Author Topic: Tourism and Hospitality Industry Development & Marketing in Kumaon & Garhwal (  (Read 42835 times)

Bhishma Kukreti

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चंद शासन (1700 -1790 ) में पर्यटन

Tourism in Chand Period (1700-1790)
( चंद शासन में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -43

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )     -  43                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--148 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 148 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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   1700  से 1790  तक कुमाऊं पर ज्ञानचंद /ज्ञान चंद्र (1698 -1708 ई ), जगत चंद (1708 -1720 ) , देवी चंद (1720 -1727 ), अजित चंद (1727 -1729 ), बाली कल्याण चंद (1729  कुछ समय ) , डोटी  कल्याण चंद (1730 -1748 ),दीप  चंद (1748 -1777 ),मोहन चंद पहली बार (1777 -1778 ), प्रद्युम्न चंद   (1779 -1786 ) , मोहन चंद पुनः ( 1786 -1788 ), शिव चंद (1788 ), महेश चंद 1788 -1790 ) शाशकों का शासन रहा।
  1700 से 1790 ई काल कुमाऊं हेतु उथल पुथल व छोटे बड़े युद्ध से अधिक कुमाऊं में राज्याधिकारियों के छल कपट , एक दुसरे को पछाड़ने , राजा को सामने रख  स्वयं राज करने , राज्याधिकारियों द्वारा राजधर्म के स्थान पर स्वार्थ धर्म ,रोहिला आक्रमणों का इतिहास है और अंत में नेपाल द्वारा कुमाऊं हस्तगत का इतिहास ही है।
   1700 से 1790 तक युद्ध पर्यटन , छापामारी पर्यटन , जासूसी पर्यटन , रक्षा पर्यटन  अधिक रहा जो संकेत देते हैं कि पारम्परिक पर्यटन विकास नहीं हुआ।  चंद्र /चंद शासन में कोई ऐसा धार्मिक प्रोडक्ट /मंदिर नहीं निर्मित हुआ जिसने भारतवासियों को आकर्षित किया हो। चंद शासक पुराने मंदिर व्यवस्था हेतु को गूंठ भूमि देते रहे किन्तु इसी दौरान बहुत से प्राचीन मंदिर ध्वस्त हुए , उन मंदिरों से मूर्तियां चोरी हुईं जो स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा।  चंद शासन में कुछ मंदिर निर्मित हुए किन्तु शिल्प कला दृष्टि से कत्यूरी काल से दोयम ही थे।
 बहुत से मंदिर जैसे गोल्यु क्षेत्रपाल देवता मंदिर वास्तव में जन आस्था से निर्मित हुए।
  मानसरोवर यात्रा हेतु यात्री आते रहते थे।  पूर्वी भारत से बद्रीनाथ जाने वाले यात्री कुमाऊं होकर आते थे किन्तु लगता है यात्रा ह्रास ही हुआ।
     कुमाऊं के माल /भाभर में सर्वाधिक उथल पुथल होती रही।  फिर भी भाभर से बन वस्तुओं जैसे बाबड़ , मूँज ,छाल , जड़ , जड़ी बूटी , लकड़ी कत्था , बांस व अन्य लकड़ी, बनैले पशु -पक्षी , जानवरों की खालें व अन्य अंगों का निर्यात होता रहा।
 
          चंद /चंद्र शासन काल

    चंद या चंद्र शासन में पारम्परिक वस्तुओं जैसे जहनिज , ऊन , बनैले वस्तुएं , जड़ी बूटियां , भांड ,खड्ग , कागज , भांग वस्त्र , लाख , गोंद आदि निर्यात होती रहीं।  निर्यात ने कुमाऊं को विशेष छवि प्रदान की।
  चंद /चंद्र शासन में बाह्य ब्राह्मण व राजपूत पूरे कुमाऊं में बेस तो एक नए सामाजिक समीकरण को जन्मदायी रहा।
मंदिरों में पूजा व्यवस्था हेतु गूंठ /जमीन दिया जाता था।
   कुमाऊं शासकों व उनके दीवानों व अन्य अधिकारियों द्वारा मुगल बादशाहों के दरबार में जाने से कुमाऊं में कई नए  सांस्कृतिक बदलाव आये जैसे वस्त्र , वस्त्र सिलाई कला , भोजन ,  नाच गान , नाच गान हेतु कलाकारों का आयात , ढोल- दमाऊ वादन व ढोल वाद्य हेतु , नथ निर्माण कला आयात , व ऐसे कलाकारों, दर्जियों  का आयात भी सत्रहवीं सदी से शुरू हो गया था।
  विद्वानों का आगमन व पलायन भी रहा जिसने कुमाऊं की छवि वृद्धि की। नाथ गुरुओं का भ्रमण होता रहा।
कई कुमाउनी विद्वानों ने कुमाऊं  ( पदम् देव पांडे ) या बनारस  (प्रेम  निधि पंत , विश्वेश्वर पांडे ) में संस्कृत में पोथियाँ रचीं जो विद्वानों द्वारा सराही गयीं। 
 सैनिक प्रशासन में मुगल शैली का आगमन प्रशासन में तकनीक परिवर्तन हुआ।
 रोहिला आक्रमण  कई नई सांस्कृतिक परिवर्तन लाये होंगे।
   गढ़वाल -कुमाऊं में छोटे मोटे  युद्ध ने कुमाऊं से बद्रीनाथ यात्रा मार्ग भी प्रभावित किया ही होगा।  चंद्र शासन में कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला है कि जिससे सिद्ध हो कि किसी  प्रसिद्ध व्यक्ति ने कुमाऊं मार्ग से बद्रीनाथ यात्रा की हो। 

  इतिहासकार बद्री दत्त पांडे अनुसार कुमाऊं में कई महाभारत कालीन पुण्य या प्रसिद्ध स्थान हैं।  किन्तु कत्यूरी या चंद शासकों ने इन प्राचीन स्थानों का प्रचार नहीं किया जिससे पर्यटन विकसित होता।  कत्यूरी निर्मित मंदिर स्थानों की प्रसिद्धि हेतु चंद काल में कोई नायब कार्य नहीं हुआ।

  चंद शासन में कोई ऐसी कला भी विकसित नहीं हुयी जो आज प्रसिद्धि दिला सके।  ऐपण कला सर्वत्र विकसित हुयी .


Copyright @ Bhishma Kukreti  16 /3 //2018


ourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  (कुमाऊं का इतिहास ) -part -10
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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गढ़पतियों  से पंवार वंश स्थापना  (1250 -1500  ) तक गढ़वाल में अस्तित्व -रक्षा पर्यटन

Survival Tourism from 1250 to 1500 in Garhwal
(  गढ़पति काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -44

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )     -  44                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--149 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 149 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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 उत्तराखंड पर क्राचल्ल के उत्तराधिकारी का शासन संभवतया 1250 तक रहा।  उसके बाद गढ़वाल देहरादून -हरिद्वार समेत में  100 से अधिक गढ़पतियों का शासन रहा। कुछ ब्राह्मणों  व राजपूतों ने ब्रिटिश काल या उससे पहले अपनी अपनी जाति श्रेष्ठता हेतु जनश्रुतिया प्रचारित कीं जिनमे कनकपाल नाम के राजा की जनश्रुति प्रसारित की गयीं।  'कनकपाल था  व उसके बंशज थे ' के समर्थन में कोई तत्कालीन ऐतिहासिक तथ्य कभी भी उपलब्ध नहीं था।  देवलगढ़ , चांदपुर गढ़ी विध्वंस आदि के जनश्रुति भी  ब्राह्मणों व राजपूतों ने अपनी जाति श्रेष्टता हेतु जोड़ दी।  जब कि विध्वंस कुमाऊं राजा ने की थी।
      गढ़वाल में बावन गढ़ थे भी पूरी तरह मान्य नहीं है रतूड़ी ने चौसठ गढ़पति या गढ़ों  का नाम दिया किन्तु ये गढ़ सौ से अधिक थे।  पंवार अथवा पाल वंश कब स्थापित हुआ पर भी इतिहासकारों के मध्य कोई स्थिर राय नहीं बन सकी है। किसी जगतिपाल का नाम भी देवप्रयाग शिलालेख में बहुत बाद सन 1455 में अंकित हुआ।
     सैकड़ा के करीब गढ़पतियों के राज का अर्थ है बहुराजकता और अनियमितता।

   इसी काल में मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण भी हुए व भारत में उथल पुथल रही।  ढांगू , उदयपुर अजमेर ,  भाभर , देहरादून व हरिद्वार को मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण या लूट झेलनी पड़ी।
 इसी समय तैमूर लंग का हरिद्वार पर आक्रमण हुआ (1398 )  व उसने  चंडीघाट से गंगा किनारे किनारे उदयपुर -ढांगू में प्रवेश किया जहां बंदर चट्टी में ढांगू गढ़ के सैनिकों राजा व जनता ने ढुंग की बर्षा से उसे रोका और फिर रत्नसेन की सेना ने उसे रोका व उसे भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। 
     इस काल में पर्यटन पर विशेष साहित्य या प्रमाण नहीं मिलते किन्तु तार्किक दृष्टि से पर्यटन निम्न प्रकार से रहा होगा -

                      शरणार्थी स्थल

मैदानी हिस्सों में राजनैतिक अस्थिरता , लूटमार , अशांति , हत्त्याओं, आतंकवादी घटनाओं ,   व मंदिरों के विध्वंस के दौर ने हिन्दुओं के लिए पलायन ही विकल्प बच गया था। छोटे  मोटे जागीर पति अपने सैनिकों , नागरिकों के साथ या नागरिक अकेले या समूह में मध्य हिमालय में शरण ली।  कुछ जागीरदारों (राजाओं ) ने शायद मध्य हिमालय या शिवालिक अपनी दो तीन गाँवों से गढ़ भी स्थापित किया होगा।  इन विस्थापित शरणार्थियों के कारण इनके मूल स्थल तक गढ़वाल , हिमाचल , कर्माचल के समाचार भी अवश्य पहुंचे ही होंगे।  दूर बंगाल,  गुजरात , महाराष्ट्र व दक्षिण स्थानों तक सुरक्षित मध्य हिमालय की छवि तो बनी ही होगी। यही कारण रहा होगा कि गढ़वाल पर्यटन में कमी अवश्य आयी होगी किन्तु धार्मिक पर्यटन समाप्त नहीं हुआ।

                   सर्वाइवल टूरिज्म
 यह काल गढ़वाल में सर्वाइवल टूरिज्म या अस्तित्व - रक्षा पर्यटन काल माना जाएगा।
          गंगा महत्व
 तिमूर के समय गंगा जी का महत्व था और हरिद्वार (मायापुर ) तीर्थ था। हरिद्वार में प्राचीन मंदिरों  का न मिलना द्योतक है कि मंदिर तोड़े गए।  दक्षिण गढ़वाल में अधिकतर मंदिरों में भैंसपालक (गुज्जर) द्वारा मूर्ति खंडन की कथाएं , मुस्लिमों द्वारा मनुष्य के खून से  रामतेल  निकालने वाली लोककथाएं संकेत देती हैं कि हरिद्वार में मंदिर तोड़े जाते रहे हैं जिससे किसी प्राचीन मंदिर का जिक्र इतिहास कार तर्क अनुसार नहीं करते हैं।

      तीर्थाटन

     देवप्रयाग के 1455 में अंकित शिलालेख गवाह हैं कि इस काल में देव प्रयाग ,बद्रीनाथ , गोपेश्वर , जोशीमठ , केदरारनाथ में पर्यटक आते थे।  कुछ गंगोत्री -यमनोत्री भी जाते थे। दंडीस्वामियों के कारण बद्रीकाश्म  -केदाराश्रम में व्यवस्था रही।


    सिद्धों का पर्यटन


ब्रजयानी बौद्ध धर्मी साधकों को सिद्ध कहा जाता था

     हरिद्वार , बिजनौर में बौद्ध धर्मी  मठ मंदिर विध्वंस से सिद्ध संत व संत परिवार भाभर के जंगलों व गाँवों में चले गए और धीरे धीरे पहाड़ों की ओर चले गए।  सिद्धों के चमत्कार प्रयोग से जनता में इनका प्रभाव पड़ा।  सिद्धों ने स्थानीय भाषाओं में अपने संभषण रचे।  कतिपय रख्वाळी सिद्ध संत रचित हैं।


  नाथ संतों का पर्यटन


  नाथ संत भी गाँवों में पर्यटन करते थे। मंत्र -तंत्र चिकित्सा का बोलबाला अधिक रहा हो गया होगा। । 


    संस्कृत भाषा समाप्ति के कगार पर


   गढ़वाल की बहुत सी ब्राह्मण जातियों की जनश्रुतियों में उनका आगमन नवीं सदी से बारहवीं , तीरहवीं सदी का बतलाया गया है। किन्तु इस काल याने क्राचल्ल  काल से 1450  तक कोई संस्कृत ताम्रपत्र , शिलालेख चमोली -रुद्रयाग जनपदों में नहीं मिले हैं।  इससे स्पष्ट होता है कि जन शासकों का जिक्र इन ब्राह्मण की जनश्रुतियों में मिलता है वे लघु जमींदार या गढ़पति थे।  1250 से 1450 सन तक संस्कृत वास्तव में लुप्त होने के कगार में पंहुच गयी होगी।

 संस्कृत लुप्तीकरण से स्पष्ट है कि आयुर्वेद चिकित्सा में रुकावट व नए अनुसंधान समाप्ति के अतिरिक्त शिष्य परम्परा पर कुठाराघात से आयुर्वेद में रुकावट।

   

    नव आगुन्तकों से नई चिकत्सा पद्धति आगमन


    शरणार्थियों के आगमन से समाज में कई तरह के उथल  पुथल तो  हुए ही होंगे किन्तु साथ साथ गढ़वाल को कुछ नई चिकत्सा पद्धति भी मिली होगी। 

     



Copyright @ Bhishma Kukreti   17/3 //2018

ourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  -part -4
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


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पंवार /शाह राज्य  (1500 -1600  ) में उत्तराखंड में  विकासोन्मुखी पर्यटन

Uttarakhand Tourism in Pal/Panwar/ Shah Dynasty
(  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -45

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  45                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--150 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 150 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  पाल या पंवार वंश की स्थापना कब कैसी हुयी पर साक्ष्य न मिलने से इतिहासकारों मध्य मतैक्य है।  अधिकतर चर्चा जनश्रुतियों पर ही होती है।  चांदपुर गढ़ कब निर्मित हुआ पर भी इतिहासकारों मध्य मतैक्य ही है।
    पाल , पंवार या शाह वंश का पहला साक्ष्य देवप्रयाग अभिलेख (1455 ) में मिलता जिसमे जगतीपाल व जगतपाल रजवार का नाम अंकित है और गढ़वाली में है  जिससे इतिहासकार मानते हैं कि जगतपाल देवप्रयाग के निकट का रजवार /शासक था।
       पर्यटन इतिहास दृष्टि से माना जा सकता है कि  अजयपाल से पहले जगतिपाल , जीतपाल , आनंदपाल राजा हुए। गढ़वाल का इतिहास लेखक रतूड़ी ने अजयपाल का शासन  (1500 -1548 ) के बाद सहजपाल ( 1548 -1581 ) बलभद्र शाह (1581 -1591 ई ) माना है।

         कबीरपंथी प्रचारकों का पर्यटन
   अठारहवीं सदी में रचित 'गुरु -महिमा ' ग्रंथ अनुसार कबीर ने गढ़ देस की यात्रा की थी किन्तु अन्य साक्ष्य अनुपलब्ध हैं।  यह हो सकता है कि कबीर जीवन काल में या मृत्यु पश्चात कबीर शिष्य गढ़वाल आये हों और उन्होंने कबीर पंथ का पचार प्रसार किया हो। निरंकार जागरों में कबीर को निरंकार देव का सर्वश्रेष्ठ भक्त माना गया है।
पैलो भगत होलु कबीर तब होलु कमाल
तब को भगत होलु ? तब होलु रैदास चमार।
इससे सूत्र मिलता है कि शिल्पकारों मध्य कबीर पंथियों ने कुछ न कुछ जागरण अवश्य किया था।
     
 नानक का हरिद्वार पर्यटन
सिक्ख प्रथम गुरु नानक अपने शिष्य मर्दाना के साथ हरिद्वार आये थे।  उन्होंने हरिद्वार में अकाट्य संभाषण किये जिनसे लोग प्रभावित भी हुए।  (चतुर्वेदी ,उत्तरी भारत की संत परम्परा ) .

            देव प्रयागी  पंडों की बसाहत
 देवप्रयाग अभिलेख से ज्ञात होता कि रघुनाथ मंदिर में भट्ट पंडों की परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी। याने दक्षिण से आजीविका पलायन पर्यटन चल ही रहा था।
सजवाण जातिका भी राजनीति में महत्व साबित होता है।

   आजीविका पपर्यटन

   इसी तरह अन्य जातियों द्वारा मैदानी भाग छोड़ पहाड़ों में आजीविका या शरणार्थी अस्तित्व पर्यटन चल ही रहा था . मैदान में गढवाली राजनायिक राजनैतिक भ्रमण करते थे तो छवि निर्माण  होती ही थी .

     तीर्थ यात्री
 देवप्रयाग अभिलेख संकेत देता है कि तीर्थ यात्री गढ़वाल पर्यटन करते रहते थे।

        दक्षिण गढ़वाल में मूर्ति भंजन कृत्य

 मैदानी भाग विशेषतः उत्तर भारत में नुस्लीम शासकों द्वारा मूर्ति -मंदिर विरोधी कृत्य आम बात थी।  उथल  पुथल में पहाड़ी उत्तराखंड की यात्रा अवश्य ही बाधित हुयी।  सलाण (हरिद्वार से नयार नदी के दक्षिण  क्षेत्र रामगंगा तक ) में मुसिलम लूटेरों द्वारा मंदिर लूटने की घटनाएं आम थी तो तीर्थ यात्रियों हेतु सुलभ क्षेत्र होने के बाबजूद दक्षिण गढ़वाल में पूजास्थल भंजन से तीर्थ यात्री तीर्थ यात्रा का लाभ नहीं उठा सकते थे।

     इसी काल में व बाद तक कबीर , नानक व अन्य संतों के प्रभाव के कारण भी मूर्ति पूजा बाधित हुईं और उत्तराखंड पर्यटन बाधित हुआ। अनेक मंदिर संस्कृत शिक्षा केंद्र थे वे भी बंद हो गए। 1300 से 1500 ई  तक बद्रीनाथ -केदारनाथ मंदिर पूजा व्यवस्था पर भी कोई प्रकाश नहीं पड़ता है।


         चांदपुरगढ़ निर्माण

    चांदपुर गढ़ का निर्माण 1425 से 1500 मध्य किसी समय हुआ जिसका बिध्वंस चंद नरेश ज्ञान चंद द्वारा 1707 ई में हुआ।  एक ही शिला पर दो 15 x 3 x 3  फ़ीट की सीढ़ियां साबित करती हैं कि वास्तु विज्ञान व परिवहन विकसित तो था किन्तु दक्षिण व पूर्व में उथल पुथल ने इस वास्तु विज्ञान  पर विराम लगा दिया था।

   नाथ संतों द्वारा यात्राएं


 अजयपाल व सत्यनाथ गुरु जनश्रुति प्रमाणित करती हैं कि  नाथपंथी गढ़वाल की यात्राएं करते रहते थे और राजनीति में दखल भी देते थे।


      अजयपाल ने पहले चांदपुर गढ़ राजधानी छोड़ी व देवलगढ़ को राजधानी बनाया व फिर श्रीनगर में राजधानी स्थापित की।  देवलगढ़ में रजरजेश्वरी की स्थापना की जो अब तक एक पवित्र पर्यटक स्थल है। देवलगढ़ में सत्यनाथ मठ निर्माण भी अजयपाल ने ही किया था।

      श्रीनगर में राज प्रासाद


  अजय पाल ने श्रीनगर में महल बनवाया था। जो 1803 के भूकंप में ध्वस्त हो गया था।  चांदपुर गढ़ व श्री नगर महल निर्माण में शिल्पियों व अन्य कर्मियों का आंतरिक व बाह्य पर्यटन अवश्य बढ़ा होगा।


  बद्रीकाश्रम  में दंडी स्वामियों द्वारा पूजा अर्चना


 रतूड़ी ने 1443 से 1776 तक बद्रीनाथ व जोशीमठ में पूजा अर्चना कर्ता 21 दंडी स्वामियों की नामावली दी है।  वर्तमान रावलों के पूर्वज  रावलों ने भी ब्रिटिश शासकों को नामावली दी किंतु वह  केवल अपना स्वामित्व बचाने हेतु नकली नामावली थी।

    दक्षिण भारतीय पुजारियों व उनके सहायकों का आना जाना लगा ही रहा।


   अकबर का हरिद्वार आगमन

  यह निर्वाध सत्य  है कि गढ़वाल राजवंश का देहरादून तक राज्य फ़ैल गया था। अकबर से शाह वंश ने मधुर राजनैतिक संबंध बना लिए थे।  अकबर को गंगा जल शायद हरिद्वार से जाता था।


  अकबर द्वारा गंगा स्रोत्र की खोज


प्रणवानन्द ( Exploration in  Tibet ) अनुसार अकबर ने गंगा स्रोत्र खोजने अन्वेषक दल भेजा था। वः दल मानसरोवर तक पंहुचा था।

    अकबर का ताम्रमुद्रा निर्माणशाला ( टकसाल )


 अकबर की ताम्र मुद्रा निर्माण शाला हरिद्वार में थी और ताम्बा गढ़वाल की खानों से निर्यात होता था। गढ़वाल में मुगल मुद्राओं का प्रचलन भी सामन्य था।


    गढ़ नरेश को 'शाह ' पदवी

बलभद्र से  पहले जनश्रुति व अभिलेखों में गढ़ नरेश का नामान्त पाल था।  किन्तु बलभद्र का नामन्त शाह है।  बलभद्र को शाह पदवी दिलाने व मिलने पर कई जनश्रुतियां है और दो बहगुनाओं , बर्त्वाल अदि को श्रेय दिया जाने की जनश्रुति भी है।

   यह तथ्य प्रमाणित करता है कि गढ़वाल से राजनायक फतेहपुर , दिल्ली आते जाते रहते थे।

  बर्त्वाल जनश्रुति चिकित्सा विशेषग्यता की ओर ही संकेत करता है। याने     मनोचिकत्सा  ( आयुर्वेद में भूत विद्या ) में गढ़वाल को प्रसिद्धि थी।


   गढ़वाल से निर्यात


  मुगल साम्राज्य में अकबर काल से ही ताम्बे , लोहे , लौह -ताम्र वस्तुओं ,खांडे , खुकरियों , स्वर्णचूर्ण , सुहागा , ऊन , चंवर कस्तूरी वन काष्ट  व उनसे निर्मित वस्तुओं , गंगाजल , दास दासियों के अतिरिक्त भाभर के चीतों, हिरणों  का निर्यात होता था। पहाड़ी घोड़े भी निर्यात किये जाते थे।

 

    आयुर्वेद निघंटु रचनाएँ व औषधि पर्यटन


 पांचवीं सदी से आयुर्वेद निघंटु (शब्दकोश ) रचने या संकलित होने शुरू हो गए थे। अष्टांग निघण्टु (8 वीं सदी ) , पर्याय रत्नमाला (नवीन सदी ) , सिद्धसारा निघण्टु (नवीन सदी ) , हरमेखला निघण्टु (10 वीं सदी ) ,चमत्कार निघण्टु व मदनांदि निघण्टु (10 वीं सदी ) ,  द्रव्यांगनिकारा ,द्रव्यांगगुण ,धनवंतरी निघण्टु  , इंदु  निघण्टु ,  निमि निघण्टु ,अरुण दत्त निघण्टु , शब्द चंद्रिका , ( सभी 11 वीं सदी ); वाष्पचनद्र निघण्टु , अनेकार्थ कोष (  दोनों 12 वीं सदी ) ; शोधला निघण्टु , सादृशा निघण्टु ,प्रकाश निघण्टु , हृदय दीपिका निघण्टु  (13 वीं सदी ) ;  मदनपाल निघण्टु ,आयुर्वेद महदादि ,राज निघण्टु , गुण  संग्रह (सभी 14 वीं सदी ), कैव्यदेव निघण्टु , भावप्रकाश निघण्टु , धनंजय निघण्टु  (नेपाल ) ,आयुर्वेद सुखायाम ( सभी 16  वीं सदी के ) आदि  संकलित हुए।

    इस लेखक ने किसी अन्य उद्देश्य से अनुभव किया कि इन निघण्टुओं में मध्य हिमालय -उत्तराखंड के कई ऐसी वनस्पतियों का वर्णन है जो या तो विशेषरूप से यहीं पैदा होती  हैं या मध्य हिमालय में प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं।  जैसे भुर्ज, भोजपत्र  या पशुपात की  औषधि उपयोग कैव्य देव निघण्टु ,भावप्रकाश निघण्टु व राज निघण्टु में उल्लेख हुआ है। भोजपत्र औषधि का वर्णन अष्टांगहृदय (5 वीं सदी ) में उत्तरस्थान अध्याय भी हुआ है।

    यद्यपि  इस क्षेत्र में खोज की अति आवश्यकता है किन्तु एक तथ्य तो स्पष्ट है कि इतने उथल पुथल के मध्य भी गढ़वाल , कुमाऊं , हिमाचल , नेपाल की औषधि वनपस्पति प्राप्ति , इन वनस्पतियों का औषधि निर्माण हेतु कच्चा माल निर्माण विधि या निर्मित औषधि विधियों के ज्ञान व अन्य अन्वेषण का कार्य व मध्य हिमालय व भारत के अन्य प्रदेशों में औषधि ज्ञान का आदान प्रदान हो ही रहा था। उत्तराखंड से औषधीय वनस्पति , औषधि निर्माण हेतु डिहाइड्रेटेड , प्रिजर्वड कच्चा माल , या निर्मित औषधियों का निर्यात किसी न किसी माध्यम से चल रहा था।  उसी तरह आयात भी होता रहा होगा। 


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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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मान शाह शासन  (1591 1611   ) में उत्तराखंड में यूनानी चिकत्सा के संकेत

Tourism from 1600-1700 AD in Garhwal
(  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -46

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  ) -  46                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--151 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 151

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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गढ़वाल देस पर 1600 से 1650 ई तक मानशाह (1591 -1611 ) का शासन रहा।
   इस दौरान कई घटनाएं हुईं व कई पर्यटन संबंधी साहित्य से गढ़वाल पर्यटन की दशा का पता चलता है।
  मानशाह काल में कुमाऊं से कई  भिड़ंत हुयीं ।
 
         भूत विद्या  (मंत्र , तंत्र व मनोविज्ञान मिश्रित ) का प्रचार

  बहुगुणा वंशावली में उल्लेख है कि मानशाह (मनापाल ) भी कुमाऊं नरेश लक्ष्मी चंद्र की तरह मंत्र -तंत्र (भूत विद्या ) पर विश्वास करता था और सभाकवि भरत बहुगुणा के मंत्रोच्चारण से मानशाह ने दक्षिण हिमाचल के उतकल (जुब्बल ), कामेठ (क्यूंठल ) बिशेर व सिरमौर क्षेत्र जीते थे। यद्यपि अन्य स्रोत्रों से कोई पुस्टि नहीं होती है।
    कुमाऊं नरेश लक्ष्मीचंद व बहुगुणा वंशावली वृतांत से स्पस्ट है कि उस समय सेना , शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त तंत्र मंत्र पर विश्वास बढ़ गया था जो द्योतक है कि बाहर से भी तांत्रिक -मन्त्रिक उत्तराखंड में पर्यटन करते थे व आंतरिक तांत्रिक -मांत्रिक गढ़वाल -कुमाऊं में घूमते रहे होंगे।
   एक सदी या लगभ डेढ़ सदी बाद दूध फूल या छाया पूजन में दर्यावली का जुड़ना इस बात का द्योतक है कि संत परम्परा के शिष्य भी गढ़वल भर्मण करते रहते थे।

      गढ़नरेश को बोल्दा बद्रीनाथ की विरदावली       
बहुगुणा वंशावली में मानपाल (मानशाह ) को 'बदरीशावतारेण ' उपाधि दी गयी है (त्रिपथगा, सितम्बर  1956 )। पर्यटन दृष्टि से  गढ़वाली शासक को बोलता बद्रीनाथ या बद्रीनाथ का प्रतिनिधि उपाधि से प्रचारित करना गढ़वाल पर्यटन की एक महत्वपूर्ण घटना है।  मार्केटिंग में कहा जाता है -Brand the Chief Executive for Branding the Brand . गढ़वाल शाशक को जीता जागता बद्रीनाथ की छवि गढ़वाल पर्यटन में एक अभिनव कृत्या मना जाएगा। भरत कवि द्वारा मानेदय काव्य में मानशाह की प्रशंसा भी ब्रैंडिंग द चीफ एक्जिक्यूटिव ऑफिसर का प्रशंसनीय नमूना है।

      जहांगीर नामा में भरत ज्योतिषी
     
 अकबरनामा में टोडरमल के मित्र ज्योतिकराय का नाम तीन बार आया है।  बहुगुणा समाज इसे भरत कवि मानते हैं। पर्यटन विपणन दृष्टि से यदि किसी को किसी भी प्रकार से हानि न हो तो   'अपण बल्दौ पैन सिंग ' करने कोई बड़ा गुनाह नहीं ।
  जहांगीरनामा में ज्योतिकराय के ज्योतिष विषयक चमत्कारों का वर्णन पांच बार हुआ है और जहांगीर ने ज्योतिकराय सोने से तुलादान किया था (जहांगीरनामा पृ. 633 , 6 70 , 714 ,727 , 748 , 749 )। शंभुप्रसाद बहुगुणा ने ज्योतिकराय को भरत कवि सिद्ध करने का प्रयास किया।
 
     विलियम फिच का गढ़वाल वर्णन
 ईस्ट इंडिया कम्पनी के ओर से नील व्यापारी ने 1608 -1611 तक व्यापार अनुमान हेतु भारत में गुजारे व जहांगीर के दरबार में भी रहा।  फिंच के संस्मरणों से भारत के विषय में कई सूचनाएं मिलती हैं (फोस्टर , अर्ली ट्रैवल्स इन इण्डिया )।
  गढ़वाल के विषय में भी फिंच ने सुना था कि धौलागिरी पर्वत में जाड़ों में इतनी बर्फ गिरती है कि  वासी घाटी में उतर जाते हैं । जमुना -गंगा मध्य पर्वतीय प्रदेश में मानशा का अधिकार है। मानशा  को शक्तिशाली व धनी बताया गया है। फिंच ने बताया कि मानशा के पास सोने के बासन हैं। देहरादून (फिंच अनुसार सरहिंद से 50 कोष दूर ) अत्यंत उपजाऊ क्षेत्र है।
    फिंच ने गढ़वाल भ्रमण तो नहीं किया किन्तु गढ़वाल का उल्लेख किया है।  जिसका स्पस्ट अर्थ है कि जहांगीर दरबार में गढ़वाल की छवि व जानकारी रखी जाती थी।  दरबारी व गणमान्य व्यक्ति गढ़वाल के बाए में विज्ञ थे व वे अवश्य ही यात्रा करते थे। 
   स्थान छविकरण (प्लेस ब्रैंडिंग ) में माउथ टु माउथ पब्लिसिटी का क्या महत्व होता है यह फिंच संस्मरणों से स्पस्ट होता है।
   

   हरिद्वार व ऋषिकेश में कुम्भ मेले की  शुरुवात ?

  यह आश्चर्य ही है कि हिन्दू जनता कुम्भ मेले को समुद्र मंथन से जोड़ते हैं और हरिद्वार में ही कुम्भ राशि अनुसार कुम्भ मेला तिथि का निर्धारण करते हैं किन्तु रिकॉर्ड तो सत्रहवीं सदी में मिलते हैं जैसे -

   सत्रहवीं सदी में कुम्भ मेले का उल्लेख 'खुलासत -उत -तवारीख (1695 ) में मिलता है।   'खुलासत -उत -तवारीख (1695 ) में उल्लेख है कि वैशाखी के दिन लोग हरिद्वार में उमड़ते हैं, नहाते हैं।  बारहवें अल में जब कुम्भ राशि राज करते है तो लोग गंगा स्नान करते हैं , मुंडन करते हैं , दान करते हैं आदि। चाहर गुलशन  (1759 ) ने कुम्भ मेले का उल्लेख किया है कि बैशाखी दिन जब वृहस्पति कुम्भ राशि में प्रवेश करता है तो हरिद्वार में कुम्भ मेला  लगता है जहां फकीर, सन्यासी , जनता लाखों की संख्या में आते हैं ।

   ऐसा प्रतीत होता है कि हरिद्वार में कुम्भ मेले की शुरुवात 1600 ई से हई।  अकबरनामा में भी कुम्भ मेले का उल्लेख न होना दर्शाता है कि कुम्भ मेला बड़ा मेला न था।  नानक का वैशाखी दिन संदेश  देने आना दर्शाता है कि बैशाखी के दिन हजारों की संख्या में लोग उमड़ते थे।  हरिद्वार पंडा रजिस्टर में भी कुम्भ मेले का उल्लेख न होना आश्चर्य है।

     आगे के गढ़वाली शासकों द्वारा भारत मंदिर ऋषिकेश दर्शन  से लगता है 1398 ई में तैमूर लंग द्वारा भरत मंदिर नष्टीकरण होने के बाद भी हिन्दू भरत मंदिर पूजा हेतु आते रहे हैं।


     अकबर मुद्रा अण्वशाला हरिद्वार

  अकबर  की ताम्र मुद्रा अण्व शाला हरिद्वार होने से स्पस्ट है हरिद्वार में प्रशासनिक , व्यापरियों आदि का आना जाना रहा होगा। गढ़वाल से ही इस टकसाल को ताम्बा निर्यात होता था।


     मूर्तिभंजन  का दौर


अकबर काल में भी मूर्ति भंजन बंद नहीं हुआ था।  दक्षिण (सलाण )  गढ़वाल, ऋषिकेश , हरिद्वार में कोई बड़ा मंदिर न होना द्योतक है कि अकबर , जहांगीर काल में इन क्षेत्रों में मुस्लिम आक्रांताओं (जिन्हे गढ़वाली लोककथाओं में गुज्जर या भैंसपालक नाम दिया गया है ) द्वारा मूर्ति भंजन एक सामान्य बात थी। यदि मंदिर बने भी रहे होंगे तो तोड़ दिए गए होंगे।


उत्तराखंड में यूनानी चिकत्सा  का आगमन


 सुल्तानों के उत्तराखंड सीमा पर शासन व मुगल सीमाओं  के होने से हरिद्वार से लेकर अवध तक मुस्लिम समाज के बसे होने से इन स्थानों में यूनानी चिकत्सा का  होगा। और धीरे धीरे यूनानी चिकत्सा गढ़वाल -कुमाऊं के मैदानों में प्रचलित हुयी होंगी।  दवाई , दारु , बलगम , आदि शब्द गढ़वाली -कुमाउँनी भाषा में प्रचलित होना द्योतक है कि यूनानी चिकत्सा भी समाज में आने लगी होगी।

 दिल्ली के सुल्तानों ने यूनानी चिकत्सा हेतु 'दारुल सिफास ' बनवाया व यूनानी चिकत्सा को विकसित किया।

दिल्ली के सुल्तानों का युद्ध हेतु भाभर -बिजनौर आदि आना संकेत देता है कि उनके साथ 'दारुल सिफास के हकीम भी रहे होंगे , इन हकीमों ने स्थानीय हकीमों को दारुल -सिफास का परसहिस्खन वषय ही दिया होगा।  यह शिक्षा पहले हरिद्वार से पीलीभीत -अवध तक प्रसारित हुई होंगी फिर धीरे ढेरी गढ़वाल -कुमाऊं  अवश्य प्रसारित हई होगी। मुगल काल में भी यूनानी चिकित्सा का विकास हुआ जिसने उत्तराखंड चिकित्सा तंत्र को प्रभावित किया ही होगा। मुगल काल में अकबर दरबार में अब्दुर रहमान जिसे फ़ारसी , संस्कृत का ज्ञान था जैसे विद्वानों के कारण आयुर्वेद व यूनानी चिकत्सा में  संष्लेषण की नींव पड़ी। अकबर के सभसदों में हाकिम हमाम  प्रसिद्ध हकीम अकबर के नवरत्नों में एक रत्न था।अकबर के पांच चिकित्स्क हकीम अब्दुल फतह , हकीम शेख फयाजी , हकीम हमाम , हकीम अली और हकीम आईन -उल -मुल्क राजकीय चिकित्स्क थे।

  भावप्रकाश निघण्टु रचयिता भाव मिश्र बादशाह अकबर का राजवैद्य था।  सिद्ध करता है कि  आयुर्वेद -यूनानी चिकित्सा में संश्लेषण की नींव अकबर काल से ही पड़ी  होगी।  मेथी का दवाई में उपयोग सर्वपर्थम भावप्रकाश में उल्लेख हुआ जिसे दिपानी (हाजमा वर्धक ) नाम दिया गया। 

अकबर व जहांगीर की बेगमों को चिकत्सा व दवाइयों का भी ज्ञान था।


        हुक्के का अन्वेषण


 अकबर काल में सन 1604 -1605 तम्बाकू धूम्रपान का प्रवेश हुआ तो अकबर के राजकीय हकीम हकीम अब्दुल फतह ने तम्बाकू का स्वास्थ्य हेतु हानिकारक पदार्थ के कारण विरोध किया किन्तु अकबर ने  की इजाजत दे दी।  तब हकीम अब्दुल फतह ने पता लगाया कि यदि धुंए को पानी से गुजरा जाय तो तम्बाकू का प्रभाव कम हो जाता है।  फिर हकीम  ने हुक्के का अन्वेषण किया (ए  चट्टोपध्याय , ऐम्परर अकबर ऐज ये ऐंड हिज फिजिशियन्स , 2000 , इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ हिस्ट्री मेडकल , हैदराबाद बुलेटिन ) ।  कुछ समय पश्चात हुक्का धूम्रपान स्टेटस सिंबल हो गया।  लगता है उत्तराखंड में हुक्का धूम्रपान 1650 के बाद  प्रचलन में आया होगा।  थक   बिसारने,  मन व्याकुलता कम करने हेतु धूम्रपान कैसे उत्तराखंड पंहुचा होगा पर खोज होनी बाकी है।

 

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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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शाह शासन  (1600-1700 में उत्तराखंड पर्यटन -2

Medical Tourism from 100-1700
(  1600-1700 मध्य  उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -47

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )     -  47                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--152 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 152

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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मान शाह (1591 -1611 ) के पश्चात श्याम शाह (1611 -1631  ) ने गढ़वाल पर शासन किया। पर्यटन संबंधी मुख्य घटनाएं इस प्रकार हैं -
 

     पंजाब में महामारी
    जहांगीर काल में 1616 में पंजाब में महामारी /प्लेग शुरू हुआ।  महामारी में हजारों मनुष्य मरे।  उत्तरी भारत में दोआब व दिल्ली समेत महामारी फैली और आठ साल तक महामारी का प्रकोप बना रहा  (मुतामद खान , जहांगीर नामा )।  हिन्दू अधिक मरे।  कश्मीर में इस बीमारी से भीषण प्रकोप हुआ। फजल अनुसार गौड़ देस में भी 1575  में प्लेग फैला था।
      गढ़वाल कुमाऊं में महामारी की सूचना नहीं मिलतीं हैं  किन्तु संभवतया उत्तराखंड इस महामारी से नहीं बच सका होगा।  ब्रिटिश काल तक महामारी , हैजा आदि छूत की बीमारियां यात्रियों द्वारा उत्तराखंड आती रही हैं और बिनाश करती रही हैं।
       
श्यामशाह का जहांगीर राज्यसभा  में उपस्थिति

   श्याम शाह और राजकवि भरत के मुगल बादशाह जहांगीर ( 1605 -1627 ) से अच्छे सबंध थे।  सन 1621 में श्यामशाह आगरा में जहांगीर की राज्यसभा में उपस्थित हुआ था। जहांगीरनामा (पृष्ठ 713 ) में उल्लेख है कि  बादशाह ने श्रीनगर के जमींदार राजा श्याम सिंह को एक घोड़ा व हाथी उपहार स्वरूप दिया।  श्याम शाह क्या उपहार ले गए थे का विवरण खिन नहीं मिलता है।  बहुगुणा वंशावली में भरत  बहुगुणा द्वारा 'शाह' पदवी लाना वाला कथन वस्तव में जहांगीरनामा के इस उल्लेख से गलत ही साबित होती ही।
   
          जहांगीर का हरिद्वार आगमन
   जहांगीर ग्रीष्म ऋतू में हरिद्वार में ग्रीष्म निवास गृह बनवाने की इच्छा से 1621 में हरिद्वार आया।  वहां जहांगीर ने साधू संतों को भेंट आदि दीं। और सही जलवायु न पाने से जहांगीर कांगड़ा ओर चला गया।

    पादरियों का उत्तराखंड पर्यटन
    पुर्तगाली जेसुइट पादरी अंतोनियो तिबत जाने के लिए 1600 ई में गोवा भारत आया था।  उन्हें गुमान था कि तिब्बत में ईसाई धर्मी बिधर्मी हो गए हैं उन्हें सुधारने हेतु 1624 में अंतोनियो , फादर मैनुअल  मार्क्स व अन्य साथी आगरा के लिए चल पड़े।  आगरा से 30 मार्च 1624 उत्तराखंड के लिए धार्मिक यात्रियों के साथ चल पड़े।  हरिद्वार में मुगल सुरक्षा कर्मी भगोड़ा समझ उन्हें हरिद्वार से बाहर नहीं  जाने दे रहे थे तो गढ़वाली सैनिक मुगल जासूस समझ गढ़वाल सीमा में प्रवेश से रोक रहे थे।  जब आगरा से स्वीकृति मिली तो वे 1624 में श्रीनगर पंहुचे व श्रीनगर में कई प्रश्नों के उत्तर के बाद माणा जाने की स्वीकृति मिली।  वहां बर्फ न पिघलने से माणा  में रुकना पड़ा।  गढ़वाल सेना उन्हें तिब्बत नहीं जाने दे रहे थे। अंतोनियो अपने साथियों को छोड़ चुपके से किसी भोटिया पथप्रदर्शक के साथ तिब्बत की और चल पड़ा। अगस्त में अंतोनियो व कुछ अन्य ईसाई भक्तों के साथ दाबा मंडी तिब्बत पंहुच जहां बाद में मार्क्स भी मिल गया।
       रास्ते में सत्तू पीकर व रात में गुफाओं , खले अकास में कंबल बिछाकर दो कंबल ओढ़कर उन्होंने कष्टकारी यात्रा पूरी की। एक महीने बाद अंतोनियो श्रीनगर  होते हुए सरहिंद पंहुचा। श्याम शाह तब्ब्त युद्ध में व्यस्त था।
  अगले वर्ष 1625 में राज आज्ञा पत्र लेकर हरिद्वार , श्रीनगर , माणा होते पादरी अंतोनियो , मार्क्स व अन्य  के साथ छपराङ्ग मंडी, तिब्बत  पंहुचा।  वहां उसने चर्च स्थापित किया।
      आते समय श्याम शाह अंतोनियो से मित्रता पूर्वक मिला व उसे अपने महल में ठहराया।
      सन 1631 /30 में अंतोनियो ने मार्क्स व अन्य पादियों को फिर से छपराङ्ग भेजा।  मार्क्स जब श्रीनगर पंहुचा तो श्याम शाह क अंतिम संस्कार हो रहा था।  इस दौरान व बाद में भी ईसाई मिसनरी कार्यकर्ता कई बार छपराङ्ग हरिद्वार , श्रीनगर , माणा होते छपराङ्ग पंहुचे।  लक्ष्मण झूला से बद्रीनाथ का प्राचीन पथ ही उनका पथ था।

        हरिद्वार कुम्भ मेला 1928

एसियाटिक रिसर्च खंड 16 अनुसार 1630 मेंहरिद्वार  कुम्भ मेले के बाद 8000 नागा अस्त्र शस्त्र लेकर बद्रीनाथ यात्रा हेतु हरिद्वार से श्रीनगर पंहुचे थे जब कि मोहसिन फनी के दाबेस्तान -ए -मजहब अनुसार 1640 में कुम्भ मेला लगा था।  2010 में हरिद्वार में कुम्भ मेला लगा था।  विश्लेषण से स्पस्ट है कि 1628 व 1640 में कुम्भ मेले लगे होंगे।
     एसियाटिक रिसर्च अनुसार कुम्भ मेले के बाद नागा साधू अस्त्र शस्त्र सहित बद्रीनाथ यात्रा हेतु हरिद्वार से श्रीनगर पंहुचे।  राजा श्याम शाह  को पाखंड से अति चिढ थी।  राजा श्यामशाह ने  संदेश भेजा कि यदि बद्रीनाथ यात्रा प् जाना है तो अस्त्र शस्त्र छोड़कर ही जाना पड़ेगा।  राजा ने धमकी दी अन्यथा नागाओं से उसकी सेना निपटेगी।  नागाओं ने अस्त्र शस्त्र श्रीनगर  में छोड़े और बद्रीनाथ यात्रा की।  यदि 8000  नागाओं ने उस वर्ष यात्रा की होगी तो अन्य यात्रियों की संख्या बहुत अधिक रही होगी।
       
     मुसलमान वैश्याओं का आगमन

  श्याम शाह की सबसे बड़ी कमजोरी स्त्री थी।  उसके अंतःपुर  में सुंदर स्त्रियां थीं। अंतःपुर के बाहर बहुत सी रखैलन थीं , साथ ही वह वैश्याग्रहों में गणिकाओं से भी आमोद प्रमोद करता था।  इनसे भी जी न भरे तो उसने  बजारी वैश्या तुर्कानिन तेलिन से संबंध गाँठ लिए।  दिन में वह तेलिन के यहां कबाब के साथ मदिरा पान  कर संगीत सुनता था। श्याम शाह को कई राग रागनियों का ज्ञान था।

     कबाब का आगमन
 यद्यपि महाभारत में भुने  मांश का संदर्भ आता है और उत्तराखंड में तो इसे कछबोळी बोलते हैं किन्तु कबाब शब्द इस लेखक ने देहरादून में 1974  में भी कम ही सुना था जब कि मौलराम ने गढ़ काव्य वंश (पर्ण 10 अ ) में कबाब प्रयोग किया है।  क्या 1600 सन  तक कबाब के साथ अन्य मुगल भोज्य पदार्थों ने भी गढ़वाल में प्रवेश कर लिया था पर खोज की आवश्यकता है।

     फरिस्ता का इतिहास
 फरिस्ता (1623 )  इतिहास में जिस जमुना -गंगा के बिच खंड का वर्णन किया गया है उसे उसने  नाम दिया है।  जबकि गंगा जमुना खंड गढ़वाल होता है।  इस इतिहास में इस प्रदेश की समृद्धि वर्णन है।


    शाह व चंद नरेशों  द्वारा गणिकाएं , कबाब , मिरजई आयात करना  किन्तु जहांगीर से चिकित्सा प्रबंध न सीखना


     मुगल बादशाह अकबर ने व बाद में जहांगीर ने सार्वजनिक चिकित्सा पर ध्यान दिया। जहांगीर ने 12 आदेशों में से एक आदेश दिया था जिसमे सार्वजनिक दवाखाने खोलने व उनमे हकीमों की भर्ती का।  राज्य को व्यय बहन करना था।  जहांगीर भी औषधि व बीमारियों पर प्रयोग करता था।  चूहों से प्लेग फैलता है उसे के राज में पता चला।  जहांगीर ने दवाइयों विकास हेतु कई आदेश दिए थे।

       जहांगीर की  राजसभा में हकीम हमाम, हकीम अब्दुल फतह , हाकिम मोमिन शिराजी (जो 1622 में भारत आया ) ;हकीम सद्रा , हकीम रुकना , हकीम रूहुल्लाह ; हकीम गिलानी ; हकीम अब्दुल कासिम आदि प्रसिद्ध चिकित्सक थे।  अधिकतर ईरान से प्रशिक्षित हकीम थे।

               गढ़वाल नरेशों व चंद नरेशों ने  कई मुगल संस्कृति का आयात किया किन्तु मुगलों से राजकीय चिकित्सा प्रबंधन कभी नहीं सीखी।  ब्रिटिश काल में जाकर चिकित्सा सार्वजनिक हिट का विचार (Concept ) बना।  मियादी बुखार , खज्जी , तपेदिक शब्द गढ़वाली में या तो मुगल काल में जुड़े या ब्रिटिश काल में खोज का विषय है।


     मुख्य मंदिरों को भूमि

इस काल में पूजा व्यवस्था  हेतु मंदिरों को सदाव्रत भूमि पहले की तरह ही रही। साधुओं , नागाओं व अन्य यात्रियों हेतु श्रीनगर , जोशीमठ जोशीमठ , बद्रीनाथ अदि स्थानों में सदाव्रत व्यवस्था से अन्न मिलता था। यात्रियों की चिकित्सा हेतु कोई जानकारी इस लेखक को न मिल सकी।


        बद्रीनाथ मंदिर तर्ज पर मंदिर बनाने की संस्कृति

राजस्थान राज्य में  गढ़बोर गाँव (राजसमंद जनपद के कुम्भलगढ़ तहसील ) में चतुर्भुज का मंदिर है जिसमे बड़ा मेला लगता है।  यह मंदिर 1444  ईश्वी में निर्मित हुआ।  मंदिर के अभिलेख में गाँव का नाम बदरी उल्लेख है (Rajasthan  (district Gazetteers: Rajsmand,2001 पृष्ट -296 ) व चतुर्भुज  को बद्रीनाथ का ही रूप माना गया  है। गढ़बोर नाम बाद में राजा बोर के बसने के बाद प्रचलित हुआ।      इस मंदिर को बद्रीनाथ ही मना जाता है।

   1444 में राजस्थान में मंदिर निर्माण होने से प्रमाणित होता है कि बद्रीनाथ धाम यात्रा प्रचलन में थी।



Copyright @ Bhishma Kukreti  20 /3 //2018

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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
-

 
  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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महीपति  शाह व नकटीराणी काल (1630 -1640 ) में  उत्तराखंड  मेडिकल पर्यटन

Medical Tourism in Duleram Shah and Naktrani Period
( शाह काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -48

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  48                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--153 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 15

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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  मानशाह के बाद कुछ समय गढ़वाल पर दुले रामशाह का शासन रहा।  दुले  राम शाह वस्त्रप्रेमी व मनोरंजन प्रेमी था।  लगता है उसने बाहर से कुछ मुसलमान दर्जी श्रीनगर में बसाये होंगे।  श्रीनगर में तवायफों को भी आसरा दिया होगा।

 महीपति शाह (1631 -1635 ) ने राज्य सीमावृधि में रूचि ली। बनारसी दस तुंवर, लोदी रिखोला, माधो सिंह भंडारी , दोस्तबेग मुगल जैसे सेनापति महीपति शाह की सेना में थे।

महीपति  ने तिब्बत (दाबा ) पर आक्रमण किया था।  इस  युद्ध में बर्त्वाल बंधु शहीद हुए थे। माधो सिंह भंडारी ने सीमारेखांकन हेतु तिबत सीमा पर चबूतरे निर्मित किये थे।

    लोदी रिखोला के नेतृत्व में सिरमौर युद्ध जीता और सीमारेखांकन हेतु चबूतरे निर्मित किये।

     माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में बशेर (उत्तरी हिमांचल ) पर आक्रमण हुआ जिसमे माधो सिंह भंडारी शहीद हुआ । मलेथा की कूल का निर्माण भी इसी काल में हुआ।


     महीपति शाह को चित्तभ्रान्ति


   कुम्भ मेला आने पर (संभवतः अर्ध कुम्भ या ) पर महीपति शाह भरत मंदिर ऋषिकेश पंहुचा और मन व्याकुल स्थिति में उसने भरत मूर्ति की आँखें निकलवा दी।  हरिद्वार पंहुचने पर महीपति शाह ने 500 अस्त्र -शस्त्र से सुसज्जित नागा साधुओं की हत्त्या  करवा दी। कहा जाता है कि महीपति शाह ने प्रायश्चित हेतु कुमाऊं पर आक्रमण किया था।

        बाह्य सैनिकों को आश्रय

महीपति शाह का सेनानाटक बनारसी दास तुंवर था व उसकी सेना में कई तुंवर सैनिक भी थे ।  महीपति शाह का चौथा सेनापति दोस्तबेग मुगल था। सेनानायक बनारसी दस तुंवर  व दोस्तबेग संकेत देते हैं कि गढ़वाली शासक बाह्य सैनिकों को महत्व देते थे और गढ़वाल सेना में या  थोकदारों के यहां मैदानों से सैनिक आजीविका पर्यटन हेतु गढ़वाल आते रहते थे।

         नकट्टी राणी  (1635 -1640 )

 महीपति शाह की मृत्यु समय उसका पुत्र पृथ्वीपति शाह अवयस्क था। नाककट्टी राणी को कुछ समय तक शासन चलना पड़ा। शाहजहां के सेनापति ने दून भाभर पर आक्रमण कर दून क्षेत्र छीन लिया।  शाहजहां के सेनापति नजाबबत खान ने गढ़वाल पर पूर्वी गंगा से आक्रमण किया और ढांग गढ़ के जमींदार या राजा के आदमियों ने उसे हिंवल ही हिंवल नजीबाबाद भागने को मजबूर किया। फिर दून प्रदेश को पुनः प्राप्ति हुयी।

             नाथ गुरु

  शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इस काल में हंसनाथ व प्रभात नाथ दो नाथ गुरु बड़े प्रभावशाली गुरु थे।  प्रभात नाथ ने सत्यनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।


          हरिद्वार में कुम्भ मेला

 मोहसिन खान ने दाबेस्तान -ए -मजहब में उल्लेख किया है कि हरिद्वार में नागाओं के मध्य 1640  ई में भयंकर लड़ाई हुयी थी। गणित अनुसार यह साल कुम्भ का बैठता है। कुम्भ के पश्चात यात्री बद्रीनाथ यात्रा पर निकलते ही थे।

            शाहजहां काल के यूनानी चिकित्सक


  शाहजहां युग यूनानी चिकत्सा का स्वर्ण युग था।  शाहजहां काल के मुख्य यूनानी चिकत्स्कों में हकीम मुहम्मद गिलानी ,हकीम अल दीन अहमद गिलानी , हकीम दाऊद तकरब खान ,हकीम मसीहा अल मुल्क शिराजी ,हकीम मुसामत सती अल मूसा , हकीम हार्दिक प्रसिद्ध थे।


 शाहजहां काल में देश के कई शहरों में दवाखाने खोले गए थे।  हरिद्वार रुड़की क्षेत्र में में दवाखाना खुले थे या नहीं इस पर कोई रिकॉर्ड नहीं मिलते हैं।

   शाहजहां काल में चावड़ी बजार में सरकारी दवाखाना खोला गया जिसमे यात्रियों व विद्यार्थियों का उपचार व उन्हें औषधि दीं जाती थीं।

  शाहजहां ने गरीबों के लिए अहमदाबाद में दारु शैफ खोला था।

    शाहजहां व उससे पहले औषधि प्रशिक्षण का भी प्रबंध किया गया था जहां यूनानी चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी। शासकीय चिकित्स्क बनने से पहले परीक्षा ली जाती थी।


      यूनानी दवाओं का भारतीयकरण व भारतीय औषधि का यूनानी संस्करण

  अकबर से शाहजहां काल तक अधिकतर प्रमुख चिकित्स्क ईरान के प्रशिक्षित थे और उन्हें भारतीय आयुर्वेद का व भारत में उपलब्ध वनस्पति , खनिज व जीवों का ज्ञान नहीं था।  किन्तु हकीमों ने अध्ययन व प्रयोग कर यूनानी औषधि विज्ञान का भारतीयकरण किया।


        आयुर्वेद व यूनानी चिकित्सा  प्रतियोगिता

मुगल काल में यूनानी औषधि विज्ञान को राजकीय संरक्षण मिलने व प्रचार प्रसार  आयुर्वेद को झकझोर दिया। यूनानी चिकत्सा के साथ प्रतियोगिता ने आयुर्वेदाचार्यों को चहुं दिशा देखने की आवश्यकता पड़  गयी। योग , सिद्धों के योग व आयुर्वेद के मध्य संश्लेषण का काल भी सत्रहवीं सदी है। शैव्य सिद्ध योग ज्ञान से  आयुर्विज्ञान  में नाड़ी विज्ञान को नई दृष्टि मिली।  शैव्य योग विज्ञान व आयुर्वेद में संश्लेषण दक्षिण में प्रारम्भ हुआ जो बाद में उत्तर में आया। श्रीरंगधर संहिता , नाड़ी विज्ञान  व नाड़ी चक्र  ग्रंथ इसी काल की देन है।  यूनानी हकीमों से भी आयुर्वेदाचार्यों ने नाड़ी गिनने व निष्कर्ष निकालना सीखा व आयुर्वेद में जोड़ा। आयुर्वेद में खनिज जैसे  स्वर्णभष्म , रजतभष्म , पारा मिलना तो क्रांतिकारी सिद्ध हुए।  ( G.Jan Meulenbeld, 1999,2000, A History of Indian Medical Literature 5 volumes, कुल 4020 पृष्ठ )


      नए आयुर्वेद अविष्कारों का  उत्तराखंड पंहुचना

  मुगल काल में यद्यपि आयुर्वेद को शासकीय परिश्रय नहीं मिला किन्तु समाज में आयुर्वेद के प्रति जागरूकता व संस्कृत विद्वानों के बल पर आयुर्वेद कुछ ना कुछ प्रगति करत जा रहा था।  सलहवीं सत्तरहवीं सदी में औषधि निघंटुओं की रचना इस बात का द्योतक है कि आयुर्वेद विकसित हो रहा था।

  नए नए अविष्कार किस तरह से उत्तराखंड पंहुच रहे थे पर खोज बाकी है।  कुछ निम्न आकलन लग सकते हैं -

  बद्रीनाथ -केदारनाथ रवालों के साथ आयुर्वेद चिकित्सक अवश्य रहे होंगे उन्होंने गढ़वाल के चिकित्स्कों को ज्ञान आदान प्रदान किया होगा।

   देवप्रयाग में दक्षिण से पंडे बस रहे थे तो उनमे से कई औषधि ग्यानी भी रहे होंगे।

        शासकों के पास भेंट आदि के लिए विद्वान् पंहुचते रहते थे , उनमे कई ओषधि ग्यानी भी अवश्य रहे होंगे जिन्होंने उत्तराखंड में ज्ञान दिया होगा।

   भारत के अन्य भागों से हर समय ब्रह्मणों का पलायन हो रहा था  गढ़वाल -कुमाऊं में बस रहे थे।  उनमे से बहुत से वैद भी रहे होंगे जो कुछ न कुछ नया ज्ञान लेकर आये ही होंगे।

  कुमाऊं व गढ़वाल से अधिकारी बादशाहों से मिलने आगरा व दिल्ली आते जाते रहे थे तो औषधि ज्ञान भी लाये ही होंगे।

    कुमाऊं और गढ़वाल शासक बाह्य सैनिकों को महत्व देते थे तो वे सैनिक भी कई तरह के औषधि ज्ञान लाते ही रहे होंगे। 

        धार्मिक यात्रियों में जो औषधि ग्यानी रहे होंगे उनसे भी ज्ञान मिला होगा।

      धार्मिक अनुष्ठान हेतु हरिद्वार में विद्वानों का आना जाना लगा रहता था तो उत्तराखंड के विद्वानों को यहां भी नव ज्ञान प्राप्त हुआ होगा।

     बनारस आदि स्थानों में शिक्षा से नव ज्ञान प्राप्त भी हुआ होगा।

      नाथ , सिद्धों के भ्रमण से भी चिकत्सा ज्ञान आता रहा होगा।

     औषधि , वनस्पति विक्रेताओं द्वारा भी कई किस्म के  ज्ञान का आदान प्रदान हुआ होगा।



    आयुर्वेद ज्ञान का का अरबी व फ़ारसी में अनुवाद


 आठवीं सदी से आयुर्वेद का ज्ञान पश्चिम में प्रसारित होने लगा था और कतिपय पश्चिम एशियाई औषधि साहित्य में कई आयुर्वेद औषधियों का वर्णन मिलता है (वर्मा इंडो अरब रिलेसन इन मेडिकल साइंस ). पैगंबर के समय भारत से अदरक निर्यात होता था।

फैब्रिजिओ  (2009 ) ने अपने लेख 'द सर्कुलेशन ऑफ आयुर्वेद नॉलेज इन इंडो पर्सियन लिटरेचर ' में आयुर्वेद का अरबी -फ़ारसी में अनुवाद का पूरा वृत्तांत दिया है।


Copyright @ Bhishma Kukreti   21/3 //2018

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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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Bhishma Kukreti

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 पृथ्वीपति  कालीन (1640 -1660  )  संदर्भ में  रस शास्त्र  इतिहास विवेचना

Uttarakhand Medical Tourism in Garhwal Kingdom
(  शाह कालीन  उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -49

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  49                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--154 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 154 

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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 पृथ्वीपतिशाह  का शासन काल शाहजहां व औरंगजेब काल भी है।  पृथ्वीपतिशाह कालीन पर्यटन से पहले माधो सिंह भंडारी मृत्यु प्रकरण जो मेडिकल साइंस पर भी प्रकाश डालता है पर विचार आवश्यक है ।

                      माधों सिंह की युद्ध में मृत्यु
   बशेर (हिमाचल ) पर आक्रमण के समय माधो सिंह भंडारी पर मरणांतक घाव लग गए।  माधो सिंह भंडारी ने अपने सहायक को आदेश दिया कि मेरी मृत्यु का समाचार अपनी सेना व शत्रु सेना को नहीं लग्न चाहिए।  मेरी मृत्यु गुप्त ही रखी जानी चाहिए।  मृत्यु उपरान्त माधो सिंह की सलाह अनुसार उसके शरीर को गरम तेल में भुने कपड़ों से लपेट कर बक्से में रखा गया था और जब तक गढ़वाली सेना हिमाचल से उत्तराखंड वापस नहीं आयी रब तक रहस्य गुप्त ही रहा।  बाद में माधो सिंह के मृत शरीर का हरिद्वार में दाह संस्कार किया गया। मृत शरीर को परिरक्षित /preserve  रखने का यह विधि शायद सदियों से चल रही होगी। बहुत से समय राजाओं व बादशाहों के मृत शरीर को कुछ दिनों बाद जलाया या दफनाया जाता था तो कोयले की धूल व तेल में भुने कपड़ा लपेट कर मृत शरीर पर संलेपन कर शरीर को परिरक्षित रखा जाता होगा।
  वामन सोमनारायण दलाल अपनी पुस्तक (A History of India : from earliest Times , Vol.1, page 96, 1914) उल्लेख करते हैं कि सूर्यवंशी निमि जब श्राप से मरा  तो उसके शरीर को परिरक्षित हेतु तेल व लाख से संलेपित किया गया। यह विधि माधो सिंह भंडारी  काल में भी सफल विधि थी।


           पृथ्वीपति शाह द्वारा पश्चिम क्षेत्र की रक्षा

       नकट्टी  राणी के समय शाहजहां की सेना ने दून प्रदेश व रवाईं पर अधिकार कर लिया था और फिर उसके सेनापति ने श्रीनगर की ओर कुछ किया था।  ढांगू गढ़ के निकट बंदर भेळ से उसे भागना पड़ा और नजीबाबाद भागना पड़ा।
          मुगलों ने तीन बार आक्रमण किया।  कुमाऊं व सिरमौर राजाओं व मुगलों  के सम्मलित छल कपट के सामने भी गढ़वाल देस सुरक्क्षित रहा। पश्चिम सीमा की रक्षा हेतु पृथ्वीपति शाह ने सिरमौर पर आक्रमण किया व जीता जो बाद में संगठित हिमाचली राजाओं ने वापस ली।  किन्तु इससे पश्चिम सीमा सुरक्षित हो गयी व शाहजहां या अन्य मुगल  शासक फिर कभी गढ़वाल पर आक्रमण का साहस न कर सके। राजनैयिक चतुराई से भाभर को भी वापस मुगलों  से लिया गया  ।
       मेदनी शाह  शाहजहां दरबार में
  इतिहासकार मानते हैं कि दारा शुकोह के आमंत्रण पर पृथ्वीपति पुत्र मेदनीशाह मुगलों से संधि हेतु दिल्ली दरबार में उपस्थित हुआ।  शाहजहां ने भेंट दीं और अपने दूत ऐधी  को श्रीनगर भेजा। शाहजहां ने सभी विजिट प्रदेश वापस गढ़वाल को दे दिए
 ऐधी का श्रीनगर में स्वागत किया गया व उसे भेंट दी गयी।

        दारा पुत्र सुलेमान शुकोह का श्रीनगर में शरण
   शाहजहां के  बीमार पड़ने पर जब औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को वाद में भाइयों को भी कैद कर लिया व दारा लाहौर को ओर भाग गया (1658 ) तो उस समय दारा पुत्र सुलेमान शिकोह इलाहाबाद में था।   उसके सलाहकार जय सिंह की सलाह पर उसने गढ़ राज में शरण ली।  14 जून 1658 सुलेमान शिकोह इलाहाबाद से नगीना पंहुचा व बाद में चंडीघाट पंहुचा जहां उसे गंगा पार करने  मिलीं।  कुछ दिन वह वहीं डेरा लगा कर रहा।  वहां से संभवतः उदयपुर पट्टी में आमसौड़ पंहुचा जहां उसे पृथ्वीपति शाह मिला।  पृथ्वीपति ने उससे सेना छोड़कर श्रीनगर आने की सलाह दी।  कुछ दिन वः नहीं गया किन्तु अंत में उसे निस्सहाय ही श्रीनगर जाना पड़ा। सुलेमान शिकोह अगस्त 1658 में श्रीनगर पंहुचा।
     मुगल सेना ने भाभर व दून के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया व पड़ोसी राजाओं ने भी आक्रमण किये किन्तु पृथ्वीपति शाह ने शरणागत को वापस औरंगजेब को नहीं सौंपा।
       इस दौरान राजकुमार मेदनी शाह ने अपने पिता से शासन छीन लिया।  पृथिवीपति शाह की मृत्यु 1664 में हुयी।
         
         राजनैयिक पर्यटन

 छिट  पुट  व बड़े आक्रमण से वास्तव में  राजनयिक पर्यटन भी बढ़ता है।  औरनंगजेब ने सुलेमान शिकोह को वापस लेने हेतु पृथ्वीपति शाह को समझाने बुझाने के लिए केवल आक्रमण का सहारा नहीं लिया अपितु राजनैयिक दूतों की भी सहायता ली याने डिप्लोमेटिक टूरिज्म भी चलता रहा।

                   युद्ध नई चिकत्सा विधि भी जन्मता है
    मनुष्य ने यदि कोई पाप किया है तो वः जघन्य पाप युद्ध।  है किन्तु यह एक आवश्यक बीमारी बन चुकी है।
     छोटी झड़प हो या वर्षों तक चलने वाले युद्ध सभी युद्ध चिकित्सा विधि विज्ञानं में निरंतरता वृद्धि करते हैं या कई नए आविष्कार करते हैं। गढ़वाल पर आक्रमण हुए या गढ़वाल ने आक्रमण किये दोनों स्थिति में चिकित्स्क भी साथ गए होंगे।  युद्ध में वीर रस  गीत गाने वाले भी मनोचिकित्स्क का काम करते थे। 
 
       आयुर्वेद व यूनानी औषधि तंत्र का आदान प्रदान
     
      दारा शिकोह द्वारा संस्कृत उपनिषदों का अरबी में अनुवाद का आठ है कि दारा शिकोह के पास संस्कृत व आयुर्वेद शास्त्री भी थे।  आयुर्वेद व यूनानी विचारों व विधयों का ादाम प्रदान भी दारा की बुद्धिजीवी सभाओं में अवश्य होता रहा होगा।
  1638 में हकीम अमनउल्लाह खान ने यूनानी हकीमों और आयुर्वेद वैद्यों द्वारा  चिकित्सा विधयों को संकलित किया था जो दो शास्त्रों के संश्लेषण हेतु महत्वपूर्ण कार्य माना गया था।

          दारा के सम्मान में चिकित्सा पुस्तक रचना

  शाहजहां के सभासद यूनानी चिकित्सा शास्त्री ने दारा शिकोह के सम्मान में 'तिब्ब -ए -दारा शिकोही' संकलित  किया जिसमे अकबर जहांगीर व शाहजहां काल में चिकित्सा शास्त्रियों की सफल चिकत्साों  का ब्यौरा है।

    कहा  जाता है गुरु हर राय ने दारा  शिकोह की चिकित्सा की थी जिसमे मोती पीसकर दवाई बनाई गयी थी।  तातपर्य है कि  चिकित्सा में खनिजों का उपयोग भी इस काल में खूब प्रचलित हुआ।


        रस शास्त्र परिचय  (रसायन शास्त्र )


  यद्यपि धातुओं का औषधियों में प्रयोग चरक संहिता आदि में भी है किन्तु आठवीं सदी के पश्चात रस शास्त्र के विकास में नवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य के शिष्य गोविन्द भागवद पद ने 'रस हृदय तंत्र' की रचना कर धातुओं का आयुर्वेद में प्रयोग को शीघ्रता पूर्वक बढ़ाया।  रस हृदय तंत में पारे के प्रयोग का विवरण है। यूनानी चिकत्स्कों से मेल जॉल व यूनानी चिकित्सा से प्रतियोगिता ने  आयुर्वेद में धातु भष्मों के प्रयोग को बढ़ाया।

 रस शास्त्र औषधि बनाने , उन्हें सुरक्षित रखने की कला भी निर्देशित करता है।

  रस बागभट्ट रचित  (तेरहवीं या सोलहवीं सदी ) 'रसरत्नसम्मुच्चय ' आयुर्वेद में धातु प्रयोग की क्रांतिकारी व उत्प्रेरक ग्रंथ है।

माधव उपाध्याय ने 16 -17 वीं सदी में रस चिकित्सा में जितना भी अधिप्रमाणित साहित्य उपलब्ध हो सकता था उस साहित्य को संकलित कर 'आयुर्वेद प्रकाश ' का संकलन व सम्पादन किया।  आश्चर्य है कि इस ग्रंथ केबाद  रसशास्त्र पर कोई क्रांतिकारी व बृहद नई पुस्तक नहीं संकलित हई।

    आयुर्वेद के साथ बड़ी दुर्घटना यही हुयी कि अशोक काल से ही शासकों ने आयुर्वेद शास्त्र की सर्वथा अवहेलना की और आयुर्वेद शास्त्र समाज व विद्वानों के बल पर आज भी जीवित है।  वर्तमन में बाबा रामदेव के कारण आयुर्वेद चर्चा में है तो उसका श्रेय शासन  अपितु एक संस्कृति को जाता है।


       रस शास्त्र और उत्तराखंड

     

 गढ़वाल -कुमाऊं में स्वर्ण चूर्ण , ताम्र खानें , लौह खानें , गंधक होने से, बांस से सिलिकॉन , विष , लाख  आदि  भूतकाल से ही निर्यात होता रहा है साथ में तिब्तीय सुहागे का बिक्री केंद्र भी रहा है। इसका तातपर्य है कि खनिज कर्मियों व निर्यातकों को रस शास्त्र ( रसायन शास्त्र आदि ) का भरपूर ज्ञान था।  यह ज्ञान स्वयमेव पहाड़ों में भी फैला होगा।  सिद्ध व नाथ गुरुओं ने भी रस शास्त्र का उपयोग उत्तराखंड में किया होगा।

           केदारनाथ का शैव केंद्र होने से पारा रस विज्ञान विकास या ज्ञान प्रसारण  की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।


    हरिद्वार : रस शास्त्र विद्या आदान प्रदान केंद्र


   गंगा द्वार , मायापुरी या हरिद्वार (कनखल ), मयूरध्वज (वर्तमान बिजनौर ) प्राचीन काल से ही हिन्दू साधुओं , विद्वानों , नाथ व बुद्ध सिद्धों , जैन साधुओं का अध्ययन व पर्यटन केंद्र रहा है। आकलन कर सकते हैं कि सनातनी विद्या , बौद्ध विद्याएं व रस विज्ञान विद्या  का आदान प्रदान   हरिद्वार में प्रत्येक युग में होता रहा होगा। गढ़वाल कुमाऊं में भी रस सिद्धांत प्रसारण में हरिद्वार , मयूरध्वज का महत्वपूर्ण स्थान रहा ही होगा। 

 

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1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
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मेदनी शाह काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म के तंतु

Uttarakhand medical Tourism in Medanishah Period
(  में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -50

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  50               

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--155 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 155

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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 इतिहास लेखकों के अनुसार मेदनीशाह का शासन काल 1660 -1684 माना जाता है और उसने अपने पिता से शासन छीना था।  क्या औरंगजेब जैसी नेथ उस समय पहाड़ में फ़ैल चुकी थी ? मेदनीशाह काल गढ़वाल में पर्यटन व यात्रा दृष्टि से हलचल भरा था।

         रामसिंह का श्रीनगर आगमन


    औरंगजेब ने अपने भतीजे सुलेमान शाह को लौटाने हेतु सभी छल , प्रभोलन, भय दाता कार्य किये। औरंगजेब ने देहरादून व भाभर छीन लिया था।  कई राजनैयिक वार्ताएं चलीं। तब जाकर मेदनीशाह सुलेमान शाह को सौंपने तैयार हुआ।  12 दिसंबर  1660  को औरंगजेब ने जय सिंह के पुत्र राम सिंह को भाभर से सुलेमान को पकड़ कर लाने का आदेश दिया।  रतूड़ी अनुसार रामसिंह श्रीनगर आया और  पृथ्वीपति शाह से भी मिला था।  राम सिंह -मेदनीशाह के षडयंत्र भांपकर सुलेमान ने तिब्बत भागने का भी प्रयत्न किया था।

   मुस्लिम गाथा लेखक व मौलाराम अनुसार श्रीनगर नहीं आया था।  उनके अनुसार सुलेमान को लेकर मेदनीशाह भाभर पंहुचा और 27 दिसंबर 1660  के दिन राम सिंह को सुलेमान शिकोह को सौंपा।  2 जनवरी 1661  को राम सिंह व अन्य मनसबदारों के साथ दिल्ली ंहुचा। कुछ गाथा लेखकों अनुसार मेदनी शाह भी दिल्ली पंहुचा था।

     वास्तव में औरंगजेव ने तुरंत दून प्रदेश वापस नहीं सौंपा था। औरंगजेव की आज्ञा अनुसार मेदनीशाह ने बुटोल गढ़ जीता और औरंगजेब को सौंपा। मेदनीशाह दिल्ली पंहुचा व तब औरंगजेब ने दून परदेह वापस किया।

      लोककथाओं  में पुरिया नैथानी का दिल्ली दरबार में दर्शन देने की बात कही जाती है किन्तु इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं है।


       मेरी गंगा ह्वेलि मेरी पास आली


     एक बार कुम्भ में मेदनीशाह हरिद्वार गया।  प्रथा  अनुसार ब्रह्मकुंड में सर्व प्रथम स्नान गढ़ राजा करता था।  इस बार बहुत से राजाओं ने परिरोध किया और गढ़वाल राजा से पहले स्नान की योजना बनाई।  मेदनीशाह चंडीघाट में था।  उस रात मेदनीशाह ने कहा 'मेरी गंगा ह्वेलि मेरा पास आली ' .कहते हैं गंगा ब्रह्मघाट छोड़कर चंडीघाट की और बहने लगी।

     लगता है उस साल ऋषिकेश में कोई भयंकर भूस्खलन हुआ होगा जिससे  गंगा का रास्ता बदल गया होगा।  मेदनी शाह काल में हरिद्वार कुम्भ मेला  1664 , 1676 , 1688 में हुए होंगे। सुजन राय रचित 'खुलसत -उत   -तवारीख'' (1695 ) में उल्लेख है कि हर वर्ष बैसाखी में हजारों लोगों द्वारा आगरा सूबा के तहत हरिद्वार में स्नान व हर बढ़ साल में हरिद्वार कुम्भ मेला का वर्णन मिलता है जिसमे दूर दूर कोने कोने से लाखों तीर्थ यात्री भाग लेते थे।  हरिद्वार में पिंड दान , अस्थि विसर्जन का भी उल्लेख उपरोक्त ग्रंथ में है।

     

        गुरु रामराय का देहरादून आगमन


  गुरु राम राय को सिक्खों द्वारा गुरु पद न दिए जाने के कारण विद्रोह कर औरंगजेब से साथ मित्रता  करनी पड़ी व अंत में सन 1875 गढ़वाल के दून प्रदेश में खुड़बुड़ा गाँव में डेरा डालना पड़ा। 



Copyright @ Bhishma Kukreti  23 /3 //2018

ourism and Hospitality Marketing Management  History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...

उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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हरिद्वार  परिपक्ष्य में 1600 -1700 मध्य चिकत्सा वर्णन

Medical Tourism from 1600-1700 in context Haridwar
(  शाह काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )

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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास )  -51

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  Medical Tourism Development in Uttarakhand  (Tourism History  )  -  51                 

(Tourism and Hospitality Marketing Management in  Garhwal, Kumaon and Haridwar series--156 )   
    उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 156

 
    लेखक : भीष्म कुकरेती  (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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           बादशाह औरंगजेब के शासन में विशेष यूनानी चिकित्सक

 बादशाह औरंगजेब के शासन काल में यूनानी औषधि तंत्र में विकास हुआ।  औरंगजेबी ने कई औषधालय , शरबतआलाय खुलवाए। औरंगजेब की राजसभा  में निम्न प्रमुख यूनानी चिकित्स्क थे -
 हकीम अद -अल -रजक मशरब इस्फ़हान से औरंगजेब की सभा में आया था।
 हकीम मुहमद अमिन शिराजी प्रसिद्ध हकीम था और उसका बड़ा  सम्मान था।
 हकीम अलवाई खान का जन्म शिराज में हुआ था और 1700 ई में औरंगजेब की सभासद में सम्मलिता हुआ।
 हकीम शेख शिराजी औरंगजेब के समय भारत में आया था और औरंगजेब पुत्र शाह आजम खान काल में प्रसिद्धि पायी।
हकीम दाऊद इस्फ़हान से औरंजेब काल में आया था व शाह अब्बास की राजसभा में प्रमुख सभासद व चिकित्स्क था।
फ़्रांसिसी चिकित्स्क जो पहले दारा सिकोह का व्यक्तिगत चिकित्स्क था बाद में औरंगजेब की सभा में चिकित्स्क रहा।

नरुल हक सिरहिंदी ने प्लेग विषय पर 'ऐनल हयात ' पोथी रची।

 चिकित्स्क मुहम्मद अकबर अरजानी  (सत्रहवीं सदी अंत -अट्ठारहवीं सड़े प्रारंभिक काल ) ने तेरहवीं सदी की जुब्बुद्दीन समरकंदी की चिकत्सा पोथी का अनुवाद किया और कुनुन्चा की औषधि पुस्तक पर टीका लिखी। अरजानी ने कई अन्य पुस्तक भी लिखीं जैसे -तिब्ब -ए  -अकबर , मीजान -ए तिब्ब ,क़ुरबुद्दीन -ए -कादरी , मुफ़रीह -अल -क़ुतुब , मुजरब्बत -ए -अकबरी , हुदूद -ए -अमराज , तिब्ब -ए -हिंदी

 काजी मुहम्मद आरिफ ने तिब्ब -ए -काजी आरिफ 'पोथी की रचना की।


         सत्रहवीं सदी में रचित आयुर्वेद निघण्टु


 सत्रहवीं सदी में निम्न आयुर्वेदिक निघंटुओं  की रचना हुईं  -

लोलिम्बराज कृत -वैद्यवातम्सा अथवा वैद्य जीवन

केशव का कल्पद्रिकोष

त्रिमलभट्ट का द्रव्यगुण शतक व द्रव्य दीपिका

सूर्य कृत चूड़ामणि निघण्टु

माधवकारा  कृत पर्यायरत्नावली

हरिचरण सेन कृत पर्यायमुक्तावली जो पर्यायरत्नावली का परिमार्जित  ग्रंथ लगता है


 भारत में अन्य भाषाओँ में आयुर्वेद पर गन्थ रचे जा रहे थे जैसे  पंद्रहवीं सदी में आचार्य बल्लभाचार्य ने तेलगु  भाषा व संस्कृत में वैद्यचिंतामणि गंथ की रचना की


Copyright @ Bhishma Kukreti   24/3 //2018

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उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन श्रृंखला जारी …

                                    References

1 -भीष्म कुकरेती, 2006  -2007  , उत्तरांचल में  पर्यटन विपणन परिकल्पना , शैलवाणी (150  अंकों में ) , कोटद्वार , गढ़वाल
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास  part -4
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  Medical Tourism History  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History of Pauri Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Chamoli Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Rudraprayag Garhwal, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical   Tourism History Tehri Garhwal , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Uttarkashi,  Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Dehradun,  Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Haridwar , Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Udham Singh Nagar Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History  Nainital Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;  Medical Tourism History Almora, Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History Champawat Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;   Medical Tourism History  Pithoragarh Kumaon, Uttarakhand, India , South Asia;


Bhishma Kukreti

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  मेरे सपनों का गैरसैण: मेडिकल टूरिज्म की अलकापुरी !


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स्वप्नदृष्टा - भीष्म कुकरेती  (विपणन आचार्य )
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   वर्तमान में पहाड़ी भळक (बाढ़ ) जैसे ही पर्वत में उत्तराखंड राजधानी हेतु आंदोलन में गति दिख रही है।  यद्यपि अधिकतर शहरी उड्यार वासी ही इस आंदलोन में दृष्टिगोचर  हैं जिनमे बहुत जन दशाब्दियों से अपने गाँव नहीं गए और उन्हें  ज्ञान भी नहीं उनका गाँव है कहाँ। उत्तराखंड प्रेम ही ऐसा है।
      मैंने जब कुछ राजधानी  अलखजगांदरों से पूछा कि  गैरसैण तो उचित है किन्तु राजधानी कैसी होनी चाहिए तो अधिसंख्य का गुन गुन भौण  में उत्तर था बल पहले घोषित तो हो जाय तत्पश्चात चिंता -चिंतन करेंगे।  जो कृषि को नहीं जानते वे ही ऐसा उत्तर देते हैं।

           राजधानी आजीविकादायी होती है
    संसार में व्ही राजधानी सर्वोचित राजधानी मानी जाती है जो रहवासियों को अराजकीय स्तर पर आजीविका दे सके।  गैरसैण आंदोलन के सैण -मैस -गोशी तो राजकीय आजीविका व राजकीय सहायता को ही विकास मानते हैं और बिसर जाते हैं बल पहाड़ी गाँवों में वाहनपथ , जल , विद्युत् पंहुच गया है किन्तु विकास नहीं क्योंकि राजकीय वित्तीय सहायता (सब्सिडी ) से विकास नहीं आता है।  यदि सब्सिडी से विकास संभव होता तो साम्यवादी देस निर्धन न होते और बंगाल , केरल निर्धन प्रदेश न होते।
      तातपर्य है कि नव राजधानी का औचित्य तभी है जब राजधानी अपनी शक्ति से आजीविका दे सके।  आजीविका हेतु कृषि , कल कारखाने या सेवा उद्यम ही साधन हैं।  इनमे से १० किलोमीटर के वृत्त में गैरसैण में कुछ नहीं हो सकता है।  अर्थात पर्यटन  व अन्य सेवायें ही आजीविका जनक हैं।

     अग्नि पर पूर्णबंदी
  गैरसैण में 10 किलोमीटर वृतीय क्षेत्र में किसी भी कार्य यहां तक कि भोजनार्थ अग्नि जलन , पेट्रोल चलित बाहनों पर बिलकुल रोक होनी चाहिए। सर्व कार्य सौर ऊर्जा या अन्य वैकल्पिक ऊर्जा प्रबंधन से होंगे।

         चिकत्सा पर्यटन सर्वहितकारी पर्यटन

 इसमें दो राय नहीं हो सकती हैं बल गैरसैण को संसार प्रसिद्ध चिकित्सा स्थल निर्माण होने से ही सपनो की राजधानी सिद्ध होगी। इसके लिए अभी से निम्न कदम आवश्यक हैं
 अराजकीय उच्चस्तरीय  ऐलोपैथी औषधि महाविद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीय  आयुर्वेद औषधि महाविद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीय  यूनानी  औषधि महाविद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीयीय   होमिओपैथी  औषधि महाविद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीय स्त्री चिकत्सा परिचारिका  प्रशिक्षण विद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीय नर चिकित्सा परिचारिका   प्रशिक्षण विद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीय चिकत्सालय यंत्र तंत्र   प्रशिक्षण विद्यालय
अराजकीय उच्चस्तरीय चिकत्सा कम्प्यूटर व सॉफ्टवेयर   प्रशिक्षण विद्यालय
 उपरोक्त चिकित्सालयों के अतिरिक्त निम्न भी चिकत्सालय आवश्यक हैं -
अराजकीय उच्चस्तरीय   ऐलोपैथी चिकित्सालय
अराजकीय उच्चस्तरीय  आयुर्वेद चिकित्सालय
अराजकीय उच्चस्तरीय  यूनानी चिकित्सालय
अराजकीय उच्चस्तरीय  होमेओपेथी चिकित्सालय
 विशेष पर्यटन आकर्षी चिकित्सालय जैसे हृदय ओप्रेसन चिकित्सालय
मनोरोगी चिकित्सालय
  कम से कम विश्व स्तरीय 100 नर्सिंग होम्स
    उपरोक्त को संबल देने हेतु निम्न अराजकीय संस्थान भी आवश्यक हैं -
1o योग केंद्र
2 विपासना केंद्र
10 स्पा होटल्स
 कई विश्व स्तरीय होटल्स
 परिहवन  सेवायें
उपरोक्त संस्थाओं हेतु मकान , शिक्षा , आधारभूत सुविधाओं का निर्माण व बाजार  निर्माण

उत्तराखंड सरकार में पृथक  मेडिकल पर्यटन मंत्रालय

      उत्तराखंड सरकार में पृथक  मेडिकल पर्यटन मंत्रालय भी आवश्यक है जो निम्न कार्य करे -

 अराजकीय संस्थानों को संस्थान खोलने हेतु काय करे और प्रशासनिक झंझटों जुगाड़ , लालफीताशाही दूर करे
  एक  मेडिकल टूरिज्म बैंक की स्थापना कर चिकित्सा पर्यटन हेतु छोटे छोटे उद्यमों को वित्तीय प्रबंधन का प्रबंध करे
  हर जनपद में मेडिकल टूरिज्म ट्रेनिंग सेंटर्स खोले जायँ
   
      मेरे सपनों का गैरसैण: मेडिकल टूरिज्म की अलकापुरी ! श्रृंखला - ... 2

Dream Uttarakhand Capital Gairsain; Dream Uttarakhand (Himalaya )Capital Gairsain; Dream Uttarakhand  (North India) Capital Gairsain; Making Gairsain a Medical Tourist Destination ; Ayurveda Hospitals in Gairsain; Allopathic Hospitals in Gairsain; Homeopathy Hospitals in Gairsain;








 

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