Author Topic: Burninig Issues of Uttarakhand Hills- पहाड़ के विकास ज्वलन्तशील मुद्दे  (Read 18459 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
बेवल का प्रयोग : ग्रामसभा की ताकत साबित हुई......
 
 बेवल का यह प्रयोग अद्भुत है, अनुकरणीय है, देश की बाक़ी पंचायतों के लिए, क्योंकि इसने साबित किया कि ग्रामसभा से बढ़कर कोई नहीं, न विधायिका और न कार्यपालिका. जनता सबसे ताक़तवर है. यह प्रयोग गांधी जी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करता है. इसने बताया कि नामुमकिन कुछ भी नहीं. ज़रूरत बस एकजुट होने की है, एक ईमानदार कोशिश करने की है.
 
 दिल्ली और मुंबई में हमारी सरकार, लेकिन हमारे गांव में हम ही सरकार. यानी हमारा गांव हमारी सरकार. एक अच्छे लोकतंत्र की इससे सच्ची परिभाषा शायद दूसरी नहीं हो सकती. गांधी जी का भी यही सपना था. रामराज, सुराज या स्वराज या कहें पंचायती राज. पंचायती राज नामक इस संस्था को कमज़ोर बनाने की हरसंभव सरकारी और ग़ैर सरकारी कोशिशें की जाती रही हैं, लेकिन 13 सितंबर, 2010 की रात हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िले की बेवल पंचायत में जो कुछ हुआ, वह पंचायती राज के इतिहास में दर्ज हो गया. एक ऐसा इतिहास, जो आने वाले समय में देश की पंचायती राज संस्था का भविष्य बदल सकता है. उस रात पूरा गांव जाग रहा था. पंचायत भवन में गांव के लोग जमा थे. ज़िले के दो वरिष्ठ अधिकारियों को भी जागने के लिए मजबूर होना पड़ा.
 
 महेंद्रगढ़ ज़िला मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर दूर बेवल गांव भी आम भारतीय गांवों की तरह ही है. एक पारंपरिक गांव. कुछ अच्छाइयां, कुछ बुराइयां समेटे. एक ऐसा गांव, जहां विकास दिखता नहीं, स़िर्फ काग़ज़ों पर दौड़ता है. गांव के ज़्यादातर लोगों के लिए जीने का सहारा खेती ही है, लेकिन सिंचाई की कोई सुविधा नहीं है. आप इससे आसानी से गांव वालों की माली हालत का अंदाज़ा लगा सकते हैं. बेवल पंचायत भी अब तक देश की बाक़ी पंचायतों की तरह ही काम कर रही थी. सरपंच का प्रपंच, भ्रष्टाचार और विकास राशि का दुरुपयोग, ये सारी बुराइयां इस पंचायत के लिए कोई नई बात नहीं थीं. बावजूद इसके गांव का सरपंच लगातार दो बार से चुनाव जीत रहा था. समस्या यह थी कि लोग आख़िर चुनें किसे, अगर ईमानदार व्यक्ति का विकल्प हो ही न. लोगों के पास कोई अच्छा व्यक्ति विकल्प के तौर पर नहीं था. लेकिन जून 2010 में हुए पंचायत चुनाव के समय विकल्पहीनता की यह स्थिति ख़त्म हो गई. गांव के लोगों को एक ईमानदार एवं योग्य उम्मीदवार मिल चुका था. इस बार के चुनाव में निवर्तमान सरपंच महावीर सिंह का मुक़ाबला नए उम्मीदवार संजय ब्रह्मचारी उर्फ स्वामी जी से हुआ. दरअसल, गांव के लोगों ने ही स्वामी जी को सरपंच का चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया था. उम्मीदवार बनते ही 40 वर्षीय स्वामी जी ने ऐलान किया कि सरपंच बनने पर वह गांव से जुड़े सभी फैसले ग्रामसभा की खुली बैठक में लेंगे. यह घोषणा गांव वालों के लिए किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं थी.
 
 दरअसल बेवल में ग्रामसभा की खुली बैठक कभी हुई ही नहीं थी. गांव वालों को यह बात समझ में आ गई कि ग्रामसभा की खुली बैठक होने से उन्हें ही फायदा होने वाला है. नतीजतन, स्वामी जी को जनता का पूर्ण समर्थन मिला. पंचायती राज को लेकर स्वामी जी के विचारों से गांव वाले इतने प्रभावित हुए कि प्रचार पर बिना पैसा ख़र्च किए स्वामी जी क़रीब पांच सौ वोटों से सरपंच का चुनाव जीत गए. ध्यान देने की बात यह है कि सरपंच का चुनाव पांच सौ वोटों से जीतना अपने आपमें बड़ी बात है. चुनाव जीतने के बाद नए सरपंच यानी स्वामी जी ने अपना वादा याद रखा. अपना काम शुरू करने से पहले स्वामी जी ने कहा कि वह सरपंच का कार्यभार संभालने की कार्यवाही ग्रामसभा की खुली बैठक में करना चाहते हैं.
 
 पंचायती राज क़ानून कहता है कि जो सरपंच चुनाव हारता है, उसे नवनिर्वाचित सरपंच के हाथों में कार्यभार सौंपना होता है. इस हस्तांतरण के तहत पुराना सरपंच अपने कार्यकाल के दौरान रखे गए खातों और काग़ज़ातों को नए सरपंच के हवाले करता है. एक चली आ रही परंपरा (हालांकि इसे सही नहीं माना जा सकता) के मुताबिक़, अधिकारी इन खातों को सरपंच को अकेले में सौंपकर उससे कार्यभार संभालने संबंधी काग़ज़ पर हस्ताक्षर करा लेते हैं. इस मामले में भी उसी परंपरा को दोहराने की कोशिश की गई, लेकिन स्वामी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया. महीना बीत गया. अधिकारी ग्रामसभा की खुली बैठक में कार्यभार सौंपने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे. एक दिन ग्राम सचिव समेत कुछ अधिकारी कार्यभार सौंपने के लिए पहुंचे. स्वामी जी ने ग्रामसभा की बैठक बुला ली. जब काग़ज़ों का मिलान शुरू हुआ तो उनमें भारी गड़बड़ी पाई गई. जमा शेष और वास्तविक राशि में बहुत अंतर था.
 
 स्वामी जी के मुताबिक़, गांव के तमाम फंडों से लगभग साढ़े तीन लाख रुपये की राशि सरपंच ने अपना कार्यकाल ख़त्म होने के बाद निकाल ली. जबकि नियम के मुताबिक़, कार्यकाल ख़त्म होने के  बाद सरपंच गांव के किसी भी फंड से पैसे नहीं निकाल सकता और उसे सारे काग़ज़ात उसी व़क्त प्रखंड विकास अधिकारी के पास जमा करने होते हैं. इसके अलावा रिकॉर्ड में कई और गड़बड़ियां थीं. स्वामी जी ने कहा कि वह कार्यभार तभी संभालेंगे, जब इन सारी गड़बड़ियों को अधिकारी लिखित रूप में देंगे. अधिकारी अगले दिन आने और सब कुछ लिखित रूप में देने का आश्वासन देकर चले गए, लेकिन अगले कई दिनों तक वे आए ही नहीं. उल्टे स्वामी जी को नोटिस मिल गया कि उन्होंने अधिकारियों को गांव में बंधक बनाकर रखा. प्रशासन की मनमर्जी यहीं ख़त्म नहीं हुई. कार्यभार न सौंपे जाने के लिए स्वामी जी को ज़िम्मेदार ठहराते हुए ज़िले के डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें एक कारण बताओ नोटिस थमा दिया कि क्यों न उन्हें निलंबित कर दिया जाए. जबकि हरियाणा पंचायती राज अधिनियम 1994 ऐसे किसी आधार पर एक निर्वाचित सरपंच को निलंबित करने का अधिकार डीसी को नहीं देता. दिलचस्प रूप से इस मामले में मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से मिलने पर भी कुछ नहीं हुआ, लेकिन स्वामी जी के साथ पूरा गांव खड़ा था, इसलिए प्रशासन को झुकना ही पड़ा.
 
 13 सितंबर को सुबह दस बजे ज़िले के दो आला अधिकारी मामले को निपटाने के लिए गांव पहुंचे. ज़िला विकास एवं पंचायत अधिकारी (डीडीपीओ) दीपक यादव और अतिरिक्त उपायुक्त (एडीसी) पंकज. स्वामी जी ने अधिकारियों के पहुंचते ही ग्रामसभा की बैठक बुला ली. गांव के एक प्राचीन मंदिर के पास एक हॉल के अंदर सुबह 11 बजे अधिकारियों की मौजूदगी में ग्रामसभा की बैठक शुरू हुई. काग़ज़ों से भरी दो बोरियां सबके सामने रखी गईं. इसके बाद एक-एक करके उन रिकॉर्ड्स और वाउचरों का मिलान करने का काम शुरू हुआ. हर काग़ज़ात की जांच हुई. एक के बाद एक गड़बड़ियां सामने आ रही थीं. कैशबुक में दिखाई गई राशि से कहीं ज़्यादा पैसे निकाले गए थे. कई जगहों पर वाउचर एंट्री की गई, लेकिन उसकी रसीदें नहीं थीं. कहीं कैशबुक में एंट्री थी, लेकिन मस्टररोल का पता नहीं चल रहा था. गांव के कई फंडों से लाखों रुपये अवैध रूप से निकाले जाने की बात सामने आई.
 पूर्व सरपंच महावीर सिंह इस पूरी कार्यवाही के दौरान ग़ायब रहा. अधिकारी क़रीब नौ घंटे तक ग्रामसभा में बैठे रहे.
 
 कई घंटे से चल रही कार्यवाही के बावजूद यह तय नहीं था कि कार्यभार सौंपा जा सकेगा या नहीं. क़रीब नौ घंटे बाद यह पाया गया कि कार्यभार संभालने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण ज़्यादातर मुख्य रिकॉर्ड्स का मिलान किया जा चुका है, लेकिन अब भी एक सवाल यह था कि सामने आई धांधलियों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा. अधिकारी कुछ भी लिखित में देने से कतरा रहे थे, लेकिन स्वामी जी तब तक कार्यभार संभालना नहीं चाहते थे, जब तक अधिकारी सब कुछ लिखित रूप में न दे दें. ग्रामसभा में मौजूद लोगों की तऱफ से उन्हें मिलने वाले समर्थन के कारण अधिकारी गड़बड़ियों के बारे में लिखित देने के लिए तैयार हो गए. अंतत: रात सवा आठ बजे यानी नौ घंटे से ज़्यादा समय बीतने के बाद नवनिर्वाचित सरपंच स्वामी जी ने कार्यभार संभालने की घोषणा की. देश के पंचायती राज इतिहास में संभवत: यह पहली घटना है, जब किसी सरपंच को ग्रामसभा की खुली बैठक में कार्यभार सौंपा गया हो.
 
 बेवल की यह घटना अद्‌भुत है, अनुकरणीय है. बेवल की सफलता ने देश की बाक़ी पंचायतों को एक संदेश दिया है. इसने साबित किया कि ग्रामसभा से बढ़कर कोई नहीं, न विधायिका और न कार्यपालिका. जनता सबसे ताक़तवर है. लोकतंत्र में होगा वही, जो जनता चाहेगी. यह प्रयोग गांधी जी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करता है. इसने बताया कि नामुमकिन कुछ भी नहीं, जरूरत बस एकजुट होने की है, एक ईमानदार कोशिश करने की है. शायद तभी सही मायने में हम सुशासन, और स्व-शासन का आनंद ले सकेंगे.
 
 (आभार : चौथी दुनिया) —

विनोद सिंह गढ़िया

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12 साल सुलगते सवाल

जमरानी को बनाया बड़े-बुजुर्गों की कहानी


37 साल कम नहीं होते। इंसान अपनी आधी जिंदगी जी लेता है। न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखे होंगे हल्द्वानी ने इतने लंबे सफर में और अगर कुछ यादगार है तो वह है जमरानी बांध का किस्सा। 25 सालों तक उत्तर प्रदेश तो 12 साल से उत्तराखंड में जमरानी पर राजनीति का ग्रहण लगा है।
नेताओं को बांध बनाने की नहीं, बल्कि इसके नाम पर एक अलग से विभाग को जन्म देने की जल्दी थी और आज जमरानी का यह विभाग तक अपनी युवावस्था में पहुंच गया है। इस ढांचे में बैठी फौज पर ही प्रतिमाह लगभग एक करोड़ 20 लाख खर्च होते हैं और काम सिर्फ जमरानी की फाइलों के कागज उलटना-पलटना।
वर्ष 1975 में भाबर की सिंचाई-पेयजल समस्या के निदान के लिए इस बहुप्रतीक्षित बांध को केंद्रीय योजना आयोग से मंजूरी मिली थी। उसके बाद से ही जमरानी चुनाव के लिए सबसे मुख्य हथियार बना। सियासत के संघर्ष में कभी इस हाथ तो कभी उस हाथ जमरानी को लपका गया। वर्ष 1982 में बांध के सर्वे, डीपीआर को तैयार करने के लिए हल्द्वानी के दमुवाढूंगा में उत्तर प्रदेश सरकार ने अलग से जमरानी खंड स्थापित किया और इस खंड में इंजीनियरों के साथ-साथ करीब एक सौ कार्यालयी स्टाफ भी भर दिया। विभाग चला और जमरानी की फाइलें कभी देहरादून दौड़ी तो कभी दिल्ली, लेकिन अंत में हार।
अब तक दो बार बांध की डीपीआर निरस्त हो चुकी है और अब तीसरी बार फाइल को देहरादून भेजा गया है।
37 वर्ष की लंबी अवधि में बांध बेशक बंद आंखों का ख्वाब बना है, पर भाबर के बड़े-बुजुर्गों के पास अपनी पीढ़ी को सुनाने को जमरानी की कहानी जरूर आ गई है। ब्यूरो
उत्तराखंड के पैदा होने के बाद यूपी के समय से जल रहे जमरानी के सवाल की गर्मी को यहां के नेता बस ठंडा कर रहे हैं और कुछ नहीं।


ये है तकनीकी स्टाफ

हल्द्वानी में जमरानी का एक सर्किल आफिस और एक खंड कार्यालय है। इनमें एक अधीक्षण अभियंता, दो अधिशासी अभियंता, दस सहायक अभियंता, पांच अवर अभियंताओं के अलावा तृतीय-चतुर्थ श्रेणी स्टाफ को मिलाकर कुल एक सौ कर्मचारी हैं। तकनीकी काम के नाम पर यहां कुछ नहीं। 30 साल से सिर्फ बांध के नाम पर चल रहा यह विभाग अब चंपावत जिले में राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के कार्य करा रहा है।


इन धुरंधरों के लिए नाक का सवाल
केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत और राज्य के सिंचाई मंत्री यशपाल आर्य। राजनीति के इन धुरंधरों के बीच बेशक एक पार्टी में रहने की वजह से वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन जमरानी दोनों के लिए नाक का सवाल है। दोनों मंत्रियों के पास वो विभाग हैं, जिनके आधार पर कम से कम मृत जमरानी को पुनर्जीवित किया जा सकता है, लेकिन आगे-आगे देखना है किसमें कितना है दम।

स्रोत : अमर उजाला

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
2 hours ago ·

    घी के दिए नहीं, मशाल जलाने का है समय.......

    घी के दिए नहीं मशाल जलाने का है समय चट्टान के मुहानों पर घास काटती महिला कब तक देती रहेगी पहाड़ों को अपना बलिदान उत्तराखंड के बारह साल के इतिहास में पहली बार गैरसैंण में कैबिनेट की बैठक हुई। जहां उत्तराखंड की जनता कभी राजधानी बनने का ख्वाब देखा करती थी ।

    टीवी चैनल रिपीट कर कर के बार बार कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज का बयान दिखा रहे हैं जिसमें वह पहाड़ की जनता से कहते हैं कि राम अयोध्या से लौट आए हैं वह घी के दिए जलाकर दीवाली मनाए,खुशियां मनाए । गैरसैंण मंत्रीमंडल की बैठक में व देहरादून कांग्रेस भवन में जश्न का माहौल है पटाखे छोड़े जा रहे हैं। वहीं टीवी चैनल के नीचे क्रासर में खबर चल रही है कि उत्तरकाशी में घास काटते हुए महिला की चट्टान से गिरकर मौत। एकाएक पहाड़ का वह पूरा मंजर आंखों में हो आया है, जब खुद अपनी मां, काकी व भौजी को खतरनाक पहाड़ी के मुहानों पर घास काटते हुए देख अपनी सांसे थाम लिया करते थे । थोड़ा पैर फिसला या हाथ से पकड़ी घास की मूंठ उपड़(उखड़) गई तो सीधे खाई में गिरकर चिथड़े चिथड़े होने के सिवा कोई विकल्प न था । और वह महिला ऐसी मुश्किल चट्टान पर उस लहराती हुई घास को काटने जाती है जिस तक किसी जानवर तक की पहुंच नहीं हुई रहती। पूरे जंगल की खाक छानने व दिन भर जंगल में भटकने फिरने के बजाय यह महिलाएं जान हथेली पर लेकर ऐसी चट्टानों में किसी सर्कस वाली की भांति चले जाया करती थी।

    मुझे याद है पूरी याददाश्त के साथ याद है कि गांव की वही बहू ऐसी चट्टानों की घास को काट लाने का साहस रखती थी जिसके घर में सास से बहुत कलह रहता था। जिसके घर में पेट भर के मोटे अनाज की रोटी तक नहीं मिलती थी। अच्छी लहराती हुई घास लेकर जंगल से जल्दी घर लौट जाऊं ताकि पेट भर खाना मिल सके व छोटे बच्चे को वक्त पे दूध पिला सके इसी गरज से यह गांव की काकी भौजी ऐसी जानलेवा चट्टानों का रुख किया करती थी। कई बार ऐसी चट्टानों में ही बकरियों के लिए पत्ते वाली घास (झाड़ी)उगा करती थी जिसे हमारे गांव की लछिम काकी व प्रेमा काकी ही ला पाते थे। पूरा गांव उन्हें रूख्याव (चट्टानों की एक्सपर्ट) नाम से नवाजते थे।

    एक वाकिया और सुनाना चाहूंगी, ताकि पहाड़ के हालातों को आप सब भी महसूस कर सकें, कैबिनेट तक पहुंची हमारी महिला नेत्री महसूस सकें जिन्होंने कभी पहाड़ के जीवन को जिया व महसूसा ही नहीं और बन गई महिला सशक्तिकरण मंत्री। वाकिया यूं है कि पिछले दिनों राजधानी स्थित एफआरआई भवन के शानदार एसी कमरे में जब भ्रूण हत्या पर हुई कार्यशाला चल रही थी जिसमें दूर दराज के गांवों से दो दिन व एक रात की लंबी बस की यात्रा कर काकी भौजियों को एनजीओ के नेताओं द्वारा पहुंचाया गया था। गद्दीदार कुर्सियों में जो स्वर्ग सरीखी नींद में डूबी थी । मैने पूछा कि कैसा लग रहा है राजधानी में। तो मासूम बच्चे सी मासूमियत लिए तपाक से बोल उठीं कि अहो.. .. .. .. शहर में ले कति नख लागुंछे (शहर में भी क्या कहीं बुरा लगता है)।
    उसकी सौ फीसदी नकार के जवाब ने उसकी उस पीड़ा को खोल के रख दिया जिसे वह पहाड़ से पहाड़ी जीवन में रोजबरोज झेलती है। उसकी नजरों में शहर इसीलिए कभी बुरा नहीं हो सकता था क्योंकि शहर में लोग बैठे रहते थे। उसकी नजर में शहर में रहने वाली औरत का खाना बनाने के सिवा काम ही क्या था, जिसे वह कभी काम के श्रेणी में नहीं रखती थी। यह इसलिए क्योंकि सुबह पौ फटने से उस महिला के काम की शुरूआत हो जाती है और दिन डूबने तक वह अनथक काम में लगी रहती है।

    अब सवाल यह उठता है कि क्या राज्य बनने के इस बारह साल के अरसे में क्या वाकई भाजपा कांग्रेस दोनों की सरकारें बनवास पर गई हुईं थी, क्या वाकई अब पहाड़ के भाग जागने वाले हैं, क्या वाकई पहाड़ की चट्टानों से गिरने को मजबूर इन महिलाओं के भाग अब संवर जाएंगे। सतपाल महाराज व उनकी महारानी जिन्होंने पिछले हफ्ते हुई अपने बेटे की शादी में एक रात में ही दो करोड़ की बिजली फूक दी, जिनके बेटे की शादी किसी अर्धकुम्भ से कम नहीं थी क्या अब वह बताएंगे पहाड़ की गरीब जनता को कि राम अयोध्या आ गए घी के दिए जलाओ। महिला सशक्तिकरण विभाग की कमान संभाले उनकी महारानी पत्नि क्या पहाड़ की इस औरत को घास व चारे के संकट से मुक्ति दिला पाएगी। वहीं दूसरी ओर दूसरी महिला कैबिनेट मंत्री इंदिरा ह्दयेश जिसे हल्द्वानी में मध्यम वर्ग की शहरी महिलाओं के तीज व करवा चौथ के उत्सवों में जाने से फुरसत नहीं क्या वह पहाड़ की महिला को उसकी इन जानलेवा चट्टानों से मुक्त कर पाएंगी ?

    हम संसद विधानसभा में किन महिलाओं के आरक्षण व सशक्तिकरण की बात करते हैं ? जो यहां पहुंचकर महिला हितों को भूल जाती हैं,या फिर जिन्हें महिला के जीवन का क ख ग तक मालूम नहीं । अपनी राजनीति चमकाने या मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का अपने अंक बढ़वाने जिस भी गरज से गैरसैंण में कैबिनेट की यह बैठक हुई है महिलाओं के संदर्भ में कई कई सवाल छोड़ गई है, कि जो राज्य यहां की महिलाओं की ही लुटी हुई अस्मत पर बना हो, जिस राज्य के लिए यहां की महिला ने अपने नौजवान बेटों की बलि दी हो वहां की महिला को बारह सालों में यहां की सरकार ने क्या यही कम्पनसिएशन दिया कि वह चट्टान से गिरने को विवश हो । वह शराबी पति की मार से प्रताडि़त हो, वह बेरोजगार बेटे का दुख सीने में लेकर चले, वह वहशी दरिंदों के हाथों अपनी बेटियों की अस्मत लुटते हुए देखे ।

    घी के दिए जला दीवाली मनाने की सलाह देने वाली सरकार जरा माथे पर बिना बल डाले भी सोचे तो जवाब उसके सामने होगा कि आखिर दिया क्या है उसने इन बारह सालों में पहाड़ की महिला को ? क्या अपना राजस्व बढ़ाने की कीमत पर गांव मुह्ल्लों में कच्ची शराब की दुकानें, या फिर अस्मत लूटने वाले अनंत कुमार व बुआ सिंह जैसे दरिंदों को प्रमोशन व सम्मान ।

    पहाड़ की जनता यह घी के दिए नहीं मशाल जलाने का समय है। जागो इन लुटेरे नेता मंत्री व नौकरशाहों को पहचानो ।

    (लेखक : सुनीता भट्ट)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अगर इस नवोदित प्रदेश उत्तराखंड से जनविरोधी पार्टियों भाजपा कांग्रेस को दफन नहीं किया गया तो ये प्रदेश अंधाधुंध लूट,संसाधनों के दोहन,और केन्द्रीय पैसों की लूट का अड्डा बनेगा लंपट कांग्रसी भाजपायी छुटभैये नेता दलाली ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं ।
 
 क्षेत्रीय आंदोलन और सारगत मांगों को अनदेखा कर झूठे हवाई नारे उछालते हैं, एन जी ओ गत परामर्श-चिंताऐं है जो प्रदेश के हित के लिए नहीं प्रोजेक्ट दाबने के लिए हैं । जनता तबाहो-बर्बाद है छोटे मंझोले दुकानदार परेशान हैं । नौकरीपेशा एक एक पैसा जोड़ के मकान बनाने अपने बच्चों की शिक्षा-रोजगार के लिए परेशान हैं किसानों की जमीन पर दलालों की नजर। एक कमाने वाला पांच खाने वाले।शहर सभी बाशिंदों की जरुरी आपूर्ति में फेल हैं ।
 
 मुस्लिम आबादी के क्षेत्रों की दशा और खराब है ।महज 2 फीसदी लोग हमारे नियामक हैं और नोटों के अंबार पर बैठे हैं ।इनको पहचानो ! नये उत्तराखंड के लिए लड़ाई जारी है ।हम अपने रोज की जिंदगी के साथ इस लड़ाई के लिए भी वक्त दें । जो भी हमारे लिए लड़ रहा है उसका साथ दें । पहचानो इस राज्य के रखवालो और लुटेरों को ! फर्क तों करो दोस्त !
 
 (आभार एक गधाकर मित्र)[img alt=Updated by @[1245348995:2048:Chandra Shekhar Kargeti] अगर इस नवोदित प्रदेश उत्तराखंड से जनविरोधी पार्टियों भाजपा कांग्रेस को दफन नहीं किया गया तो ये प्रदेश अंधाधुंध लूट,संसाधनों के दोहन,और केन्द्रीय पैसों की लूट का अड्डा बनेगा लंपट कांग्रसी भाजपायी छुटभैये नेता दलाली ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं । क्षेत्रीय आंदोलन और सारगत मांगों को अनदेखा कर झूठे हवाई नारे उछालते हैं, एन जी ओ गत परामर्श-चिंताऐं है जो प्रदेश के हित के लिए नहीं प्रोजेक्ट दाबने के लिए हैं । जनता तबाहो-बर्बाद है छोटे मंझोले दुकानदार परेशान हैं । नौकरीपेशा एक एक पैसा जोड़ के मकान बनाने अपने बच्चों की शिक्षा-रोजगार के लिए परेशान हैं किसानों की जमीन पर दलालों की नजर। एक कमाने वाला पांच खाने वाले।शहर सभी बाशिंदों की जरुरी आपूर्ति में फेल हैं । मुस्लिम आबादी के क्षेत्रों की दशा और खराब है ।महज 2 फीसदी लोग हमारे नियामक हैं और नोटों के अंबार पर बैठे हैं ।इनको पहचानो ! नये उत्तराखंड के लिए लड़ाई जारी है ।हम अपने रोज की जिंदगी के साथ इस लड़ाई के लिए भी वक्त दें । जो भी हमारे लिए लड़ रहा है उसका साथ दें । पहचानो इस राज्य के रखवालो और लुटेरों को ! फर्क तों करो दोस्त ! (आभार एक गधाकर मित्र) height=298 width=398]http://sphotos-e.ak.fbcdn.net/hphotos-ak-ash4/s480x480/400185_10151251930549819_696906467_n.jpg

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लोक तंत्र मे यदि व्यक्ति पूजन होता है तब यह तानाशाही से भी भयानक होता है, तानाशाही में उम्मीद कायम रहती है,लेकिन लोकतंत्र मे उम्मीद की सुविधा भी नही मिलती l

एक नई पार्टी का उदय हुआ जो लोकतंत्र के लिये अच्छा संकेत है, फिर उस पार्टी के समर्थक लोगों को देखा तो छाती पर अर्विन्द केजरीवाल की फोटो चिपकाए हुए मानो कांग्रेस के गाँधी परिवार की भक्ति को चुनौती देने के लिये एक नया भगवान जनता को मिल गया हो !

कभी-कभी अचरज होता था कि कैसे अम्मा की हजारो करोडो के हेरा-फेरी पर भी या फिर कलमाडी को कम-ऑन वेल्थ के बाद भी लोगो का समर्थन कैसे मिलता है ? राजा का भी 2 ज़ी की जेल के बाद ऐसा स्वागत हुआ कि जितना भारतीय टीम का विश्व कप जीतने पर भी नही हुआ होगा ?

इन सबका जवाब सिर्फ एक हैं वह है इस देश में अभी भी व्यक्ति पूजा को प्राथमिकता है l जब एक व्यक्ति की छवि मन और दिमाग पर हावी हो जाती है तो उसके आगे पाप, कुकर्त्य और गलत फैसले भी ढक जाते है l हकीकत यह है कि गुलामी और कमजोरी हमारी आत्मा मे घर कर चुकी है, समाज मे अच्छाई और बुराई के पुतले बनाकर् हम हर वक्त उनकी पूजा करते है या फिर उनका दहन भी करते हैं !

यदि केजरीवाल नीत आम आदमी की पार्टी सत्ता तक पहुंच भी जाती है, वैसे यह मुश्किल काम है, खैर अलबत्ता ऐसा हो और हमारा यही भक्ति भाव रहा तो वह दिन भी दूर नही होगा जब यही आम आदमी केजरीवाल के पुतले फूंकता मिलेगा ?

याद नही मिश्र मे क्या हुआ हुस्नी मुबारक को सत्ता से बेदखल कर जिस मोर्सी को सत्ता तक पहुंचाया, अब वह भी मुबारक जैसा ही बनता दिख रहा है l कहा गया Power corrupts and absolute power corrupts absolutely. इसलिये विचारो और नीतियो का अनुसरण करना जरूरी है मानव तो केवल निमित्त है l

(आभार : राकेश नौंगाई)

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चन्द्रशेखर करगेती
कैसा विकास चाहते हो उत्तराखण्ड ?
 
 किसी मित्र को याद हैं यह गोष्ठी.....इस गोष्ठी में कुछ ऐसी बाते हमारे द्वारा रखी गयी थी जो कि उत्तराखण्ड की सामाजिक राजनैतिक दशा दिशा तय करने में मील का पत्थर साबित होने वाली साबित हो सकती है !
 
 उसी से सम्बन्धित कुछ बातें कल वापस याद दिलाऊंगा ! उस समय की कही गयी बातें आज भी जेहन में है.......
 
 कल कुछ पुरानी बाते नये परिप्रेक्ष में याद दिलाऊंगा....उम्मीद करता आपके जेहन में अभी याद ताजा होंगी......याद करें तो....


 

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From : Chandra Shekhar Kargeti

कौन हैं जिम्मेदार ?
 
 पौंटी चड्ढा की ह्त्या के बाद से ही उत्तराखण्ड में चड्ढा ग्रुप के धंधो की परते उधेडने का सिलसिला शुरू हो गया है, रेता-बजरी, शराब से लेकर खडिया तक में उसकें कानून विरोधी कामों के जरिये किये करोड़ों के वारे न्यारे किये जाने के गोरखधंधे के खेल को परत दर परत अब हर रोज एक एक कर उधेडा जा रहा हैं l बागेश्वर में खडिया ले जाने को सिविल और फॉरेस्ट की जमीन पर तीन किमी लंबा रोप वे लगा जाता है, और हर समय चाक चौबंद रहने वाले, लोगों की सांस सांस का हिसाब रखने वाले स्थानीय प्रशासन को भनक तक नहीं लगती या फिर जानबूझकर इन तथ्यों को अनदेखा किया जाता रहा ? ऐसे में अफसरों का यह कहना कि यह तथ्य उनकी जानकारी में नहीं है, जाकर देखेंगे गहन चिन्ता का विषय हो जाता है ? आखिर राज्य को किस और ले जाना चाहती है नौकरशाही ?
 
 अफसरों की खनन और भू माफियाओं से नौकरशाहों की यह मिलीभगत राज्य के लिये शुभ संकेत नहीं है, खडिया खनन के कारोबार में इस प्रकार की हील हवाली के लिये सीधे सीधे उद्योग विकास विभाग के साथ साथ स्थानीय प्रशासन को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिये ! यदि पौंटी के साथ साथ अन्य लोगों की इस प्रकार की कानून विरोधी हरकतों की भनक अगर सरकारी महकमों को नहीं है तो दो और से अंतरराष्ट्रीय एवं अंतरराज्यीय सीमा से घिरे इस प्रदेश के लिये शुभ संकते नहीं है l इन सबके लिये मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है, जो सब कुछ जानते हुए भी पिछले बारह सालों से इस खेल को उजागर करने के बजाय पौंटी के इंटरव्यू छापने में व्यस्त था ! अब पौंटी की मौत के बाद उसके कारनामों को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है जैसे आम जनता  मरे शेर के साथ फोटो खिंचवा कर अपने को बहादुर समझती है वही काम इस समय मीडिया कर रहा है,पौंटी केवल मात्र इस राज्य की सिस्टम की खामियों का एक प्रतीक था, अभी पौंटी जैसे और महारथी भी है जो मीडिया को दिखाई तो दे रहे हैं पर उनके खिलाफ लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है l श्रीनगर में बन रही बिजली परियोजना इसका जीता जगता उदाहरण है l   
 
 पौंटी के इन काले कारनामों पर सरकारी हुक्मरान अपना पिंड छुडाने को कह रहें है कि चड्ढा ग्रुप को खनन के लाईसेंस यूपी ने दिये थे, जो यह साबित करता है कि राज्य का नाम भले ही उत्तराखण्ड हो गया हो, लेकिन इसके हालात अभी भी 12 साल पहले के यूपी से इतर नहीं है जिससे आजीज आकार इस राज्य के आम आदमी ने जनसंघर्षो के द्वारा इस राज्य को पाया l  सबसे दुखद: स्थिति तो यह कि अफसरों के इस गैर जिम्मेदाराना बयान पर जनता में से और जनसरोकारों की बात करने वाले नेताओं की और से कोई विरोध का स्वर आता है !
 
 जाहिर है कि समय समय पर सत्ता पर काबिज रहने वाले काँग्रेस और भाजपा के नेता और और नौकरशाह ऐसा कुछ करना ही नहीं चाहते जिससे इस राज्य के हालात में कुछ बेहतरी हो ! इस सब पर राज्य के नौकरशाही के तो कहने ही क्या, जिस राज्य में राजनैतिक नेतृत्व स्वयं घर को डुबोने में लगा हो तो मोटी तोंद वाले नौकरशाह क्यों कर उसे बचाने लगेंगे ?
 
 अपने उत्तराखण्ड में सरकार का हाल धृतराष्ट्र से भी गया बीता है, इस राज्य में समय-समय पर नौकरशाही के शीर्ष पदों पर स्थानीय नौकरशाहों की नियुक्ति ना किये जाने पर जनमानस की और से राज्य के राजनैतिक नेतृत्व पर कई बार सवाल उठाये गये और गाहे बगाहे पी.सी.शर्मा, सुभाष कुमार, ओमप्रकाश, चंद्रेश यादव, सचिन कुर्बे,  रवनीत चीमा, प्रत्युष कुमार, हरवीर सिंह, राकेश शर्मा, हसन, विनय पाठक जैसे नौकरशाहों द्वारा प्रशासनिक तथा वित्तीय अनियमितता किये जाने की चर्चा गाहे बगाहे  सामने आने के बावजूद भी सरकार द्वारा उंनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जाकर बल्कि उन्हें पदोन्नति देकर सम्मानित किया गया तो जनता किससे उम्मीद करे ? राज्य में अवैध पेड़ कटान, अवैध खनन, भ्रष्टाचार, गंभीर अपराध पर भी ये नेता और नौकरशाह अपनी तरफ से कुछ नहीं करते l मामला जब सामने आता है तो नेता और नौकरशाह बडी बेशर्मी से कहते है कि मामला जानकारी में नहीं है और जांच करायेंगे ! जो शायद कभी भी दोषी को पकड़ पाये, पिछले बारह सालों में हमारा राज्य इस मामले में पाकसाफ है खैर ! 
 
 अब सवाल उठता है कि जब सरकार, नेता और नौकरशाहों को अपने क्षेत्र, विभाग में होने वाले हर अच्छे बुरे काम की जानकारी नहीं रहती है, तो इनके वहाँ होने का मतलब ही क्या हैं ? अब राज्य की जनता को चाहिये कि ऐसे निकम्मे और भ्रष्ट अधिकारियों के पेंच कसे और इनसे कहें कि अपनी आँखों में बंधी नोटो की पट्टी को उतार फेंके, नहीं तो इस राज्य से अपने घर जाने को तैयार रहे l
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  • हरीश रावत, Sudarshan Rawat, Mujib Naithani and 30 others like this.
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  • Mujib Naithani बहुगुणा सरकार ने बीच सत्र में जन हित में किये 35 प्रवक्ताओं के स्थानांतरण .....
    प्रमुख सचिव राकेश शर्मा ने डिग्री कॉलेज के 35 प्रवक्ताओ के स्थानांतरण जन हित में सत्र के बीच ही कर दिए / जन हित की बानगी देखिये 35 में से 31 स्थानांतरण पहाड़ों से सीधे मैदान...See More
    Saturday at 11:49pm · Like
  • Dinesh Mansera namdhari ke dhandho ka kyaa?Yesterday at 6:06am · Like
  • चन्द्रशेखर करगेती Dinesh Mansera जी, नामधारी तो केवल मात्र निम्मित है, उंनके जैसे और ना जाने कितने प्यादे उत्तराखण्ड में है, नामधारी की गिरफ्तारी के बाद ही उसके अवैध कामों और हथियारों की चर्चा की जा रही है, जैसे उसके ये सब काम धरती के नीचे हो रहे थे,मीडिया को भी उनका ना...See More23 hours ago · Edited · Like · 2
  • Rakesh Naugain फिर बरखा रानी का नाम ले लिया-पता नही अभी-अभी मोहतरमा को बेस्ट एंकरैंग का अवार्ड मिला है और वह भी सिर्फ अपने टेलेंट के बूते (इसमे राडिया जी कोई हाथ नही है) मीडिया बेशर्म है और सोशल मीडिया बेशर्मों को शर्मीन्दा कर देता है इसलिये तो न यह सरकार का चहेता है और न कलियुग के युद्धिष्ठर (मीडिया) का.13 hours ago · Like · 1

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From : Chandra Shekhar Kargeti.

2 जी हो या कॉलगेट, नोएडा जमीन विवाद, हर जगह पत्रकार मौजूद मिलेंगे (खबर के लिये नही, अपने हिस्से के लिये) !
 
 अब तो बहुत से पत्रकारों ने अपनी हिस्सेदारी भी तय कर ली है, अपने काँग्रेस वाले राहुल बाबा ने कहा सिस्टम खराब है, किसी ने शायद यह जानने की कोशिस नहीं कि आखिर यह सिस्टम है क्या ? लेकिन महाराज इस देश में सिस्टम का निर्माण पत्रकार-नेता और बाबू लोगों की इस तिकडी से होता है,  यही सिस्टम भी है, इन्होने जो कह दिया वह सही है !
 
 इन लोगों की बेबाकी और बेबाकी और मस्ती तो देखिये, मीडिया मतलब सामने वाले के मुंह मे माइक डाल कर बेतुके सवाल करो और फिर मूर्खता से उनका उल-जलूल मतलब भी निकालो !
 
 इस देश मे 26/11 के मातम पर मीडिया "जिम्मेदारी" निभाता है, कुँए मे गिरे गरीब के बच्चे को "लाइव शो" बना उसकी बेचारगी को बेचता है,आपकी राय और SMS जैसे हथकंडो के जरिये आम आदमी को भी इसी दलदल मे खींचता है l
 
 यह मीडिया ही है जो जेड गुडी की मौत का जश्न बाजार मे बेचता है ! डायना की मौत पर मीडिया को किसी अभिनेता ने गिद्ध कहा था,पर हकीकत में गिद्ध कभी मारता नही, वह नोच खाने को किसी के मरने का इन्तजार करता है और कोमोबेस आज मीडिया वही काम कर रहा है ? 
 
 मीडिया "शर्म" का कारोबार करने लगा है, बेशर्म लोग मीडिया से शर्म खरीदते है और शर्मसार इनसे शर्म बचाते है, कभी किन्नरो को देखकर घरो की महिलाए घर के दरवाजे बन्द कर लिया करती थी, अब मीडिया को आहट न लगे इस डर से लोग घर की इज्जत को घर मे ही दफ्न कर देते है !
 
 (आभार : राकेश नौगाई)
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  • राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी', Umesh Chandra Pant, घुघूती बासुती and 34 others like this.
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  • Santosh Singh Negi इस देश में सिस्टम का निर्माण पत्रकार-नेता और बाबू लोगों की इस तिकडी से होता है, यही सिस्टम भी है, इन्होने जो कह दिया वह सही है !Friday at 7:26pm · Like · 2
  • Rakesh Naugain वैसे मीडिया हाका लगाने का काम भी करता है (हाका लगाना -पुराने समय मे राजा बहादुर और गोरा साहिब जब शिकार करने निकलते थे तब गॉव ढोल और कनस्तर बजा कर शोर से शिकार को खुले मैदान की ओर लाने का काम करता और फिर बहादुर सामंत य गोरा साहिब उसका शान से शिकार करते ...See MoreFriday at 10:09pm · Like · 4
  • Sudhir Chandra Nautiyal और कभी कभी तो जनता को उनके ( मीडिया के )तर्कों और विश्लेषणों मे झुकाव भी नजर आता है ...जिसका  आत्ममुग्ध... चैनल वाले...अनुमान भी नही कर पाते ..Saturday at 7:15pm · Like · 1
  • Deekeshwar Dobhal sahi kaha, is loot tantra mein loot ka hissa har kisi ko cchaiye....Saturday at 8:52pm · Like · 1

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती shared a link.November 28आज का दैनिक हिन्दुस्तान पढ़ा अपने उपपा वाले श्री पीसी तिवारी एवं लोकवाहिनी के श्री शमशेर सिंह बिष्ट जी कहते है कि......
 
  "पहाड़ की बर्बादी पर खड़ा हुआ पौंटी का साम्राज्य"
 
 मैं तो कहता हूँ साहब मरने के बाद आदमी का ऑपरेशन करने की आदत हम पहाडियों की अब तक गयी नहीं !
 
 अरे साहब राज्य गठन के 12 साल बाद भी हम पौंटी जैसे लोगों को आगे बढाने में मददगार रहे उनके रहनुमाओं को हम चिन्हित तो कर चुके हैं, वो भी मन ही मन में, हम राज्य की जनता के सामने उनका नाम सामने नहीं लायेंगे, हम भी कसम खाए बैठे है कि जब तक पूरा पहाड़ बर्बाद नहीं होगा हम जुबान नहीं खोलेगें ?   
 
 साहब पौंटी जैसे और ना जाने कितने लोग हैं इस उत्तराखण्ड में जो उसके लोगों को, पहाड़ को  बर्बादी के कगार पर खड़ा करने के सीधे सीधे जिम्मेदार है पर हम पहाड़ी माटी मानुष के पक्षधर ऐसे लोगों के पद पर रहते हुए उंके गिरेबान पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं रखते ?
 
 मेरे जैसे कई लोग निराश हैं, अब ना तो राज्य आंदोलनकारियों में वो जज्बा है ना ही इस राज्य के जन जंगल जमीन और माटी मानुष  के हक हकूको की बात करने वाले नेताओं के बस में, और ना ही नयी पीढे के !
 
 हाँ इन अधिकारियों, और पौटी जैसे लोगों के इस संसार से चले जाने के बाद मैं दैनिक अखबारों में इनके कार्यकलापों का ऑपरेशन करता हुआ एक और आर्टिकल पढ़ने को बेताब रहूंगा......
 
 जल्दी लिखना साहब !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती कोठी बड़ी या जनता के मुद्दे ?
 
 जिन्हें राज्य की जनता के हितों के लिए सडको पर उतरना चाहिए था, विधानसभा में जल, जंगल, जमीन के मुद्दे उठाने थे, वे राजधानी में अपने रहने को कोठी को मुद्दा बना रहें, जैसे राज्य में इससे बड़ा तो कोइ और मुद्दा तो है ही नहीं ?
 
 मुझे ठीक से याद है, तब राज्य बना बना था, पहला विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुआ था और विधायक निवास के रूप में द्रोण होटल को चुना गया था,, ऐसे में एक विधायक द्वाराहाट से स्व. श्री विपिन त्रिपाठी थे, जब विधायक निवास आवंटन की बारी आयी तो उन्होंने विधायक होस्टल में कमरा लेने से मना कर दिया और कहा कि देहरादून तो अस्थायी राजधानी है, जब तक गैरसैंण को राज्य की स्थायी राजधानी घोषित नहीं कर दिया जाता वे देहरादून में किसी भी प्रकार के सरकारी निवास में नहीं रहेंगे, और वे अपने पुरे विधायक काल में मृत्यु पर्यंत एक किराए के कमरे में रहें !
 
 काश अपने नेता प्रतिपक्ष जो स्वयं उस समय विधायक थे, और वाकया भी उनके सामने का ही है, वे भी उसी जगह के निवासी है जहां के स्व. विपिन दा थे, पर दोनों की सोच में कितना फर्क, एक जनता को पूरी तरह समर्पित तो दुसरा जन मुद्दों को हासिये पर रख कोठी को मूंछ का सवाल बनाने वाला !
 
 कैसे कटेंगे ये पांच साल ? — with Prem Sundriyal and 70 others.कोठी बड़ी या जनता के मुद्दे ? जिन्हें राज्य की जनता के हितों के लिए सडको पर उतरना चाहिए था, विधानसभा में जल, जंगल, जमीन के मुद्दे उठाने थे, वे राजधानी में अपने रहने को कोठी को मुद्दा बना रहें, जैसे राज्य में इससे बड़ा तो कोइ और मुद्दा तो है ही नहीं ? मुझे ठीक से याद है, तब राज्य बना बना था, पहला विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुआ था और विधायक निवास के रूप में द्रोण होटल को चुना गया था,, ऐसे में एक विधायक द्वाराहाट से स्व. श्री विपिन त्रिपाठी थे, जब विधायक निवास आवंटन की बारी आयी तो उन्होंने विधायक होस्टल में कमरा लेने से मना कर दिया और कहा कि देहरादून तो अस्थायी राजधानी है, जब तक गैरसैंण को राज्य की स्थायी राजधानी घोषित नहीं कर दिया जाता वे देहरादून में किसी भी प्रकार के सरकारी निवास में नहीं रहेंगे, और वे अपने पुरे विधायक काल में मृत्यु पर्यंत एक किराए के कमरे में रहें ! काश अपने नेता प्रतिपक्ष जो स्वयं उस समय विधायक थे, और वाकया भी उनके सामने का ही है, वे भी उसी जगह के निवासी है जहां के स्व. विपिन दा थे, पर दोनों की सोच में कितना फर्क, एक जनता को पूरी तरह समर्पित तो दुसरा जन मुद्दों को हासिये पर रख कोठी को मूंछ का सवाल बनाने वाला ! कैसे कटेंगे ये पांच साल ? height=398Like ·  · Share · 3 hours ago ·
  • Harish Rawat, Rajiv Nayan Bahuguna, Akela Kant and 20 others like this.
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  • चन्द्रशेखर करगेती कोठी के लिए ऐंठ ऐसे रहें है जैसे दहेज में लेकर आये हो....3 hours ago · Like · 1
  • Dinesh Belwal नेता जी कें कोठी चहेँ। मथबै रुमाली रोटि चहेँ।जनता हरै परेशान,क्वे छ भुख कपै निछ छान।पेँन्सनै है रुमै रान ।ननतिनो कै पालिँ कैसी।नेता जी कै कोठि चहैँ।कोठि दियो मिकै कोठि दियो---2 hours ago · Like · 2
  • Rakesh Madhwal क्या आशा और क्या आशँका । सत्र दर सत्र अच्छे अभिनेता  जरुर निकल रहै हैँ ।           2 hours ago · Like · 1
  • Anand Patwal  yadi ye neta apne kshetra ke vikas keliye ladte to taaliyo ke gadgadahat ke hakdar hote,par ye kya!!! ab sir peeto baithkar,apni galti par(aankh bandkar jo vote diya tha inhene).

 

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