Author Topic: Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये  (Read 29566 times)

Brijendra Negi

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कंटक पथ

कंटक पथ पर, संभल-संभल कर,
संभल-संभल कर, रखता जो पग,
रखता जो पग, पग-पग सुदृढ़,
पग-पग सुदृढ़, चढ़ता शिखर पर,
चढ़ता शिखर पर, विलक्षण है वह,
विलक्षण है वह, अनुकरणीय हर-पग,
अनुकरणीय हर-पग, पग-पग-पग पर,
पग-पग-पग पर, शुसोभित शीर्ष पर।

अकंटक पथ पर, सरपट चलकर,
सरपट चलकर, रखता जो पग,
रखता जो पग, सरल-सरल पग,
सरल-सरल पग, सरकते पथ पर,
सरकते पथ पर पग, पग-पग,
पग, पग-पग पर, दुष्कर हर-पग,
दुष्कर हर-पग, कर विचलित पग-पग,
विचलित पग-पग, अवनति पथ पर।   

Brijendra Negi

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मै निशब्द हूँ             

                (11)

    व्यक्ति की वाणी  में
नित बढ़ती कुटिलता से
           स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

 कुटिलता की वाणी  में
नित उपजती कर्कशता से
             स्तब्ध हूँ
          मै निशब्द हूँ।
 
        (12)
व्यक्ति के अधिकार में
  नित पनपते दर्प से
          स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

 दर्प के आधिकार में
नित उपजते दमन से
          स्तब्ध हूँ
        मै निशब्द हूँ।

         क्रमश......

Brijendra Negi

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त्यारू सार

बांझा पुंगड़ा धै लगाणा
कख छै तू व्वार-प्वार
कांडा जमी हमरी गति
भारी बिनाणा बार-बार।

कभी हैल फज्वडुदु छा
छाति हमरी फड़दु छा
तब भी इत्गा दर्द नि छा
जत्गा आज मर्ज चा।

छाति हमरी फाड़ी कि
फसल-पात उगान्दु छा
मानिख क्य सब्या प्राणि
पुटिगी अप्णि भ्वर्दा छा।

आज कांडा जम्या छीं
छाति हमरि जकड़ीं चा
मानिख क्य कैकि भी
खुट्टी धन्नी मुश्किल चा।

जैल खुट्टी याख धार
कांडा बिलकीं बार-बार
क्वी उर्गा क्वी बिसा
कैल शरील तार-तार।

धै लगान्दु लौटि आजा
फाड़ छाति हमरि बार-बार
अन्न कि छर्का लगौला
आज हम त्यारू सार ।
...

Brijendra Negi

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ओस की बूँद

ओस की बूँद
मोती सी चमकी
हीरे सी दमकी
फिर निश्तेज हो गई
पलभर में कहीं खो गई।

कल नई बूँद
पुनः चमकेगी
पुनः दमकेगी
पुनः निश्तेज होकर
कहीं खो जायेगी।

जिंदगी.......
एक ओस की बूँद 
मोती सी चमकी
हीरे सी दमकी
पलभर में निश्तेज होकर
कहीं खो गई।

कल नया जीवन
पुनः चमकेगा 
पुनः दमकेगा
पलभर में निश्तेज होकर
फिर कहीं खो जायेगा।

ओस की बूँद से
मानव को सीख है
सहजता से नहीं 
कठिन तपस्या से
प्रभा निखरती है। 

गिरती है शून्य से
रात्रि के तिमिर में
शीत में ठिठुरती है
पल भर के लिये   
फिर प्रभा निखरती है।

हे मानव.....
अल्प-पलों में
त्याग तपस्या कर तू भी 
कुछ परार्थ कर
मोती सा चमक तू
हीरा सा दमक तू।
   

Brijendra Negi

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हिंसरि की गूँदी

हिंसरि की गूँदी
एक दिन की ज्वनि
कांडो कु बीच
कब बैठी छै स्याणि।

लाल साड़ी पैरि
हारू दुशला मा
टुप्प बैठीं
कन छै तरसौणी।

उड़दा पंछी
रिंगदा मनिख
कैका हत्थ
नि छै आणी।

चखुला ललचाणा
फड़-फड़ उड़दा
फंखुड़ चिराणा
पर गिच्च नि छै आणी।

मनिख रिंगणा
खुट्टा उच्चकाणा
लालु चुवाणा
पर जम्मा नि छै लिम्हेणी।

हिंसरि की गूँदी
एक दिन की ज्वनि
कांडो कु बीच
कब बैठी छै स्याणि।

Brijendra Negi

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आग लिये फ़िरता है


इस देश में हर कोई सीने में आग लिये फ़िरता है
पेट की तो कोई मंहगाई की आग लिये जीता है
इस देश में हर कोई सीने में आग लिए फिरता है.
 
बेकारी की कोई बेगारी की आग में झुलसता है
व्यभिचार की कोई वासना की आग में जीता है
इस देश में हर कोई सीने में आग लिए फिरता है.

भ्रष्टाचार की कोई अपराध की आग में सोता है
आंदोलन की कोई आक्रोश की आग में तपता है
इस देश में हर कोई सीने में आग लिये फ़िरता है.

आग नहीं मिलती तो बस चूल्हों में नहीं मिलती है
चूल्हे की आग के लिए दर-दर फिरना पड़ता है
इस देश में हर कोई सीने में आग लिये फ़िरता है।

Brijendra Negi

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धार मा कु गैणु


धार मा कु गैणु
तू कन्नु छै
आज भि उन्नि चमकुणु.

बिन्सिरि बग्त मा
अब भि तु
कन्नु छै उन्नि हैसुणु.

आचणचक्कि यख देखि
कखि मेरि मजाक त
नि छै उड़ाणु.

खुद  लगीं  छै
भिन्ड्या साल बटि
त्वे दयखणा कु छा तरसणु.

कभि त्वे देखि
अध्-निन्दल्यां मा
जांदू छा मि हैल लगाणु.

त्यारू बिना
मुश्किल हून्दु छा
बक्त कु हिसाब लगाणु.

आज यख
न हैल-तांगल बच्यूं
न क्वी बक्त द्यखणू.

प्रवास मा मेरि
अकलकन्ठ लगीं
बक्त छौ बस कटणू.

यख कूडू
यकुलू छ्वड्यू
बरखा मा छा बल चूणू.

स्यकुंद कूडू
यकुलु छ्वड़दी
भितर कुछ नि मिलणू.

मेरि अपणि
मजबूरि छै
यख बटी खिस्कुणु.

धार मा कु गैणु
तु कन्नु छै
आज भि उन्नि चमकुणु.

कखि मेरि
मजबूरि पर त
नि छै हैसुणु.
  ...       

 



   

 

Brijendra Negi

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;Dनव वर्ष ;D

नव वर्ष में हर्ष के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष के क्लेष के, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न हर्ष का उत्कर्ष वर्ष, न क्लेष का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में नीति के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष की अनीति की, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न नीति का उत्कर्ष वर्ष, न अनीति का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में सुमति के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष की कुमति की, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न सुमति का उत्कर्ष वर्ष, न कुमति का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में आलोक के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष के अंधकार के, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न आलोक का उत्कर्ष वर्ष, न अंधकार का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में सदाचार के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष के कदाचार के, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न सदाचार का उत्कर्ष वर्ष, न कदाचार का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में स्वाभिमान के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष के अपमान के, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न स्वाभिमान का उत्कर्ष वर्ष, न अपमान का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में त्याग के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष के स्वार्थ के, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न त्याग का उत्कर्ष वर्ष, न स्वार्थ का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

नव वर्ष में सौभाग्य के, उत्कर्ष की अपेक्षा हर वर्ष, 
गत वर्ष के दुर्भाग्य के, अपकर्ष की उपेक्षा हर वर्ष, 
न सौभाग्य का उत्कर्ष वर्ष, न दुर्भाग्य का अपकर्ष वर्ष,
वर्ष-वर्ष कर बीत गया बस, ऐसे ही हर एक वर्ष।

Brijendra Negi

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पंदेरु


भांड़ो की रयाड़
लगी रैन्दी छै
बिन्सिरी बटी कै दिन।

अगल्यारी कु बाना
रंगड़ाट हून्दु छा
सुबेर-ब्यखुनी हर दिन।

कभि गमग्याट कैकि
कभि बूंद-बूंद
भांडा भ्वरदी छै वूँ दिन।

लारा-लत्ता नहेण-धुएण कि
बारि आन्दि  छै
खालि हून्दी वूँ दिन।

गोर -बछरू, पौण पंछी
रस्ता चल्द तिसलों  कि
तीस बुझान्दि छै  वूँ  दिन।

पुजदा छा त्वे थै
भ्यटिदि ब्योलि
पैला -पैला दिन वूँ दिन।

ठसक छै त्व़े पर भी
रोज बणान्दा, पतनलु संवरदा
लोग बार-बार वूँ दिन।

बारमास्य ब्वग्दी छै
कभि ततड़ाट कैकि
कभि तुप्प-तुप्प वूँ दिन।

आज तेरी निर्झर धारा
सिमन्ट, रेत, कंक्रीट कि
हौदी मा चा जकड़ीं।

रफ्तार तेरी
कथित विकास कु
नलखों कु प्याट च सम्यटीं।

क्वी बुज्यडु मन्नु
क्वी नलखा त्वड्नु
मर्जी-मुताबिक तेरी धारा  म्वड़नू ।

पैलि आजाद छै
नैसर्गिक छै
काम आन्दि छै सब्यूकि।

आज बंधी छै
पराधीन छै
काम नि आणी छै कैकि।

Brijendra Negi

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  मै निशब्द हूँ
       
        (१३)
व्यक्ति की अभिलाषा में
नित  बढ़ती   तृष्णा से
                स्तब्ध हूँ
           मै निशब्द हूँ।

तृष्णा की अभिलाषा में
नित बढ़ते   दुष्कर्मों से
                स्तब्ध हूँ
           मै निशब्द हूँ।

              (१४)

व्यक्ति  की   पीड़ा में
नित बढ़ते उपहास से
              स्तब्ध हूँ
         मै निशब्द हूँ।

उपहास की   पीड़ा  में
नित घटते मनोबल से
                स्तब्ध हूँ
           मै निशब्द हूँ।

           क्रमश......

 

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