Author Topic: Articles & Poem on Uttarakhand By Brijendra Negi-ब्रिजेन्द्र नेगी की कविताये  (Read 29493 times)

Brijendra Negi

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पावक ज्वाला   

    49

उस रिस्वत से प्यार मुझे
जो दूसरा लाकर जेब में डाला,
उस भेंट से प्रेम मुझे
जो अपने आप चढ़ जाये माला,

जीवन भर किया परिश्रम
संतोष नहीं मेहनतताने में,
मिल जाती है बिना मेहनत के
कितनी सुंदर रिस्वत ज्वाला।

    50

नहीं चाहता आगे बढ़कर
छीनूँ मैं औरों का प्याला,
नहीं चाहता आगे बढ़कर
औरों का निकलावाऊँ दिवाला,

लेकर रिस्वत बंद हुआ तो
रिस्वत देकर ही छूटा,
रिस्वत ऐसी चीज है जो
नस नस में धधकाए ज्वाला।

    51

यह न समझना गटका अकेले
जब भी मुझे मिला निवाला,
अपने अधीनस्थों के मुंह में भी
दुकड़ा है अनुपात में डाला,

जब पदार्पित हुआ विरोधी
उसका मुंह भी बंद किया,
मुंह में उसके डाल निवाला
बुझाई है विरोध की ज्वाला।

    52

कुर्सी छूटते ही कितनों ने
गिरगिट सा रंग बदल डाला,
स्थानांतरण पर कितनों ने
दिखाई आंखो की ज्वाला,

वक्त से पहले स्थानांतरण से
असुरक्षा पनपने लगती है,
डोलते हुये सिंहासन से
अधिक धधकती रिस्वत की ज्वाला।

क्रमश.....

Brijendra Negi

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पावक ज्वाला


53

देख रहा हूँ अपने सम्मुख
कब से माणिक की माला,
देख रहा हूँ अपने आगे
कब से रिस्वत का प्याला,

बस अब और नहीं कह कह कर
दौड़ता रहा रिस्वत के पीछे,
लक्ष्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया
बढ़ती रही लालच की ज्वाला।

54

एक समय संतुष्ट बहुत था
ले कर थोड़ी सी हाला,
निष्पक्षता से कार्य करता था
उथला था मेरा प्याला,

उथले से इस प्याले से
संतोष परम आनंद था,
गहरे होते इस प्याले ने
बढ़ाई अधिक रिस्वत की ज्वाला।

55

जितनी अभिलाषा थी
उससे कम ही मिलीं हाला,
जितनी मिली जीवन में
उससे न बुझ पाई ज्वाला,

जिस लक्ष्य के पीछे भागा था
प्राप्त न उसको कर पाया,
जिसके पीछे उग्र हुआ था
शांत न हो पाई वह ज्वाला।

56

पाप अगर लेना है रिस्वत
तो उतना ही देने वाला,
साथ में वो भी है सहभागी
जो कार्य कराते बिन नियम वाला,

साथ इन्हें भी ले चल मेरे
न्याय यही बतलाता है,
मेरे संग-संग इनकी भी
बुझे इस जीवन की ज्वाला।

क्रमश.....

Brijendra Negi

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पावक ज्वाला


     57

बहुतेरे चपल, चतुर देखे
बहुतेरी देखी रिस्वत की हाला,
भांति - भांति के आए लेकर
हाथों में थामे प्याला,

एक से बढ़कर एक शख्स ने
मेरा खूब सम्मान किया,
जब तक थी कुर्सी की ताकत
धधकती रही प्रतिष्टा की ज्वाला।

    58

रिस्वत लेना किसे न भाता
जब बंटती हो हर तरफ हाला,
इस देश के प्रत्येक कार्य में
मिल जाती है काली हाला,

अपने अपने ढंग से सब
बटोर रहे हैं रिस्वत हल्ला,
एक सभी का मकसद है
एक सभी की  है ज्वाला।

    59

ईमानदारी से करता था जब
चिल्लाते थे उसने खा डाला,
मुझे न चाहत थी रिस्वत की
मुझमें न धधकती थी ज्वाला,

मिलन कराया पहले रिस्वत से
अब कहते हो छोड़ इसे,
अभी-अभी तो आग सुलगी है
अभी कैसे बुझाऊँ इसकी ज्वाला ?

    60

वह रिस्वत जो शांत कर सके
मेरे अंदर की ज्वाला,
नही मिली है अब तक मुझको
ऐसी कोई रिस्वत  हाला,

रिस्वत नहीं कहलाती वह
जो सब में बाटीं जाती हो,
मिल जाए जो मुझे अकेले
नहीं मिली अब तक ऐसी ज्वाला।

क्रमश.....

Brijendra Negi

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पावक ज्वाला

    61

कभी निरासा का तम घिरता
मिलता नहीं रिस्वत का प्याला,
कभी संबंधी घर आ जाते
और कभी आ जाता साला,

कभी अधीनस्थ ख्वाब दिखाकर
कर देता है खुद घोटाला,
कभी आँख मिचौली करती
मुझसे ये रिस्वत की ज्वाला।

    62

जिसने मुझको नहीं दिया
खुश रहे वह न देने वाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया
बना रहे वह भी मतवाला,

रिसवतखोरों की जिह्वा से
कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझे
अशांत रहे उसकी भी ज्वाला।

    63

पास न आए दुखमय  जीवन
इसलिए पी रिस्वत की हाला,
भावी चिंताओं से बचने
मैंने अकूत धन कमा डाला,

सुख सुविधा और ऐयासी से
जीने को लेता रिस्वत
ताकि शान और प्रतिष्टा से
प्रज्वलित रहे प्रतिष्टा के ज्वाला।

    64

अलग हो रही हो पत्नी यदि
सुन कर रोज नया घोटाला,
दौड़ – दौड़ बहुतेरी होंगी
देखते ही नोटो की माला,

भूलने न देंगे बिछोह पत्नी का
फलभर भी अलग न हों,
हर पल गले में बाहें डाले
खूब भड़काए यौवन ज्वाला।

क्रमश.....

Brijendra Negi

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कच्ची

उत्तराखंड आंदोलन पर हिन्दी मा ल्यख्यूँ “उत्तराखंड जल उठा” प्रबंध काव्य कु बाढ़ “”कच्ची” गढवली मा दुसरु काव्य प्रस्तुत कन्नु छौ। यो गढ़वाली मा म्यारू पैलू प्रयास चा। ये काव्य थै पढ़ ना मा अर सामझणम दिक्कत भी हवेली पर फिर भी धीरे धीरे पैढ़ी की समझ भी आ जाली।

    (1)

क्वादु – झुंगरु-जौ की मेरि
आज बणा कै ल्यही कच्ची,
द्वी घूंट पे  कि   जैथै
खड़ा घुंजा ह्वे जाला सच्ची,

पैलु आचमन पटवरी कु
फिर वेकु चपड़सी कु,
तिसरु आचमन पंच, प्रधान कु
तब हौ र्यूँ कु मेरि कच्ची।

    (2)

क्वादु – झुंगरु – जौ – अनाज
सड़ाकी बणान्दु मि कच्ची,
वेका दगड़ा जलुड़ा – बुट्ला
नौसादर भी चा सच्ची,

नि मिल्दु नौसादर त
बैटरी का स्यल थिंची,
नशा जर्रा भी कम नि ह्वा
ध्यान बणान्द दा कच्ची।

    (3)

स्वाद – सवाद- सवादी लग
यो भि सोचदु मि सच्ची,
लिम्बा – नारंगी का छिलका
वाखुण मिलान्दु मि कच्ची,

हिंसरा – किनग्वड़ा का जलुड़ा
खैणी ल्यान्दु मि  तज्जा,
खुर्सी – खर्सी, थींच-थांची कि
रालि बणान्दु मी कच्ची।

      क्रमश....

Brijendra Negi

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कच्ची

उत्तराखंड आंदोलन पर हिन्दी मा ल्यख्यूँ “उत्तराखंड जल उठा” प्रबंध काव्य कु बाढ़ “”कच्ची” गढवली मा दुसरु काव्य प्रस्तुत कन्नु छौ। यो गढ़वाली मा म्यारू पैलू प्रयास चा। ये काव्य थै पढ़ ना मा अर सामझणम दिक्कत भी हवेली पर फिर भी धीरे धीरे पैढ़ी की समझ भी आ जाली।

    (1)

क्वादु – झुंगरु-जौ की मेरि
आज बणा कै ल्यही कच्ची,
द्वी घूंट पे  कि   जैथै
खड़ा घुंजा ह्वे जाला सच्ची,

पैलु आचमन पटवरी कु
फिर वेकु चपड़सी कु,
तिसरु आचमन पंच, प्रधान कु
तब हौ र्यूँ कु मेरि कच्ची।

    (2)

क्वादु – झुंगरु – जौ – अनाज
सड़ाकी बणान्दु मि कच्ची,
वेका दगड़ा जलुड़ा – बुट्ला
नौसादर भी चा सच्ची,

नि मिल्दु नौसादर त
बैटरी का स्यल थिंची,
नशा जर्रा भी कम नि ह्वा
ध्यान बणान्द दा कच्ची।

    (3)

स्वाद – सवाद- सवादी लग
यो भि सोचदु मि सच्ची,
लिम्बा – नारंगी का छिलका
वाखुण मिलान्दु मि कच्ची,

हिंसरा – किनग्वड़ा का जलुड़ा
खैणी ल्यान्दु मि  तज्जा,
खुर्सी – खर्सी, थींच-थांची कि
रालि बणान्दु मी कच्ची।

    (4)

सब्बि कुछ कनस्तरुन्द भोरी कि
मारि बुजिनु मोल कु कच्ची,
रौलों – रौलों खड्वला खैणी
लुका कै आन्दु मि सच्ची,

पटवरी, प्रधान, पुलिस कु
डौरल लुक्यूँ रैन्दु कखी-कखी,
कभि   रौलों   थड़कान्दु
कभि उबर नितरदु कच्ची।

    (5)

कभि रौलों, कभि पुंगड़ा ढीस
भट्टि बणान्दु  मि सच्ची,
जंक जोड़ जन्नि-कन्नि कै
दारू थड़कान्दु कच्ची,

जब तक दारू चून्दी नी चा
कंदूड़ खड़ा रन्दी सच्ची,
जिकुड़ी झुरणी रैन्द दगड़ी
क्वी द्यख्णू त नीच ईं कच्ची।

    (6)

भारि मुश्किल हुयीं रैन्द
अकलकंट लगीं रैन्द सच्ची,
इत्गा सौंगु नि रयूँ चा
तैयार कन्नु ईं कच्ची,

तैयार कैकि लुकाण प्वड़द
कभि कखि, कभि कखि,
तंग ह्वे जांदु लुकान्द-लुकान्द
इनै – उनै   ईं   कच्ची।

क्रमश....

Brijendra Negi

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कच्ची

    (7)

कभि बुखड़ी पुटुग लुकान्दु
कभि सग्वडु लुकान्दु सच्ची,
कभि छन्नी, कभि बखर्वट
कभि टांड़ लुकान्दु ई कच्ची,

इक्खु जग्गा नि धर्दु
जग्गा बदल्दु रोज-रोज,
पीणवलों की टक्क लगी रैन्द
चोरी कन्ना ई कच्ची।

    (8 )

रात दिन एकी चिन्ता
कख जि लुकौं अब सच्ची,
फिर्भी नशेड़ी खुज्या दिन्दी
सूँघी – सूँघी ईं कच्ची,

म्वाड़ा म्वरी यूँ नशेड्यू का
चोरी ल्ही जंदी सच्ची,
बाकि खत-पत कैकी खत्यां
खैत जंदी ईं कच्ची।

    (9)

बणान्दु छौ बक्कि-बातकि
क्वी नि बणान्दु  इन सच्ची,
सर्या पट्टी मा पसरीं चा
मेरि भट्टि कि कच्ची,

बच्चा, ज़्वान, अधेड़, बुढ्या
लुक लुकी पिंदी सच्ची,
दूर-दूर तक जान्द मेरि
हर कारिज मा कच्ची।

क्रमश....

Brijendra Negi

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कच्ची


    (10)

जैलि नि प्याई वो शरब्बि
पछता पेकि मेरि कच्ची,
वैथै कभि इन्नु नशा नि ह्वा
जत्गा कर्द मेरि कच्ची,

रम प्याई, ह्विस्की प्याई
बोतल   सर्या – सर्या,
नशा कि बराबरी कैर नि साका
म्यारू एक अध्या कच्ची।


    (11)

तीज-त्योहार, द्वादश-बर्षी मा
पैल खुज्यन्दी पक्की-कच्ची,
सांगि पर कंधा दीन्दी
कीसन्द अध्या धैरि सच्ची,

एक तरफ म्वाड़ा कि
चिता सुलगणी रैन्द,
हैका तरफ म्वडै बैठ्या
दारू पिंदी पक्की-कच्ची।


    (12)

म्वनु वलु त मोरि ग्या
स्वर्ग तैरि ग्या सच्ची,
आखिरि इच्छा बथान्दु छा
म्वड़यूँ थै पिलयां कच्ची,

म्वडै ब्वल्दी रूणू किलै छै ?
एक दिन सब्यूँल जाण,
आँसू पूंछ कै चट्ट मंगादि
द्वी-चार बोतल कच्ची।

क्रमश....

Brijendra Negi

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कच्ची


     (13)

कंधो मा द्वी मील लिजाण
उकलि-उंधारी मा सच्ची,
म्वर्यू आदिम घर्रू हून्द
नि लिजेन्दु बिना पियाँ सच्ची,

कंधा रेच्येन्दी साँगी ला
हिल-हिल कै सच्ची,
खैरि कु पता नि चल्दु
जब खूब पियीं ह्वा कच्ची।

    (14)

द्वादश, बर्षी कु ब्रह्मभोज मा
दारू चैन्द पक्की- कच्ची,
दान-दक्षणा भले नि मिल्या
मिल जा एक अध्या कच्ची,

सर्यूल भी ब्रह्मभोज पकान्द
बोतल मांगी एक पक्की,
राम-व्हिस्की यदि नि ह्वे
द्वी बोतल चैन्दी कच्ची।


    (15)

ब्यो-कारीजूँ मा काम हुन्दी
जब मिल्द पक्की-कच्ची,
जख नि मिल्दी पीणा खुण
वख घपरौल हून्द सच्ची,

हर कैका ब्यूंत मा
खप जांद य कच्ची,
ब्यो-कारिजूँ मा घपरोल नि हून्दु
जब मिल जान्द पक्की-कच्ची।

क्रमश....

Brijendra Negi

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कच्ची

    (16)

ब्यालि पल्या  गाँ मा
एक ब्यो छा सच्ची,
दारू खतम हून्दी वख
भारी घपरोल मच्ची,

कलच्वणी पाणि तब मिल
छाण गरम कैकि वक्खी,
कंट्री भोरी पिलायो मि
शरब्यू थै बोली कच्ची।

    (17)

अध्धा राति छुट कै औ
जब अप्णु घार मि सच्ची,
हैरान रैग्यो घार मा
देखी पुलिस अचाणचक्की,

मेरि जननि वूँ थै पिलाणी
खटला मा बैठा कि कच्ची,
थमलि निकाली की अध्धाराति
मिल बचा जननि अर कच्ची।

    (18)

न्यूतेर का दिन अब
कौक्टेल जरूरि चा सच्ची,
ब्यूंतु माँ कैकु ह्वा नि ह्वा
पिलाणी जरूरि चा सच्ची,

जैकु ब्यूंतु जादा रैन्द
कट्ठा कर्द वो पक्की,
जैकु ब्यूंतु कम रैन्द
ल्हे कै पिलान्द कच्ची।

क्रमश....

 

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