समझ में ये
 नही है आ रहा .......
 यहाँ आदमी को आदमी
 क्यूँ निगल रहा !
 
 स्वार्थी है मन स्वार्थी है तन
 स्वार्थो में घिर गया है आदमी
 चाटुकारिता निगल गई
 सर से पाऊं तक है आदमी !
 
 जीव में मिठास है
 सब्दो में कटाक्ष है
 एक हाथ में है फूल
 दूजे में कटार है
 उसकी इस प्रवर्ती को
 है नही कोइ समझ पा रहा !
 
 इर्द गिर्द भीड़ है
 फिर भी , भीड़ में तन्हा : है आदमी
 अपने आस पास बुनके जाल
 अपने ही जाल में फंस गया है आदमी
 रास्ते खुले है , है, आँख है खुली
 फिर भी वो पाऊं को बड़ा नही है पा रहा !
 
 आँखों में जलन जलन
 सीन में धुँआ धूआ
 मानवता मर चुक्की है उसकी
 सी गई जुवां है
 झूठ के साहरे है खड़ा
 सच को पचा नही है पा रहा !
 
 धरती को चीर
 अब निगाह; है आसमा
 बड़ गई है भूख उसकी इस कदर
 निगल गया वो जहान है
 आपा धापी की मार की मार में
 नहीं वो खड़ा हो पा रहा !
 
 रचनाकार पराशर गौर
 २६ जनबरी ०५ ११ बजे दिन में

Anoop Rawat "Garhwali Indian"

  • Newbie
  • *
  • Posts: 29
  • Karma: +0/-0
!!! कन्या भ्रूण हत्या पर कुछ पंक्तियाँ  !!!

आणि दे वीं ईं दुनिया मा,
जीणी दे वीं ईं दुनिया मा।।
क्या चा वींकु दोष ज्वा ह्व़े व बेटी जात।
कुछ त डेर वै बिधाता से राखी ले मनख्यात।

घर की लक्ष्मी च नौनी, वीं आणी दे।
देख हे, सूण हे, वींथे भी फर्ज निभाणी दे।
सबसे अगिन्या रैली सब थै देली मात।
क्या चा वींकु दोष ज्वा ह्व़े व बेटी जात।
कुछ त डेर वै बिधाता से राखी ले मनख्यात।

एक ही जन्म मा वींका छन रूप अनेक।
सदानी बिटि करदी आणि व कर्म हे नेक।
दुनिया का उद्धार खातिर कारली एक दिन रात।
क्या चा वींकु दोष ज्वा ह्व़े व बेटी जात।
कुछ त डेर वै बिधाता से राखी ले मनख्यात।

तीलू, रामी, गौरा ह्वेनी बड़ी-२ नारी।
जौन करी काम यनु दुनिया दे तारी।
छाया सभ्या यु भी रे मनखी नारी जात।
क्या चा वींकु दोष ज्वा ह्व़े व बेटी जात।
कुछ त डेर वै बिधाता से राखी ले मनख्यात।

आज की दुनिया मा बेटी बेटा बराबर चा।
ध्यान से देख फर्क नीचा कुछ भी द्वियु मा।
टक्क लगे सुणी ले अनूप रावत कि या बात।
क्या चा वींकु दोष ज्वा ह्व़े व बेटी जात।
कुछ त डेर वै बिधाता से राखी ले मनख्यात।

©2012 अनूप सिंह रावत ” गढ़वाली इंडियन “
ग्वीन, बीरोंखाल, पौड़ी, उत्तराखंड (इंदिरापुरम)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
बुडापा क आंसू
 
 मील नि कभे सोची छि,  देखण पडल यस बखत  !
 नान्तिना छोड़ी दियाल हमुके बुढींण क बखत!!
 
 सैत पारी हुमुल इनकू के, लगाई इनार फांक!
 नान्तिना उड़ गयी अब परदेश क काख!
 
 कैके सुणु दुःखक यो कुटुर!
 कस है  गैयी  भाग यो हमर!
 
 लागी रैयु आश में, नानतिन आल कभेर !
 बर्षो  बीत गैनी  नानो, तुमार  बगैर !!

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22