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Voting closed: March 21, 2024, 12:04:57 PM

Author Topic: Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?  (Read 194511 times)

Rajen

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क्या उत्तराखंड की जनता आन्दोलनों में ही उलझी रहेगी? कभी राज्य आन्दोलन, कभी राजधानी के लिए आन्दोलन कभी मूलभूत सुबिधाओं के लिए और कभी........... 
कब सुधरेंगे हमारे राजनेता ??? :-[  ::)  :o

पंकज सिंह महर

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समिति विस के सामने करेगी आत्मशुद्धि यज्ञ


देहरादून। गैरसैंण को राजधानी बनाने के मुद्दे पर उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति सोमवार को विधानसभा के सामने आत्मशुद्धि यज्ञ करेगी। मांग पूरी नहीं होने पर समिति एक जनवरी को विश्वासघाती विरोध दिवस मनाएगी।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता तथा समिति के केंद्रीय अध्यक्ष धीरेंद्र प्रताप ने एक होटल में आयोजित पत्रकार वार्ता में कहा कि दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को आए लंबा समय हो चुका है। इसके बावजूद रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया जा रहा है। जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैंण को राजधानी बनाने की पहल से भाजपा सरकार बच रही है। कांग्रेस में गैरसैंण के पक्ष में राय बन रही है। ऐसे में भाजपा सरकार का मौन अपराधपूर्ण है। राजधानी के मसले को विधायक सदन में उठाए, इसके लिए सोमवार को समिति आत्मशुद्धि यज्ञ करेगी। उन्होंने कहा कि स्थायी राजधानी के मुद्दे पर समिति की मुहिम अब थमने वाली नहीं है। यदि सरकार का रवैया इसी तरह रहा तो एक जनवरी को राज्यव्यापी विश्वासघाती विरोध दिवस मनाया जाएगा। उन्होंने कहा कि स्थायी राजधानी के मसले पर राजनीतिक होने से प्रदेश के गांवों का विकास अवरुद्ध हो गया है। राज्य आंदोलनकारियों ने जिस भावना से आंदोलन किया, उसका सम्मान होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को सर्वदलीय बैठक कर स्थायी राजधानी पर जनभावनाओं के अनुरूप पहल करनी चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया कि अफसरों व नेताओं की मिलीभगत से चलते जन सरोकारों से जुड़े विषय हाशिये पर खिसक गए हैं। इसके लिए मौजूदा भाजपा सरकार भी काफी हद तक जिम्मेदार है। पत्रकार वार्ता में समिति के सचिव जेपी पांडे, बाबा बमराड़ा, जितेंद्र चौहान, मीरा रतूड़ी, दीपा चौहान, प्रेमदत्त आदि मौजूद थे।




पंकज सिंह महर

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राजधानी वो बला है जो कि एक बार अंगद की तरह पैर जमा दे तो उसे फिर मोहम्द तुगलक जैसे पागल बादषाह ही दिल्ली से तुगलकाबाद खिसका सकते हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी ने भी देहरादून में पांव जमा ही दिये हैं और उसे गैरसैंण ले जाने वाला तुगलक अब षायद ही पैदा हो। राजधानियां एक जगह से दूसरी जगह खिसकाना इतना आसान होता तो हिमाचल की राजधानी कब की षिमला से पालमपुर आ जाती और हरियाणा के लोग दूसरा चण्डीगढ़ बसा देते। जिस तरह पाकिस्तान के लिये कष्मीर स्थाई राजनीति का बहाना है उसी तरह गैरसैंण भी उत्तराखण्ड क्रांति दल जैसे कई दलों के लिये राजनीतिक रोजी का जरिया बनने जा रहा है। यह बात दीगर है कि सत्ता में आते ही उक्रांद के नेताओं का गैरसैंण राग ठण्डा पड़ जाता है। वास्तविकता यह है कि राजधानी के लिये एक नया षहर बसाना आसान नहीं है। जो सरकारें बसे बसाये देहरादून का मास्टर प्लान तक नहीं बना पा रही हैं उनसे इतना बड़ा षहर बसाने की उम्मीद रखना ही फिजूल है। इतने बड़े शहर के लिये हजारों करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी और यह बिना केन्द्रीय मदद के सम्भव नहीं है। केन्द्र सरकार अगर मदद देने वाली होती तो उत्तराखण्ड से पहले हरियाणा को अपनी अलग राजधानी मिलती। नित्यानन्द स्वामी के नेतृत्व में उत्तराखण्ड की पहली सरकार द्वारा 11 जनवरी 2001 को गठित वीरेन्द्र दीक्षित आयोग ने स्थाई राजधानी के बारे में अन्ततः अपनी रिपोर्ट दे ही दी। अगर हाइ कोर्ट बीच में हस्तक्षेप नहीं करता तो पता नहीं कब तक यह आयोग चलता रहता और सूबे में बनने वाली सरकारें अपने सिर की बला आयोग पर डालती रहती। फिर भी आयोग का कार्यकाल राज्य सरकार को 11 बार बढ़ाना पड़ा। हालांकि रिपोर्ट अभी गोपनीय है,क्योंकि इसे विधानसभा में रखा जाना है।यह भी अनिष्चित है कि रिपोर्ट का जिन्न कभी सरकार की आलमारी से बाहर आयेगा भी या नहीं। लेकिन सत्ता के गलियारों से जो सूचनाऐं छन कर आ रही हैं उनके अनुसार दीक्षित आयोग ने भी किसी एक स्थान के बारे में सिफारिष करने के बजाय चारों स्थानों के गुण दोष बता कर निर्णय फिर सरकार पर छोड़ दिया। दरअसल उत्तराखण्ड की जनता के साथ 9 नवम्बर 200 को उस समय ही छलावा हो गया था जब तत्कालीन सरकार ने दो अन्य नये राज्यों के साथ उत्तरांचल राज्य के गठन की घोषणा की थी। उस समय की सरकार ने छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की राजधानियों की तो घोषणा कर दी मगर उत्तराखण्डियों को बिना राजधानी का राज्य थमा दिया। अगर उस समय की केन्द्र सरकार जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैण को भावी राजधानी भी घोषित कर देती तो कम से कम गैरसैण पर सैद्धान्तिक सहमति मिल जाती और इस नये राज्य की भावी सरकारों को केन्द्र से राजधानी के लिये धन मांगने का यह आधार मिल जाता कि गैरसैंण या कहीं और भी राजधानी बनाने का वायदा आखिर केन्द्र ने ही किया था। लेकिन उस समय की बाजपेयी सरकार जनता के साथ राजनीति खेल गयी और उसने उत्तराखण्डियों के गले में सदा के लिये यह मामला लटका दिया। बाजपेयी सरकार ने हरिद्वार को उत्तराखण्ड में मिला कर दूसरा छल किया और इसका नाम उत्तरांचल रख कर पहाड़ के लोगों पर तीसरी चपत मारी। यह सही है कि आज की तारीख में देहरादून से अंगद का यह पांव खिसकाना लगभग नामुमकिन हो गया है। कांग्रेस या फिर भाजपा की सरकारें चाहे जो बहाना बनायें मगर हकीकत यह है कि देहरादून में ही राजधानी रम गयी है और उसकी सारी अवसंरचना यहीं जुटाई जा रही है। नयी विधानसभा और सचिवालय विस्तार के लिये राजपुर रोड पर जमीन का अधिग्रहण तक हो चुका था मगर मामला अदालत में चला गया। इसी दौरान देहरादून में विधायक होस्टल बन गया। सचिवालय का नया भवन भी चालू हो गया।सर्किट हाउस परिसर में ही नया राजभवन बन कर पूर्ण होने वाला है। मुख्यमंत्री खण्डूड़ी ने पहले तो सर्किट हाउस परिसर में पुराने मुख्यमंत्री आवास पर जाने के बजाय वहीं तोड़ फोड़ करा कर नया ढांचा बनवाया और अब दूसरे आलीषान निवास के लिये 15 करोड़ का ठेका दे दिया। मुख्यमंत्री का निवास राजधानी में ही होता है और जब राज करने वाले ने देहरादून में ही रहना है तो राजधानी कैसे बाहर जा सकती है। दरअसल न तो सरकार के पास जनता को सच्चाई बताने की हिम्मत है और ना ही गैरसैंण समर्थक दल सच्चाई जानने को इच्छुक हैं। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने यह सच्चाई बताने की कोषिष की तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा और अन्ततः वह भी चुप हो गये। उत्तराखण्ड क्रांति दल(उक्रांद) स्वयं को गैरसैंण का अकेला झण्डाबरदार बताता है लेकिन यह सच होता तो जिस दिन खण्डूड़ी ने नये मुख्यमंत्री निवास का षिलान्यास किया था उसी दिन सरकार में बैठे उक्रांद मंत्री दिवाकर भट्ट का इस्तीफा हो जाता। इस्तीफा देना तो रहा दूर अब दिवाकर और उनके समर्थक दूसरे बहानों से मामले पर लीपा पोती कर रहे हैं। यही नहीं एक बार तो दिवाकर ने यहां तक कह दिया था कि अगर गैरसैंण वालों को ही राजधानी की जरूरत होती तो वहां से विधानसभा चुनाव में उक्रंाद की जमानत जब्त नहीं होती और उसके प्रत्याषी को मात्र एक हजार वोट नहीं मिलते। यही नहीं एक बार उक्रांद नेताओं ने यह भी चलाया कि राजधानी गैरसैंण के 50 कि.मी. के दायरे में कहीं भी हो सकती है। जबकि उक्रांद गैरसैंण में राजधानी का प्रतीकात्मक षिलान्यास कर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर से उसका नामकरण भी कर चुका है। वास्तव में गैरसैंण का मामला भावनात्मक अधिक है। लोगों की आम धारणा यह है कि पहाड़ की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिये। इसके पीछे सोच यह है कि मैदानी क्षेत्र की राजधानी में पहाड़ के लोगों की भावनाओं को उपेक्षा होगी और सत्ता पर मैदान के धन्ना सेठांे या फिर माफिया का कब्जा रहेगा। इस सम्बन्ध में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि उत्तराखण्ड आन्दोलन के पीछे आर्थिक और भौगोलिक कारणेंा के अलावा सांस्कृतिक पहचान का भी सवाल था। लोग इसे ठेठ पहाड़ी राज्य बनाना चाहते थे जिसमंे वे अपना अक्स देख सकें। देखा जाय तो वास्तव में उत्तराखण्ड के लोग देहरादून में अपने सपनों के राज्य की तस्बीर नहीं देख पा रहे हैं। दीक्षित आयोग के समक्ष आये प्रतिवेदनों में से आधे से अधिक गैरसैंण के पक्ष में हैं। जोकि यह साबित करता है कि आज भी जन भावना गैरसैंण के ही पक्ष में है। राजधानी आयोग ने गैरसैंण के अलावा देहरादून, रामनगर और आई.डी.पी.एल. ऋषिकेष के विकल्पों पर अध्ययन किया था। इसमें उसने दिल्ली स्कूल आफ प्लानिंग एण्ड आर्किटैक्चर की मदद लेने के अलावा भूगर्व विभाग से भी सलाह ली। इसके अलावा आयोग ने जनता के बीच जाकर जनता से भी राय मांगी। दीक्षित आयोग ने कनैक्टिविटी के लिहाज से स्थलीय स्थिति, भौतिक संरचना, आर्थिक सामाजिक पहलू और पर्यावरणीय आइने में इन चार स्थानों का अध्ययन किया। इनमें अत्यधिक उपयुक्त के लिये 100 में से 60 अंक उपयुक्त के लिये 45 से 59 कम उपयुक्त के लिये 35 से 44 तथा अनुपयुक्त के लिये 35 से कम अंक का मानक तय किया था। आयोग ने राजधानी के लिये 360 से लेकर 500 हैक्टेअर जमीन की जरूरत बताई थी। ऐसा नहीं कि गैरसैंण के साथ केवल भावनाओं का सवाल हो। इसके पीछे वही सेाच है जोकि पृथक राज्य की मांग के पीछे थी। लोग सोचते थे कि जिस तरह पहाड़ से मिट्टी और पानी के साथ जवानी भी बह कर मैदान में आ रही है, उसी तरह संसाधन और तरक्की के साधन भी नीचे आ रहे हैं। इसलिये अगर पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो तो तरक्की के सभी साधन वापस पहाड़ में आ जायेंगे। जो धन बह कर नीचे आ रहा है वह वापस आ जायेगा। हिमाचल उत्तराखण्डियों के लिये एक उदाहरण था। वहां सबका रुख पहाड़ पर बने षिमला की और होता है। अगर वहां साधन नहीं हैं तो वे वहीं जुटाये जा सकते हैं। सड़क नहीं है या रेल नहीं है तो इन सधनों को वहां पंहुंचाया जा सकता है। राजधानी पहाड़ में होने से लोगों का पलायन रुकता। हरिद्वार में जनसंख्या का घनत्व 600 के करीब है जबकि जोषीमठ जैसे सीमान्त ब्लाक में यह 25 से कम है जो कि सामरिक दृष्टि से भी खतरनाक है। बहरहाल दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंप दी है और गेंद पूरी तरह खण्डूड़ी सरकार के पाले में है। अब देखना यह है कि रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डालने के लिये क्या उपाय पैदा होता है। लेकिन इतना तो तय मान लेना चाहिये कि इस मामले में कभी फैसला होने वाला नहीं है। उत्तराखण्ड के नेता अभी मैदान के इतने प्रभाव में हैं आगे पहाड़ से विधायकों की 9 सीटें कम हो रही हैं और पलायन नहीं रुकने से पहाड़ों को अभी और निर्जन होना है और नीचे मैदान के हाथ सत्ता की कुंजी लगनी है। उस हालत में पहाड़ की राजघानी पहाड़ ले जाना असम्भव हो जायेगा। इसलिये सरकार का दायित्व है कि वह केवल सच्चाई बयां करे।

साभार- श्री जय सिंह रावत http://aviewfromhimalaya.wordpress.com

पंकज सिंह महर

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गैरसैंण सूबे की स्थायी राजधानी बने या न बने लेकिन यह उत्तराखंड के लिए एक ऐसा नाम जरूर बन गया है, जिसे पहाड़ के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। आंदोलनों की कोख से जन्मे उत्तराखंड में आंदोलनकारी संगठनों के लिए गैरसैंण एक और बड़ा प्रतीक बन गया है। दरअसल, अब पहाड़ की लड़ाई को गैरसैंण के बहाने ही लड़ा जा रहा है। सवाल चाहे पलायन का हो या पहाड़ के विकास का या फिर पहाड़ के पिछड़ने का हो, इस लड़ाई के केंद्र बिंदु में गैरसैंण स्वयं ही आ जाता है। ऐसे में पहाड़ का हितैषी होने का दंभ भरने वाली कोई भी सरकार गैरसैंण की उपेक्षा नहीं कर पाएगी। गैरसैंण के लिए मानक शिथिलीकरण करके नगर पालिका बनाने के निर्णय की राह में बढ़ रही राज्य सरकार की मंशा के पीछे यही मजबूरी छिपी हो या सद्इच्छा हो। राज्य में कितने ही ऐसे संक्रमणकालीन कस्बे, शहरों का रूप ले चुके हैं। इनके मुकाबले गैरसैंण को प्राथमिकता देने के पीछे यही मजबूरी है। संभव है कि दीक्षित आयोग ने गैरसैंण को ही राजधानी बनाने की सिफारिश की हो, यह बाद की बात होगी। इस समय तो सरकार गैरसैंण में धरातलीय काम कर लेना चाहती है। यह भी संभव है कि आयोग की सिफारिश में देहरादून और गैरसैंण को बराबरी पर रखा गया हो और सरकार देहरादून के पक्ष में हो। ऐसे में गैरसैंण को नगर पालिका समेत कुछ अन्य लाभ देकर पहाड़ समर्थकों को कुछ सांत्वना दी जा सकती है। अब यह तो तय है कि किसी भी सूरत में राज्य सरकार को अब जल्दी ही स्थायी राजधानी पर निर्णय लेना ही होगा। अन्यथा राजधानी के नाम पर बारहवें वित्त आयोग में पड़ा सौ करोड़ रुपया लैप्स हो जाएगा। ऐसे में गैरसैंण पर किसी अहम निर्णय के निहितार्थो को इसी रूप में समझने की कोशिश की जानी चाहिए।

पंकज सिंह महर

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12 Dec 2008, नवभारत टाईम्स
देहरादून : उत्तराखंड की स्थायी राजधानी को लेकर सरकार का असमंजस बरकरार है। राजधानी स्थल चयन के 
लिए गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट मिलने के महीनों बाद भी सरकार राजधानी की घोषणा नहीं कर पा रही है। इसके कारण केंद्र से मिले सौ करोड़ रुपये लैप्स हो जाने की आशंका है। दूसरी तरफ, राजधानी की घोषणा में हो रहे विलंब के कारण कई संगठन आंदोलन तेज कर रहे हैं। उनका कहना है कि 15 दिसंबर से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र के दौरान राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट सदन पटल पर रखी जाए।

राजधानी का रुतबा पाने के लिए मुख्य रूप से कार्यकारी राजधानी देहरादून और पर्वतीय स्थल गैरसैंण के बीच प्रतिस्पर्द्धा है। पर्वतीय क्षेत्र के हितों की रक्षा के लिए लंबे आंदोलन के बाद 9 नवंबर, 2000 को इस राज्य की स्थापना हुई। आंदोलन के दौरान ही गैरसैंण को भावी राजधानी के रूप में देखा जाने लगा था। लेकिन न तो पिछली कांग्रेस सरकार ने इस दिशा में पहल की और न ही मौजूदा बीजेपी सरकार कोई निर्णय ले पा रही है।

राजधानी स्थल चयन के नाम पर आयोग बिठा दिया गया, जो तकनीकी कारणों से लंबे समय तक अपनी रिपोर्ट नहीं दे पाया। पिछली कांग्रेस सरकार आयोग की रिपोर्ट के नाम पर इस मुद्दे से बचती रही, लेकिन अब जब राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट मिले चार महीने से भी अधिक समय बीत गया है, बीजेपी सरकार पशोपेश में है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी ने पिछले दिनों इस मुद्दे पर अधिकारियों और अपने मंत्रियों से भी चर्चा की, लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। कार्यकारी राजधानी देहरादून में व्यापक पैमाने पर हो रहे विकास कार्य को देखते हुए लगता है कि यही स्थायी राजधानी रहेगी। पिछले दिनों देहरादून के साल 2020 तक के मास्टरप्लान की पत्रकारों के सामने घोषणा के समय मुख्यमंत्री खंडूरी ने मास्टरप्लान का संबंध राजधानी से नहीं कहकर अटकलों पर विराम लगा दिया था, लेकिन राजधानी का सवाल अनसुलझा ही रहा।

उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) गैरसेण को राजधानी बनाने को लेकर सबसे अधिक जोर देता रहा है। इस दल ने इसको चुनावी मुद्दा भी बनाया, लेकिन सरकार में शामिल होने के बाद इसके तेवर कुछ ढीले पड़ गए हैं। इसके कारण इसके नेताओं को कार्यकर्ताओं और पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की नाराजगी का सामना भी करना पड़ रहा है और नेता अपनी पैठ खो रहे हैं। इनके अलावा कई महिला संगठन भी गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को लेकर समय-समय पर धरने प्रदर्शन करते रहे हैं। यहां तक कि इन लोगों ने विधानसभा सत्र के दौरान सदन में पर्चे भी फेंके।

इस मुददे को लेकर संयुक्त संघर्ष समिति ने अब अपना आंदोलन तेज किया है। जिला मुख्यालयों पर धरना प्रदर्शन के साथ ही आगामी विधानसभा सत्र के दौरान विधानसभा कूच करने का भी इनका कार्यक्रम है।

राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट में क्या है यह तो अभी रहस्य ही है, लेकिन मिली जानकारी के अनुसार नौकरशाह देहरादून को छोड़कर कहीं और राजधानी बनने देने के पक्ष में नहीं लगते। कई अधिकारियों ने अपने लिए बंगले भी यहीं बनवा लिए हैं। हालांकि, यहां कई सालों से रह रहे लोगों को देहरादून को राजधानी बनाया जाना रास नहीं आ रहा। विकास के नाम पर देहरादून कंक्रीट का जंगल बन गया है। पेड़ों से आच्छादित रहने वाले शहर में धड़ल्ले से कई मंजिला मकान बन गए हैं। भूमाफिया सक्रिय है। वाहनों की बढ़ती संख्या से हवा में प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। मास्टरप्लान के आने के बाद लगता है यहां का विश्वप्रसिद्ध बासमती चावल और लीची की पैदावार पुराने दिनों की बात बन कर रह जाएगी।
 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Govt should do what public wants.

12 Dec 2008, नवभारत टाईम्स
देहरादून : उत्तराखंड की स्थायी राजधानी को लेकर सरकार का असमंजस बरकरार है। राजधानी स्थल चयन के 
लिए गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट मिलने के महीनों बाद भी सरकार राजधानी की घोषणा नहीं कर पा रही है। इसके कारण केंद्र से मिले सौ करोड़ रुपये लैप्स हो जाने की आशंका है। दूसरी तरफ, राजधानी की घोषणा में हो रहे विलंब के कारण कई संगठन आंदोलन तेज कर रहे हैं। उनका कहना है कि 15 दिसंबर से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र के दौरान राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट सदन पटल पर रखी जाए।

राजधानी का रुतबा पाने के लिए मुख्य रूप से कार्यकारी राजधानी देहरादून और पर्वतीय स्थल गैरसैंण के बीच प्रतिस्पर्द्धा है। पर्वतीय क्षेत्र के हितों की रक्षा के लिए लंबे आंदोलन के बाद 9 नवंबर, 2000 को इस राज्य की स्थापना हुई। आंदोलन के दौरान ही गैरसैंण को भावी राजधानी के रूप में देखा जाने लगा था। लेकिन न तो पिछली कांग्रेस सरकार ने इस दिशा में पहल की और न ही मौजूदा बीजेपी सरकार कोई निर्णय ले पा रही है।

राजधानी स्थल चयन के नाम पर आयोग बिठा दिया गया, जो तकनीकी कारणों से लंबे समय तक अपनी रिपोर्ट नहीं दे पाया। पिछली कांग्रेस सरकार आयोग की रिपोर्ट के नाम पर इस मुद्दे से बचती रही, लेकिन अब जब राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट मिले चार महीने से भी अधिक समय बीत गया है, बीजेपी सरकार पशोपेश में है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी ने पिछले दिनों इस मुद्दे पर अधिकारियों और अपने मंत्रियों से भी चर्चा की, लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। कार्यकारी राजधानी देहरादून में व्यापक पैमाने पर हो रहे विकास कार्य को देखते हुए लगता है कि यही स्थायी राजधानी रहेगी। पिछले दिनों देहरादून के साल 2020 तक के मास्टरप्लान की पत्रकारों के सामने घोषणा के समय मुख्यमंत्री खंडूरी ने मास्टरप्लान का संबंध राजधानी से नहीं कहकर अटकलों पर विराम लगा दिया था, लेकिन राजधानी का सवाल अनसुलझा ही रहा।

उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) गैरसेण को राजधानी बनाने को लेकर सबसे अधिक जोर देता रहा है। इस दल ने इसको चुनावी मुद्दा भी बनाया, लेकिन सरकार में शामिल होने के बाद इसके तेवर कुछ ढीले पड़ गए हैं। इसके कारण इसके नेताओं को कार्यकर्ताओं और पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की नाराजगी का सामना भी करना पड़ रहा है और नेता अपनी पैठ खो रहे हैं। इनके अलावा कई महिला संगठन भी गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को लेकर समय-समय पर धरने प्रदर्शन करते रहे हैं। यहां तक कि इन लोगों ने विधानसभा सत्र के दौरान सदन में पर्चे भी फेंके।

इस मुददे को लेकर संयुक्त संघर्ष समिति ने अब अपना आंदोलन तेज किया है। जिला मुख्यालयों पर धरना प्रदर्शन के साथ ही आगामी विधानसभा सत्र के दौरान विधानसभा कूच करने का भी इनका कार्यक्रम है।

राजधानी स्थल चयन आयोग की रिपोर्ट में क्या है यह तो अभी रहस्य ही है, लेकिन मिली जानकारी के अनुसार नौकरशाह देहरादून को छोड़कर कहीं और राजधानी बनने देने के पक्ष में नहीं लगते। कई अधिकारियों ने अपने लिए बंगले भी यहीं बनवा लिए हैं। हालांकि, यहां कई सालों से रह रहे लोगों को देहरादून को राजधानी बनाया जाना रास नहीं आ रहा। विकास के नाम पर देहरादून कंक्रीट का जंगल बन गया है। पेड़ों से आच्छादित रहने वाले शहर में धड़ल्ले से कई मंजिला मकान बन गए हैं। भूमाफिया सक्रिय है। वाहनों की बढ़ती संख्या से हवा में प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। मास्टरप्लान के आने के बाद लगता है यहां का विश्वप्रसिद्ध बासमती चावल और लीची की पैदावार पुराने दिनों की बात बन कर रह जाएगी।
 
 


savitanegi06

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rajdhani gairsain agar shuruati daur me chale jati to jyada achha hota,
kyonki pichle 8 saalo mein dehradoon me rajya sarkaro ne bahut kharcha kiya hai, agar ye kharch gairsain me hota to aaj ke daur me gairsain ko rajdhani banane mein laagat kam aati,
mujhe nahi lagta ki is samay yadi hum rajdhani gairsain laye to is karj ka bojh wahan ka aam aadmi ya sarkar (jo ki ek rajdhani ko sthapit karne me lagega) sah payegi.

पंकज सिंह महर

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rajdhani gairsain agar shuruati daur me chale jati to jyada achha hota,
kyonki pichle 8 saalo mein dehradoon me rajya sarkaro ne bahut kharcha kiya hai, agar ye kharch gairsain me hota to aaj ke daur me gairsain ko rajdhani banane mein laagat kam aati,
mujhe nahi lagta ki is samay yadi hum rajdhani gairsain laye to is karj ka bojh wahan ka aam aadmi ya sarkar (jo ki ek rajdhani ko sthapit karne me lagega) sah payegi.

एकदम सही बात कही है आपने,
सविता जी,आज बहुत दिनों बाद दर्शन दिये आपने....खैर स्वागत है आपका।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Savita ji jis samay Uttaranchal ka gathan hua tha us samay Kendra sarkar ne 1000 crore Rs Rajdhaani banane ke liye kosh diya tha jiski miyaad is financial year ke end main khatam ho jaaegi. Woh paisa laga ke Rajdhani Gairsain main banai jaa sakti hai.

Mahar ji kripya tathyon pai prakaash daaliye.

rajdhani gairsain agar shuruati daur me chale jati to jyada achha hota,
kyonki pichle 8 saalo mein dehradoon me rajya sarkaro ne bahut kharcha kiya hai, agar ye kharch gairsain me hota to aaj ke daur me gairsain ko rajdhani banane mein laagat kam aati,
mujhe nahi lagta ki is samay yadi hum rajdhani gairsain laye to is karj ka bojh wahan ka aam aadmi ya sarkar (jo ki ek rajdhani ko sthapit karne me lagega) sah payegi.

पंकज सिंह महर

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अनुभव दा, अभी १२ वें वित्त आयोग से उत्तराखण्ड को राजधानी निर्माण के लिये १००० करोड़ रुपया मिलने वाला है, जो दिसम्बर, २०१० में लैप्स हो जायेगा।

 

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