Author Topic: Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये  (Read 29565 times)

Brijendra Negi

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नव वर्ष

हर वर्ष
नव वर्ष आता है।
गत वर्ष के क्रियाकलापों की 
पुनरावृति कराता है।
न गत वर्ष की 
असफलताओं से कुछ सिखाता है।
न भविष्य की
असफलताओं से सचेत करता है।
बस........
वर्ष के अंत में अलविदा
और.......
आरम्भ में सुस्वागतम कराता है।

Brijendra Negi

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:)नव वर्ष मंगलमय हो :)          
   
         इस वर्ष


न धुंध छँटी,  न धूल,  न धुंआ,
            वर्ष पर्यन्त गत वर्ष। 
अनीति, अनाचार, अभिमान का,
              उत्प्रेरक था गत वर्ष। 
न कुमति मिटी, न कुचरित्र, न कदाचार
              वर्ष पर्यन्त गत वर्ष।
कलुषित, कुत्सित, विकारों का 
              सृजक था गत वर्ष।

नव प्रकाश पुंज का प्रसार हो
           वर्ष पर्यन्त इस वर्ष।
नीति, सदाचार, स्वाभिमान का
             उत्कर्ष हो इस वर्ष।
आपदा, आतताई, त्रासदी का
             ह्रास हो इस वर्ष।
शांति, सुख, सहभागित
           पदार्पित हो इस वर्ष।

Brijendra Negi

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शीत लहर

कुहरे की चादर यूँ फैली
सूरज को आगोश लिया,
बर्फ जमाती सर्द हवाओं ने
रवि प्रभा को शीत किया।

दरश को दिनकर के दिनभर
तक-तक कर सब तरस रहे,
कुहरे की परतें छँटने की
पल-पल प्रतीक्षा रत रहे।

कुहरे की चादर तनती हुई
दिन-प्रतिदिन गहराती है,
थर-थर काँपती देह सर्द से
शीत लहर तन भेदती है।

माना गृह आलय सुरक्षित
परंतु कहाँ सब तक हैं,
अब भी बहुतेरे फुटपाथों पर
अलाव तापते जीते  हैं।

उनके क्षीण निष्प्रभ अंगों को
शीत लहर जब छेदती है,
निष्ठुर मृत्यु आकार बढ़ा कर
असमय आगोश ले लेती है।

Brijendra Negi

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पराज

पराज लग्दा छा
हत्थ-खुट्टों पर
जब याद करदु छा क्वी।

आग घघरान्दि छै
चुल्हा की
जब समलणुन्दु छा क्वी।

भटूलि लग्दि छै
बार-बार
जब खुदेन्दु छा क्वी।

न अब पराज लग्दा
न आग घघरान्दि
न भटुली लग्दि क्वी।

मोबाइल भभरान्द
अचाणचक्कि
जब याद कर्द क्वी।

नाम लीन्दा छा
अंदाज कैकि
याद करदों कि तब।

नाम झिलमिलन्दि
याद करदों कि
मोबाइल पर अब।

तब भी बे-तार
तरंग पौंछिदि छै
सैकडों मील दूर।

अब भी बे-तार
तरंग पौंछिदी
सैकडों मील दूर।

तब जिकुड़ि कि
तरंग निकाल कै
पौंछिदि जिकुड़ि तक।

अब मोबाइल से
तरंग निकाल कै
पौंछिदी कन्दुड़ तक।

जिकुड़ि-जिकुड़ि कु
मेल नी चा
मयल्दु नि छीं क्वी अब।

संबंध निभाणा कु
मत्थी-मत्थी
छ्वी-बत्था हून्दि अब।

फोन मिलाकि
अप्णि सुणान्दी
हैंका सुणदी कम।

नजर रैन्द
मोबाइल कु
हून्दु बैलेन्स कम।

Brijendra Negi

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शीत लहर


शीत लहर की तीक्ष्णता
थर थर  कांपे  नर-नारी।
कुहरे की चादर ने ढक दी
दिनकर की ऊष्मा सारी।

सर्द हवायेँ उर पर चलती
काटे तन को जैसे आरी।
रोम-रोम लगा सिहिरने 
पल-पल कटता है भारी।

कुहरे से छनती हुई धूप
दिखने में लगती न्यारी।
पीतवर्णी गुनगुनी तपिस 
लगती है तन को प्यारी।

अलसाई मुरझाई धूप से
तपन लुप्त  हुई  सारी। 
रवि प्रभा  मंद हुई है
नीरद से जारी बर्फबारी।

टप-टप गिरती हुई ओस
जमकर  हुई   तुषारी।
शीत से पीत हुये सब 
वन-उपवन-कुंज-क्यारी।

हिमशिला सी हुई भूमि है
नंगे  पाँव  चलना  भारी।
पूरे तन पर वस्त्र लदें हैं
जले अलाव विविध प्रकारी।

Brijendra Negi

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(दिल्ली में घटित बीभत्स घटना पर) 
   

       
दामिनी

दामिनी की द्युति कभी निश्तेज नहीं होती
रोशनी के लिए किसी की मोहताज नहीं होती
यूँ तो उसके प्रकाश से रात्रि के तम मिटते हैं
परंतु अब दिलों के तिमिर भी मिटने लगे हैं।

हर दिल में दामिनी की ज्योति जलने लगी है
एक दामिनी सहस्त्र दामनियों को जनने लगी है
ज्योति से ज्योति जलकर सहस्त्र होने लगी है
शहर-गाँव-गली में अब दामिनी घूमने लगी है।

दरिंदे जो समाज से भटक पथभ्रष्ट होने लगे हैं
उनकी मृत-आत्मा को नई राह दिखाने निकली है
सुप्त हैं, विमुख हो जो अपने कर्म-कर्तव्यों से
दिन-रात अपनी प्रभा से उन्हें जगाने लगी है।

कब सुधरेंगे दरिंदे, कब लौट सुपथ पर चलेंगे
कब जगेंगे सुप्त जो हैं विमुख अपने कर्तव्यों से
कब तक दामिनी की ज्योति बिखरती रहेगी
बिखरे न ज्योति अब और जगाने निकली है।

जब तक न दामिनी दरिंदों के दिल में दहकेगी
जब तक न सुप्त विमुख कर्म-कर्तव्यों से जगेंगे
तब तक दामिनी की प्रभा यूँ ही बिखरती रहेगी
बस इतनी सी बात सबको समझाने निकली है।

Brijendra Negi

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लघु कवितायें

ईर्ष्या

ईर्ष्या  से पनपती  असुरक्षा
असुरक्षा से बढ़ती है ईर्ष्या
सुरक्षित जीवन मूल मंत्र है
छोड़  एक-दूसरे से  ईर्ष्या।


आशंका

आशंका से पनपता भय है
भय से बढ़ती  है आशंका
भयमुक्त जीना  आवश्यक
त्याग अनावश्यक आशंका।

Brijendra Negi

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उदासी

उदासी से  पनपती परेशानी
परेशानी से  बढ़ती है उदासी
प्रसन्न चित्त रहना आवश्यक
मत पालें  चित्त में  उदासी।



नकारात्मकता

नकारात्मकता देती  विफलता
विफलता बढाती नकारात्मकता
सफल जीवन  का मूल मंत्र है
पनपने  न दें  नकारात्मकता।


विश्वास

विश्वास  से  मिलती  सफलता
सफलता  से   बढता  विश्वास
अविश्वास का स्थान न जब शेष
जीवन में सफलता मिले विशेष।


Brijendra Negi

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विशिष्ट नारी

दिन भर खुट्टा
अल्गा-अल्गा कि
गाली दीन्दि भारि-भारी।

राति डौंर पर
कटकताल प्वड़दी
नचण बैठद य नारि।

धुपणा करवान्द
षाष्टांग करान्द
बड़ा-बुजुरगूँ मा बारि-बारी।

दिन मा गाली
राति आशीर्वाद दीन्द
नकटन्टी च य भारी।

गंगा जल ल्हेकि
मुंड मथि परोखी
कष्ट हर्दि हे बैतरणि तारी।

बिना डौंर-थकुली
सत्यनारैणा कथा मा
खूब मर्दी किलक्वारी।

घास च्वर्दी
फसल लै देन्दि
रस्ता चल्दी-चल्द सारी।

गोर चरान्दी
उज्याड़ खवान्दी
रुलान्दी तख बच्यां कारि-बारी। 

लप्प-झप्प कर्दी
लग्गुला उपड़दि
लगीं न ल्वखूँ कखड़ी-ग्वदिड़ी।


खबर्ची छै
खबर पौंछादीं
चट्ट-चटाक वारि-प्वारी।

स्वसुर-जिठाणु
कुछ नि समझिदी
उतणे-उतणे फिर्दी धारी-धारी।

गोर-बछुरु
कुकुर-बिरोला भि तिन
कच्ये-कच्ये कि मारी।

मवसी त्वड़िदि
उक्सै- उक्सै कि
गाँ कि सासु-ब्वारी।

घात घत्यान्दि
असगार लगान्दि
फिटकार मारि-मारी।

द्वी रूप त्यारा
खूब सज्यां छीं
एक देवी स्वरूप, एक नारी।

द्विया रूपूँ मा
गाँ वलों कि
तिन खूब ऐसी-तैसि मारी। 

धन-धन-धन
कोटि-कोटि षाष्टांग
त्वे खुण हे विशिष्ट नारी।

Brijendra Negi

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पंतगा

एक पतंगा उड़ कर आया
आशियाना जला दिया
लंबी-लंबी लपटों में
सपने सारे जला गया।

एक पतंगा उड़ कर आया
अठखेलियाँ करने लगा
लंबी-लंबी लपटों में
आशियाना ढूँढने लगा।

अपना-अपना राग है
अपना-अपना भाव है
कर्म में अपने रत रहते हैं 
जैसा जिसका स्वभाव है।

आग की लपटों को छूता
भले वह अनजाने में
उसी आग में झुलस मरता
सिर्फ खुशी मनाने में।

दूसरे की बर्बादी में
जो ढूंढते अपना स्वार्थ हैं
उन्हें कहाँ है सुख मिलता
होते पंतगे जैसे परास्त हैं।

 

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