Author Topic: उत्तराखंड पर कवितायें : POEMS ON UTTARAKHAND ~!!!  (Read 289915 times)

Bhishma Kukreti

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सतीश रावत की भावुक  हिंदी कवितायें
-
 
कितनी बार
----------
मैं कब न थी प्रस्तुत,
कब नहीं मैंने किसी का साथ निभाया?
मैंने तो
ओ मेरे स्थिर प्रेम!
जिया है जीवन के सत्य को
क्षण-क्षण जीकर.
 
अपने जीवन के पथ की अनुभूतियों से
मैंने देखी है:
स्नेह की वह तुंग सोपान
जिसमें चढ़कर दर्शन होते हैं
स्वर्ग के,
जहाँ से कोई गिरता नहीं
ऊँचा, ऊँचा और ऊँचा उठता ही जाता है
मगर मेरे प्यार!
मैंने देखा है :
उस उदात्त सोपान से
गिरते हुए बहुतों को.
 
मैंने देखा है : सागर का विस्तार
अनुभूत की है :
विपुल शांति, भय और अकेलापन
यह वही सागर है
जो प्रातः काल  में सूर्य का प्यार पाकर
उसके रंगों में रंग जाता है
मगर जब बाँटता है भास्कर
अपनी विशुद्ध प्रीति की रश्मियों को
तो यही महासागर
विशाल सागर
संध्या-वेला में उसे खा जाता है.
 
यह भूलवश की गयी गलती नहीं है
यह तो मैं देखती आ रही हूँ वर्षों से
वर्षों से यही होता आया है
कितने ही उत्साहित प्रेमी देखे हैं मैंने -
खिलते सूरज-कुसुम का
मकरंद लेते हुए
और कितने ही निरीह,
सूरज की शव-यात्रा देखते हुए.
 
जब-जब देखती हूँ मैं इन प्रेमियों को
तब-तब मैं सोचती हूँ -
यह सूरज का पुष्प जो खिला है,
मुरझायेगा
पुनः खिलेगा
क्या यह यूँ ही मुसकराता नहीं रह सकता?
 
मगर, ओ मेरे साथी !
मैं ये क्यों भूल जाती हूँ कि
तब संध्या के सौष्ठव की
अनुभूति कैसे होगी मुझे ?
तब कैसे उभरेंगे वो भाव हृदय में
जिनसे मुझे होती है
असीम सुख की अनुभूति ?
और मैं इसे बाँट लेती हूँ सबको
तुमको भी मेरे माँझी.
 
ओ मेरे प्रिय प्राण !
एक तुम ही तो हो
जिससे मिल सका मुझे
स्थिर प्यार
नहीं तो
कितने ही यात्री चढ़े मुझमें
न जाने कितनी, कितनी बार.
01/03/2001
***
 
मखमली दूब
-----------
ओ मेरे वरेण्य !
मैं अनभिज्ञ हूँ तुम्हारे रूप से
तुम्हें देखता हूँ प्रत्यक्ष
पर मैं मूढ़ समझ नहीं पाता हूँ
तुम्हारा विस्तृत रूप
देखकर भी,
देख नहीं पाता तुम्हें
सिर्फ़ अनुभूति होती है तुम्हारी.
 
ओ मेरे हृदय के स्पन्दन !
मैं तुम्हारा आकार समझने में सक्षम नहीं हूँ तो क्या ?
तुम्हें देखता तो हूँ ,
तुम्हें महसूस करता तो हूँ
तुम्हारी अनुभूति से सुख पाता तो हूँ.
 
मेरे प्रभु !
मैं परिचित हूँ तुम्हारी अथाह शक्ति से
मुझे आशीष दो कि
मैं भी उस दूब की तरह बनूँ
जो अपनी कोमल कोंपलों से
चीर देती है धरती का सीना
और काली कठोर कोलतार वाली सड़क से भी
जो जीत जाती है
और उसका सीना फाड़कर
निकल आती है ऊपर
मुसकराती हुई,
जो बार-बार दबकर भी पैरों के तले
निराश नहीं होती,
अपमानित नहीं होती,
अपना अस्तित्व खो नहीं देती
बल्कि उठा लेती है अपना शीश स्फोट से.
 
वह बहुत बड़ी नहीं होती
और ना ही छूना चाहती है आकाश
वह तो चिपकी रहती है
वसुन्धरा के आधार से
वह नीची है बहुत नीची
पर उसके भाव,
उसके विचार,
उसकी भावनाएं
अमित उदात्त हैं
वह खुश है अपने स्थान पर
क्योंकि वह जानती है कि
तुम ऊपर ही नहीं
नीचे भी हो
नीचे, नीचे बहुत नीचे भी हो
सर्वत्र हो.
 
मेरी आत्मा !
मैं जानता हूँ
उसने कभी अभिमान न किया
वह बढ़ी और बड़ी भी हुयी
मगर उसके हर कदम ने
पकड़ के रखा पृथ्वी को
उसके दुबले-पतले शरीर की
हरी-हरी लघु पत्तियों ने भी
सदा झुका रहना ही सीखा है
कोमल और नम्र रहना ही सीखा है
तभी तो,
तभी तो मेरे भगवान !
नहीं खायी कभी उसने मात
कभी पराजित नहीं हुई
सदा-सदा ही विजय,
उसके पाँव चूमकर कृत-कृत्य हुई है.
 
मैं जब भी मिला हूँ उससे
वह मिली
रोज मिली, हरी-हरी मखमली मुस्कान के साथ.
 
ये जो तुंग वृक्ष हैं
और इनके आधार पर यह पड़ी है
मगर मैंने देखी है इसमे
उन वृक्षों से भी अधिक ऊँचाई
क्योंकि इसके मन में कभी
उनके साथ रहकर भी
हीन भावना नहीं आयी
सच कहूँ मेरे सृजन-शील !
मैंने इसकी छवि में
देखा है तुम्हें
जिससे मुझे होती है
असीम सुखानुभूति
और मेरे मानस-पटल पर
उभर आता है बिम्ब तुम्हारा
और मैं उस छोटी-सी दूर्वा में
दर्शन कर लेता हूँ
तुम्हारे !
02/03/2001
***
 
शब्द तुम हो ?
------------
शब्द का व्यक्तित्व क्या है ?
अर्थ का अस्तित्व क्या है ?
निहित है वह कौन शक्ति,
सशक्त जिससे ये हुआ है ?
 
रक्त बहता है किसका
इसकी पतली धमनियों में ?
कौन है
यह अक्षुण्ण ?
क्या विश्व का है
प्रणेता ?
मौन का रहस्य क्या है ?
अर्थ का आभास क्या ?
आकार ही
व्यक्तित्व है तो
अर्थ का
आकार क्या है ?
स्वर्ग के दर्शन कराता
प्रभु से परिचय कराता
तन्वी भावनाएं जगाता ,
व्यक्तित्व अपना बताने को
निर्जन वन में छोड़ जाता
मौन, मौन, मौन रहकर.
 
कौन है यह रस सिन्धु !
जो कर देता है उत्साहित
सोचने बस, सोचने को
क्या रूप है,
यह तुम्हारा ?
आज बस,
इतना बता दो !
03/03/2001
***
 
पुरानी नाव
---------
मैंने अपनी
पुरानी छोटी-सी नौका
जब उतारी सागर में
तो मैंने तट से समुद्र-विस्तार देखकर सोचा -
मैं कर लूँगा इसे पार अवश्य ही
पर , मैंने केवल उतना सोचा
जितना देखा था प्रत्यक्ष
और सागर की लहरों के संग
चला गया दूर-दूर बहुत दूर तक
और चलता ही रहा, चलता ही रहा
मेरे सामने से गुजरे
कई जाहज आधुनिक सुविधाओं से युक्त
देनी चाही उन्होंने मुझे सहायता
पर मैंने नहीं ली
चलाता रहा अपनी पुरानी नाव को
जब मैंने देखा
विस्तृत सागर का वास्तविक रूप
वो हरा , काला , लाल और नीला पानी
पानी, पानी केवल पानी
मैं थक गया
और उदास आँखों से देखा
बार-बार अपनी नाव को
पुरानी नाव को
देखता ही रहा
सोचता ही रहा
और मेरी पुरानी नाव
सागर की उर्मियों के संग
जाने कहाँ खो गयी.
04/03/2001
***
 
हृदय की पीड़ा
------------
मेरे बन्धुओं !
तुम तर गये भव-सागर को
छोड़ के अपनी
छाप, स्मृति,
और महान् कृति.
तुमने पत्थरों को तराश कर
आकार जो दिया था
सजीव किया था
अथाह परिश्रम, लगन, कुशलता और
उदात्त भावनाओं से.
तुमने परवाह न की
अपने अमूल्य समय की,
जिन्दगी की
और एक अमर-कृति विश्व को दी
कितने श्रेष्ठ थे
तुम और तुम्हारी कृति
कितनी ऊँची थीं
तुम्हारी भावनाएं
जो तुमने कठोर पत्थर पर ली थीं उतार
हे वरेण्य आत्मा !
तुझे मेरा नमस्कार बार-बार.
जब तुम्हारे साकार पत्थरों को
पूजा गया,
संग्रहालयों में सजाया गया या
ससम्मान स्थापित किया गया
तब तुम्हें कितनी शांति की अनुभूति हुई होगी !
और आज जब तुम देख रहे हो
अपने परिश्रम, लगन, प्यार और
भावनाओं का खण्डन
तो आहत होकर अश्रु क्यों बहाते हो ?
क्यों निकाल के रख नहीं देते
कलेजा इनके सामने ?
जरा दिखाओ इन्हें भी
उसकी तड़पन.
04/03/2001
***
 
अभिलाषाओं का पुष्प
------------------
जाने कितनी जन्मी
कोमल काया के
कोमल अन्तरतम में
कानन कामनायें ,
जाने कितने स्वप्न संजोये
नन्ही आँखों में ,
जाने क्या-क्या पाने को
मचल उठा मन ,
जाने क्या-क्या चाह रहा था
छोटा-सा वह तन
मगर पूर्ण न हुईं
कितनी ही इच्छायें ,
कितने ही सपने ,
कितनी ही आशायें
किसी निमित्त
होकर रह गयीं दिल में दफन
उनके ऊपर रख दिये गये
भारी-भारी पत्थर
फिर कभी न उठ सकीं वे
अभिलाषाएं.
 
आज चाह नहीं है उनकी
गदराये यौवन को
तनिक भी ,
अब उभर आयी हैं
नयी-नयी इच्छायें
नयी अभिलाषायें
कल ये भी मुरझा जायेंगी
जब यौवन कुम्हला जायेगा
तब नयी कलियाँ आयेंगी
अभिलाषाओं की.
 
मगर कोई सुमन खिलकर बच पाया है ?
यह अभिलाषाओं का पुष्प भी
झड़ जायेगा सूखकर
अन्त समय में
और मिल जायेगा अपनी ही मिट्टी में
यह काया भी मिल जायेगी
मिट्टी के कण-कण में
तब मृदा का अणु-अणु
चीख-चीख के चीखेगा -
अब कहाँ गयीं सारी इच्छाएं
वो अभिलाषायें ?
क्यों , अब तो समझ गये हो मर्म
जीवन का !
09/03/2001
***
 
बेघर
-----
सूरज शक्तिहीन होने लगा
लाल-पीली अपनी ही आभा में
क्षितिज पर खोने लगा ;
संध्या सुंदरी शनै-शनै बढ़ने लगी
यौवन की ओर ,
होने लगा मंद पक्षियों का शोर
सब चले गये अपने-अपने घरों को
बंद हो गये सभी किवाड़
और वह ,
वह दो पाँव का जानवर
असहाय , निरीह , उपेक्षित
रिरियाता रहा देर रात तक
और सो गया
कड़ाके की ठण्ड में
घुटने मोड़कर
पिचके पेट में दबाये हुए
शीश झुकाये हुए
हाथ मोड़कर गालों को दबाये हुए
निर्मम नग्न नभ के नीचे ;
तभी फूटा एक तारा
देख दशा उसकी
फूट-फूटकर
रोता रहा वह रात भर.
10/03/2001
***
 
तुम्हारा इंतजार
-------------
पुष्पों की पंखुड़ियों में
ढूँढता हूँ तुम्हारा चेहरा
देखता हूँ निर्निमेष
गदराये हुए यौवन से
उड़ते हुए पराग-कण ,
टपकता हुआ मकरन्द
और देखता ही जाता हूँ
सोचता ही जाता हूँ
औचक खो जाती है मेरी दृष्टि
टहलने लगता हूँ
कल्पनाओं के कानन में
और ढूँढने लगता हूँ -
सिहरती पत्तियों में
घने अंधकार में
झरने की ऊँचाई में
और पारावार की गहराई में
तुम्हारा अदृष्ट कल्पनिक रूप.
ओ मेरे होने वाले प्यार !
जब लौट के आता हूँ
यथार्थ के धरातल पर
तो प्रफुल्ल प्रसून की मुड़ी हुई पंखुड़ियों को
तुम्हारी मुँदी हुई पलकें समझकर
चूम लेता हूँ प्यार से
और करने लगता हूँ तुम्हारा इंतजार
ओ मेरे ,
अप्रतिम , अपेक्षित , अनदेखे प्यार !
बस , तुम्हारा ही इंतजार.
11/03/2001
***
 
थोड़ा-सा प्यार
-------------
रिरियाता हूँ
भटकता हूँ
मैं अक्लांत
बढ़ता जाता हूँ
चाहता हूँ
सोना,
हीरा,
धन
या जेवरात
कुछ भी नहीं
हाँ, हाँ !
कुछ भी नहीं.
न चाहोगे तुम
कुछ भी देना
दोगे तो
बस उधार
यही तो ,
यही तो चाह है
दे सको तो
दे दो उधार
अपना
थोड़ा-सा
निर्मल
निश्छल
प्यार
हाँ, केवल प्यार !
सच, लौटाऊँगा तुम्हें
सौ गुना सूद के साथ
बार-बार.
10/03/2001
***
 
नया सवेरा
----------
तुम पर टिका हुआ नभ
कितने खेल खेलता है
तुम्हारे साथ ;
कितने रंग बदलता है
और तुम भोले भाले
रंग जाते हो पूर्णतः
उसके रंगों में ;
तुम विशाल और उदात्त होते हुए भी
बह जाते हो ,
उसकी हल्की मुस्कान की उर्मियों के संग
जब उसका नीला वसन
रंग जाता है विविध रंगों के छींटों से
घेर लेती है लालिमा
मिलन रेखा को
और तुम्हारे अधरों से
उत्सर्जित होने लगती है आभा
विकसित होने लगता है
तुम्हारे प्यार का पुष्प
पूरव दिशा से शनै-शनै ;
और तुम्हारा गौरव इन हरे-हरे पेड़ों से
छानकर बिखेर देता है रश्मियाँ
वसुन्धरा के अंक में
और अम्बर के विस्तार में
तब तुम्हारे उर से उदित ऊर्जा
ले आती है एक नया सवेरा
कण-कण के जीवन में
और पुनः रंग जाते हो तुम
नभ के सुनहरे प्रकाश में
और तुम्हारी तुंग चोटियाँ
खिल उठती हैं एक बार फिर
स्पर्श उसका पाकर.
12/03/2001
***
 
अगरबत्ती
--------
अरी ओ श्यामा !
जीना मुझे भी सिखा दे
उस तक जाने का मार्ग दिखा दे
मैं जीवन भर
चलता रहा ,  चलता रहा
जलता रहा , जलता रहा
मगर तेरी तरह निश्छ्ल नहीं
तेरी तरह मैं नहीं चला ,  नहीं जला
जब तुझे जलाया गया था
किसी मंदिर में
समक्ष ईश्वर के
तो तू जली
और सुलगती रही तब तक
जब तक तू मिट न गयी
तेरी देह से निकले धुएँ की लम्बी लकीर
अवश्य ही छू गयी होगी
कृपा निधि के कर-कमलों को
मुख मण्डलों को
पग-तलों को
यह तेरी प्रसारित सुगन्ध
जो कर रही है सुवासित
एक-एक कण को
निश्चय ही करती होगी सुवासित
उसके अन्तर्मन को
अरी ओ , अगरबत्ती के अवशेष की बची हुई
राख की ढेरी
कर दे पूर्ण अभिलाषा मेरी.
15/03/2001
***
 
बच्चा
-----
बच्चा तो बच्चा है !
बच्चा -
मासूम, निश्छल, कोमल, अभिराम
राम,
हाँ-हाँ राम !
देखी है कभी मुख मण्डल पर पटुता ?
वाणी में कटुता ?
आँखों में छल,
और मन में मल ?
सोचा क्या,
क्या है उसकी जिजीविषा ?
ना रे, ना, ना !
वह तो बस सोचा करता है
उस कल्पक को अनुक्षण;
किसी का भी हो
कोई भी हो
कैसा भी हो
बच्चा तो बच्चा ही है ना !
पशु-पक्षी या मानव का हो
देव या फिर दानव का हो
कृति कोमल उस कल्पक की ही है
फिर क्यों दुतकारा उस पिल्ले ?
क्यों चूम लिया अपने बच्चे को ?
अन्तर ही क्या था दोनों में !
दोनों ही तो थे भगवान मेरे.
16/03/2001
***
 
नि:संग
------
यह जो दिन है
यह जो रात है
यह जो संध्या और
यह जो प्रभात है
क्या ये तनिक भी मेरे नहीं हैं
या मैं जरा-सा भी इनका नहीं हूँ
क्यों मैं इस महानगर में
रहता हूँ नि:संग
चार दीवारों में कैद होकर
शिथिल-से लगते हैं अंग
क्यों यह दिन, रात, संध्या, प्रभात
रहते हैं उदास-से मौन
क्यों मेरे दिन और रातें
गुजर जाती हैं बिना शब्दों के ?
मैं निस्संग मौन ,
बस देखता ही रहता हूँ
सोचता ही रहता हूँ
अनुभूत करता ही रहता हूँ
ठिठकता ही रहता हूँ
और बाँट नहीं पाता किसी से अपने विचार
आह ! यह सन्नाटा नहीं,
चाहिए मुझे अपनों का प्यार
यह एककीपन नहीं मुझे अंगीकार
क्या स्वजनों से बिछड़ने का,
होता है यही उपहार ?
हे हरि मेरे !
बता दो,
बता दो बस, एक बार.
18/03/2001
***
 
तुम तक कैसे आऊँ मैं
------------------
काया को अब तक जान न पाया
माया ने लूटा और लुटाया
अंतरतम को अवसादों ने घेरा
भटक रहा है
ढूँढ रहा है
किसको हे चिन्मय,
ये मन मेरा ?
कौन खड़ा है मेरे आगे
क्यों देख नहीं सकता मैं उसको
अकुलाता है कोई मेरे अन्दर
कैसे उसको मैं समझाऊँ
गीत प्रीति के कैसे गाऊँ
कैसे उसकी प्यास बुझाऊँ ?
जीवन बहता
क्यों रुका हुआ मैं
बीच भँवर में फँसा हुआ मैं
किस विधि बाहर आऊँ मैं,
बतला दो हे परमेश्वर !
वर कैसे तुमसे पाऊँ मैं ?
चाह है मेरी -
निर्झर बन
झर-झरकर तुम तक आ जाऊँ
केवल गीत तुम्हारे गाऊँ
देखूँ तो बस, तुमको ही पाऊँ
अब जान गया हूँ
तुमको स्वामी
पहचान गया हे अन्तर्यामी !
अब क्यों अपना
समय गवाऊँ
बतला दो कैसे
तुम तक आऊँ !
19/03/2001
***
 
आशीष दो माँ
------------
हे देवी !
मुझको अपना लो
चरणों का
दास बना लो
अंग तुम्हारा ही हूँ मैं
रंग तुम्हारा ही हूँ मैं
मैं तो माटी
तुम हो माँ
पुत्र तुम्हारा ही हूँ मैं
मैं तो हूँ अगियार तुम्हारी
लपटों को छू जाने दो
माँ, नीरस ही है
ये स्वर मेरा
पर, गीत तुम्हारे गाने दो
खोल दो माँ,
द्वार ज्ञान के
मुझको अन्दर आ जाने दो
प्यास ज्ञान की मिट जाने दो
मुझको बस, खो जाने दो
अपनी ममता की गोद में माँ,
जीभर के सो जाने दो
ज्ञान की नदियाँ बहती जाती हैं
पर मैं तो  उ'द्'ग'म  चाहूँ
राह नयी मैं क्यों न जाऊँ
गान ज्ञान के क्यों ना गाऊँ
क्यों न आज तृप्त हो जाऊँ ?
जब छू ही लिया है ये पथ माता,
तो पल-पल आगे बढ़ता जाऊँ
पल-पल प्यार मिले तुम्हारा
पल-पल आशीष तुम्हारा पाऊँ.
19/03/2001
***
 
मैं भी पढ़ने जाऊँगी
----------------
मम्मी मुझको भी ला दो पुस्तक,
मैं भी पढ़ने जाऊँगी.
भैया के संग जाऊँगी और,
संग भैया के ही आऊँगी.
 
खूब पढूँगी मन लगाकर,
शोर नहीं मचाऊँगी.
कविताएं रट-रटकर मैं,
रोज तुम्हें सुनाऊँगी.
 
अपने स्कूल की सारी बातें,
मैं तुमको बतलाऊँगी.
अ आ इ ई उ ऊ लिखना,
तब तुमको भी सिखलाऊँगी.
 
खूब पढूँगी-खूब पढूँगी,
नाम खूब कमाऊँगी.
देखना माँ एक दिन मैं भी,
देश का मान बढ़ाऊँगी.
 
ये सब तब ही होगा हे माँ !
जब पढ़ने मैं जाऊँगी.
इसीलिए कहती हूँ तुमसे -
मैं भी पढ़ने जाऊँगी.
20/03/2001
***
 
खेल-खेल में
----------
जंगल में जब आयी रेल
सबको लगा अनोखा खेल.
हँसते-गाते सब मजे लुटाते
रेलगाड़ी में झट चढ़ जाते.
 
सभी जानवर चढ़े रेल में
लगे उछलने खेल-खेल में.
खरगोश कहता - यह सीट है मेरी
गधा कहता - मैंने कर दी थोड़ी देरी.
 
कुछ बैठे, कुछ खड़े हुए थे,
कुछ आराम से पड़े हुए थे.
खुश हो करके बन्दर गाते
ख्यों-ख्यों उछल-कूद मचाते.
 
सूँड उठाकर ड्राइवर दादा आये
"मैं बैठूँगा कहाँ ?", जोर से चिल्लाये.
शेर ने झट कुर्सी की खाली
हाथी दादा बैठे रेलगाड़ी चला ली.
 
रेलगाड़ी चल पड़ी छुक-छुक गाती
सबके मन को ये हर्षाती.
खुशी से उछल-कूद मच पड़ी रेल में
सफर कट गया खेल-खेल में.
24/03/2001
***
 
यादें
----
दाना-पानी की खोज में
एक मैना भटकती जाती है
फिर भी तृण-तृण चुनकर वह
सुन्दर-सा घर बनाती है
पर अपने लिए नहीं
अपने एक अंश के लिए.
 
अण्डों से जब खिल जाते हैं
कोमल-से चीं-चीं, चूँ-चूँ करते बच्चे
तो खुद भूखी रहकर
उनको आहार खिलाती है
जीना उनको सिखलाती है
चलना उनको सिखलाती है
एक दिशा नयी दिखलाती है
अन्तर में चाहे अवषाद अमित हो
पर गीत खुशी के गाती है
बच्चों को तब अपनी
माँ बहुत भाती है.
 
पर, पर निकलने पर जब बच्चे
सब छोड़-छाड़ उड़ जाते हैं
आकाश की अन्नत ऊँचाई में
तो वह माँ अनन्त आकाश में
अपने त्याग का प्रतिफल
ढूँढ़ती रह जाती है
और अम्बर को ताकती उसकी निर्निमेष आँखें
एक व्यथित कथा कह जाती हैं
और उसके पास
बस कुछ यादें
यादें ही रह पाती हैं.
25/08/2001
***
 
कुछ पल मेरे अपने होते
--------------------
जीवन के पारावार में
कुछ बूँदें मेरी हो जाएँ
तो मैं पलकें गिरा के अपनी
बस, तुमको ही पढ़ता जाऊँ
सोच-सोचकर तुमको ही मैं,
प्यार लूटाऊँ, शांति मैं पाऊँ
नि:शब्द, एकांत वातावरण में
समाकर तुम्हारे आवरण में
जीभर के आँखों से अपनी
जल के बिन्दु गिराता जाऊँ,
जल के बिन्दु गिराता जाऊँ.
 
जीवन की अविराम घड़ी में,
कुछ पल मेरे अपने हो जाते
तो मैं भी शांति के कुछ बीज,
वंध्या जीवन में बो जाता
आँसू मुझमें, मैं तुममे खो जाता
बस, क्षण तनिक-सा ये रो जाता
तो पार तुम्हारे पारावार !
मैं हो जाता,
मैं हो जाता.
 
बस, केवल हम तीनों होते
आँसू मेरे टप-टप रोते
दिल के अवसादों को धोते
तन-मन में बस तुम ही होते
पास मेरे -
जीवन की वसुन्धरा के
काश कहीं कुछ टुकड़े होते,
काश कहीं कुछ टुकड़े होते.
22/10/2001
***
 
एक ही धरातल
-------------
पट जाती हमारे बीच की खाई
यदि, मिल जाता निश्चित् आवरण
तुम्हारे जैसा वातावरण.
 
ढल जाती मैं भी उसी साँचे में
जिसमें तुम ढले हो.
भिन्नता तनिक न रहती हममें
यदि मैं भी पल, बढ़ जाती
उसी समाज में
जिसमें तुम पले हो.
 
तुम कैसे ये निर्णय कर लेते हो कि,
तुम हर क्षेत्र में आगे हो मुझसे ?
किस घमण्ड में तुम निकल जाते हो
मेरे सामने से
सीना फैलाकर,
तुच्छ दृष्टिपात कर,
नाक, भौंह सिकोड़कर
और गर्व से सिर उठाकर ?
क्या यह आधुनिकता ही दर्पण है
सभ्य समाज का !
क्या सारा समय ही है तुम्हारा
आज का ?
मेरा तनिक भी नहीं !
 
तुम ये क्यों सोचते हो -
प्रत्यक्ष तुम्हारे मैं लघु बन जाऊँगी
या, मन में अपने हीन भावना लाऊँगी
मैं तो प्रत्यक्ष प्रभु के सौ-सौ बार
बस, सादा जीवन ही चाहूँगी.
 
यदि तुम्हें भी मिला होता ये वातावरण
तो क्या पहने होते ये आवरण ?
 
मेरे दोस्त !
तुम इस शाश्वत सत्य को
क्यों भूल जाते हो कि,
हम निर्भर हैं प्रकृति पर
और हमें ढलना ही पड़ता है
या हम ढल जाते हैं
उसी वातवरण में.
 
अतः मैं नहीं मानती
अपने मध्य की असमानता को
लघु-गुरु का प्रतीक.
तो मैं क्यों तुमसे बड़ी बनूँ
या तुम मुझसे बड़े ?
भूलो मत !
हम हैं,
एक ही धरातल पर खड़े.
20/11/2001
***
 
पंक और पंकज
-------------
अरे ओ अरविन्द !
क्यों छाती फैलाकर इठलाता है ?
उठ क्या गया कीचड़ से कि ,
शाश्वत सत्य को झुठलाता है !
अरे ! पंक में ही तू पला बढ़ा
और आज आधार बनाकर ,
उसी में है खड़ा
अरे ओ ! अगर आज वो न होता तो,
सड़ता तू भी पड़ा-पड़ा
चल बे जा
आज बनता है बड़ा !
चूसकर ही रक्त उसका
रक्त-सा रक्तिम बना
अरे ओ ! कोमल कमल !
तू क्या जाने स्वेद क्या है
क्या कभी उसमे सना ?
गर्व कैसा, क्या है तेरे पास अपने ?
लूट के जिया और
उधार लेकर जी रहा
मुफ्त में किरणों की मेरी अमृत धारा पी रहा
बड़ा इठलाता है दिवस में ओ नासमझ !
है दम जरा तो निशा में भी इठलाकर दिखा
भूल मत उस पंक की सौरभ ने ही
अस्तित्व तेरा है लिखा.
09/12/2001
***
 
प्यासी अँखियाँ
-------------
प्यासे हिम-श्रृंग,
प्यासी नदियाँ,
प्यासे निर्झर,
प्यासी बावलियाँ,
प्यासा सागर,
प्यासी गागर,
प्यासा सूरज,
प्यासी किरणें,
प्यासे बादल,
प्यासी वर्षा,
प्यासा चाँद,
प्यासे तारे,
प्यासे-प्यासे
लगते सारे,
प्यासा अम्बर,
प्यासी धरती,
प्यासी अँखियाँ;
फिर कैसे बरसीं !
29/08/2002
***
 
साँझ
----
एक उदास
अति उदास
रोयी-सी
खोयी-सी
थकी-सी
पकी-सी
सहमी-सी
टूटी-सी
रूठी-सी
प्यासी-सी
बासी-सी
सन्नाटे-सी
ज्वार-भाटे-सी
अमावस-सी
सूखी धमनी
पिचकी नस-सी,
कितनी नीरस,
कितनी नीरव,
कितनी निश्चल,
कितनी निर्जन,
कितनी निर्धन
है ये साँझ.
05/09/2002
***
 
उपहार
------
पल-पल पलता
प्यार तुम्हीं को ,
खुशियों का
संसार तुम्हीं को ,
सुंदर सपनों का
सार तुम्हीं को ,
और बाँहों का
हार तुम्हीं को.
 
जीवन का दृढ
आधार तुम्हीं को,
प्यार मेरे ओ !
प्यार तुम्हीं को,
धड़कन का
उपहार तुम्हीं को,
और भला क्या
दूँ उपहार ,
साँसों का
संसार तुम्हीं को.
15/11/2006
***
 
एकाकीपन
---------
कभी-कभी हम
कितने अकेले हो जाते हैं;
कभी-कभी स्वप्न सारे
न जाने क्यों सो जाते हैं;
काँटों से प्यार नहीं,
फिर भी काँटे बो जाते हैं;
एकाकीपन की दुनिया में
जाने कैसे खो जाते हैं ?
कभी-कभी स्वयं से ही
बातें करके रो जाते हैं ;
सच !
कभी-कभी हम भीड़ में भी
कितने अकेले हो जाते हैं.
16/09/2007
***
 
नयी सुबह
-------------
जले हुये पहाड़ों में
जाग उठा एक जीवन
नव-जीवन की अभिलाषा में
निहार रहा स्वजनों को
और अपने आधार को
इस आशा से कि
कल फिर से
एक नयी सुबह
अवश्य आयेगी.
23/05/2016
***
 
रिश्ते-नाते
-------------
कितने विस्तृत होते थे
वो रिश्ते-नाते,
जितना विस्तार
उतना ही
ठोस आधार,
जितना कठिन जीवन
उतने ही सरल लोग,
ढूँढ ही लेते थे
सभी में
मानवता का रिश्ता;
कितना प्रेम-भाव,
कितना अपनापन,
और कितनी सहजता
होती थी
हमारे पूर्वजों में
परायों के प्रति भी;
अब
जीवन सरल हो गया है
वस्तुतः
रिश्ते सिमट गये हैं.
04/06/2016
***
 
जीवन
--------
जीवन जीते-जीते
जीवन बीत गया ,
जी न सके
जीवन को
जीवन-सा,
जीवन रीत गया;
जीवन-जीने की चाह में,
जीते-जीते
जाने कब
जीवन बीत गया.
08/06/2016
***
 
एक टुकड़ा समय का
------------------------
समय सिमट गया
या
व्यस्तता बढ़ गयी ?
कौन-सी धातु की
बेड़ियाँ
जकड़ गयीं ?
मशीनों के युग में
मशीन
बन गये,
माया के जंजाल में
रिश्ते
पिघल गये,
कीमती बहुत हो गया
इन दिनों समय,
काश !
अपने लिए भी
खरीद सकते,
एक टुकड़ा
समय का !
12/06/2016
***
 
अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
--------------------------
अब !
अच्छा नहीं लगता मुझे
अपने भाई-बहिनों से
लड़ना-झगड़ना,
अपने माता-पिता से
बिना बात के
रूठ जाना,
अपने दादा-दादी से
किसी चीज़ के लिए
जिद करना,
अपने नाना-नानी से
शिकायतें करना,
वस्तुतः !
मैं बहुत खुश होती थी
अपनों से जीतकर;
अब !
अच्छा नहीं लगता
अपनों को हराना,
क्योंकि अब ये 'बेटी'
बड़ी हो गयी है.
12/06/2016
***
 
छोटी सी गुड़िया
-------------------
सड़क किनारे पैदल पथ पर
आने-जाने वालों से
वह करती आग्रह
"अंकल भुट्टा ले लो"
लोग सुनते,
देखते
और फिर आगे बढ़ जाते,
पर वह हताश नहीं होती
पुनः प्रयत्न करती
अपनी मीठी बोली में
बहुत ही सहजता से;
उसके कोमल मन में धैर्य था,
प्यारी अँखियों में आश थी,
मासूम चेहरे में आत्मविश्वास था
उसको विश्वास था
कोई-न-कोई अवश्य खरीदेगा
उसके पापा से भुट्टा
वास्तव में वह
छोटी सी गुड़िया
बहुत बड़ी थी.
15/06/2016
***
 
मेरे जन्मदाता
------------------
अपने हिस्से की
सर्दियों की गुनगुनी धूप
और गर्मियों की शीतल छाया
तुमने ही तो दी है मुझे !
डगमगाते हैं पाँव मेरे जब कभी
बनकर सहारा
साथ तुम ही तो खड़े हो जाते हो,
विपत्तियों का वक्त जब आता है शूल बनकर,
हाथ आ जाता है तुम्हारा,
सिर पर ढाल बनकर;
प्रायः याद नहीं रहती हैं
बचपन की यादें सभी,
कैसे गिनाऊँ उस प्यार को
उन अंगुलियों में
जिनको थामकर तुमने
चलना सिखाया था कभी;
ओ ! मेरे जन्मदाता,
तुम ही तो हो
हिम्मत मेरी
तुम ही तो हो
मेरा सहारा.
19/06/2016
***
 
पहाड़
-------
मत बदलो मेरा स्वरूप
अपने अनुसार,
आखिर कब तक मैं
चोटें सह पाऊँगा ?
मैं पहाड़
बहुत कोमल हूँ ,
एक दिन
टूटी माला के दानों-सा
बिखर जाऊँगा.
21/06/2016
***
 
समय
--------
मैं समय !
रहता हूँ हर समय
साथ सबके,
रखता हूँ पैनी नज़र
सबकी गतिविधियों पर;
मिटा दो
बुरी भावना का ख़याल
मन में जो आया है;
मैं समय हूँ !
मेरे आगे
कब, कौन, कहाँ टिक पाया है ?
02/07/2016
***
 
दरकते पहाड़
----------------
फटते बादल
उफ़नती नदियाँ
दरकते पहाड़
सिसकती अँखियाँ
प्रकृति का तांडव
आखिर कब तक ?
कुछ तो होगा समाधान ?
कोई तो
कुछ बतलाओ !
03/07/2016
***
 
निर्णय
---------
कई बार हम चाहते हैं
उन्मुक्त जीवन जीना,
जीना चाहते हैं जीवन
सिर्फ़ और सिर्फ़
अपने अनुसार
स्वाभिमान से,
शान से;
कई बार हम
नहीं ले पाते
अपने ही निर्णय
अपने-आप,
कई बार हम
कितने असहाय हो जाते हैं !
06/07/2016
***
 
मुखौटे
--------
दुनिया
यदि रंगमंच है !
हम
यदि कलाकार हैं
तो इन मुखौटों के पीछे
कोई-न-कोई
प्रतिभा छिपी हुई है.
08/07/2016
***
 
बचपन
---------
कई वर्ष बीत गये
बचपन बिताये हुए,
वो खुशियाँ
जो बचपन में
यूँ ही
मिल जाया करती थीं मुफ्त,
अब मिलती नहीं
जमना हो गया
कीमत चुकाये हुए,
अजीब आ गया है
नया दौर
बच्चों से दूर
बचपन के साये हुए,
धूमिल हो गये हैं
धूल-मिट्टी के खेल-खिलौने,
वर्षों हो गये हैं
माँ को लोरी गुनगुनाये हुए.
09/07/2016
***
 
परिवर्तन
--------
कभी-कभी हम -
कितने बदल जाते हैं !
खेलने लगते हैं -
अंगारों से,
मार लेते हैं -
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी,
बन जाते हैं -
अपनों के ही दुश्मन,
कभी-कभी
कितना बदल जाता है
चुपके से समय !
14/07/2016
***
 
बचपन बचकाना
--------------
क्षण-क्षण में रोना,
क्षण-क्षण में हँसना;
एक पल में रूठना,
एक पल में मान जाना;
उसी पल लड़ाई,
उसी पल गले लग जाना;
कभी छुपाना,
कभी सर्वस्व लुटा जाना;
चेहरे पर मुखौटे लगाकर डराना;
सबके बन जाना,
सबको अपना बनाना;
कितना सच्चा था
वो बचपन बचकाना !
28/08/2016
***
 
कितने बड़े
---------
आज नहीं है पहुँच
हर किसी की उन तक;
आम दिलों से
अब फासले हो गये हैं;
अँगुली पकड़ना छोड़ दिया,
जबसे अपने पैरों पे खड़े हो गये हैं;
पृथ्वी पर नहीं पाँव,
आकाश में खड़े हो गये हैं;
माँ-पिता के छोटे बच्चे
कितने बड़े हो गये हैं !
06/09/2016
***
Copyright © सतीश रावत for all poems.
 
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Bhishma Kukreti

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Garhwali Poem by Devesh

                        ज्यूंदाल   


              भाग-०३
प्र-०३।   *दिनांक १०/०५/२०१७
----------------------------------------
कन रैंदा छा हम कभि डांडयों म बुग्याल म,,
फुंगड़यों म धाण करदा दिन भर शियाँ गुठयार म,,
संजेत खिलाण म छपटो कि थांतु लगाणा,,
जेठ कौथिग म ज्वान माया कु उल्यार म,,

घसेरि डांडयों म टोखणि दैणा रेंदा छाई,,
ग्वेर छवारा मालू छतुल लेकि गोर चरांडा छाई,,
पर आज बिजोग पोड़ि ग्या औलाद तरफ बैठ,,
ऊन हमर धरकटों फर एक छिटगु आँशु नि भुगाई,,

झेड पुड़ी रैद छाई असंक आई रैंद घास बिठुग मुङ पर बिठुग नि छोड़,,
कीशा म एक लालपाई न पर अपुड़ा ब्वै बाबु नि छोड़,,
आज कुन्ना भुरयां छन पर पित्रों कु मिसरा नि निकुल्द,,
पर दान दिया धर्म लाटो कभि कैकु मुंड म नि पोड,,

कभि ख्वाल म थड्या चोंफलो मु मेल छा,,
लोग बाल सभि गरीब गुरबा पर प्यार कु ब्यापार छा,,
सुनपट त अब ह्वै अपुडों कु पछैणी हुई च,,
छैन सारि सगोड़ों कु साग भुज्जी कु निखणि हुई च,,

कभि ह्युन्द का दिनों म छ्ज्जा म घाम तपदा छाई,,
ऐक आँखिल सर्या कुटुंमदरी का दुनिया दयखदा छाई,,
खट्टू लिम्बुव् म कंकरया लूण रालिक खांदा छाई,,
अब लिम्बुव् त मिठा छन पर अपुडों का जिकुड़ी म खटास ह्वै ग्याई,,

कभि धाण म चूना जौ कु रूटी म प्याज थिंची खांदा छाई,,
जु कभि ओ होलु मैमान त तभि चोंलों कु भात खाई,,
प्याज कु आलण झुंगरा  कु भात म दिन कटिंग,,
भुकि तिसि जनि रेंदा पर मेल मिलाप भलु छाई,,
----------------------------------------
कुटम दरी का तितर बितर...

देवेश


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प्रीतम अपछ्याण के गढ़वाली दोहे
Garhwali Couplets by Preetam Apachhyan

==============
३३२
लुकचुप थौळ समौंण दिईं, तरपर जलेबी गास
चर्खि घुम्दि दां सौं खयां, तोड़ि ना वीं की आस
(मेले में सबकी नजरें बचाकर चुपके से निशानी दी थी, तरपर टपकती जलेबियां खाई थी. चर्खी में साथ घूमते हुए कसमें खाई थी. भुला ये सब भूल कर 'उसकी' आशाएं मत तोड़ देना
=============================
३३३
ज्वत्यां बळ्दुं तैं पींडु ल्है, हळ्या कु रोटि गुसैंण
र् वट्टि खै जावा धै धवड़ी, खेति का द्यब्ता दैण
(जुते बैलों के लिए पींडा (चाटा ?) और हलिया के लिए गृहस्वामिनी रोटी ले आई है. कृषि के रखवाले देवता! तुम फलदायी होना. देखिए पूरी 'सार' में धाद लग रही है-रोटी खाने आ जाओ हो!!!)
====================
३३४
ओहो जमाना धन्य त्वे, सबी मुबाइलबाज
डाखानों मा स्वी न सै, मिसकालों कु रिवाज
(हाय रे जमाना! तुझे धन्य है. तेरे वक्त में सभी मोबाइलबाज हो गए हैं. डाकखानों में सब कुछ ठप्प है, न चिट्ठी, न पोस्टकार्ड, न तार. अब तो मिसकाल करने का नया रिवाज चल पड़ा है.)
-
=====================
३३५
लै टीपी छंछ्यादि रौं, गिंवड़ि सार मी ब्याळि
यकुलांसी मौ अफी अफी, न क्वी जिठो ना स्याळि
(कल मैं गेहूं की सार में कटाई, टिपान व गुच्छियां बनाता रहा. क्या करें, अकेले परिवार में सब खुद ही करना पड़ता है. न कोई जिठो है न साली, किसे कहें कि गेहूं काटने आ जाना!)
 
=============
३३६
त्वा! बर्खा कन डळै गई, कटीं दैयूं तिरपाल
द्वी बलड़ी ज्वा खेतुं मा, तौंकु त रखदी ख्याल
(अरे बारिश! कटी दैयूं (खलिहान में एकत्र फसल) में तुमने तिरपाल डलवा दिए. दो चार बालें, जो खेतों में रही थी, कम से कम उनका तो खयाल रखती. ऐसे मुख्य समय में अब किसान क्या करेगा?)
==========
३३७
फ्योंळि सि क्वांसो तन म्वलैम, चार दिनूं का बान
रितू नि राली उमर उनी, धरती मा भगवान
(फ्योंली के फूलों सा मुलायम शरीर केवल चार दिन के लिए रहता है. जिस तरह ऋतुएं सदा नहीं रहती, उसी तरह उम्र (यौवन) भी हमेशा नहीं रहता, चार दिन ही रहता है. इस धरती पर यही ईश्वर की लीला है)
==============
३३८
खेति बंजीं गौं खणखणा, सूंगर बांदर मूस
उत्तराखंड मा साब बोन्ना, चला खयोंला घूस
(खेती बंजर होती जा रही है, गांव खाली बटुवे जैसे हो गए हैं. सुअरों, बंदरों व चूहों की गश्त चल रही है. इस पर भी उत्तराखंड में बड़े बड़े साहब लोग कह रहे हैं - चलो जरा 'घूस रिश्वत' खा आते हैं.)

================
३३९
खड़ी कटीं दैं जखातख, ऐंसू पड़द अकाळ
औडुळ बर्खा गैरबगत, ल्हैगी न्यूती काळ
(खड़ी फसल व कटी दैं (खलिहान की बालियां) जहां की तहां रह गई है. लगता है इस बार अकाल पड़ता है. गैरवक्त की बारिश व तूफान हैं, ये किसान के काल को बुला रहे हैं)

=========
३४०
देखे रूढ़ि का रूप कै, इतरी उमर कटेगी
ऐंसु कु करड़ो घाम पर, जीवन ब्यूंत सुखैगि
(गर्मी के कई रूप देखते हुए इतनी उम्र बिता दी है. इस वर्ष का कड़ा घाम तो जीवन के आधार को ही सुखा दे रहा है)

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डा प्रीतम अपछ्याण  की गढ़वाली कविताएं

Garhwali Poems by Preetam Apachhyan
....
३४
.....
रूढ़ि भर नि खाई दिदा भूखो छौं
ये चतुर चौमास दिदा सूखो छौं.
पाळानऽ फुकेंद कती तृण पात
बर्खे सौंण भादो दिदा रूखो छौं.
लमढणु रै जड्डो सैरा ह्यूंद भर
हळंकार गात दिदा दूखो छौं.
असोज की जून झणा हीटिन
मी जुन्याळै डर उड्यारू लूको छौं.
भौंरा घरूं ऐनि रितु बसंत बौड़ी
भ्वां झड़्युं सी फूल दिदा झूको छौं.
दैं सि फेरो फिर वुइ भम्माण रूढ़ी
बारामासी उमर यनी कूको छौं.
चरबरो न चलमलो घळघळो गफ्फा
रोज हि ता कोदबाड़ी सी घूळो छौं.
प्री.अ.

.....============
३५
.....
पैंछा आँखर लौटाणू छौं
जलमभूमि त्वे थैं गाणू छौं.
तिनै सिखै छै गढ़वाळि भाषा
शब्द गंछ्यै की दे जाणू छौं.
त्यरै रूप से मी पछ्यणेंदो
तेरो हि छैल मि लौंफ्याणू छौं.
अपणि भाषा ही मान बढ़ांदी
येऽ रैबार मि पैटाणू छौं.
कबि सुख कबि दुख आंदा जांदा
भाषा न भूला धै लाणू छौं.
शब्द मोर्यां फिर ज्यूंदा नि हूंदा
थात नि छोड़ा समझाणू छौं.
मयेड़ी सेवा फर्ज जलम कू
जती ह्वे साकी कै जाणू छौं.
प्री.अ.
३६
.....
कै जनम तक अमर रालो यो हमारो प्यार हो
इस्कुल्या दिनूं कु गैल्या हुयूं चा करार हो.
पढ़ै छुट्गे ल्यखै छुट्गे याद बस आँखी त्यरी
सरद्यळाऽ मी भूलि ना जै रैइ मददगार हो.
प्रार्थना मा पीर्यडों मा रीटि जांदो मनमोण्यां
त्वे देखी की छपछपी सच बर्छि सी ऐत्वार हो.
हिंदी त्वी अंग्रेजी त्वी भूगोल त्वी इतिहास त्वी
फिल्मि गीतुन् कौपि भोरीं गणित चा टटगार हो.
त्वे देखणू जळकामुण्डी डैरन् झसक्यूं बि छौं
लुकिछिपी भी नजर त्वे फर वार रौं चा पार हो.
बिसरि की भी कै मुंग तू जिकर ना करि मेरु हां
ब्वे बुबा त जन बि छन मास्टर छ जळ्तामार हो.
छुंयाळों की परवा कैरी भौं कखी मयळू न ह्वे
खार्युं छन रे बैरि लगु ना कैकु क्वी असगार हो.
माया की धूनी जगाईं त्येरि जोगण बणि गयूं
बदनामी ना होंण दे रै लाटि मी लाचार हो.
ज्यूंदु रौं चा मरि जऊं जब ऐड़ि खेईयालि रे
बाळि माया जामिगे अब सच करी संसार हो.
प्री.अ.
.===================...
३७
.....
सुदि रयूं मि रूणु सुवा पैलि किलै नि बोलि तिन
माया कूटी कूटि भोरीं पैलि किलै नि बोलि तिन.
ब्यो का बाद उमर भर मि समझणु रौं त्वे झुट्यारो
रुआं सि आग रै जगणू पैलि किलै नि बोलि तिन.
माया की निवाति झौळ पाणि ढोळदि रौंउ मी
मेरा हि नौं तु रै फुकेणू पैलि किलै नि बोलि तिन.
नौना धरे त्वे से दूर अफु बि ट्यारि ट्यारि रौं
क्यो यखुली रै मठेणू पैलि किलै नि बोलि तिन.
रोक न अब बगण दे ईं आँखि मी ही अणबुधी
दिन बौड़ी नि आंदा चुची पैलि किलै नि बोलि तिन.
ज्वानि का दिन अड़ादड़ि मा खते गैनि प्यारा वो
गौळा तक छ दुख भोरेणू पैलि किलै नि बोलि तिन.
खटि कमाईं तेरि मेरी नौना त खै ल्याला फुक
हम खुणे हि रै खिटेणू पैलि किलै नि बोलि तिन.
गर्ब हूंदो काळ हेजी तुम बि मी बी जाणिग्यों
एक हैंकै ज्यान छां हम पैलि किलै नि बोलि तिन.
प्री.अ.
.....=====
३८
.....
मर्खु बण्यां छन बाबा जी
गुस्सा बिजां छन पापा जी.
कंधाघोड़ि छा ब्याळि तलक
आज लत्यौणा पापा जी.
हैंस्दा खेलदा कथा सुणांदा
डांग बण्यां छन पापा जी.
माँ कु अड़ांदा मीकु पढ़ांदा
थप्पड़ मरणा पापा जी.
फोन बि नी च आयां नि आज
चुप्प हुयां छन पापा जी.
चिज्जि ल्हावो ना रसगुल्ला
खेल खिलौणा पापा जी.
चट भला कर द्या भगवान जी
इन त नि छां मेरा पापा जी.
प्री.अ.
==============
३९
.....
करकरा ही बोल चा सै ल्हे कनै भी
प्यार को ही रूप चा रे दुश्मनै भी.
खाब खोली गिचु कताड़ी चौतरफि सब
घळ्ळ घुळणू वन टु हेरा ता जनै भी.
ईं दुन्यां मा सीधू बळ्द तु ह्वे किलै
इनै मड़कै पूँछ स्यटुगी चा उनै भी.
जनानी कू गबदायूं सी चुप्प छै क्यूं
खोलि दे मन की सुणै दे मी सणै भी.
ज्यू झुराणूऽ मन अघोरी पापि यो
नी कनू सच कू भरोंसू सच छनै भी.
ईं दुन्यां का द्वी झणों मा कब तैं रालो
खिर्तो, छोड़ी गौळापाणी हो कनै भी.
भैऽर भितनै हूंद भैजीऽ महाभारत
प्यारन् ही ह्वे सकलि रे या लड़ै भी.
प्री.अ.
====================
४०
.....
ये कळजुग मा चा पाणी का माना बदलिगे
नौना जनातन ज्वांद जरा सब दाना बदलिगे.
मी ही रौं अर मेरा ही ह्वों बस इथगै जनहित
भक्क अभक सब खाणा पेणा बाना बदलिगे.
मयळु नि रै मन जाळसाजि मा दया दिखलौटी
सासु ब्वारे अर सैणि मैंसों की हाँ ना बदलिगे.
ओबरों अन्न मज्यूळों धन बणीगे सुपिन्यां
थौला दुकानी कोठारों का खाना बदलिगे.
पुंड़ा छ्वट्टा पर वाड़ा सगत्त रे प्रेम पछ्याणा
जुत्तौ सैज बि अर बाटों का कांडा बदलिगे.
गुर्जि उडौणा अपणि पढ़ाईं ज्वांद कलोड़्यों
गर्भ गळौणा डॉक्टर ह्वेकी ब्वाना बदलिगे.
जोर जांठा कू न्यो निसाब की सोच म्वयीगे
दुंद मशीनूं खटपट खटपट चान्हा बदलिगे.
प्री.अ.
=========================
४१
.....
सर्ग रुसायूं गौळि उबाणी
एेंसु त आग लगैगे पाणी.
सूखि नवाळी तुरतुर मंगरी
गाड गदेरौं हरैगे पाणी.
मुंडळि खुसैगे गागर कंटर
आंतुरि, फूक सरैगे पाणी.
गाजि बाछि की खाब सुकैगे
पुंगड़्यों खारु बणैगे पाणी.
हैंडपंप क्या नळका टोंटी
भांडों खौळ करैगे पाणी.
मैलि हि रैगे झगुली ट्वपली
लटुल्यों ल्यौंज पड़ैगे पाणी.
झणि कनुकैकी काज सरेला
योज्नौं साप बुस्यैगे पाणी.
गरीबूं धौड़्या क्वोच बुना तुम
बैरि व्यवस्था हौरि छ काणी.
प्री.अ.

==============
४२
.....
नौळा मंगरा बुसे गैनी रीत कनु क्वे रौलि अब
हैंडपंप हि पूजि ऐगे क्या जि कारू ब्योलि अब?
मोळा थुपड़ौंम् खळे देणा छांछ छोळीं गौं वळा
कफुलु छंछ्या टपकरों मा भांडु लुकयूं खौळि अब.
ये का नौना मिल्गे वजिफा वो तीड़्यूं वे दिन बटे
पीठ पिछनै माँ कि धी की सम्णे जैहिंद बोलि अब.
आयु कब अर गायु कब फौजी दिदौ क्वी पत्ता नी
मारि फस्का सुबदानी बी तितरि बणगे चोळि अब.
मिठै ह्वेगे दारू यख भै ज्यूंणु मोरणू यकनसी
पैणु पातो न्यूतु पछतौ फौरमल्टी घोळि अब.
खुद पराजौ टैम कख रै घसेनि फिल्मी गीतुं मा
टीवी सीर्यल ही बतौणा बार दिन की बोलि अब.
पौल्ट अर पढ्याळ छीजे सेरा तक बंजेगी हो
बीपीएल कू कार्ड बण जौ यांकि कव्वारौळि सब.
हिटण बैठ्गे गौं बि बल विकास का बाटा जथैं
छोड़ा पंडजी महापरसाद जजमानूं कचमोळि अब.
प्री.अ.
======
४३
.....
बथौं सी सरकीगे बचपन ह्यूं सि गौळी ज्वानि रे
देळि दोब्यूं बुढ़ापो अब निमणौंदी की गाणि रे.
हैंसि ल्हे तिन बोलि छौ फेर ज्वानि की रितु औंदि नी
झरझरो मुख नरकायूं रै मिन बोल्यूं नी मानि रे.
इस्कुलै उमरिम् ड्वळेणू हौस्टिलूं की मौज मा
होण खाणौ बगत बुस्गे अब क्या पछतौ मानि रे.
पांजा पर नी लाई पैरी खै नि खै दिन ठ्यल्दु रौं
भोळा खातर आज बेची ब्याळि जन रै छानि रे.
तनौ सुख ना मनौ सुख पै फिर्ड़ा फिर्ड़ी दौड़ाभागी
बिछीं पलंगौं स्ये नि साकू बीज्युं भी कख जाणि रे.
उमर कू दै बितड़ेग्याई रात दिन की ठेक्युं उंद
नौण घ्यू कख हूणि छै जब छांछ ही नी फानि रे.
जो बि दगड़ा आई म्यारा म्येरि चार बणिगे वो
बगत सोधीऽ काम बिगड़े लाभ नी बस हानि रे.
दे नि साकू नौना नतेणौं बाब दादौं थाति ख्वे
भटकुणू रौं मायाजाळम् माया तौ बि नि जाणि रे.
प्री.अ.

============
४४
.....
ले हम बी द्यसपल्ट करीग्यां पितरकुड़ी का ताळा रे
त्वे दगड़ी छन द्वी क्वलणौं की रौ म्वार्यूं का जाळा रे.
वन पंच्यातम् कब्जा ह्वेगे गौचर बेचे सरकारन्
रीती गोठ छ बळ्द न गोर क्याजी करला ग्वाळा रे.
इंग्लिश मीड्यम का बाना पर घळबट छिरगे नाती ब्वे
रगड़घूस मा भ्यूंळु खड़ीक केळाणौं का क्याळा रे.
पढ्याळ करणा द्वी सार्यूं मा गूणी बांदर सुंगर करां
अणमोरायां फौळ निसूड़ बांझ पोड़ीं अणस्याळा रे.
नौळा धारा नळका बुसिगे स्वजल खड्यायूं ही रायो
परधानों का गिच्चा बुजिगे मनरेगा का म्वाळा रे.
वबरा मंज्यूळों चौक डंड्याळों बस दारू की बास फ्वळीं
ईं गंवड़ी मा कन कै रौण गास न गफ्फा गाळा रे.
त्यरै भरोंसा छोड़ि गयां सब मुलुक मैत खुद पराज थैं
त्वी लटक्यूं छै द्वार द्वरों पर तैल्या मैल्या ख्वाळा रे.
प्री.अ.

=================
४५
.....
छौं मि तेरी आस मा
ऐंसु का चौमास मा.
कुयेड़ि लौंकीं चौदिशा
बर्खा दे गै प्यास मा.
बादळू की गिड़कताळी
झसकौंदी यकुलांस मा.
टप्प चूंदी धुरपळी बी
म्येसायां गिलास मा.
झणि किलैकी गड़गड़ी तू
रितु गये मळमास मा.
कबि खळे छौ पाणि त्वेउंद
रैमासी कविलास मा.
तेरि खुद मा रुफड़ांदो मन
म्ये जना ये भ्यास मा.
प्री.अ.

=============
४६
.....
चिठ्यूं मा न खौत माया गिचन् बोलि दे
कंदुड़्यों सेळि पड़ी जालि उंठड़ि खोलि दे.
लाल गल्वाड़ि नाक पसिन्यां कब तक शर्माली
तैं उलर्या पराणै कि शरम छोळि दे.
झळकां देखी करळि नजर भौं उच्याणु छोड़
सळसळा ये मन का पाग मिसरि घोळि दे.
गळा भेंटीक् हात्वी माळा मुख इथैंइ मोड़
माया राळी राळी खौला लिम्बा च्वोलि दे.
तेरि सराईं बिमारीन् झरझुरूऽ बुखार
गदगदा हातूम् ल्हेकि मिट्ठि गोळि दे.
रूड़ि सेळ्वाणी को पाणि ह्यूंद आग चैंदा
रुफड़ायूं सरेल ढंड्युं मा चफोळि दे.
बर्सुं ह्वेग्या माया सैंति हाँ नि सूणि अज्यों तक
दिवड़ो बाळि जादि आज ताळो खोलि दे.
प्री.अ.

======================

४७
.....
ब्याळि जब तू ऐ हि गै छै स्वीणों मा मेरा
छ्वीं लगांदी हुंगरा देंदी रात भर सैरा.
तेरा मन की आँखि बोलिगे गिचन् वंठुड़ी खोलि नी
आस मा रौं चीणी जाली माया का पैरा.
हात पकड़ी रोकि तिन मी द्वार ढकदो निंद मा
गौळा भेंटी अब जि देली भुक्यूं का फेरा.
मेरि पसंदा रंग पैरी गैणा पाता सजि धजी
मुलमुलू मलकीनि तेरी उंठड़्यु का घेरा.
मेरो अडासो ल्हेकि चुप्प बैठिं रैई तू सुवा
समळौण्यां सौंपी सगोर्या सांसोंन् तेरा.
मिन त समझी बैठिं रैली बिनसिरी तक जैलि तू
भच्च भिचोळी निंद तोड़ी घौ दे गै ग्हैरा.
प्री.अ.
======================
४८
.....
कनुक्वे रंचू पैलि जरा मन उमाळ औ त सै
बरछि सी लगिनी दुख, सुख जरा पिड़ौ त सै.
माया की मिठै का गीत मन न मुख मि गौं कनै
मी क्य पता स्वाद पैली वीं मिठै चखौ त सै.
क्वा वा बांद भांडि सी भ्वरीं तलबल मायान्
अणदेखीं अंध्यराम् खड़ी वीं मुखड़ि दिखौ त सै.
नांगा खुटौं हिट्दि रौं मि गारों मा कबि कांडौं मा
मौळण दे घौ बिंवयूं लीसु च्यप लगौ त सै.
घामुं मा फुकेणै रीत बर्खा मा रुझांदो गात
तैलि ह्वेजा चांदणा ह्यों निवातो औ त सै.
हिमालान् पाणि दबै कुयेड़ान् क्वांसो मन
अथको विचार रे तु धर्ति सी रिंगौ त सै.
कथा घालि कतपती त गीत बथा ब्यांदि रै
टुक्कु टंगी रंचणा तैं गेळ उंद रड़ौ त सै.
नर्किं रै सदानि स्याणि भकायीं रै सरद्यळी
आंसु पोंछि भुक्कि प्येकि मन्यूळों मनौ त सै.
प्री.अ.
========================
४९
.....
कबि त मन कि हूण दे हे दाळ रोटी
ह्यूं बुग्याळूं छूण दे हे दाळ रोटी.
फजल उठी रस्वड़ा मा बिनसिरि बटे
खड़बड़ऽ मठ्यूण दे हे दाळ रोटी.
चर्चरो चल्मलो मैणु चिलकिन्यां बस
सळसळो अलूण दे हे दाळ रोटी.
छोळि द्यूं समोदर मि लांघु परबतूं
मणसूबा गंठ्यूण दे हे दाळ रोटी.
झम्का तोड़ी गीत गौं कि फिरकणी चौंफुला
साबळ न सै त स्यूण दे हे दाळ रोटी.
सौ सिंगार लत्ता कपड़ा पैरूं कबी
धुरपळि सी चूण दे हे दाळ रोटी.
सैर बजारै चाट चाखूं खटिमिठि खौं
गोळागरी ल्ह्यूंण दे हे दाळ रोटी.
चान्हा रैगे गौळा बिल्किं गुन्दु सी
द्वी घड़ी त ज्यूण दे हे दाळ रोटी.
गरीबी का टल्लों न् बचाये लाज
अब त छक्वे रूण दे हे दाळ रोटी.
प्री. अ.

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निगुसैंकरा" (Garhwali Poem by Payash Pokhara )
*****

औंस्या रात्यूं मा भि जळ्यूं त छाई ।
पर दूर कखि एक द्यू बळ्यूं त छाई ॥

न वैल बताई, न मिल कुछ चिताई ।
पर वैकु सर्य्या सरैळ कळ्यूं त छाई ॥

गरम-गरम लाल धत्कार भैर बटैकि ।
पर भितनां नौंणि जनु गळ्यूं त छाई ॥

कोच यो ? कैल भि गिच्चु नि ख्वालु ।
पर वो ट्वक्वरा खैकि पळ्यूं त छाई ॥

बिना वीरों की भि जंदरि रिटणी राया ।
पर ग्यूं दगड़ घूण जनु रळ्यूं त छाई ॥

@पयाश पोखड़ा ।

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Garhwali Poem by Devesh 'Admi'
-
                        ज्यूंदाल-4
-

देवेश 'आदमी ' (पैनों पट्टी )
भाग-०४।   दिनांक ११/०५/२०१७
----------------------------------------
छुचावो हम फर भि त प्राण चा
अज्यूँ गौल हमरि भि त तिसाण चा
ब्वारी जन तू छै अपुड़ा नोनों थै ग़फ़्फ़ा दीणी
हाथ म उन्नि हमर भि त रश्याण चा

म्यार बिगरु त्यार लुकई भेलि जलठुम म उन्नि चा
बुबा त्यार भ्यजीं चिट्ठी जन्या तन्नी चा
ठुल्लु भैल त जोल कु कीलु सि बणी रैण छाई
पर छैन खरक कु भि हमर गुठयार आज उन्नि चा

क्या ह्वै अब हलक्वर भि बाटु विरड होल
झणि के गुस्सा म ब्वारी शिरडे गे होल
नात्यों क छुट्टी भि 12,15 साल बैठ नि पोड़ा
कुल देवी भि हम देखी कन चिरडे गे होल

सितगा कमज़ोर नि छाई गींठी तैडू क पल्या छौ तुम
इतग जिडजुड़ा न हो कपुल बाड़ी के सैंत्या छौ हम
क्वाद झुगरु गोर बाखरों का सौकार छा हम
आज जूग लग्यां अन्न दिखण तरसणा हम

साज भितर वीम,च्यूडों कु त्यौहार छाई
सन्जेद देँ म झुगरा भात कु देँ भौज छाई
अकटा रै गिन हमरि जिंदगी का क़्वी भोंटा
हमन त मालू पात म भि निवाण हि खाई

बुबा रै हम त तुमरि मुंड हि मलासि सकदों
तालु नि उबाण दियां अपुडों कु सला दे सकदों
तुम थै ठीस भि न लग्या कभि आस चा
उच्छणि भि न बिलक्या कैकु सारू दे सकदों
----------------------------------------
"ज्यू टि
तिसाण या प्राण कुजाण.!
देवेश

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ठुंगार.…...Garhwali Poetry by Devesh Admi (Paino Patti)

प्र-०५ दिनांक १२/०५/२०१७
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"या त चिंता की बात चा...!!
घटुदु प्यार अर दुलार
 हरचुदु सचु माया कु सोगार
बिसगद दूदा की तुराक
बिलखुद दानों कु बुलाक
"या त चिंता की बात चा...!!
आबत मित्र खुज्याण पुड्द
नोना बाला धक्यांण पुड्द
भलि भुरी बात लुकाण पुड्द
दानों ज्यूं मारिक सुकान पुड्द
"या त चिंता की बात चा...!!
हर समड़ी झजकाण भि ठिक नि
भिड़ीं धराण पराण भि ठिक नि
बरबख्त दलकाणा भि ठिक नि
सुबेर ब्यखुन फरकाण भि ठीक नि
"या त चिंता की बात चा...!!
भादौ म घाम तपुण भि ठिक कख
सोंण म ढबुल्या बणाण भि खूब कख
पूषा म चुल खरयांण भि ह्वै कख
"या त चिंता की बात चा...!!
हरचि स्यारों म खांकरों कु घमणाट
कख अब ख्वाल म फ्टगेणों की छपाग
दिखेद न ब्यौली क पैडयों कु छ्मणाट
नि अब छन्नि म लैदु गोड़ि कु रम्णाट
"या त चिंता की बात चा...!!
----------------------------------------
कु दस्सा त मेरि भि हुई....!!
पर मि छुवीं कैम लगों.....??

@ देवेश आदमी

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Garhwali Poems by Balbir Rana ' Adig'

ज्यून बोली क्वे याद कनु च
मैन सोची मजाक मा ब्वनु च
मैं दुन्याक होर छोर ढूंढणु रो
वा बाळोपन आजतक यख रुणु च ।
===
मातृ भाषा
जै भाषाक माहौल मा
आँखा ख़्वली
जै भाषा मा ब्वैsन
लाड़ प्यार करि
ब्वन सिखण से पैली
जै भाषा तें
अवोध मन बिंगी जांद
जू भाषा ब्वै की दुधे धार दगड़
शरीर मा पोंछद
वे खुणि बोल्दा मातृ भाषा
अर मातृ भाषा
जीवन पर्यंत म्वरदी नी ।
2. नयीं पीड़ी
मेरु क्या दोष च
ब्वैन हिन्दी मा लाड़ करि
बुबान अंग्रेजी मा प्यार
स्कूलम हिंगलिश सीखी
त मेरी मातृ भाषा
क्या ह्वे।
@ बलबीर राणा "अडिग"
-===
******जिन्दगी कु सार******
मथि वालाळ तुु बंधन नि द्याई
जीवन कु एक सार द्याई
ऊसर जिन्दगी मां
झमा-झम बरखा की फुहार द्याई
तब बटिं सिंचणु रे संगसार मेरु
नव तौरण से हरि भरि यु सगोडि उगायी
कोटिस प्रणाम वे सृष्ठी कर्ता कु
जैन यु संगम बणाई
=



Copyright@ Balbir Rana Adig



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बालकृष्ण बहुखंडी की गढ़वाली कविता
-
Garhwali Poem by Balkrishna Bahukhandi
(जन्म -1960 , बड्याण , सैंधार पट्टी , पौड़ी गढ़वाल )
=
=


बज्र मुखी निसुड़ु ले क ,
  बांजि पुंगड़ि चल्दि काइ ।
     भन्ड्य पछा खेतिह्वेग्या ,
          रक्कोडिक छांट काइ  ।।

इखड़्य म्यारा बल्द बंध्यां ,
   मौ मदद कु किलै ब्वन ।
      बल्द गैल़ ह्वे जाला ,
          मदद कैल किलै कन ।।

छांटि छांटि सीं नि धैरि ,
    कनकु पुंगड़ि लाल  ।
       खैरि खांद़ गुजरि उमर ,
          बीता मैना साल   ।।

बांजु सरग  बरखु  नीच ,
    सुद्दि खाई खैरी  ।
       तबित पुंगड़ि बांजि ह्वेनि ,
          क्वी नि धरुदु पैरी  ।।

फलडाल्यों की खेति कारा ,
    र् वापा फलू डाली़ ।
       आज अब्बि शुरू कारा ,
           बिसरिजावा ब्याली़ ।।

बालकृष्ण बहुखण्डी

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Bhishma Kukreti

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Uttarakhand; Hindi Patriotic  Poems from Garhwal, Uttarakhand;Himalaya;

- "एक गीत शहीदों और देशभक्तों के नाम"

-

:सुनील भट्ट

-
              ---------------------------------------------
कश्मीर में  फिर से  शहीद एक  जवान हो गया,
एक "माँ" का बेटा "माँ" के लिए कुर्बान हो गया।
सीना    ताने  लड़ा वो देश  की  शान  हो   गया।
एक "माँ" का बेटा "माँ" के लिए कुर्बान हो गया।।

"माँ" बैठी थी  आस में उसके, वो छुट्टी घर जल्दी आये,
सिर रखकर गोदी में उसका, उस पर ममता खूब लुटाये।
आँखे  मूंदे  वो "माँ"  की  गोदी  में  सो  गया,
एक "माँ" का बेटा माँ के लिए कुर्बान हो गया।

खूब भिड़ा वो माँ की खातिर, अन्तिम सांसो तक लड़ा था,
खूब    मोर्चों   पर   डटा वो,    दुश्मनों के   पीछे पड़ा था।
वो  भी  भगत  और   राजगुरु  समान  हो  गया,
एक "माँ" का बेटा "माँ" के लिए कुर्बान हो गया।

बर्फीले पहाड़ों में  रहकर,  देश  की  जो रक्षा करते हैं,
गर्मी तो कभी ठंड सहन कर,  भूखे  प्यासे भी रहते हैं।
इन  वीरों  को   जन्म दे,  देश  महान  हो  गया,
एक "माँ" का बेटा "माँ" के लिए कुर्बान हो गया।

उन लोगों से था वो दुखी जो, "माँ" के  संग  दगा करते है,
माँ के दूध का कर्ज न समझे, फर्ज से अपने भगा करते हैं
इन  प्रश्नों   संग  हर   कोई   बेजुबान  हो  गया,
एक "माँ" का बेटा "मा" के लिए कुर्बान हो गया।

उसकी वो नापाक हरकते, कितना सहें अब बहुत सह चुके
वो नहीं जाने प्यार की भाषा, प्यार मुहब्बत बहुत कर चुके
उसे ढहा दो  जो  आतंक  की, दुकान हो गया,
एक "माँ" का बेटा "माँ" के लिए कुर्बान हो गया।
     
सीना  ताने   लड़ा वो  देश  की  शान  हो  गया,
एक "माँ" का बेटा "माँ" के लिए कुर्बान हो गया।

            (जय हिंद जय भारत)
  स्वरचित/** सुनील भट्ट**
                                 14/08/2016
Email : sunilbhatt700@gmail.com
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Sunil bhatt  from rishikesh

                   
                                 -2-
एक रचना  आज 23/03/2017 को शहीद दिवस पर।
शहीदों को नमन...और सभी देशवासियों को शुभकामनाएं ।
दोस्तों बहुत दिनों से देखते आ रहें हैं हम कई राष्ट्र विरोधियों को, जो अपने हितों के लिए या कुछ विशेष प्रयोजन हेतु समाज में राष्ट्र विरोधी कृत्य करते आ रहे हैं...चाहे कश्मीर हो दिल्ली ...देश में और भी जगह। मेरी इस रचना में अंग्रेज हैं वो सभी राष्ट्रविरोधी, वो सभी ताकतें, all anti national elements...सभी राष्ट्रविरोधी ..दुर्भावनाये..
            जय हिंद.. जय भारत           
                                    **सुनील भट्ट**
                                    23/03/2017

"गाँधी जी तेरे देश में"

गाँधी  जी  तेरे  देश  में, फिर  आये  अंग्रेज  रे।
ऐ भारत माँ फिर से अपने, भगत राजगुरु भेज रे।।
गाँधी  जी  मेरे  देश  में, फिर आये अंग्रेज  रे।।

देशभक्ति का पाठ पढ़ाकर,
देशभक्ति का जज्बा जगाने।
सुभाषचंद्र  तुम भेज दो  सेना,
इन  फिरंगियों को भगाने ।।
हे बिस्मिल  फिर  गीत  कोई, जोश  दिलाता भेज रे।।
गांँधी  जी  तेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे।
गांँधी जी मेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे।।

खुदीराम खुद को न रोक रे,
मंगल पांडे आ करने मंगल।
टीपू रानी खड्ग उठालो,
भिड़ जाओ सारे तोड़ के संगल।
लाल बहादुर, चाचा नेहरू, आकर कोई वतन सहेज रे।
गांँधी जी तेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे।
गाँंधी जी मेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे।।

हे शहीदों अब चुप न रहो तुम,
लाला जी आओ बदला लेलो।
चन्द्रशेखर  मौका ना चूकना,
उद्यम फिर ऐसी बाजी खेलो।
ये राष्ट्र विरोधी ताकतें, इनसे रखना परहेज़ रे।
गांँधी जी तेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे ।
गांँधी जी मेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे।।

बाबा साहेब  फिर से, 
एक एक्ट बना दो।
राष्ट्रभाव सबमें जगा दो
हिन्दुस्तानी चोला पहने,
इन लुटेरों को सजा दो।
फूलों को मसलते कांँटे हैं ये, और बैठे फूलों की सेज रे
गांँधी जी तेरे देश में, फिर आये अंग्रेज रे
ऐ भारत माँ फिर से,अपने भगत राजगुरु भेज रे
गांँधी जी मेरे  देश में, फिर आये अंग्रेज रे।
गांँधी जी तेरे देश में।।

स्वरचित/**सुनील भट्ट **
23/03/2017

                      -3-

शुभ मध्यान्ह दोस्तों,आज 26/04/2017अपने ही दुश्मन बने तो कोई क्या करे, दोस्तों छत्तीसगढ़, कश्मीर और देश के अन्य हिस्सों में भी शहीद हुये जवानों को श्रद्धांजलि स्वरुप ये लाइनें। कृपया शेयर करें सबको ।

नहीं जी नहीं, ये हो नहीं सकते हैं मेरे देश के।
ये भाड़े के टट्टू हैं, विदेश के।।
नहीं जी नहीं, ये हो नहीं सकते हैं मेरे देश के!

आओ इनका पता लगाएं,
चुन चुन के मारें इन्हे मिटाएं।
कहीं ये आइसिस(isis) के, बुजदिल तो नहीं,
हैवान हैं इनके तो दिल ही नहीं।

ये भीतर घात लगाते हैं,
दुश्मन हैं दुश्मनों को हँसाते हैं।
माँ बहनों को रूलाते हैं,
ये चोर हैं लूट ले जाते हैं ।
गद्दार भी हैं कुछ देश में,
जो इनको पाठ पढ़ाते हैं।
और ये दो कौड़ी के हथियारबंद,
उल्टी गंगा बहाते हैं ।।

ये कैसे फिर स्वदेशी हुए,
ये तो दुश्मन परदेशी हुए।
एकजुट हो इनको खत्म करो,
शहीदों के जरा तो जख्म भरो।
जो बीच में नेतागीरी करे,
उस पर भी ना कोई रहम करो।

ये दीमक हैं, ये दुश्मन हैं
ये देश खोखला करते हैं,
ये जहर दिलों में भरते हैं।
ना भई ना, बिलकुल भी नहीं,
ये हो ही नहीं सकते हैं मेरे देश के,
ये भाड़े के टट्टू हैं, परदेश के।।

स्वरचित/**सुनील भट्ट**
26/04/2017

                               -4-

सुप्रभात जी। 14/11/2016 /जय हिंद ।।

      "एक शहीद का दिल"
   
हर कोई उस दिल को देखकर, आश्चर्यचकित खड़ा था।
कश्मीर घाटी में मिला वो दिल, अब भी धड़क रहा था।।

वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने,  मिलकर  यही  सुझाया।
दिल में कई अरमानों को, धड़कने का कारण बताया।।

अरमानों को देखके  वे,  एक एक कर गुमसुम होए ।
एक सैनिक  के दिल  को देखके, देखने  वाले रोये ।।

एक अरमान था उस दिल में, अबके घर छुट्टी जाऊंगा।
माँ के रखे गिरवी गहनों  को, सबसे  पहले छुड़ाऊंगा ।

एक अरमान था उस दिल में,  पिता के दर्द मिटाऊंगा।
सैन्य  अस्पताल में  भर्ती कर,  पूरा  इलाज कराऊंगा।।

एक अरमान था बहना को, अबके कालेज में भेजूंगा।
जन्मदिवस के अवसर पर, उसे स्कूटी खरीद के दे दूंगा।।

एक अरमान था एक दिन अपना, घर पक्का कर पाऊंगा।
पूरे  करूंगा सपने और  घर में,  खुशियां  लेकर आऊंगा।।

एक अरमान था इस छुट्टी में, हाल ए दिल बयाँ कर दूंगा।
जो भी  होगा वो देख लूंगा, साफ साफ  उसे  कह दूंगा।।

और उन अरमानों के साथ-साथ,
कुछ दुख भी थे तो कुछ सुखद अहसास।
जोश और गुस्सा जज्बात ।।

आखिर उस शहीद को नम आंखों से, नमन किया गया।
उसके सारे अरमानों को पूरे करने का, निर्णय लिया गया।

जय हिंद, जय भारत के नारे गूंजे गाये हर दिल।
धीरे धीरे धक-धक करते शांत हो गया वो दिल।।

और शांत हो गया वो शहीद ....
ऊँ शांति शांति ऊँ, ऊँ शांति ऊँ, ऊँ शाँति ऊँ।।।
                           
          स्वरचित/**सुनील भट्ट**
            14/11/2016

                              -5-

सभी को सपरिवार समस्त पर्वों की शुभकामनायें जी।।
दोस्तो अपनी सेना का मनोबल बढाने का प्रयास करें.
पहले कुछ लाइने यहाँ शहीदों को समर्पित कर रहा हूँ..

                    "ओ शहीद"
  वो शब्द कहाँ से लाऊँ,
  तुम्हे अर्पित जो कर पाऊं ।
  करके नमन तुम्हे ओ शहीद,
  श्रद्धा के फूल चढांऊ ।।

  वो फूल कहाँ से लाऊं,
  तुम्हे अर्पित जो कर पाऊं
  करके नमन तुम्हे ओ शहीद,
  अंखियों से अश्रु बहाऊँ।।

  वो अश्रु कहाँ से लाऊं,
  अंखियों में जो मै बहाऊं।
  करके नमन तुम्हे ओ शहीद,
  बस नतमस्तक हो जाऊं।।

  तेरा त्याग और बलिदान तो पुण्य है, "ओ शहीद"
  उसके आगे मै क्या  कुछ भी नगण्य है, ओ शहीद"।।

                स्वरचित/**सुनील भट्ट***

___________________________________________

           "दिपावली की हार्दिक शुभकामनाये"

त्यौहारों में घर से दूर, इस दिल को मनाता हूँ यारों।
अगले त्यौहार में बच्चों संग, ये सपने सजाता हूँ यारों।।

सीमाओं पर ड्यूटी है, और फर्ज निभाता हूँ यारों।
गुम होकर यादों में कभी, यादों को भुलाता हूँ यारों।।

कई खुशियाँ तेरे पीछे  हैं, खुद को समझाता हूँ यारों।
हर हालात में खुश होकर, इस दिल को बुझाता हूँ यारों।।

वतन पे आँच न आये कोई, अरमान सजाता हूँ यारों।
देश सेवा की कसमों को, मन में दोहराता हूँ यारों।।

कोई भी मुश्किल क्यो न आए, नहीं मै घबराता हूँ यारों।
"देश मेरा महान है" नतमस्तक हो जाता हूँ यारों।।

                     स्वरचित/**सुनील भट्ट**
                           29/10/2016

                               -6-

"बहाना"

"माँ" मुझे गर्व है कि मैं सेना में हूँ।
अपने वतन की खातिर,
सीमाओं पर हूँ ।।

मुझे गर्व रहेगा कि,
अगर देश की खातिर
हो भी जाऊं कुर्बान।
मेरी आत्मा को मिलेगा सम्मान।

मुझे खुशी होगी कि अगर मेरे,
शहीद होने का संदेश तुम तक आयेगा ।
और सुनकर कोई भी आंसू नहीं बहायेगा।।

मैं तो शहीदों में गिना जाऊंगा ना "माँ"
मैं मरूंगा नहीं ।
दुख तो होगा तुम से बिछड़ जाने पर,
लेकिन खुशी की अनुभूति भी होगी,
मेरे देश के काम आने पर।

इसलिए "माँ" तुम अपने शहीद बेटे पर,
गर्व करना।
आँसूं नहीं बहाना।
रोक लेना आँसूं बनाकर कोई बहाना।।

स्वरचित/**सुनील भट्ट **



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