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उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा बंद होनी चाहिए !

हाँ
53 (69.7%)
नहीं
15 (19.7%)
50-50
4 (5.3%)
मालूम नहीं
4 (5.3%)

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Author Topic: Custom of Sacrificing Animals,In Uttarakhand,(उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा)  (Read 60426 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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उमेश जी,
मैं भी यही कहना चाहता हूं कि या तो हां या नही पशु वध ठीक नही है लेकिन जब तक इस देश में मांस की दुकानें चल रही हैं, लाखों स्लॉटर हाउस चल रहे हैं, बकरा ईद पर लाखों पशुओं की बलि दी जाती है तो फ़िर यह पाबंदी हमारी परंपरा पर ही क्यों?
केवल कोई अंतर्राष्ट्रीय नही तो राष्ट्रीय पुरस्कार और अपनी सामाजिक सेवा की दुकान चलाने के उद्देश्य से लोगों को बहलाना ठीक नही है।  हम गांधी, बुद्ध के देश में रहते हैं पर इस देश में गांधी केवल भाषण देने और फ़ोटो टांकने तक ही सीमित है। 

बहुत  खूब जोशी जी अब तो आखरी रास्ता है किसी भी मंदिर में मांस की दूकान खोलनी पड़ेगी एक तीर से दो शिकार हो जायेंगें,दूकान भी चलेगी और देवी-देवताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहेगा१ और दूकान के बहार फोटो भी टांग देंगें ! गांधी भी जिन्दावाद और गौतमबुध आवाद ,जोशी कोई ऐसी जगह हैं उत्तराखंड में जहां बलि भी और दूकान भी चले !

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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बहुत ही सत्य, शिक्षित और सकारात्मक कहा देवभूमि जी, अश्लियत यही है चाहे हम कितना ही आश्था का डंका पीटें
किसी भी रूडी वाद या किसी आन्दोलन के बारें में पत्रकार भाइयों की बहुत ही बड़ी भूमिका होती है,इस बलि प्रथा को बंद कराने में भी आप लोगों की सबसे बड़ी भूमिका होनी चाहिए !
 दोस्तों किसी भी शहर का पक्ष लेना या देना हर किसिस शहर वाशी को पूरा हक़ है और समर्थन करना भी लेकिन इस बलि प्रथा से किसी भी मांस की दूकान से कोई तालुक नहीं है और न ही किसी को मांसाहारी से शाका हारी बनाने तालुक है !

 कोई मांस कहए या नहीं खाए ये कोई भी नहीं बदल सकता लेकिन जहाँ तक पशुबलि की बात है जो की अभी भी उत्तराखंड के देवी-देवताओं के अम्न्दिरों में दी जात है !
आप लोग ये बताओ कौनसा देवता कहता है की मुझे भैंस की या बकरे की बलि चाहिए कोई भी नहीं कहता होगामहान अगर कघ्ता है तो वो इंसान कहता है जो देवता का पश्वा होता है ये भी तो हो सकता है की देवता या देवी का पश्वा अपनी मर्जी से बोल रहा हो ! क्या नंदा देवी कहती हैं की मुझे इस बार इतनी बकरियों की बलि चाहिए ,आहार ऐसी बात है तो कल कोई भी १०० बक्रिओं कबली चढ़कर किसी देवी या देवता से कह दे की में तुम्ह्ने १०० बकरियों की बलि चढ़ाउंगा मुझे उत्तराखंड  का मुख्यमंत्री बना दे, तो या कोई देवी दवता ये चमत्कार कर सकता है !

या सब ढोंग हैं और हमारा अंधविश्वास भी है पहले ही गरीब होते हुए भी ये देवी-देवता बलि के लिए बकरी कारीदवा कर इंसान को और गरीब बना देता हैं,कंगाली में आटा गीला होने वाली बात है !

पैसे वाले तो कुच्छ भी कर सकते हैं ,इसका मतलब ये हवा की जो बलि चढ़ाएगा देवी-देवता भी उसी की रक्षा करेंगे और गरीब वेचारा वैसे का वैसे ही मारा जाएगा यानी की गरीब के ऊपर अब देवी-देवताओं की शाया उठ जाएगा !




दीपक पनेरू

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बहुत बहुत धन्यवाद गुरूजी आप श्री जाखी जी के बिचारों से सहमत है और इस घोर   अन्धविश्वाश में होने वाले निरीह बेजुबान पशुओं की बलि को रोकना एक उचित   कदम समझते है, मैं शुरू से आज तक यही कहते आया हूँ दिशानिर्देश आप लोग   दीजिये कोशिश हम भी करेंगे देखते है कब तक रूडी हमारा साथ निभाती   है.........

पंकज सिंह महर

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मुझे लगता है कि व्यवहारिकता और आधुनिकीकरण की अंधी चाह में भटकने वाले मेरे साथी मेरी बात का अर्थ ही नहीं समझे। यह ठीक है कि पशुबलि एक रुढि है, लेकिन आस्था भी है, पर्वतीय समाज के ताने-बाने में पशुबलि का अर्थ खाली एक बकरा काट देना मात्र नहीं है, इसके कई मायने हैं। लोग मन्नत मांगते हैं और पूरी होने पर बलि देने का संकल्प लेते हैं, और मन्नत पूरी होने पर ही बलि देते हैं। इसमें उनकी कितनी गहरी आस्था है कि शाकाहारी होने के बावजूद भी लोग बलि दे रहे हैं। यह भी देखा जाना चाहिये....कि इसी बहाने ही सही लोग अपनी पुरातन संस्कृति को तो निभा रहे हैं। महानगरों में दो-चार किताब पढ़कर व्यवहारिक सोच रखने वाले युवा संभवतः इसे रुढि ही कहेंगे। मेरा आशय यह है और मेरी अल्प व्यवहारिक सोच यह है कि चाहे पशुबलि हो या स्लाटर हाउस में बकरे कटें, दोनों में ही समानता है कि एक निरीह जानवर की हत्या हो रही है। लेकिन पशुप्रेमियों को सिर्फ उत्तराखण्ड में हो रही पशुबलि ही दिखाई दे रही है, स्लाटर हाउस में या उत्सवों में हो रही बलियों की नहीं, यहां पर उनका पशु प्रेम कहां चला जाता है?

दूसरी बात यह कहना चाहूंगा, अगर हमारे समाज में कोई रुढि है और उसे बदलना जरुरी है को इसी समाज के लोग तय करेंगे, बड़े-बुजुर्ग-विद्वान-धर्मशास्त्री और प्रबुद्धजन तय करेंगे। नोबल और पद्म पुरस्कारों के लिये मुद्दे खोजने वाले लोग नहीं और यह कौन सा तरीका है कि किसी धार्मिक विश्वास और आस्था को खण्डित करने के लिये कोई संस्था या व्यक्ति हमारे प्रशासन पर दबाव बनाये और हम लोगों से औरंगजेबी तरीके से पेश आये, हमें यह धमकाया जाय कि अगर किसी ने बलि दी तो उसे बन्द करवा देंगे, यह कौन सा तरीका है, कि हम अपने धर्म, आस्था और संस्कृति के नाम पर कुछ कर रहे हैं और कोई छद्म व्यक्ति अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये हमें हमारे ही घर में आकर हमारे ही प्रशासन पर दबाव डाले कि इन उत्तराखण्डियों को समझाओ ...????

पंकज सिंह महर

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मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर कोई रुढि है और उसे बदलना है तो उसके लिये हमारे समाज में पहल हो, सामाजिक मूल्य तय करने वाले ही इसे तय करें। मेनका गांधी जी की कोई एक संस्था है, उसकी प्रदेश सचिव हैं, गौरी मौलेखी जी। उन्होंने कुछ दिन पहले देवीधूरा में बलि देने पर वहां के पुजारी और कुछ ग्रामीणों पर केस दर्ज कराया है और कल भी वे नैनीताल में प्रशासन पर दबाव बना रही थी कि पशुबलि रुकवाओ। यह कैसा लोकतंत्र है, जहां पर सदियों से चली आ रही परम्परा को औरंगजेबी तरीके से लोग रुकवाये।

अगर रुढि है और बदलनी है तो समाज के बीच जाइये, जागरुकता फैलाइये, अगर आपकी बातों में और तर्कों में दम होगा तो लोग उसे स्वीकारेंगे। लेकिन कोई व्यक्ति या संस्था जबरन हमारी आस्था को खण्डित करने की कोशिश करेगा तो कम से कम मुझ जैसे अल्प ज्ञानी को तो मन्जूर नहीं है। आप लोगों को अगर हो तो मुबारक....।

दीपक पनेरू

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सर किसी भी नेक कार्य की शुरुवात अगर अपने ही घर से हो तो उसमें कोई बुराई   नहीं है, यहाँ पर समाज के लोग सबसे पहले यही सवाल करते है कि पहले आप अपने   को देखो तब हम बड़े गर्व से कह सकेगे कि हम पाक साफ है इसलिए ही आपसे कह   रहे है, हम उत्तराखंड में ही सबसे ज्यादा इस तरह कि कृत्यों से वाकिफ है हम   यहाँ के मूल निवासी है, जब से होश संभाला है तब से यहाँ कि संस्कृति को ही   देखा और समझा है तो हम क्यों बाहर के समाज कि बात करे अगर हमने अपने गाँव,   ब्लाक, जिला फिर राज्य को नहीं सुधार सकते हो बाहरी राज्यों में जाकर वहा   कि संस्कृति को परिवर्तित नहीं कर सकते लेकिन हमने अपने समाज को परिवर्तित   कर दिया तो हम जरुर दुसरे राज्य को इसके लिए प्रोत्साहित कर सकते है, हम एक   उदाहरण बन सकते है और अन्य राज्य या लोग हमारी देखा देखि जरुर करेंगे,
 
  रही समाज कि रुढियों को बदलने कि बात तो हम लोग भी समाज का हिस्सा है हमारी   बात को लोग क्यों नहीं मान सकते, जरुरी नहीं है कि कोई भी विद्वान, धर्म   शास्त्री (आशा राम बापू जैसा व्यक्ति) हमारी जैसी सोच रखे, उसके ताजा   संस्करण तो आप भी देख ही चुके होंगे, ऐसे लोगो ने कर दिया हमारा उद्धार,   ढोंगी होते है सब नेता, अभिनेता, संत, धर्मशास्त्री, सबसे ज्यादा मानव   हत्या या पशु हत्या इसी प्रकार के धर्म शास्त्रियों कि वजह से होती है,   लोगो को उनके मनोकामना पूर्ति हेतु किसी कि भी हत्या के लिए उकसाना इन्ही   लोगो का काम होता है,
 
  वाह ! रे वाह ये हमारे समाज का भला करेंगे, अगर लोगो ने तरीके से मान लिया   तो ठीक है नहीं तो बहुत सारे रास्ते है समझाने के लोगो को समझाना तो पड़ेगा   ही आज का मिडिया मुख्य वाहक है इस प्रकार के बिचारों का आदान प्रदान करने   के लिए पर क्या करे कोई किसी कि बात ही नहीं समझता यही हमारे पिछड़ेपन को   दर्शाता है, हम एकजुट नहीं है हमारी सबकी अपनी अपनी राय है, तभी तो अंग्रेज   भी इतने साल गुलामी करा के चल दिए.....अब और लोग इसी ताक़ में है ........

हेम पन्त

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जनता की आस्था का दमन करके प्रशासन इस मसले पर आक्रोश नहीं भड़काना चाहता... कल नैनीताल में भी विरोध के बावजूद 170 बकरों की बलि हुई..

ऐसे कईं उदाहरण हैं जिसमें आपसी सहमति से कई बड़े मन्दिरों में बलिप्रथा बन्द कर दी गई. सबसे जरूरी बात यह है कि ऐसे मसलों में बाहर से आयातित लोगों की जगह स्थानीय बड़े-बुजुर्गों की राय को महत्व देना चाहिये.

Devbhoomi,Uttarakhand

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आदरणीय महर जी बहुत खूब कहा अपने,वाह वाह क्या बात है! महर जी  हमारे उन्हीं संसकिरती  और आस्था में विश्वास रखने  और अंध विश्वासी,बुजुर्गों ,विद्वानों और प्रबुद्जनों की ही एक कहावत है !ये गढ़वाली में सायद आप लोगों को साँझ में आ जाएगी -----------झिं बौ कु बल बडू भरोसू ---स्या बौ बल दिदा-दिदा बोल्दी!!

पर्वतीय अमाज में लोग जो बकरों काटकर और झूठी-मुठी पूजा करके जो मन्नत मागते हैं क्या वो मन्नत कभी पूरी हुई है,सायद हुई हो,मन्नत तो बिना बकरों को काटकर और भूके पित भजन करने से मिलती है और जिसने भी इस तरह से मन्नत मांगीं है वो पूरी हुई हैं,छाए वो ओरंगजेब हो या महात्मागांधी या किताबों को पड़कर बना हवा पशुप्रेमी ! ऐसा कौनसा देवता है जो कहता है कि तुम मुझे बलि का बकरा चढाओ और तुमारी मन्नत पूरी करूंगा क्या कोई जनता है ऐसे देवी-देवता को !

ये जरूर हमारे बुजुर्गों कि आस्था या अन्ध्विस्वास कहो यहाँ तक सही है लेकिन अब सतयुग नहीं कलयुग है ! इस कलयुग मैं किसी बुजुर्ग कि नहीं किसी पशु प्रेमी की नहीं किसी भी नहीं चलने वाली है !यहाँ पर कोई भी किसी को दबाव नहीं दल रहा है की आप पशुबलि बांध करो वो आपकी मर्जी है , आप या आपके बुजुर्ग कहते हैं पशुबलि सदियों तक चलनी चाहिए तो चलने दो किसी को क्या फर्क पड़ेगा और पशुबलि के खिलाब अब के बुजुर्गों मैं सायद वही बुजुर्ग होंगें जो मांस के स्था साथ शराब का सेबन करते हैं और वही बुजुर्ग चाहेंगें की पशुबलि कभी भी बांध नहीं होनी चाहिए,अगर पशुबलि बांध हो जाय तो उनकी मांस और शराब का सेबन भी बांध हो जायेगा फ्री का मिलता है इसलिए !

हम पहाड़ियों के पास कभी जब भी दो पैसा आता है तो हम सबसे पहले अपने पुराने मकान को तुडाकर नया बनाते हैं क्यों वो पुराना मकान भी तो हमारे उन बुजुर्गों का ही जो की हने तोड़ा है तब खान चली जाती हैं बुजुर्गों के प्रति हमारी धार्मिक आस्था और विश्वास !

क्या ये जो पशुबलि के खिलाप आन्दोलन हो रहे हैं ,इनके बुजुर्ग इनको अपनी संसकिरती और आस्था के बारें नहीं बताते या इन आन्दोलन कारियों के कोई बुजुर्ग ही नहीं है या भी किताबी कीड़े हैं जो किताबों को पड़कर पशुबलि खिलाप आन्दोलन का रहें क्या इनमें कोई विद्वान नहींहै ,क्या इन आन्दोलन कारियों में कोई भी ऐसा नहीं हैजिसको  पद्य पुरुष्कार से समानित किया गया है ! नहीं इन आन्दोलन कारियों में वो बुजुर्ग हैं,वो पद्यपुरुश्कारित ब्यक्ति भी हैं ,वो धर्मशास्त्री और प्रबुदजन भी हैं जो की समय के साथ च रहे हैं और आन्दोलन कर रहे हैं !

किसी भी रूडी को हम मार-मारकर नहीं बदल  सकते हैं और न ही ऐसा होना चाहिए सभी स्वतंत्र है !लेकिन अब ये समय कहाँ जो की ९०-८० साल पहले था सटी प्रथा भी तो उन्हीं बुजुर्गों,धर्मशास्त्रियों,प्रबुदजनों की ही दें थी उसको क्यों बांध करवाया गया है,तब कहाँ थे ये धर्मशास्त्री,पद्यपुरुश्कारित लोग !

टिहरी डाम को बंध करवाने का वादा किया था सुन्दरलाल बहुगुणा जी ने,उन्होंने तो अपनी आधी जिंदगी टिहरी डाम को बंध करव्वाने के लिए अनसन करने में ही पूरी की थी तब कहाँ थे ये बुजुर्ग धर्मशास्त्री प्र्बुध्जन पद्यपुरुश्कारित लोग ! उस समय घर की सीड़ियों में बैठकर हुक्का पी रहे थे ये बुजुर्ग ,और आज वही सीड़ियों को छीनकर ले गए हैं उत्तराखंड के डाम अब क्या पश्ताना जब चिड़िया चुग गयी खेत !

जहां तक रही रूडीवादियों को सुधरने की बात,तो जो लोग समाज के बीच में रहने के बाबजूद भी क्या उखाड़ लिया ओ भी आखिर में किसी न किसी के तलवे चाटते दिखाई देते हैं !हमें सबसे पहले अप्निआप को सुधारना होगा ,उसके बाद अपने घर को और मुहल्ले को तभी हम गाँव को सूधार सकते हैं !
जब हम घरों के मुह्ल्ल्लों के मंदिरों में दी जाने वाली मुर्गों की बलि को बंध करवाएंगे तभी गाँव के मंदिरों में चढ़ाए जाने वाली पशुबलि बंध करवा सकते हैं ! हम लोग घर की सफाई तो ठीक से करवा नहीं सकते और सपने देखते हैं गैरसैण को राजधानी बनाने की !

पूरे  उत्तराखंड में जितने जिल्ले हैं उनसे डबल उत्तराखंड में ग्रुप बने हुए हैं  ये ग्रुप वो ग्रुप सो ग्रुप , क्यों  क्या ये ग्रुप  किसी बुजुर्ग या धर्मशास्त्री ने बनवाये है ! या ये भी हमरे पूर्वजों की आस्था और विश्वास है  यही भावना हैं जो हमें कभी भी सुख चैन से जीने देगी ,देवभूमि उत्तराखंड एक परिवार की तरह लगता है लेकिन ये अंध विश्वास क्षेत्रवाद है ये कभी भी एक परिवार की तरह रहने नहीं देगा ! पूरे राज्य के टुकड़े करके रख दिए हैं !

कोई कहता हैं मैं पौड़ी का हूँ,कोई कहता हैं मैं टिहरी का हूँ,तब तक तीसरा कहता हैं मैं कुमाऊं का हूँ  और एक और भी लाइन मैं खड़ा होता है ,मैं तो चमोली का हूँ लेकिन इतने सारे लोगों में किसी की मुहं से ये आवाज नहीं आती हैं की मैं उत्तराखंड का हूँ ! क्या ये भी बुजुर्गों और धर्मशास्त्रियों की दी हुई शिक्षा है या हमारी सदियों से चली आ रही प्रथा !

उदाहरण देने में हमें बहुत ही मजा आता हैं,आज वहां ये हवा आज वहाँ वो हुआ उसने इंतनी बकरी काटी मैंने उतनी काटी बहुत खूब मजा आ गया है पड़कर,दोस्तों अगर हमारी यही भावनाएं और में ये नहीं कहता हूँ की हमें अपनी संसकिरती और समाज के विरुद्ध जाना चाहिए ,संसकिरती ही हमारी पहचान है लेकिन कुछ चीगें ऐसे हैं जिनके क्षेत्र में बदलाव जरूरी हैं समयानुसार तभी उत्तराखंड की प्रगति और विकास हो सकता है !
कोई भी किसी की आस्था को खंडित नहीं कर रहा है ,हमारी ये जो अंध विश्वास वाली जो आस्था उसमें बदलाव की जरूरत है,थोड़ा संशोधन की गरूरत है और ये संशोधन होना ही चाहिए तभी हमारी आस्था और संसकिरती कायम रहा सकती है !


हाँ एक बात का में भी समर्थन करता हूँ कि किसी बहारी ब्यक्ति छाए वो नेता ही क्यों हों या प्रधानमंत्री ही क्यों नहो उसे हमारी संसकिरती के बारे में कहने का या ब्यान बाजी करने का कोई हक़ नहीं हैं चाहे वो सोनिया या मेनिक गाँधी  इन सभी गांधियों को पहले अपने अन्दर झांकर देकना चाहिए और ये दूरों पर ऊँगली उठानी चाहिए !

Jasbeer Singh Bisht

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Maafi chahunga Jakhi ji....I want to contradict some of your points...As u said ki jhoothi moothi pooja karke aur bali deke ye mannat poori nahi hoti hai...but how much I know about bunkhal devi, waha par bakre aur male buffaloas ki bali tabhi di jaati hai jab kisi ki mannat poori hoti hai....
 
Although I am also not in favour of this cruel bali pratha, neither I am taking their side; but somehow we have to believe in all this. 2 years back I had visited bunkhal mela for the second time in my life....I have some of the pictures of that place which I will share at some other point of time..
 
 

Devbhoomi,Uttarakhand

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जसवीर सर मेरा मार्लब ये नहीं कि हर जगह झूठी- मुठी  पूजा होती है ,कहीं-कहीं देखा गया है कि लोग बकरों का मांस खाने के चक्कर मैं ज्यादा रहते हैं पूजा की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता है और सब कुछ उलटा-सीधा करके पूजा का ही महत्व समाप्त ही हो जाता है !

अगर किसी को पूजा करने का ही इतना सौक है तो फिर ढोंग रचाने की क्या आवश्यकता है ,पूजा तन-मन-धन की जाती है न की बकरों और भैंसों को काटकर,और आजकल इस कलयुग मैं पहले के जैसे धर्म शास्त्री पंडित भी तो नहीं मिलते हैं !


 

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