Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन

Honour Of State Movement Heroes - उत्तराखण्ड आन्दोलन के आन्दोलनकारियों का सम्मान

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पंकज सिंह महर:
असल आंदोलनकारियों का सम्मान

देहरादून, जागरण ब्यूरो: सन् 1979 को राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण का वर्ष घोषित करना उक्रांद के लिए बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि यह उक्रांद की ही मांग रही है। भाजपा द्वारा अपने सहयोगी दल को दी गई इस सौगात के कई राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। उक्रांद इसे असल आंदोलनकारियों का सम्मान मानता है। उत्तराखंड आंदोलनकारी कल्याण परिषद की अध्यक्ष सुशीला बलूनी कहती हैं कि इस निर्णय का बहुत अधिक फायदा नहीं होगा, क्योंकि जंगल काटने पर मुकदमा झेलने वालों को राज्य आंदोलनकारियों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। जन आंदोलन तो 1994 में ही हुआ। यह बात ठीक है कि कुछ लोगों में राज्य के प्रति जुनून था, उन्होंने उसे प्रदर्शित भी किया, लेकिन चिन्हीकरण के लिए प्रमाण भी तो देने होंगे।

* सत्ता में आते ही सुर बदल गये, इनसे ये उम्मीद नहीं थी, क्योंकि इन्हीं जनान्दोलनों से उत्तराखण्ड आन्दोलन की शुरुआत हुई।

इसलिए लगता है कि इसका बहुत अधिक लाभ नहीं मिल पाएगा। सरकार की घोषणा के साथ ही कैबिनेट मंत्री दिवाकर भट्ट ने कहा था कि 1979 से आंदोलनकारियों का चिन्हीकरण उक्रांद का मुद्दा है। यह उक्रांद के लिए बड़ी जीत है। श्री भट्ट के अनुसार 1994 में अचानक जन आंदोलन खड़ा नहीं हो गया। किसी भी जन आंदोलन के लिए एक बड़ी पृष्ठभूमि की जरूरत होती है, जो उक्रांद ने 1979 से बनानी शुरू की थी। उनके अनुसार कांग्रेस द्वारा किया गया आंदोलनकारियों का चिन्हीकरण राजनीति से प्रेरित था। श्री भटट कहते हैं कि पेड़ों का कटान व पानी का आंदोलन इसी के हिस्से थे। उक्रांद नेता काशी सिंह ऐरी कहते हैं कि यह उक्रांद के नौ बिंदुओं में से एक है। भाजपा ने उक्रांद की एक मांग मानी है। श्री ऐरी कहते हैं कि पेड़ काटना राज्य आंदोलन का हिस्सा था। सरकार को आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण के लिए मानकों को शिथिल करना चाहिए। इससे असल आंदोलनकारियों का सम्मान हो सकेगा। उत्तराखंड राज्य के गठन की मांग को लेकर 1979 में उत्तराखंड क्रांति दल का गठन किया गया था। उसके बाद राज्य की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हुए। राज्य गठन के लिए शुरू हुए इस आंदोलन के कई रूप थे। जैसे विकास कार्यो में अवरोध बने जंगलों का कटान हुआ। पानी के लिए भी आंदोलन हुआ। उक्रांद इस मांग को ठीक चुनाव से पहले मानने के सरकार के निर्णय के पीछे राजनीतिक निहितार्थ भी छिपे हो सकते हैं।
 

shailesh:
आन्दोलनकारियों का सम्मान , यह बात मेरी समझ से परे है , क्यूंकि जिस तरह से सरकारें अपना शासन चला रही है उससे तो एक बात साफ़ होती है की जनता को फिर एक आन्दोलन के लिए तैयार होना पड़ेगा !  हालात आज भी वैसे ही है जैसे उत्तराखंड राज्य बनाने से पहले थे, बल्कि और ज्यादा खतरनाक हो गए हैं , एक अलग राज्य बनाने से पहाड़ के दलाल , माफिया ,..इत्यादि   अब  या तो सरकार मे हैं या उन सबको सरकारी संरक्षण प्राप्त है! हालात इसलिए भी वैसे है जैसे राज्य बनाने के पहले थे , क्यूंकि सरकारों की सोच मे कोई बदलाव नहीं आया है , पहले यही सरकार आन्दोलनकारियों को अलगाववादी मानती थी ,आज ये सरकार , अपनी जल ,जंगल ,जमीन के हकों की बात करने वाले आन्दोलनकारियों को माओवादी कहती है ! इसलिए मेरी समझ मे ये नहीं आ रहा है की सरकार किन लोगों का सम्मान कर रही है , और कैसा सम्मान कर रही है !

vivekpatwal:
शुक्र है हमारी सरकार को कुछ तो याद आया,
मुझे लगता है की हमारे देश मै हर ६ महीने या साल भर मै चुनाव होने चाहिए, क्योंकि उस वक़्त सरकारें बहुत काम करती है,   :)

हेम पन्त:
राज्य बने 8 साल गुजर गये लेकिन अभी भी न बेरोजगारी और पलायन कम हुआ है, न ही भ्रष्टाचार... न ही खेतों में पानी पहुंचा और न ही शिक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय प्रगति हुई..

उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान लिखे गये, समाज के हर तबके की अपेक्षाओं को दर्शाने वाले नरेन्द्र सिंह नेगी जी के इस गाने पर हमारे नीति-नियंताओं की नजर शायद अब तक नहीं गयी है...

बोला भै-बन्धू तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
हे उत्तराखण्ड्यूँ तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
जात न पाँत हो, राग न रीस हो
छोटू न बडू हो, भूख न तीस हो
मनख्यूंमा हो मनख्यात, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्

बोला बेटि-ब्वारयूँ तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
बोला माँ-बैण्यूं तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
घास-लखडा हों बोण अपड़ा हों
परदेस क्वी ना जौउ सब्बि दगड़ा हों
जिकुड़ी ना हो उदास, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्

बोला बोड़ाजी तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
बोला ककाजी तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
कूलूमा पाणि हो खेतू हैरयाली हो
बाग-बग्वान-फल फूलूकी डाली हो
मेहनति हों सब्बि लोग, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्

बोला भुलुऔं तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
बोला नौल्याळू तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
शिक्षा हो दिक्षा हो जख रोजगार हो
क्वै भैजी भुला न बैठ्यूं बेकार हो
खाना कमाणा हो लोग यनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्

बोला परमुख जी तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
बोला परधान जी तुमथैं  कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्
छोटा छोटा उद्योग जख घर-घरूँमा हों
घूस न रिश्वत जख दफ्तरूंमा हो
गौ-गौंकू होऊ विकास यनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्!!

हेम पन्त:
पंकज दा आपने उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनकारियों से सम्बन्धित बहुत ही गम्भीर सवाल उठाया है, सरकार आन्दोलनकारियों का सम्मान तो कर रही है, लेकिन आन्दोलनकारियों का चिन्हीकरण करने की जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है उस पर कई उंगलियां उठ रही हैं.

अभी भी ऐसे कई सच्चे आन्दोलनकारी हैं जिन्होने अपना कैरियर और भविष्य राज्य प्राप्ति के लिये न्यौछावर कर दिया लेकिन उनका बलिदान "धरमखाते" में ही चला गया. वो लोग आन्दोलनकारियों की सूची में भी नही हैं. जबकि बङे राजनीतिक दलों के मक्खनबाज फर्जी तौर पर आन्दोलनकारी घोषित हो चुके है. राज्य के उक्रांद कोटे के कैबिनेट मन्त्री दिवाकर भट्ट जी को एक अग्रणी और जुझारू आन्दोलनकारी के रूप में सभी जानते और मानते हैं. लेकिन इससे ज्यादा हास्यास्पद बात क्या हो सकती है कि मीडिया में वो कहते हैं "इस मसले में मैं क्या बोलूं, खुद मेरा ही नाम राज्य आन्दोलन्कारियों की लिस्ट में नही है?"

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